Read this article to learn about the resurgence of political geography in Hindi language.
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के वर्षों में राजनीतिक भूगोल के अध्ययन की गुणवत्ता में आई गिरावट के अनेक कारण थे । एक प्रमुख कारण यह था कि नया राजनीतिक भूगोल पूर्णतया विवरणात्मक और इसलिए नीरस और अरुचिकर अध्ययन बन गया था ।
नई अवधारणा के प्रवर्तकों द्वारा सैद्धांतिक अध्ययन को राजनीतिक भूगोल के दायरे से सर्वथा बाहर रखने पर जोर देते रहने के कारण मेधावी छात्र शोध के लिए भूगोल की सैद्धान्तिक दृष्टि से अधिक विकसित, अर्थात् वैचारिक दृष्टि से अधिक चुनौती पूर्ण, शाखाओं की ओर प्रवृत्त हो गए ।
उनमें सिद्धान्तपरक अध्ययन के अवसर अधिक होने के कारण बुद्धि विलास के अवसर अपेक्षाकृत अधिक थे । ऐसे समय में जब कि भूगोल की अन्य शाखाओं के अध्येता निरंतर इस बात पर बल दे रहे थे कि ”क्षेत्रीय अध्ययन एक महत्वपूर्ण विधा है परन्तु इसका महत्व क्रमबद्ध अध्ययन की अपेक्षाकृत कम है” तथा रिगले तथा बंगे जैसे विद्वान भूगोल के अध्ययन में साधारणीकरण की परिदृष्टि और अध्ययन विधि सांख्यिकीकरण पर जोर दे रहे थे, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक भूगोल के क्षेत्र में हार्टशोर्न जैसे विद्वान साठ के दशक में भी सैद्धांतिक अध्ययन और साधारणीकरण की वर्जना का उपदेश दे रहे थे ।
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बंगे के अनुसार इसका कारण यह था कि हार्टशोर्न विशिष्ट और अनूठे उदाहरण के बीच अन्तर नहीं कर पा रहे थे । यही कारण था 1970 के पहले राजनीतिक भूगोल में सिद्धान्तपरक अध्ययन पद्धति के विकास की दिशा में कोई प्रयास नहीं हुआ ।
इन्हीं कारणों से पांचवे और छठे दशक में राजनीतिक भूगोल मानव भूगोल की मुख्य धारा से सर्वथा कट गया था तथा युद्धोपरान्त सामाजिक विज्ञानों और मानव भूगोल की अन्य शाखाओं में व्याप्त मात्रात्मक क्रांति राजनीतिक भूगोल को अछूता छोड़ गई थी ।
अत: साठ के दशक के पूर्वार्द्ध में जबकि एक ओर मानव भूगोल में मात्रात्मक क्रांति पूरी तरह समाप्त हो चुकी थी, क्योंकि जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए क्रान्ति का आह्वान हुआ था वे प्राप्त हो चुके थे, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक भूगोल के अध्येता छठे दशक के अन्तिम चरण में भी विषय के पुनरुत्थान हेतु मात्रात्मक क्रान्ति की उपलब्धियों का इसके अध्ययन में समावेश करने के पक्ष में तर्क पेश कर रहे थे ।
मात्रात्मक क्रान्ति के दौर में राजनीतिक भूगोल का भूगोल की मुख्य धारा से कटा रहना इस विषय के पिछड़ेपन का विशेष कारण बना क्योंकि समाजशास्त्रों के अध्ययन में यह वह दौर था जब लार्ड केल्विन के मतानुयायी समाजवैज्ञानिक विमर्श का नेतृत्व करते हुए बार-बार दोहरा रहे थे कि ”यदि कोई अपनी बात स्पष्ट मात्रात्मक भाषा में प्रस्तुत नहीं कर सकता तो उसका ज्ञान अधूरा और अपरिपक्व है उसके अध्ययन भी हो” ।
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अध्ययन में मात्रात्मक परिदृष्टि के अभाव के कारण ही अमरीकी भूगोलवेत्ता ब्रायन बेरी ने अपनी एक आलोचनात्मक टिप्पणी में राजनीतिक भूगोल को मानव भूगोल का मृतप्राय पश्चजल की संज्ञा दी । पांचवें दशक के अन्त से ही राजनीतिक भूगोल के अनेक अध्येता विषय की अधोमुखी अवस्था से चिन्तित थे । अमरीकी विद्वान जैक्सन की ”राजनीतिक भूगोल किधर जा रहा है ?”
