Here is a good Hindi story on ‘Soil’ especially written for class 3 kids.
यूँ तो मैं पृथ्वी पर लगभग हर स्थान पर उपलब्ध हूँ किंतु कुछ स्थान अवश्य ही ऐसे है, जहाँ मेरा अस्तित्व संकुचित दिखाई देता है । स्थान भिन्नता के अनुरूप मेरे रूप-रंग में भी भिन्नता आ जाती है । कहीं मैं सफेद, कहीं काली, कहीं पीली और कहीं लाल दिखाई देती हूँ । रंग ही की भांति मेरी उर्वरा-शक्ति में भी विभिन्न स्थानों में विविधता दृष्टिगोचर होती है ।
मेरी इन भिन्नताओं का कारण भौगोलिक है । जहाँ की जैसी जलवायु होती है, वहाँ उसके प्रभाव से मेरा रूप-रंग उसी के अनुरूप हो जाता है । चट्टानी क्षेत्रों में मेरा अस्तित्व खोजना दुष्कर हो जाता है । मेरी महीन काया को धूल के नाम से संबोधित किया जाता है । जल के साथ निरंतर मिलकर मेरा रूप और जल का रंग पूर्णत: भिन्न हो जाते है । मेरे उस परिवर्तित रूप को कीचड़ तथा जल के उस परिवर्तित रंग को मटमैला कहा जाता है ।
यह कहते हुए मेरा सीना गर्व से फूल जाता है कि मानव ने मेरे हर रूप को हृदय से स्वीकार किया है । मानव ने अपना अपार स्नेह व सम्मान मुझ पर समर्पित किया है । मेरा हृदय तो उस समय हुलस उठता है, जब देश के सिपाही बड़ी श्रद्धा के साथ मुझे अपने मस्तक पर धारण करते हैं ।
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वे मेरी रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी तक लगा देते हैं । हमारे यहाँ माँ का स्थान सर्वोपरि माना जाता है । उस समय मेरा हृदय गद्गद हो उठता है जब मानव मुझे मातृभूमि, माँ या मदरलैंड जैसे आत्मीय संबोधनों से संबोधित करता है ।
मेरे लिए तो मानव द्वारा दिए गए सम्मानों की पराकाष्ठा उस समय हो गई जब किसी विद्वान ने मेरे सम्मान में कहा ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ अर्थात जन्मभूमि से बढ़कर इस दुनिया में कुछ नहीं है । संत-महात्माओं ने मेरे आध्यात्मिक महत्व को समझा है । वे जानते हैं कि मानव का और मेरा वास्तविक रिश्ता क्या है ।
अपने साहित्य में संत कबीर ने इस ओर संकेत भी किया है:
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माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय ।
इक दिन रेखा आयगा, मैं रौंदूंगी तोय ।।
आधुनिक काल के कवि भी मेरे गूढ़-रहस्य को समझने में पीछे नहीं हैं; इसका उदाहरण -गीतकार आत्मप्रकाश शुक्ल की इन पंक्तियों में दृष्टिगोचर होता है:
”माटी का पलंग मिला, राख का बिछौना,
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जिंदगी मिली कि जैसे, काँच का खिलौना ।”
मानव जाति के कल्याण के लिए मुझसे जो कुछ बन पड़ता है, मैं करने से कभी नहीं चूकती । मैं मानव के सौंदर्य प्रसाधन के रूप में कार्य करती हूँ मानव शरीर की निस्तेज कांति को सतेज बनाती हूँ । जब बालों में लगती हूँ तो उनमें नैसर्गिक चमक और नरमाई आ जाती है । औषधि के रूप में जब मेरा उपयोग किया जाता है तो मैं लेप के रूप में शरीर को शीतलता प्रदान करती हूँ ।
मैंने अपने शरीर पर अनेक तरह के औषधियुक्त पेड़ उगा रखे है । इन पेड़ों से मानव को औषधियाँ तो प्राप्त होती ही हैं, साथ ही पर्यावरण का संतुलन भी बना रहता है । पर्यावरण का संतुलन भी मानव जीवन के लिए अत्यंत कल्याणकारी है । मुझ पर बसे वनों में विविध प्रजातियों के पेड़ पाए जाते हैं ।
इनके पल्लवों, फूलों, फलों, छालों सभी में अनेक औषधीय तत्व समाहित होते हैं । इसी प्रकार वन्यप्राणियों के लिए भी ये पेड़ वरदान सिद्ध होते हैं । यह कहते हुए मुझे दु:ख होता है कि मानव अपने स्वार्थ के लिए इन बहुमूल्य पेड़ों को काटने पर तुला हुआ है जिससे मैं बह जाती हूँ । ऐसा करके मानव स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है और मुझे भी मनस्ताप दे रहा है ।
यह सब अपने ही विपत्काल को आमंत्रित करना है । पत्र लिखने का मूल कारण यही है कि तुम मेरे और मुझसे जुड़े हुए अपने महत्व को जान लो । आशा है तुम मानव की उन गलतियों को नहीं दोहराओगे, जो वह आज तक करता आ रहा है, तभी मुझे संतोष मिलेगा ।