Read this article to learn about the planning functions of radiology department in Hindi language.
परिचय:
विकिरण सुरक्षा दृष्टिकोण से किसी विभाग की योजना करते समय विकिरण कार्मिक, रोगी एवं जनसाधारण सभी की सुरक्षा का विचार करना पड़ता है । योजना का उद्देश्य विकिरण उदभास के स्तर को जितना संभव हो उतना कम करना है । विभिन्न कारक जो इस विकिरण मात्रा को कम करने में साधक होते हैं, नीचे दिए गए हैं ।
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1. प्रतिष्ठान का उपयुक्त डिजाइन ।
2. संयंत्र का उपयुक्त चयन ।
3. योग्य कार्मिकों द्वारा कार्य होना ।
इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य वैसे तो एक्स-रे विभागों की योजना का विस्तार में वर्णन करना है, फिर भी विकिरणोपचार की योजना की भी संक्षेप में चर्चा की गई है ।
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एक्स रे विभाग की योजना करना :
1. प्रतिष्ठान डिजाइन:
प्रतिष्ठान की योजना में स्थल चयन, विभिन्न सुविधाओं की स्थिति, कक्षों का उचित आकार, ढांचे की अवरोध क्षमता, और नियंत्रक पैनल, संयत्र एवं प्रतीक्षा क्षेत्र की स्थिति इत्यादि पर विचार शामिल हैं ।
1. एक्सरे प्रतिष्ठान का स्थान:
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एक्स रे मशीनों को अधिक अधिवासी क्षेत्र जैसे जच्चा,बच्चा इत्यादि वार्डो से, आवागमन क्षेत्रों से और चिकित्सालय के उन अन्य विभागों से भी, जो सीधे विकिरण या उसके प्रयोग से सम्बन्धित न हो, जितनी दूर हो सके उतनी दूर स्थित करना चाहिए ।
2. खाका या सापेक्षिक स्थिति:
एक्स रे विभाग में विभिन्न सुविधाए जैसे डार्क रूम, चिकित्सक कक्ष, प्रतीक्षा क्षेत्र इत्यादि की सापेक्षिक स्थिति इस प्रकार नियोजित होनी चाहिए ये सब इतने पास-पास हों जिससे एक्स-रे विभाग का सारा कार्य सुचारु रूप से सुविधापूर्वक पर्याप्त विकिरण सुरक्षा सहित किया जा सके ।
एक्स-रे प्रतिष्ठान तक पहुंचाने वाले गलियारे या द्वार इस प्रकार के बनाए जाने चाहिए जिससे संयंत्र को आसानी से और असक्षम रोगियों को सुरक्षा पूर्वक ले जाया जा सके । डार्क रूम ऐसे स्थित होना चाहिए कि एक्सकिरण पुंज उसकी ओर दिष्ट न की जा सके ।
3. कक्ष का आकार:
कक्ष का आकार ऐसा होना चाहिए जिससे संयंत्र की देखभाल, सर्विसिंग, उसका प्रतिष्ठापन एवं उपयोग सुरक्षा पूर्वक किया जा सके और प्रचालकों, कार्मिक व रोगी के लिए सुविधाजनक हो । इसके अलावा इतनी जगह होनी चाहिए कि कम से कम 2 मीटर की दूरी पर नियंत्रक पैनल स्थित किया जा सके । इस दूरी पर 1.5 मिमी. सीसे के अवरोधक के पीछे खड़े होकर तकनीशियन को उपयुक्त संरक्षण मिल सकता है । इन्हीं सब विचारों को ध्यान में रखकर एक्स रे कक्ष का आकार कम से कम 24 वर्ग मीटर । (6 मी. X 4 मी.) होता है ।
4. अवरोधन/परिरक्षण/आवरणी:
एक्स-रे कक्ष की दीवारें, छत व तल (यदि यह तल भूतल न हो) की मोटाई ऐसी होनी चाहिए जिससे कार्मिकों को वर्ष में औसतन 20 मिली. सीवर्ट और जनसाधारण को औसतन 1.0 मिली. सीवर्ट मिले । यह नए प्रतिष्ठानों के लिए लागू होगा ।