शीर्षक से प्रकाशित टिप्पणी (1958) इस दिशा में विद्वानों में व्याप्त चिन्ता की एक मुखर अभिव्यक्ति थी । क्षेत्रीय परिदृष्टि के अन्तर्गत राजनीतिक भूगोल के विषय क्षेत्र में आरोपित वर्जनाओं से विषय को मुक्त करते हुए जैक्सन (1964) ने जोर दिया कि ये वर्जनाएं विषय के विकास में अवरोधक हैं ।
राजनीतिक भूगोल के विषय क्षेत्र को व्यापकता प्रदान करते हुए लेखक ने स्पष्ट किया कि राजनीतिक भूगोल ”राजनीतिक घटनाओं का क्षेत्रीय परिदृष्टि से अनुशीलन करता है” अर्थात् सभी प्रकार की राजनीतिक घटनाएं और क्रिया-कलाप इसके विषय क्षेत्र के उचित अंग हैं, चाहे ये विषय किसी राजनीतिक इकाई के सन्दर्भ में विशिष्ट महत्व के हो अथवा उनका सम्बन्ध अनेक राज्यों में पाई जाने वाली साधारण पहचान से हो ।
अत: अध्ययन हेतु विषय के चयन में विशिष्ट और साधारण का विभेद युक्तिसंगत नहीं है । जैक्सन की इस परिभाषा को उत्तरमात्रात्मक क्रान्ति युगीन मानव भूगोल की अवधारणा के अनुरूप संशोधित करते हुए कैस्परसन और मिघी (1969) ने राजनीतिक भूगोल को ”स्पेशियल एनैलिसिस ऑफ पोलिटिकल फेनोमेना” (अर्थात राजनीतिक घटनाओं और क्रियाकलापों का दूरत्वपरक क्षेत्रीय विश्लेषण) बताया ।
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इन दोनों संशोधित परिभाषाओं के प्रचार प्रसार के साथ ही राजनीतिक भूगोल के अध्ययन में आरोपित वर्जनाओं की समाप्ति हो गई । परिणामस्वरूप अब यहां विभिन्न मान्यताओं वाले भूगोलविद्, चाहे वे वर्णनात्मक ओर गुणात्मक अध्ययन के पक्षधर हों अथवा विश्लेषणात्मक और मात्रात्मक विधि के, चाहे वे हर घटना को विशिष्ट घटना मानते हुए अध्ययन करने के पक्ष में हों अथवा हर घटना को उसी तरह की अन्य घटनाओं का एक सीमित उदाहरण मानते हुए साधारणीकरण की परिदृष्टि के पक्षधर हों, सभी के लिए राजनीतिक भूगोल के अध्ययन के द्वार समान रूप से खुल गए । विषय के सर्वांगीण विकास की दिशा में यह एक बड़ा कदम था ।
परिणामस्वरूप सत्तर का दशक राजनीतिक भूगोल के पुनर्जागरण का युग था । राजनीतिक भूगोल के इस पुनर्जागरण में उस समय समाज वैज्ञानिक अध्ययन में प्रयोग की जाने वाली व्यवस्था-परिदृष्टि (सिस्टम्स परस्पेक्टिव) की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी ।
1963 में प्रकाशित एक महत्वपूर्ण लेख में ऐकरमैन ने मानव भूगोल के अध्ययन में व्यवस्थात्मक संकल्पना के समावेश का प्रस्ताव करते हुए इस बात पर बल दिया था कि राजनीतिक भूगोल के अध्ययन में इस अवधारणा को अपनाने के लिए विशेष अवसर हैं क्योंकि राजनीतिक इकाइयां अपने आप में अन्योन्याश्रयी अनुभागों से निर्मित क्रियाशील इकाइयां, अर्थात् व्यवस्था सम्पन्न विशिष्ट इकाइयां हैं ।
