कला और नैतिकता का संबंध । Article on the Relation between Art and Morality in Hindi Language!
कला और नैतिकता का समाज से बहुत गहरा संबंध है, परंतु कुछ मुद्दों पर दोनों के बीच विरोध की स्थिति भी रहती है । कला का दृष्टिकोण तथा आचरण दोनों ही लीक से हटकर रहे हैं । अनेक बार ऐसा भी देखा गया है कि कला का यह आचरण बहुत ही क्रांतिकारी सिद्ध हुआ है ।
इसके ठीक विपरीत नैतिकता का आधार परंपराएँ ही अधिक रही हैं । नैतिकता ने लगभग हर क्षेत्र मैं सामाजिक पसंद-नापसंद पर आधारित अच्छे व्यवहार के मापदंड या पैमाने निर्धारित कर रखे हैं । इसका परिणाम यह होता है कि हमें कई स्तरों पर विभिन्न प्रकार के नैतिक मापदंडों का सामना करना पड़ता है ।
कभी राजनीतिक नैतिकता की बात की जाती है, कभी व्यावसायिक नैतिकता की तो कभी सांस्कृतिक नैतिकता की । परंतु हमारे समाज में जिस नैतिकता पर सबसे ज्यादा बल दिया जाता है, वह यौन-नैतिकता है ।
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केवल इतना ही नहीं हमारे समाज में प्रत्येक व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह इन नैतिकताओं की सहमति, स्वीकृति तथा वर्जनाओं को अच्छी तरह जाने व समझें तथा उनका भली-भांति पालन करें । इतनी अधिक नैतिक-संहिताओं या नैतिक-बंधनों के चलते प्राय: समाज में विरोध व असंतोष के स्वर भी सुनाई देते रहे हैं । इस विरोध या असंतोष को सबसे मुखर अभिव्यक्ति कला के माध्यम से ही प्राप्त होती रही है ।
यही कारण है कि कलाकार अपनी कला-कृतियों में समाज की स्थापित मान्यताओं तथा व्यवस्था के विरोध में खड़ा दिखाई देता है । कलाकार अपनी कलाकृतियों में अपनी कल्पना के आदर्श समाज को साकार रूप देने का प्रयास करता है ।
कलाकार ऐसे समाज को ‘संपूर्ण समाज’ कहते हैं जो किसी भी प्रकार के भेदभाव न्याय और आडंबर से पूरी तरह मुका हो । यद्यपि यह सत्य है कि इस प्रकार के ‘संपूर्ण समाज’ के लक्ष्य को प्राप्त करना असंभव ही है, लेकिन ‘आकाश से तारे तोड़ लाने’ की हसरत अर्थात्र असंभव को भी संभव बनाने की हसरत सभी मनुष्यों में होती है ।
स्पष्ट है कि ऐसे संपूर्ण तथा आदर्श समाज की कल्पना भी सदैव की जाती रहेगी और इसकी प्राप्ति हेतु संघर्ष भी चलता रहेगा । पूर्णता प्राप्त करने की इच्छा मनुष्य में सदा से रही है तथा आगे भी रहेगी । कला में सबसे ज्यादा निंदा आडंबर या पाखंड की ही हुई है ।
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जब-जब और जहाँ-जहाँ अवसर मिला, कलाकार ने इस पर भरपूर चोट की है । समाज में व्याप्त इस आडंबर या पाखंड के कारण ही परंपरागत नैतिकता का परचम आज तक लहरा रहा है । इसी झूठी नैतिकता के चलते सुविख्यात अंग्रेज लेखक डी.एच. लारेंस के ‘लेडी चटर्लीज लवर’ नामक विश्व प्रसिद्ध उपन्यास को समाज के ठेकेदारों ने पोर्नोग्राफी का पुलिंदा कहा था तथा समाज में इसे प्रतिबंधित कर दिया गया था ।
परंतु समाज के ये ही ठेकेदार समाज में वेश्यावृति के खुले व्यापार तथा आए दिन हो रहे यौन अत्याचारों पर आखें मूँदे रहते हैं । लारेंस ने अपने उपन्यास में सेक्स को मानव जीवन के एक आवश्यक लाभकारी तथा सशक्त उतेरक के रूप में प्रस्तुत किया है ।
इसकी ऊष्मा और नैसर्गिक माँग से भला कौन इंकार कर सकता है । जोनालथन स्विफ्ट ने अपनी कृति ‘गुलिवर्स देवल’ में बताया है कि वर्गहीन समाज आडंबरवाद का ही एक काल्पनिक रूप है तथा मनुष्य अपनी इस अधिकारवादी प्रवृत्ति से कभी मुक्त नहीं हो सकता । यद्यपि यह पुस्तक किस्सागों शैली में लिखी है, परंतु इसका संदेश बहुत ही स्पष्ट और ग्राह्य है ।
परंतु कला तब कला नहीं रहती जब वह समाज की नैतिक संहिता को अस्वीकार तो करती है, परंतु उसका चित्रण विवेकपूर्ण ढंग से नहीं करती । ऐसी कला प्रोपेगेंडा ही कहला सकती है, कला नहीं । उपदेश देने वाले लेखक पाठकों को कभी रास नहीं आते । किसी भी कलाकार की सबसे बड़ी विशेषता उसकी तटस्थता होती है, अर्थात् उसे किसी प्रकार के पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं होना चाहिए ।
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किसी भी स्थिति में सभी पहलुओं का सही सटीक तथा निष्पक्ष आकलन तभी हो सकता है जब कोई कलाकार या रचनाकार वास्तविकता या यथार्थ से एक निश्चित दूरी बनाकर रखता है । नैतिकतावादियों के अनुसार मानव व्यवहार ‘अच्छा’ तथा ‘बुरा’ दो ही प्रकार का होता है या हो सकता है । कुछ परखने या किसी निर्णय पर पहुँचने में वे हमेशा जल्दबाजी करते हैं ।
उनकी अपेक्षा एक कलाकार आकलन या निर्णय करने का दायित्व पाठकों दर्शकों या श्रोताओं पर छोड़ देता है । इसके अतिरिक्त कोई भी कृति केवल अनुभव का मापदंड ही नहीं होती बल्कि अपने आप में एक नया अनुभव भी होती है ।
हमारे समाज को एक ऐसा समुद्र कहा जा सकता है जो हमेशा गतिमान रहता है । परंतु कभी-कभी कुछ अनावश्यक तथा अवांछनीय तत्वों के कारण इसकी गति बाधित भी हो जाती है । निरर्थक या अप्रासंगिक हो चुकी परंपराएँ रीति-रिवाज तथा तर्क से परे व्यर्थ की वर्जनाएँ ऐसे ही अवांछनीय तत्व हैं । कला का यही दायित्व है कि वह इन निरर्थक और अवांछनीय परंपराओं पर चोट करके उनका खात्मा करे, जिससे समाज को एक प्रकार की ताजगी और नया स्वरूप प्राप्त हो सके ।