पुराने प्रतिष्ठानों की योजना कार्मिक को वर्ष में 50 मि. सीवर्ट और जनसाधारण को 5 मि. सीवर्ट के आधार पर होती थी । जहां तक संभव हो प्रवेश द्वार इस प्रकार स्थापित करना चाहिए कि उस पर सीसे का आवरण लगाने की आवश्यकता न पड़े, नहीं तो उपयुक्त मोटाई का आवरण लगाना चाहिए । ताकि रूम के अंदर विकिरण स्तर 1.13 मिली. रीन्जन । (11.3 माइक्रो सीवट) प्रति सप्ताह से अधिक नहीं होना चाहिए ।
दीवारों की मोटाई व उसकी मशीन से उपयुक्त दूरी की गणना करने के लिए U उपयोगी गुणक (मशीन के कुल प्रचालन समय का वह अंश जिसके लिए उस दीवार की ओर किरणें दिष्ट होती है, जिसकी मोटाई की गणना करनी है) T अधिवास गुणक (जिस क्षेत्र में विकिरण मात्रा कम करनी है उस क्षेत्र को उद्भासित करने वाले समय का वह अंश जिसके लिए वहां अधिवास हुआ हो, का प्रयोग करना चाहिए ।
जिस दीवार की मोटाई ज्ञात करना हो, उसके लिए सबसे पहले दीवार के बिना विकिरण मात्रा ज्ञात करना चाहिए फिर दीवार की वह मोटाई ज्ञात करते हैं जिससे विकिरण मात्रा अनुज्ञेय सीमा तक हो जाय । यदि दीवार के बिना स्त्रोत से एक मीटर पर कुल विकिरण मात्रा प्रति सप्ताह 10 हो और d दूरी पर ‘x’ मोटाई की दीवार से विकिरण मात्रा अनुज्ञेय सीमा P पर आ जाती हो तो इनमें निम्नलिखित संबंध होगा ।
U रेखीय क्षीणन । अटेनयूशन गुणांक है । क्ष U जिसमें भैं रेखीय क्षीणन । अटेनयूशन गुणांक है । क्ष किरण मशीनों में X को मशीन के कार्यभार w (यानी एक मीटर पर विकिरण मात्रा दर), U व T में लिखा जा सकता है । यह संबंध X = WUT हैं, इस प्रकार जहां F=पारगमन गुणक (ट्रानसमिशन फैक्टर है)
गामा किरणों के लिए W का मान रोंजन प्रति घंटे में व्यक्त किया जाता है, जब कि एक्स किरणों के लिए मिली. एम्पियर मिनट में । इस सूत्र का उपयोग करने के लिए एक तो विभिन्न प्राचलन वोल्टेज पर F व t में ग्राफ खींचे जा सकते हैं, फिर उपयुक्त सूत्र में WUT व d का मान रख कर F का मान ज्ञात करके संबंधित t को मान ग्राफ से पढ़ लिया जाता है ।
दूसरे विभिन्न WUT के मानों के लिए किसी P के मान के लिए वि भिन्न प्रचालन वोल्टेज पर ‘d’ व ‘t’ में सारणी तैयार की जा सकती है, फिर वांछित WUT व d के लिए t का मान सारिणी से पढ़ लिया जाता है । ये मान सारिणी 13.1 प्राथमिक किरण पुंज के लिए तथा 13.2 प्रकीर्णित किरण पुंज के लिए से पढ़े जा सकते हैं ।
उदाहरण 1.
यदि प्रचालन वोल्टेज 80 किलो वोल्टेज, d=2 मीटर हो और 100 परीक्षण प्रतिदिन होते हों तथा प्रचालन धारा X समय = 50 मि. एम्पियर सैकेण्ड हो तो-सप्ताह कुल कार्यभारी W = 50x100x6 मि. एम्पियर मिनट ।
यदि T = 1 हो, और U = 1 हो तो WUT= 500 होगा । अब लिए सारिणी 13.1 के WUT = 1000 के मान के लिए 2 मीटर पर प्राथमिक किरणों व कार्मिकों के लिए t का मान 1.4 से. मी. सीसा या 12.5 से मी. कन्क्रीट । यह 19 से. मी. ईट के बराबर होता है के बराबर आता है ।
जनसाधारण के लिए इसमें एक दशांग मूल्य मोटाई (टी वी एल जोड़नी होगी ।) इसका मान 6.5 से. मी. कन्क्रीट दिया है । अत: दीवार की मोटाई 12.5 + 6.5 = 19 से.मी. कन्क्रीट या 29 से.मी. ईट के बराबर हुई । 500 एम मिनट के लिए मोटाई, अर्थ मूल्य मोटाई (एच वी एल) के बराबर घटानी होगी क्योंकि
