Read this article to learn about the various types of radiology in Hindi language.
Type # 1. स्टीपरेंज रेडियोग्राफी:
इसका उद्देश्य एक रेडियोग्राफिक एक्सपोजर से टिश्यू के डेन्सिटी की बहुत सारी रेन्ज प्रदान करना है । इसके लिए प्रयोग की विधि में मल्टीपल रेडियोग्राफी, सेलेक्टिव फिल्टेशन और ग्रेजुयेटेड स्क्रीन है । अन्य विधि उच्च किलोवोल्टेज का प्रयोग है ।
सेलेक्टिव फिल्ट्रेशन:
इस विधि का प्रयोग रोगी के शरीर के एक अधिक तथा एक डेन्स भार के एक्सपोजर में किया जाता है । वेज के आकार का फिल्टर एक्स-रे सोर्स व रोगी के बीच प्रयोग में लाया जा सकता है । फिल्टर का मोटा वाला भाग इस पर पड़ने वाले कुछ रेडियेशन को सोख लेता है ।
Type # 2. उच्च किलोवोल्टेज रेडियोग्राफी:
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इस विधि का प्रयोग उच्च किलो वोल्टेज पर एक रेडियोग्राफी में भिन्न टिश्यू द्वारा एक्स-रे एबजारपसन व अटेनुयेशन के बाद भिन्न डेन्सिटी देने को रिकार्ड करने के लिए किया जाता है । एक्सपोजर फैक्टर घट जाते है पर स्केटर्ड रेडियेशन का प्रभाव काफी बढ़ जाता है अत: इफेक्टिव उच्च ग्रिड रेशियों वाला या एयर गैप विधि का प्रयोग किया जाता है ।
अन्य लाभों में कम मिली॰ एम्पीयर सेकेण्ड थरेपी, घटा हुआ मूवमेंट स्तर तथा रोगी को कम रेडियेशन डोज है । इससे फाइन फोकस का अधिक प्रयोग, उच्च एक्सपोजर लेटीट्यूड तथा ट्यूब हीटिंग भी कम हो जाती है । हानियों में-हड्डियों के डिटेल में कमी, खराब कान्ट्रास्ट, ओवर पैनीट्रेशन का खतरा आदि है । इस विधि का प्रयोग मुख्य रूप से प्रसूति रेडियोग्राफी में तथा हिस्टेरोसल्पिनोग्राफी में किया जाता है ।
Type # 3. मल्टीपल रेडियोग्राफी:
इस विधि का प्रयोग भिन्न डेन्सिटी के दो या दो से अधिक रेडियोग्राफ एक ही एक्सपोजर में लेने हेतु किया जाता है । सामान्य तौर पर दो जोड़े कीन का प्रयोग किया जाता है जिसे स्पीड के अनुसार ग्रेड किया जाता है । फिर भी यदि भिन्न डेन्सिटी के रेडियोग्राफों की आवश्यकता हो तो स्क्रीन उलट दी जाती है अर्थात् फास्टेस्ट कीन लव के पास तथा स्लो स्क्रीन पीछे रखी जाती है जिससे हड्डी का अच्छा डिटेल वा साफ टिश्यू डेन्सिटी मिल सके ।
Type # 4. मैक्रो रेडियोग्राफी:
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यह एक्स-रे मैग्नीफिकेशन द्वारा बड़ी इमेज प्राप्त करने की विधि है । आब्जेक्ट को फिल्म से कुछ दूरी पर रखा जाता है जिससे यथोचित मैग्निफिकेशन प्राप्त हो सके ।
यदि आब्जेक्ट ट्यूब फोक्स व फिल्म के मध्य स्थित है तो इमेज आब्जेक्ट के आकार की दुगुनी होगी । इसके लिए फाइन फोकस ट्यूब (0.1 मि॰मी॰2 या कम पर सामान्तया 0.3-0.6 मि॰ मी॰2) और कम एक्सपोजर समय का प्रयोग करते है । इसका प्रयोग जियोमेट्रिक व मूवमेंट स्तर को कम करने हेतु करते है ।
सबस्ट्रैक्श्न:
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इस विधि का प्रयोग मुख्य रूप से एन्जियोग्राफी में छोटी-छोटी रक्त नलिकाओं को हड़ियों से अलग दिखाने में किया जाता है । यह आर्बिटल भाग, कपाल का आधार पास्टीरियर क्रेनियल फोसा आदि की जांच में किया जाता है । इसका प्रयोग फारेन बाडी निर्धारण, साइलोग्राफी तथा अधिक काइफोस्कोलियोसिस के रोगियों की एक्सक्रीशन यूरोग्राफी में किया जाता है ।
फाग:
यह अनएक्सपोज्ड फिल्म को डेवलेप करने पर आने वाली अनैच्छिक डेन्सिटी है । यह प्रत्येक का आन्तरिक गुण है कि वे डेवलप किये जाने पर कुछ फाग पैदा करते हैं । यदि फाग बहुत अधिक होता है तो फिल्म में कान्ट्रास्ट कम हो जायेगा तथा फिल्म के कम डेन्सिटी वाले भाग से मिल जायेंगे । अत: कम डेन्सिटी वाले भाग में डिटेल समाप्त हो जायेगा ।
फाग के कारण:
फोटोग्राफिक फाग:
1. उम्र फाग:
बहुत पुरानी फिल्म: फिल्म की एक्सपाइरी दिनांक देख कर पुरानी फिल्में पहले प्रयोग करें ।
2. प्रकाश फाग:
i. डार्क रूप में उपयुक्त सेफलाइट का प्रयोग करने से प्रकाश का गलत रंग या बहुत तेज प्रकाश का प्रयोग ।
ii. सेफलाइट में फिल्म को लम्बे समय तक रखने से ।
iii. डेवलप करते समय बार-बार तथा लम्बे समय तक फिल्म देखने से ।
3. रेडियेशन फाग:
i. डार्क रूप में रेडियेशन से बचाव के अपर्याप्त साधन ।
ii. रेडियोएक्टिव पदार्थो से फिल्म का एक्सपोजर ।
4. आक्सीडेसन फाग:
फिल्म इमल्शन पर हवा का प्रभाव बार-बार तथा लम्बे समय तक (डेवलपमेंट के समय) देखने से पड़ता है ।
5. रासयनिक फाग:
i. डेवलेपर में फिल्म लम्बे समय तक छोड़ने से ।
ii. डेवलेपर ऊंचा तापमान ।
iii. डेवलेपर गलत मिश्रण ।
iv. मिलावट ।
6. बैकस्कैटर फाग:
बिना स्क्रीन फिल्म के प्रयोग के समय पिछली सतह से मिलने वाले स्केटर्ड रेडियेशन के कारण ।
7. कलर फाग:
अपर्याप्त रिसिंग या कमजोर फिक्सर के कारण डेवलपर व फिक्सर में क्रिया ।