पचास के दशक के प्रारम्भ में राजनीतिक संगठनों के अध्ययन में व्यवस्था-परिदृष्टि की दिशा में दो महत्वपूर्ण ग्रंथ प्रकाशित हुए थे । ईस्टन (1953) और ड्वायश्च (1953) ने अपनी अलग-अलग कृतियों में राजनीतिक संगठनों (अर्थात् राज्यों) को आगत निर्गत (इनपुट-आउटपुट) प्रकार की व्यवस्थात्मक की इकाइयों के रूप में निरूपित किया ।
राजनीतिक अध्ययन में यह नवीन प्रारंभ था । आगत-निर्गत व्यवस्था परिदृष्टि के अन्तर्गत राज्यों को स्पष्टतया परिभाषित व्यवस्थात्मक इकाइयों के रूप में विश्लेषित करना अपेक्षाकृत सरल प्रक्रिया हो गई । अब राज्य के सम्पूर्ण क्रिया-कलाप को नागरिकों द्वारा प्रस्तुत मांगों के आगत प्रवाहों और उनके समाधान हेतु किए गए नीति परिवर्तनों तथा उनके क्रियान्वयन की दिशा में किए जाने वाले प्रयासों, अर्थात् निर्गत प्रवाहों (आउटपुट्स) की निरन्तर क्रियाशील प्रक्रिया के परिणाम के रूप में निरूपित किया जाने लगा ।
राजनीतिक भूगोल में इस परिदृष्टि की ओर सर्वप्रथम जैक्सन (1964) ने ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया तथा कैस्परसन ओर मिंघी (1969) की पुस्तक ने इस सूत्र को और आगे बढ़ाया । राज्यों को आगत-निर्गत व्यवस्था के रूप में देखने की प्रथा अमरीका से प्रारम्भ हुई थी । वहां इसका प्रयोग मुख्यता निर्वाचन परिणामों की व्याख्या के सन्दर्भ में किया गया ।
अमरीकी राजनीतिशास्त्र में इस अध्ययन को राजनीतिक समाजशास्त्र की संज्ञा दी गई । यही राजनीतिक भूगोल के क्षेत्र में निर्वाचन परिणामों के अध्ययन (अर्थात् निर्वाचन भूगोल) का प्रमुख प्रेरणा स्रोत था । सत्तर के दशक में निर्वाचन भूगोल के माध्यम से ही राजनीतिक भूगोल में मात्रात्मक अध्ययन पद्धति का प्रवेश हुआ । इसके परिणामस्वरूप राजनीतिक भूगोल को मानव भूगोल की मुख्य धारा से जोड़ने में सहायता मिली ।
परन्तु राजनीतिक अध्ययन के क्षेत्र में मात्रात्मक अध्ययन पद्धति की उपादेयता अत्यधिक सीमित है । आगत-निर्गत व्यवस्था सम्बन्धी अध्ययन पद्धति का प्रयोग केवल उन्हों समस्याओं के अध्ययन में सम्भव है जिनमें अन्तगीमी और वहिर्गामी प्रवाह स्पष्टतया परिलक्षित हों ।
उदाहरणार्थ, निर्वाचन परिणामों के विश्लेषण में यह विधि निश्चय ही प्रभावी सिद्ध हुई क्योंकि यहां राजनीतिक आगत और निर्गत की पहचान अपेक्षाकृत सरल थी । यही कारण था कि सत्तर के दशक में निर्वाचन भूगोल मूलतया मात्रात्मक विश्लेषण बन गया ।
परन्तु हमारे राजनीतिक जीवन के अधिकांश पक्ष सामाजिक विश्वासों, रुचियों और अरुचियों, तथा व्यक्तिगत सम्बन्धों से गहरे जुड़े हैं । इनके विलेषण में मात्रात्मक पद्धति कारगर नहीं हैं । यही कारण है कि सत्तर के दशक में राजनीतिक भूगोल मुख्यतया निर्वाचन परिणामों का सांख्यिकी विश्लेषण मात्र होकर रह गया । अत: राजनीतिक भूगोल का यह पुनर्जागरण एक सीमित पुनर्जागरण था ।