एम. ए. मिनट कार्य भार के लिए दीवार की मोटाई (जनसाधारण अर्थात 10 मि. रो. प्रति के लिए) 17 से. मी. कन्क्रीट या 25 से. मी. ईट होगी । एक ईंट की लंबाई लगभग इतनी ही होती है, प्रकीर्णित किरणों के लिए सारिणी 13.2 से यह मोटाई लगभग । 4+6.5 =10.5 । -2 सेमी = 8,5 से. मी. कन्क्रीट या 13 से. मी. ईट आती है ।
2. इसी प्रकार 2 मीटर पर 125 किलो वोल्ट पर उत्पन्न किरणें और 10000 मि. एम्पियर मिनट कार्यभार की स्थिति में 100 मिरों प्रति सप्ताह हेतु, मुख्य किरणों से सुरक्षा के लिए 26 से. मी. कन्क्रीट (कार्मिकों के लिए) 23 से. मी. कन्क्रीट (जनसाधारण के लिए) आवश्यक होगी । द्वितीय किरणों से सुरक्षा के लिए 11 से. मी. कन्क्रीट (कार्मिको के लिए) 18 से. मी. कन्क्रीट (जनसाधारण के लिए) आवश्यक होगी ।
सारिणी 13.1:
100 मिरो प्रति सप्ताह के लिए मुख्य संरक्षण अवरोधक की मोटाई:
सारिणी में दिये मान उदमास मात्रा का 100 मिरो प्रति सप्ताह तक कम करने के लिए आवश्यक अवरोधक हैं । नियंत्रित क्षेत्र के लिए है । नियन्त्रित क्षेत्र से बाहर के लिए इन मानों में 30 मिरो. प्रति सप्ताह लाने के लिए TVL की आधी और 10 मि. रो. । सप्ताह के लिए 1. O T V L मोटाई और जोड़े ।
सारिणी 13.2:
100 मिरो प्रति सप्ताह के लिए मुख्य संरक्षण अवरोधक की मोटाई:
सारिणी में दिये मान उदमास मात्रा का 100 मिरो प्रति सप्ताह तक कम करने के लिए आवश्यक अवरोधक हैं । नियंत्रित क्षेत्र के लिए है । नियन्त्रित क्षेत्र से बाहर के लिए इन मानों में 30 मिरो. प्रति सप्ताह लाने के लिए TUL की आधी और 10 मि.रो. प्रति सप्ताह के लिए 7. O T V L मोटाई और जोड़े ।
सारिणी में दिये अंक प्रकीर्णित और रिसाव हुए विकिरण के लिए हैं । इसमें यह माना गया है कि एक मीटर पर प्रकीर्णित विकिरण, आयतित विकिरण का 0.1% होता है । रिसे विकिरण की गणना के लिए निर्देशन वाले संरक्षक ट्यूब आधाम या गृह और उपचार वाले ट्यूब आधामों से क्रमानुसार एक घण्टे में 180 एम ए मिनट व 800 एम ए मिनट का अधिकतम कार्यभार लिया गया है ।
यदि कार्य भार 30,000 मि. एम्पियर मिनट हो जाय इसके लिए लग-भग दो अर्धमूल्य मोटाई जोड़नी होगी अर्थात लगभग 4 से. मी. कन्क्रीट । पहला उदाहरण पारम्परिक एक्स रे मशीनों के लिए व दूसरा कम्प्यूट्रीकृत टोमोग्राफी (C.T) मशीनों के लिए आमतौर पर (CT मशीन का प्रचालन वोल्टेज 125 किलोवोल्ट होता है जबकि परंपरागत में 80 किलोवोल्ट होता है ।
जहां CT मशीनों में एम ए/मिनट 30,000 जितना होता है वहीं परंपरागत में आमतौर पर 100 मि. एम्पियर/मिनट होता है । 1000 मि. एम्पियर/मिनट के प्रतिष्ठान व्यस्त कहलाते हैं । नई अनुज्ञेय सीमाओं के अनुसार सारिणी 13.1 व 13.2 में दिये मानों में कार्मिकों के लिए क्रमश: एक T.v.L जोड़ें व 2 H.T.V. घटा दें ।
जनसाधारण के लिए 2 टी. वी. एल जोड़े व 1 एच वी टी घटाएँ । इस हिसाब से उदाहरण में कार्मिक के लिए 19 से. मी. कन्क्रीट की जगह 21.5 (19+6-5-4) सेमी. कंक्रीट होगी । जनसाधारण के लिए 17 सेमी कंक्रीट के स्थान पर 21.5 सेमी. (17+6-5-2) होगी ।
