Here is my favourite story on ‘One Little Soldier’ written in Hindi language.
सूरज सिर पर आ गया । धूप तेज हो गई । सुरजा तनिक भी नहीं घबराया । उसने जल्दी-जल्दी रास्ता पार करने के लिए एक नई तरकीब निकाली । जब उसे ऊँचाई पर चढ़ना होता तब तो वह लकड़ी के सहारे संभलता हुआ, धीरे-धीरे चढ़ता परंतु जब उसे नीची घाटी में उतरना होता तब वह ढाल पर बैठकर फिसलना प्रारंभ कर देता और मोटी लकड़ी को दोनों हाथों में आगे से सहारे की तरह पकड़ लेता ।
तेज ढाल आने पर वह लकड़ी से ब्रेक लगाने लगता । इस तरह वह रास्ता अधिक शीघ्रता से तय करने लगा । ऐसी ही एक नीची घाटी से फिसलते समय उसकी नजर दूर सामने की ओर आगे बढ़ते जा रहे कुछ सिपाहियों पर पड़ी । समतल धरती पर पहुँचते ही सुरजा जल्दी से सिपाहियों की ओर दौड़ा ।
वह जल्दी-जल्दी उन तक पहुँच जाना चाहता था क्योंकि देर करने से वे आसपास की किसी पहाड़ी के आगे-पीछे या ओट में चले जाते और फिर उन्हें पा सकना असंभव हो जाता । उसने उन्हें देखते ही यह पहचान लिया था कि वे शत्रु नहीं, हिंदुस्तानी सिपाही थे ।
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सिपाहियों के पास आते-आते, पीछे से सुरजा ने आवाज लगाई, ‘रुक जाओ । रुक जाओ !’ सिपाही रुक गए । सुरजा पास आ गया । वह हाँफ रहा था और उसकी कलाई में अटकी हुई लालटेन हिल रही थी । सिपाही आश्चर्यपूर्वक इस निर्जन इलाके में एक छोटे-से बच्चे को देखकर परेशान हो गए ।
”तुम कौन हो ?” उनमें से एक ने सवाल किया । ”मैं….मैं….हूँ…..सुरजा हूँ माँगचिंग गाँव से आया हूँ ।” सुरजा हाँफ रहा था । “मांगचिंग ?” एक सिपाही ने दूसरे का मुँह देखा, “माँगचिंग गाँव में तो अपनी चौकी है । वह तो यहाँ से कम-से-कम तीस किमी दूर है ।”
अब तक सुरजा का हाँफना थोड़ा कम हो गया था । उसने कहा, ”मैं तुम जैसे ही एक सिपाही की खोज कर रहा हूँ । वह मेरा दोस्त है । उसका नाम दयाराम है । वह माँगचिंग चौकी पर काम करता था । सुनते हैं, वह शत्रुओं के हाथ पड़ गया है ।”
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”ओह !” उनमें से एक सिपाही बोला । फिर उसने अरे सिपाहियों की ओर देखा और कहा, ”इसका मतलब यह है कि शत्रु की फौजें लगभग सत्तर किमी तक घुस आई हैं ।” फिर वह सुरजा से बोला “लड़के, तुम घर जाओ ! हम दयाराम की तलाश करते हैं ।”
“नहीं,” सुरजा ने निडर होकर उत्तर दिया ”मैं अपने दोस्त की खोज जरूर करूँगा । तुम भी उसकी खोज करो, पर मुझे वापस जाने की सलाह मत दो ।” सिपाहियों को सुरजा के साहस पर खुशी हुई । एक सिपाही बोला ”खैर ! हम तुम्हें नहीं रोकते, पर यह तो बताओ, तुम्हारे पास खाने-पीने को भी कुछ है या नहीं ?” सुरजा ने जवाब दिया, ”नहीं । मुझे बहुत भूख लगी है ।”
”अच्छा, आओ ! पास ही अपनी चौकी है । वहाँ चलकर पहले कुछ खाओ । कुछ सामान अपने साथ में लो । फिर अपने मित्र की खोज में चले जाना । हम भी खोज-खबर रखेंगे ।” सुरजा उनके साथ चल दिया । वह रास्ता पहचानने की कोशिश करता जाता था, ताकि आवश्यकता पड़ने पर इस चौकी पर लौट सके ।
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रास्ते में सिपाही सुरजा से बातें करते गए । बीच में उन्होंने एक गीत भी गाया जिसमें सुरजा ने भी अपनी धुन मिलाई…………………. सारे जहाँ से अच्छा, हिंदोस्ता हमारा । हम बुलबुलें है इसकी, ये गुलिस्ताँ
हमारा । चौकी पर पहुँचने के बाद उन सिपाहियों ने सुरजा को भरपेट खाना खिलाया ।
फिर उसे एक फौजी थैला दिया, जो पीठ पर लटका लिया जाता है । उन्होंने सुरजा को बिस्कुटों के कुछ पैकेट, एक दियासलाई, भूख न लगने की गोलियाँ और ताकत की दवाई दी । सुरजा ने उन्हें थैले में रखा तथा ”जय हिंद” कहकर वह फिर दयाराम की खोज में चल दिया ।
अब उसमें नई ताजगी और उत्साह था क्योंकि भूख मिटने के साथ-साथ आगे के लिए खाने का इंतजाम भी हो गया था । उसे सबसे अधिक खुशी तो इस बात की थी कि उसे दियासलाई मिल गई थी । रात होने पर अब वह लालटेन जला सकता था और रात में भी दयाराम की खोज जारी रख सकता था ।
चौकी से दूसरी दिशा में चलते हुए उसने कई पहाड़ियों पार कीं । धीरे-धीरे शाम होने लगी और सूरज ठंडा पड़ने लगा । सुरजा लगन के साथ बढ़ता ही रहा । जब साँझ का धुँधलापन बढ़ने लगा तब उसने लालटेन जला ली । अब वह ऊँचे-नीचे रास्तों पर संभलकर चलने लगा ।
चलते-चलते सुरजा एक स्थान पर रुका । वहाँ से एक ओर तो खाईनुमा रास्ता चला गया था और दूसरी ओर की पहाड़ी में एक गुफा सी दिखती थी । सुरजा असमंजस में पड़ गया – वह आगे बढ़ जाए या गुफा में तलाश करे । हो सकता है, शत्रुओं ने इसी गुफा में दयाराम को कैद कर रखा हो !
ठोड़ी पर हाथ रखे, देर तक सोचने-विचारने के बाद सुरजा ने गुफा में भीतर घुसकर दयाराम की तलाश करने का निर्णय किया । उसने पीठ पर बँधा हुआ फौजी थैला संभालकर ठीक किया, लट्ठ मजबूती से पकड़ा और चौकन्ना होकर वह गुफा में घुस गया ।