Here is a moral story on ‘Distress for Not Being Sick ’ written in Hindi language.
बीमार आदमी सहानुभूति का पात्र होता है । उसे देखकर लोग ट्रेन में अपनी सीट छोड़ देते है, बसों में लोग खड़े-खड़े सफर करते है और बीमार आराम से बैठा होता है । मैंने कई बार कोशिश की,
कि मैं बीमार हो जाऊँ । एक बार तीन लीटर दूध पी गया ।
सोचा था, सुबह डायरिया हो जाएगा । पत्नी को सेवा का अवसर मिल जाएगा, घर पर मित्रों की भीड़ जमा हो जाएगी । लोग हमदर्दी से पूछेंगे, ”कल शाम तक तो आप भले-चंगे थे, अचानक कैसे बीमार हो गए ?” कोई कहेगा, ”मौसम ठीक नहीं चल रहा हे, जरा खाने-पीने में थोड़ा परहेज रखें ।” उस समय मेरी स्थिति सभा के अध्यक्ष की होगी, एक बीमार अध्यक्ष और स्वस्थ सभा की मेरी अध्यक्षता ।
मैं पेट में उठती मरोड़ को अपने चेहरे पर उभारूँगा और बड़ी दिलेरी से कहूंगा, ”इनसान का शरीर हाड़-मांस का है, बीमारी का क्या भरोसा, कभी भी आ जाए ।” लेकिन मुझे बड़ी निराशा हुई । तीन लीटर दूध मेरे पेट में पच गया तब मुझे ऐसा लगा कि, जैसे मेरा पेट किसी राक्षस का पेट है ।
जो खाता हूँ सब हजम हो जाता है । मैंने पत्नी से रात को कहा था, ”जी मिचला रहा है, लगता है तबीयत खराब होगी ।” वह बड़ी खुश हुई । बोली, ”लेट जाओ, मैं सिर दबाए देती हूँ ।” लेकिन इसके पहले कि मैं लेटता, एक जोर की उलटी हुई । सारा दूध निकलकर बाहर आ गया और बदन में फुर्ती आ गई ।
मेरे एक पड़ोसी है । घर पर आए । बेसन के भजिये बने थे । मैं तो चार-छह प्लेट खा गया था लेकिन उन्होंने एक लघुपत्रिका-सा छोटा भजिया उठाया और बोले, ”मुझे बेसन सूट नहीं करता ।” मुश्किल से एक भजिया खाया था और सात दिन तक बिस्तर पर पड़े रहे ।
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दस्त धारावाहिक रूप से चलते रहे और नौबत यहाँ तक आ गई कि शरीर में पानी की कमी की स्थिति में उन्हें कई बोतलें ग्लूकोज लग गया । आफिस से बड़े साहब देखने आ गए । आफिस के सभी बाबू रोज आकर पूछते, ”तबीयत कैसी है ?” कितनी सुखद स्थिति थी ।
वह बिस्तर पर लेटे सेब-अंगूर खाते रहे और एक मैं किस्मत का मारा हूँ, जो खाता हूँ, हजम कर जाता हूँ । चाहता हूँ कि एक बार बीमार पड़ूँ, लेकिन खुदा मेरी सुनता ही नहीं । मेरा एक पड़ोसी सीढ़ियाँ चढ़ते हुए फिसल गया और उसकी टाँग टूट गई ।
पत्नी बोली, ”कितना अच्छा होता कि तुम्हारी टाँग टूट जाती । मैं अपने नाजुक हाथों से उसपर आँबी हल्दी और चूने का लेप लगाती । अँगीठी गर्म करके सेंक लगाती । पच्चीस वर्ष हो गए शादी के समय जो आँबी हल्दी लाए थे, वैसी की वैसी पड़ी है । लेकिन मैं तो जनम की दुखिया हूँ जाने कब खुदा मेरी सुनेगा । मैं तो पीर-फकीरों की मिन्नत करती हूँ ।”
मैं पड़ोसी को देखने गया । सोचा, इनसे सीढ़ियों से गिरना ही सीख लूँगा । वह बिस्तर पर लेटे थे और उनकी पत्नी सेवा में हाजिर थी । मुझे देखकर उनका सीना गर्व से फूल गया, मानो कहना चाहते हों – तकदीरवालों के पैर टूटते हैं, तुम जैसे नामाकूल क्या बीमार पड़ेंगे ?
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एक साहब को सुबह-सुबह छींक आ गई । उन्होंने अपने निजी सचिव से कहा, “आज मैं बीमार हूँ । कोई काम नहीं करूँगा । सिवाय मिलनेवालों के किसी को अंदर न आने दिया जाए ।” मैंने पत्नी से कहा, “पड़ोस से नस की डिब्बी ले आओ । मुझे नहीं मालूम था कि छींक से भी इतनी भयकर बीमारियाँ हो सकती हैं ।”
मैंने पूरी डिब्बी सूँघ ली लेकिन कोई छींक नहीं आई । पत्नी बोली, ”कोशिश करो, हिम्मत से काम लो, खुदा ने चाहा तो एकाध छींक आ ही जाएगी ।” लेकिन जब डिब्बी खतम होने को आई और एक भी छींक नहीं आयी तो पत्नी फिर निराश हो गई ।
मुझसे उसका दुख देखा नहीं गया । मैंने धागे की एक बस्ती बनाई और उसे नाक में दूर तक ठेल दिया । सुरसुराहट हुई और एक ऐसी जोर की छींक आई कि सारा मुहल्ला गूँज उठा । पत्नी बोली, ”खुदा का लाख-लाख शुक्र है । अब तबीयत कैसी है ? लगता है तुम्हें सर्दी हो गई है । डाक्टर को बुलाती हूँ । छींक की शुरुआत अर्थात आखिर में निमोनिया हो जाती है । आपको कहीं कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा ।”
वह भागती हुई पड़ोस के बंगाली डाक्टर के घर पहुंची । घबराई हुई, पसीने से लथपथ और डाक्टर का दरवाजा पीटने लगी । डाक्टर साहब बीबी से गप्पें मार रहे थे । नौकर से कहा, ”देखो कौन है ? कह दो आज डाक्टर साहब बीमार है, मरीज को देखने नहीं जाएंगे ।” पत्नी निराश होकर लौटी । मैं रसोईघर में बैठा गुलगुले खा रहा था । उसने मेरी ओर देखा और दहाड़ मारकर रोने लगी । मुझे लगा कि जैसे मेरे बीमार न होने का दुख उसे जिंदगी-भर भोगना पड़ेगा ।