जहां CT मशीनों में मुख्य किरण पुंज एक पतली धारा होती है जो हमेशा संसूचकों पर पड़ने के कारण दीवार पर पड़ती ही नहीं, वहीं परंपरागत मशीनों की मुख्य किरण पुंज चौड़ी होती है और सीधे दीवारों पर पड़ सकती है ।
अत: जहां परंपरागत मशीनों में दीवारों की मोटाई की गणना मुख्य किरण पुंज के आधार पर होती है वहीं CT मशीनों के कक्ष की दीवारों की माटाई की गणना केवल प्रकीर्णित किरणों के आधार पर की जाती है । इनकी तुलना सारिणी 13.3 में की गई है ।
उपर्युक्त सारिणी में मान कार्मिकों के लिए 1 मि॰ सीवर्ट प्रति सप्ताह एवं जनसाधारण के लिए 0.10 मि॰ सीवर्ट प्रति सप्ताह के आधार पर है । कोष्ठक में दिए मान नई अनुज्ञेय सीमा के आधार पर किए गणना किए गए हैं ।
a. खुला या संचालन:
यदि एक्स-रे कक्ष में खुली जगह जैसे खिड़की, संचालन या वायु संचार इत्यादि का प्रावधान है तो उनको कक्ष के भूतल से 2 मीटर ऊंचाई पर स्थित करना चाहिए ।
b. नियंत्रण:
प्रतिदीप्ति मशीनों की अवस्था में कक्ष को इस प्रकार सुव्यवस्थित करना चाहिए कि उसमें प्रतिदीप्ति परीक्षण के समय पूर्ण अंधकार करना संभव हो ।
c. नियंत्रण पैन व प्रतीक्षा क्षेत्र:
125 कि. वोल्ट या उससे ऊपर के लिए यह अनिवार्य है कि उनके नियंत्रण पैनल अलग कक्ष में स्थापित किए जाएँ । प्रतीक्षा क्षेत्र एक्स-रे कक्ष के बाहर ऐसे क्षेत्र मे होना चाहिए जहाँ प्राकृतिक विकिरण के अलावा दूसरा विकिरण न पहुंचता हो ।
2. उपयुक्त संयंत्र का चयन:
एक्स-रे परीक्षण ऐसी मशीनों पर करने चाहिए जो उन परीक्षणों के लिए बनाई गई हों । उदाहरण के लिए चल मशीनों से जिनमें कम संरक्षण होता है, आम एवं नियमित परीक्षण नहीं करने चाहिए । उनको केवल वार्ड, शल्य कक्ष जैसी जगहों में काम में लाना चाहिए जहां से रोगियों को एक्स-रे कक्ष तक ले जाना संभव न हों ।
इसी प्रकार रोगी की साधारण मेज को विशेष परीक्षणों के लिए प्रयोग में नहीं लाया जाना चाहिए । और साधारण मशीनों का भी विशेष परीक्षणों के लिए प्रयोग नही होना चाहिए । जैसे दंत परीक्षण के लिए विशेष प्रचालन वोल्टेज, उदभास समय और पुंज को अल्पाकार करने के लिए झुकाकर सीमा नियंत्रकों इत्यादि की आवश्यकता होती है पर ये सब सुविधायें साधारण मशीनों में नही होती ।
उपयुक्त मशीन प्रयोग करने का उद्देश्य रोगी को कम से कम मात्रा देकर अच्छी गुणवत्ता का प्रतिबिंब करना है । संयंत्र की विकिरण संरक्षण आवश्यकताओं को भी पूरा करना चाहिए । रोगी, कार्मिक व जनसाधारण को मुख्य प्रकीर्णित व रिसकर आने वाली किरणों द्वारा विकिरण प्राप्त होता है ।
मुख्य किरणें वह हैं जो एक्स रे टयूब (नलिका) से निकलती हैं । एक्स रे नलिका के मुंह से बाहर आने वाली किरणें रिसने वाली किरणें कहलाती हैं । इन किरणों की मात्रा किसी एक घंटे में 1.0 मिली. सीवर्ट होनी चाहिए । परीक्षण के उपयुक्त प्राचलन किलो वोल्ट, मिली. एम्पियर इत्यादि के उक्ति चयन से भी प्राथमिक या मुख्य और प्रकीर्णित किरणों से रोगी को प्राप्त विकिरण न्यूनतम किया जा सकता है ।
एक्स किरण वर्णक्रम के अल्पऊजा अवयव से त्वचा को मिलने वाली विकिरण मात्र को कम करने के लिए निस्पदक या छन्ने द्वारा उस अवयव को अवशोषीत किया जाना चाहिए क्योंकि ये अल्पऊर्जा किरणें त्वचा में हई अवशोषित होने के कारण शरीर में से गुजरकर फिल्म तक नहीं पहुंचती हैं अत: रोगी को विकिरण तो मिल जाता है पर रोग निदान में कुछ भी सूचना नहीं मिलती ।