साठ के दशक में राजनीतिक भूगोल को नई दिशा देने में दो सम्पादित पुस्तकों का विशेष योगदान था । ये थीं जैक्सन (1964) की पुस्तक पालिटिक्स एण्ड जिओग्राफिक रिलेशनशिफ्ट तथा कैस्परसन और मिंघी की पुस्तक सिस्टमेटिक पोलिटिकल जिओग्राफी (1969) जैक्सन ने अपनी पुस्तक में राजनीतिक अध्ययन की विभिन्न शाखाओं में प्रकाशित कुछ महत्वपूर्ण लेखों के अंश संकलित कर राजनीतिक भूगोल के विषय क्षेत्र को अधिक व्यापक वनाने का प्रयास किया ।
साथ ही विषय के अध्ययन में वैचारिक प्रगति से विद्यार्थियों को अवगत कराने के लिए राजनीतिक भूगोल के क्षेत्र में प्रकाशित महत्वपूर्ण लेखों के मुख्य अंश भी दिए गए थे । कुल मिलाकर इस पुस्तक ने राजनीतिक भूगोल को राजनीतिक अध्ययन में लगे अन्य विषयों की पंक्ति में खड़ा कर उसे राजनीति के समाज वैज्ञानिक अध्ययन की मुख्य धारा से जोडने का प्रयास किया ।
केस्परसन और मिंघी ने अपनी पुस्तक में इस कार्य को और आगे बढ़ाते हुए राजनीतिक भूगोल को दूरत्चपरक क्षेत्रीय परिदृष्टि से किए जाने वाला राजनीति के समग्र अध्ययन के रूप में स्थापित करने का सफल प्रयास किया ।
दोनों पुस्तकों के योगदान में मूलभूत अन्तर यह था कि जैक्सन भूगोल के स्थानिक (एरियल) स्वरूप के पक्षधर थे, तो कैस्परसन और मिंघी उसके दूरत्वपरक क्षेत्रीय विश्लेषण (स्पेशियत्न एनैलिसिस) वाले स्वरूप के पक्षधर थे ।
इन दोनों पुस्तकों के सम्मिलित प्रयास से राजनीतिक भूगोल तथा राजनीति के अध्ययन में लगे अन्य विज्ञानों के बीच खड़ी संकल्पनात्मक दीवार को ध्वस्त करने में सहायता मिली । परिणामस्वरूप 1970 के दशक के प्रारम्भ होते ही राजनीतिक भूगोल में राजनीति के व्यापक और समग्र रूप के अध्ययन और निर्वचन के लिए नई अध्ययन विधियों की खोज प्रारम्भ हो गई ।
इस दिशा में किए गए प्रयासों में ”नीदरलैण्ड जर्नल ऑफ इकनामिक एण्ड सोशल जिओग्राफी” में प्रकाशित “टुवर्ड ए जेनेरिक एप्रोच इन पोलिटिकल जिओग्रफिा” तथा अमरीकी पत्रिका “जिओग्राफिकल रिव्यू” में कोहेन आर रोजेथाल (1971) का लेख “ए जिओग्राफिकल मॉडल फार पोलिटिकल सिस्टम्स एनैलिसिस” उल्लेखनीय हैं ।
मोटे तौर पर छठे दशक के मध्य से सत्तर के दशक के अन्त तक के पन्द्रह वर्षों को राजनीतिक भूगोल की विकास यात्रा में दूरत्वपरक क्षेत्रीय और व्यवहारवादी दृष्टिकोण (स्पेशियल-बिहेवोरल एप्रोच) का हग कहा जाता है ।
इस दौर की प्रमुख विशेषता थी कि अन्य सामाजिक विज्ञानों की भांति राजनीतिक भूगोल के समग्र अध्ययन में ”सिस्टम्स परस्पेक्टिव” (व्यवस्थावादी परिदृष्टि) एक मूलभूत मान्यता बन गई । राज्यों को अब व्यवस्था सम्पन्न क्रियाशील इकाइयों के रूप में देखा जाने लगा और राजनीतिक चुनाव (अर्थात् निर्वाचन) को आगत-निर्गत व्यवस्था प्रक्रिया के रूप में विश्लेषित किया जाने लगा ।