इसीकारण अल्प ऊर्जा किरणों को शरीर पर पड़ने से रोका जाना आवश्यक है । अंतर्राष्ट्रीय विकिरण संरक्षण आयोग (आइ. सी. आर. पी.) 1966 ने विभिन्न प्रकार के परीक्षणों के लिए किलोवोल्ट, मिली. एम्पियर के कई संयोजन सुझाए हैं । इनको सारिणी 13.4 में दिया गया है ।
उपर्युक्त चर्चा के अनुसार उपकरण में उपयुक्त छन्ना या निस्पंदक होना चाहिए । आम परीक्षणों के लिए यह नियम है कि उपकरण को प्रचालित करने के लिए उच्चतम वोल्टेज पर छन्ने का मान निर्धारित किया जाता है ।
इस आधार पर अधिकतम 70 किलो वोल्ट के लिए कुल छन्ना 1.5 मिमी. एल्यूमिनियम तुल्य होना चाहिए, 70 कि. वोल्ट से 100 कि. वोल्ट के बीच वाली मशीनों के लिए 2.0 मिमी, एल्यूमिनियम के तुल्य तथा 100 किलो वोल्ट से अधिक मशीनों के लिए 2.0 मिमी. एल्यूमिनियम के तुल्य छन्ना होना चाहिए ।
विशेष विधि में प्रचलन वोल्टेज 50 कि. वोल्ट से कम होने पर जैसे स्तन चित्रण (मैमोग्राफी) कम से कम 0.5 मिमी. एल्यूमिनियम होना चाहिए । निदान से संबंधित क्षेत्र तक ही एक्स किरणों को सीमित करने के लिए विभिन्न सीमा नियंत्रक जैसे शंकु सछिद्र धातुपट (डायफ्राम), समंजनीय संपुजक (एडजस्टेविल) कोलीमीटर का प्रयोग करना चाहिए ।
उपयोगी किरणो की क्षेत्र सीमा दर्शाने कि लिये एक प्रकाश किरणीय क्षेत्र निर्वारक ट्यूब में लगा होना चाहिए । इसकी स्थिति ऐसी होनी चाहिए कि प्रकाश व विकिरण क्षेत्र एक दूसरे से मिल जाएं । तब ही परीक्षण के समय प्रकाश किरणीय क्षेत्र निर्वाकर से परीक्षण क्षेत्र में प्रकाश की सीमा निर्धारण करके यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि विकिरण परीक्षण क्षेत्र को ही उदभासित करेगा ।
इसके अलावा प्रतिदीप्ति परीक्षणों में एक्स रे नलिका, व प्रतिदीप्त पट एक दूसरे से ऐसे जुड़े होने चाहिए कि उनकी सभी स्थितियों में एक्स किरणों की अक्षीय रेखा प्रतिदीप्ति पट के केन्द्र से गुजरे । इन किरणों के उद्गम केन्द्र (फोकस) से रोगी के शरीर की न्यूनतम दूरी पर उद्भास दर 5 रो. प्रति मिनट होनी चाहिए ।
प्रतिदीप्ति मशीन की प्रचालन अवस्था में एक्स रे नलिका व पट के बीच अधिकतम दूरी पर धातुपट (डायफ्राम) पूरे के पूरे खुले होने पर पट के चारों ओर एक सेमी. अप्रकाशित क्षेत्र रहना चाहिए जैसा चित्र 13.1 में दिखाया गया है ।
एक्स केरणों के उद्गम स्थान के आकार का प्रभाव भी रेडियोग्राफ पर पड़ता है । आकार जितना छोटा होगा चित्र में स्पष्टता उतनी ही अधिक होगी । और प्रतिछाया भी कम होगी । गलत किलो वोल्ट लगाना या किलो वोल्ट मीटर का गलत अंशीकरण होना, दोनों ही दशा में रेडियोग्राफ सही नहीं आएगा । अत: फिर लेना पड़ेगा ।
इस प्रकार रोगी को अनावश्यक मात्रा मिल जाएगी । निर्गत किरणों का लहर रूप भी महत्व पूर्ण है । अर्ध तरंगों की तुलना में संपूर्ण तरंगों का दिष्टीकरण (रेक्टीफिकेशन) करने से अधिक ऊर्जा एवं तीव्रता मिलती है । इससे त्वचा को प्राप्त होने वाले विकिरण में कटौती हो जायगी ।
इस प्रकार एक्स रे मशीन के पर्याप्त सुसज्जित होने के लिए यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि किलो वोल्टेज, मिली एम्पियर सैकेण्ड, उदम स्थान, आकार, छन्ना इत्यादि वही हैं, जैसा नियंत्रक पैनल पर दर्शाए गए हैं ।
और प्रकाश पुंज तथा विकिरण पुंज एक दूसरे से मिलती हैं, एवं नलिका व पट पंक्तिबद्ध हैं । इसके साथ-साथ गुणवत्ता आश्वासन परीक्षण कर लिए जाने चाहिए । इस परीक्षण के लिए किट विकिरण संरक्षण प्रभाव से प्राप्त की जा सकती है ।
3. योग्य एवं प्रशिक्षित कार्मिक की सहभागिता:
उदभास कम करने में योग्य एवं प्रशिक्षित कार्मिकों की सहभागिता महत्वहपूर्ण है । अयोग्य या अप्रशिक्षित व्यक्ति किसी परीक्षण में अधिक समय लगा सकता है और एक्स रे चित्रों की गलत व्याख्या कर सकता है ।
एक्स रे निदान चिकित्सक या रेडियोलोजिस्ट व तकनीशियन दोनों को विकिरण सुरक्षा के विमिन्न पहलुओं पर प्रशिक्षित होना चाहिए । यदि कुछ ही एक्स रे मशीनें हैं तो कुछ समय के लिए किसी विकिरण सुरक्षा अधिकारी की सेवा लेनी चाहिए और यदि किसी चिकित्सालय या संस्थान में बहुत सारी मशीनें हैं तो एक पूर्ण कालिक विकिरण सुरक्षा अधिकारी नियुक्त करना चाहिए ।
नैदानिक एक्स-रे जनित्रों और एक्स रे नलिकाओं की क्षमता का मूल्यांकन:
नैदानिक एक्स रे जनित्रों की निर्गत ऊर्जा क्षमता और एक्स नलिकाओं की आगत (इनपुट) ऊर्जा या ऊर्जा सहन करने की क्षमता किलोवाट में दी जाती है । इसकी गणना सही-सही निम्न सूत्र से ज्ञात की जा सकती है ।
जिसमें I नलिका की विद्युत धारा का अंतर्गतजनिक औसत है, V नलिका का अधिकतम विभव या वोल्टेज है । K, एक गुणक है जो किसी एक्स रे जनित्र विशेष की विशेषता दर्शाता है । विभिन्न जनित्रों के लिए K का मान निम्न लिखित है ।
विकिरणोपचार विभाग की योजना:
विकिरणोपचार में दो विधियाँ हैं एक है दूरोपचार (टेलिथेरेपी) जिसमें विकिरण स्त्रोत रोगी से दूर होता है और बाहर से उसके ऊपर किरणें पड़ती हैं । दूसरी है निकटोपचार (ब्रेकीथैरेपी) जिसमें स्त्रोत शरीर के बाहर अथवा अंदर की सतह के संपर्क में रखा जाता है । दूरोपचार में शरीर में अंदर गहराई पर स्थित ट्यूमरों का उपचार होता है जैसे फेफड़ों और पेट का कैन्सर इत्यादि ।
निकटोपचार में शरीर की सतह पर स्थित ट्यूमरों का उपचार होता है, जैसे जीभ, गर्भाशय इत्यादि का कैन्सर । त्वरक का प्रयोग करके उच्च ऊर्जा की गामा किरणें उत्पन्न की जा सकती हैं । दूरोपचार मशीनें या तो स्थिर (स्टेशनरी) प्रकार की होती हैं या घूमनेवाली (रोटेशन) होती हैं ।
निकटोपचार स्त्रोतों को भंडार गृह से या तो हाथों द्वारा या मशीन द्वारा शरीर में पहुंचाया जाता है । मशीन में एक नलिका लगी होती है जो स्त्रोत भंडार से रोगी तक जाती है । मशीन को प्रचालित करके इस नलिका के रास्ते स्त्रोत को रोगी के रोगग्रस्त क्षेत्र तक पहुंचाया जाता है ।
जब कि दूरोपचार में हजारों क्यूरी के स्त्रोत काम में लाए जाते हैं वहीं निकटोपचार में मिली. क्यूरी (3.7×1010 बेक्वेरल) के स्त्रोत काम मे लाए जाते हैं । दूरोपचार एवं निकटोपचार मशीनों में स्त्रोत मशीन के अंदर स्थित होता है । जबकि हाथों से प्रचालित स्त्रोत भंडार गृह में रखे जाते हैं । इन्हीं बातों का ध्यान रखते हुए विभाग की योजना की जाती है ।
प्रतिष्ठान:
a. दुरोपचार:
क्योंकि यहाँ उच्च सक्रियता का स्त्रोत काम में लाया जाता है इसलिए प्रतिष्ठान की संरचना बहुत महत्वपूर्ण है । स्थल चयन का जो आधार एक्स रे प्रतिष्ठानों के बारे में बताया गया है वही इसके लिए भीं मान्य है । स्थल चयन के समय भविष्य के विस्तार, जैसे त्वरक का लगाना, गामा मशीनों का संख्या बढ़ना, का भी ध्यान रखना चाहिए ।
तहखाना यानी भूतल के नीचे यदि यह प्रतिष्ठान हो, तो अधिक सुरक्षित होगा और निर्माण पर कम खर्चा आएगा । हां, इस हालत में यह ध्यान में रखना चाहिए कि बारिश में पानी अन्दर न भर जाय । वातानुकूल का भी ध्यान रखना होगा । नहीं तो भूतल को और वह भी कोने वाले क्षेत्र को प्राथमिकता देनी चाहिए ।
उपचार योजना प्रणाली, संच (मोल्ड) कार्य अनुकारी (सिम्युलेटर) इत्यादि के लिए भी कक्षों का प्रावधान होना चाहिए । उपचार योजना के लिए गणना की जाती है कि किस प्रकार रोगों के रोगग्रस्त भाग को आवश्यक मात्रा प्राप्त हो और साथ ही पास के स्वस्थ अंगों को उच्च विकिरण मात्रा से बचाया जाय ।
अनुकारी वास्तव में एक्स रे मशीन है जो दूरोपचार मशीन की तरह से गति करती है । इस मशीन का प्रयोग करके ट्युमर निर्धारण किया जा सकता है । दीवारों की मोटाई की गणना का सिद्धान्त वही होगा जो एक्स रे प्रतिष्ठान के अनुभाग में ऊपर दिया गया है । विकरणोपचार प्रतिष्ठान का डिजाइन चित्र 13.2 में दिया गया है ।
आड़ दीवार/दीवार व्यूह (मेज) (व द्वारा प्रदर्शित) का उद्देश्य द्वार पर इतना उदमास कम करना है जिससे वहां लकड़ी के पट से काम चल जाय । इस आड़/व्यूह के बिना द्वार पर सीसे की चादर चढ़ानी होगी । नियंत्रण कक्ष से रोगी को देखने के लिए एक सीसे युक्त कांच का झरोखा होता है, जिसकी अवरोधकता उतनी ही होती है जितनी बाकी की दीवार की ।
उस दीवार की मोटाई जहां, केवल प्रकीर्णित किरणें पहुंचती है लगभग 50 सेमी. कंक्रीट होती है । एवं जिस दीवार पर मुख्य किरणें पहुंचती है उसकी मोटाई 120 से. मी. कंक्रीट होती है । छत के लिए भी वही सिद्धान्त होगा । वायुकूलरों को भूतल से 8 फीट ऊँचाई पर लगाना चाहिए ।
b. निकटोपचार (ब्रेकीथेरेपी):
हस्त प्रचालित निकटोपचार प्रणाली में सारा खाका (ले आउट) इस प्रकार सुनियोजित करना चाहिए कि विभिन्न क्रिया कलापों में विकरण मात्रा न्यूनतम और सीमा में प्राप्त हो । इसके लिए स्त्रोत के स्थानांतरण की दूरियां न्यूनतम हों । स्त्रोत भंडारण के लिए मापक भंडार व्यवस्था होनी चाहिए ।
एक संच कक्ष और लघु शल्य कक्ष इत्यादि सुविधाओं की भी योजना होनी वाहिए । एक संपूर्ण सुव्यवस्थित निकटोपचार विभाग में उपर्युक्त के अतिरक्ति चिकित्सक, भौतिक शास्त्री परीक्षण कक्ष इत्यादि होना चाहिए । वार्ड में कोई खुली खिड़की नहीं होनी चाहिए । खिड़की पतली जाली से ढकी होनी चाहिए जिससे कोई रोगी स्त्रोत को बाहर न फेंक सके ।
निकटोपचार मशीनों के प्रतिष्ठानों के निर्माण की गणना वैसी ही की जाती है जैसी दूरोपचार प्रतिष्ठान के लिए की गई है । इन मशीनों के प्रतिष्ठानों के कुछ आदर्श खाके चित्र 13.4 अल्प मात्रा दर के व चित्र 13.5 (मध्यम मात्रा दर के) में दिए हैं ।
योग्य कार्मिकों का योगदान:
विकिरण उपचार विभाग में रोगी को प्रेषित मात्रा देना बहुत ही महत्वपूर्ण है । इसी दृष्टि से यह पद्धति चिकित्सा की दूसरी विधियों से भिन्न है । जिस प्रकार औषधि विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों, शल्य चिकित्सा, नेत्र चिकित्सा, स्त्री रोग चिकित्सा इत्यादि में चिकित्सक योग्य ही नहीं विशेषज्ञ होना चाहिए, वैसे ही विकिरण निदान एवं उपचार के लिए भी विशेषज्ञ होना चाहिए ।
जैसे नर्स व कम्पाउण्डर को उसके कार्य में प्रशिक्षित किया जाता है वैसे ही विकिरण उपचार तकनीशियन को भी प्रशिक्षित करना चाहिए । इसके अलावा इस क्षेत्र में एक अन्य विशेषज्ञ की भी आवश्यकता होती है । चिकित्सा की अन्यविधि की तरह इस क्षेत्र में चिकित्सक द्वारा विकिरण मात्रा निर्धारण और तकनीशियन द्वारा उसको रोगी में प्रेषित करना ही पर्याप्त नहीं है ।
इसके लिए यह भी आवश्यक है कि यह मात्रा रोग ग्रस्त भाग को तो पहुंचे पर दूसरे अन्य स्वस्थ भागों को न मिले । इसलिए चिकित्सा भौतिक शास्त्र के विशेषज्ञ की भी आवश्यकता होती है । इस विशेषज्ञ को चिकित्सा भौतिकशास्त्री कहते हैं । इस भौतिकशास्त्री को विकिरण मात्रा मापन एवं उपचार योजना विधि, इत्यादि में प्रशिक्षण दिया जाता है ।
अत: विकिरणोपचार विभाग में चिकित्सक, तकनीशियन के अलावा एक बीच के व्यक्ति की आवश्यकता होती है जो विकिरण मात्रा शरीर में प्रेषित करने की सुरक्षित विधि बता सके । इस व्यक्ति को चिकित्सा भौतिक शास्त्री कहते हैं । तकनीशियन के पाठ्यक्रम में भी विकिरण सुरक्षा संबंधी वार्ताएं होनी चाहिए ।
निष्कर्ष:
एक विभाग की योजना में, स्थल चयन, विभाग का खाका गुणवत्ता के उपकरण का क्रय, और योग्य कार्मिकों का चयन इत्यादि बहुत ही मुख्य बातें हैं । इनके अतिरिक्त विभाग में मोनीटरिंग उपकरण होने चाहिए जिससे कोई भी विकिरण घटना का संकेत मिल सके ।
उदाहरण के लिए दूरोपचार और निकटोपचार कक्षों में क्षेत्रीय मोनीटर ऐसा उपकरण है । दूरोपचार संयंत्रों में स्त्रोत की सुरक्षित स्थिति और उससे उद्भास स्थिति के बीच रुकने की घटना हो सकती है । यह भी हो सकता है कि उद्भास की स्थिति वापस अपनी सुरक्षित स्थिति में न जा पाए ।
इस स्थिति में दूरोपचार कक्ष में विकिरण स्तर बढ़ जायगा । क्षेत्रीय मोनीटर इस विकिरण का संसूचन करके इस घटना का संकेत अलार्म से दे सकता है और इस प्रकार अनावश्यक विकिरण उद्भास से या दुर्घटना से बचा जा सकता है ।
इसी प्रकार क्षेत्रीय मोनीटर की सहायता से निकटोपचार विभाग से किसी स्त्रोत के खोने को बचाया जा सकता है । यह स्त्रोत या तो किसी रोगी के साथ, या कूड़े के साथ या जानबूझ कर चुराकर ले जाने वाले के साथ विभाग से बाहर जा सकता है ।
अत: मोनीटर को विभाग के प्रवेश पर लगाकर इस घटना को बचाया जा सकता है, क्योंकि जैसे ही स्त्रोत मोनीटर के पास से निकलेगा, वैसे ही स्त्रोत से निकले विकिरण का संसूचन करके मोनीटर स्त्रोत की उपस्थिति का संकेत अलार्म से देगा । प्रतिष्ठान के अंदर व बाहर विकिरण स्तरों के संसूचन के लिए ये मोनीटर बहुत ही उपयोगी हैं ।