Read this article to learn about the methodology laid down for the study of political geography in Hindi language.
1950 में प्रकाशित एक महत्वपूर्ण शोध पत्र में हार्टशोर्न ने राजनीतिक भूगोल के स्वरूप और उसकी प्रगति की समीक्षा करते हुए रेखांकित किया कि उनके द्वारा प्रतिपादित, आकारिक अध्ययन विधि व्यावहारिक स्तर पर कारगर सिद्ध नहीं हुई थी ।
उनके विचार में इसका प्रमुख कारण यह था कि राज्य एक सोद्देश्य निर्मित सामाजिक कृति है तथा वह मूलतया एक क्रियाशील एवं समग्रतापूर्ण (इंटीग्रेटेड) इकाई है । अत: आवश्यक है कि राज्य का कोई भी अध्ययन राज्य के उद्देश्यों और उसकी क्रियाशील समग्रता पर केन्द्रित हो ।
राज्य की अपनी त्रुटिपूर्ण अवधारणा के परिणामस्वरूप आकारिक अध्ययन पद्धति राज्य के इस आधारभूत स्वरूप पर ध्यान नहीं दे सकी थी । यही कारण था कि राजनीतिक भूगोल उत्तरोत्तर महत्वहीन होता गया तथा कुशाग्र बुद्धि विद्यार्थी उच्च अध्ययन के लिए भूगोल की अन्य शाखाओं का वरण करने लगे राजनीतिक भूगोल को इस अधोगति से उबरने के प्रयास में हार्टशोर्न ने अपना यह प्रपत्र पेश किया था जो कि एक वर्ष पूर्व एसोसिएशन ऑफ अमरीकन जिओग्रफ्स के वार्षिक अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण के रूप में ”राजनीतिक भूगोल में क्रियापरक अध्ययन पद्धति” शीर्षक से प्रस्तुत किया गया था ।
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इस प्रपत्र (और अध्ययन पद्धति) की मूलभूत मान्यता थी कि एक विशिष्ट भूखण्ड और उसके निवासियों के परस्पर संयोग द्वारा निर्मित संगठनात्मक इकाई के रूप में किसी भी राज्य का प्रमुख उद्देश्य देश के भौगोलिक क्षेत्र के विभिन्न प्रदेशों को परस्पर एक पूर्णतया क्रियाशील इकाई के रूप में संगठित करना है ।
इस उद्देश्य को प्राप्त करने के प्रयास में सभी राज्य देश के अन्दर राजनीतिक सम्बन्धों पर क्षत्र नियंत्रण, अर्थात देश में, शांति कायम रखने का पूर्ण अधिकार, स्थापित करने का प्रयत्न करते हें । इसके लिए आवश्यक है कि देश के अन्दर सभी स्तरों पर स्थानीय और क्षेत्रीय राजनीतिक संस्थाएं केन्द्रीय अनुदेशों के अनुरूप हों । आर्थिक क्षेत्र में प्रत्येक आधुनिक राज्य देश को संतुलित विकास की ओर बढ़ाने का प्रयास करता है ।
आर्थिक नियोजन, मुद्रा नियंत्रण, और अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्धों का राजकीय नियंत्रण इस प्रयास के अनिवार्य अंग हें । साथ ही आज प्रत्येक राज्य विश्वव्यापी अन्तररष्ट्रिाय समुदाय का भाग है, अतएव हर राज्य को अन्य प्रतिस्पधी राज्यों की ओर से संभावित खतरों के लिए हमेशा तैयार रहना आवश्यक है ।
इन खतरों से बचाव के लिए आवश्यक है कि राज्य देश की जनता की निष्ठा के प्रति आश्वस्त रहे । अर्थात् देश के सभी हिस्सों के निवासियों की अन्तिम आस्था अपने देश और उसकी सरकार के प्रति होनी चाहिए ।
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अत: प्रत्येक राज्य अपने नागरिकों में राष्ट्रीय एकता के प्रति आस्वाभाव बनाए रखने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहता है । इसके लिए आवश्यक हैं कि स्थानीय और क्षेत्रीय असंतोष पर नियंत्रण रहे तथा देश के किसी भाग के निवासी देश की सीमा पार के राज्य के प्रति किसी भी प्रकार से आकृष्ट न हों ।
शायद ही कोई राज्य प्राकृतिक रूप में एक समग्र इकाई है (अथवा रहा है) जिसमें प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित कर पूर्णतया क्रियाशील राज्य स्थापित किया जा सकता है । लोटे से छोटे राज्यों में भी पयप्ति क्षेत्रीय विविधता विद्यमान है ।
परिणामस्वरूप प्रत्येक राज्य के सम्मुख प्राथमिक व्यवस्थात्मक समस्या यह है कि देश के अन्दर स्थित विभिन्न क्षेत्रीय प्रखण्डों को किस प्रकार एक अन्योन्याश्रयी सम्बन्ध में जोड़कर सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र को एक प्रभावी और पूर्ण रूपेण क्रियाशील राजनीतिक इकाई के रूप में स्थापित किया जाए ।
ये अन्तरक्षेत्रीय विविधताएं तीन प्रकार की हैं:
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(1) प्राकृतिक अथवा मानवजन्य अवरोधों के कारण एक दूसरे से कटे प्रदेश,
(2) बाहरी देशों के प्रति सहानुभूति के आधार पर एक दूसरे से गुणात्मक रूप से पृथक क्षेत्र, तथा
(3) ऐसे क्षेत्र जो आपस में आर्थिक हितों, जनसंख्या संरचना तथा राजनीतिक रुझान की दृष्टि से अलग-अलग पहचान वाले हैं ।
क्रियापरक अध्ययन पद्धति इन्हीं अन्तरक्षेत्रीय विविधताओं को समग्रता प्रदान करके रारक पूर्णतया क्रियाशील राजनीतिक क्षेत्रीय ‘इकाई के निर्माण की समस्या के समाधान की प्रक्रिया के अध्ययन पर केन्द्रित है’ इस समस्या के निरूपण हेतु दो प्रकार के तत्वों का विश्लेषण करना आवश्यक है, एक पृथकतामूलक तत्व तथा दूसरा एकतामूलक तत्व ।
पृथकतामूलक तत्व:
अनेक प्राकृतिक स्थलाकृतिक तत्व अन्तरक्षेत्रीय संचार में बाधक सिद्ध होते हैं परन्तु आधुनिक युग में अधिकांश देशों में आवागमन की आधुनिक तकनीक के विकास के साथ इसका हल निकाला जा चुका है । राजनीतिक व्यवस्था के लिए अन्तरक्षेत्रीय संचार विकास के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि देश की राजधानी तथा राज्य के सभी क्षेत्रीय उपांगों के बीच प्रभावी संचार सम्बन्ध स्थापित हो ।
अत: भौतिक दूरी अपने आप में एक पृथकता मूलक तत्व है । इसी कारण से देश का भौगोलिक आमाप और उसकी आकृति पहले राजनीतिक भूगोल के अध्ययन में इतने महत्वपूर्ण माने जाते थे । मानवीय अवरोधों में जनशून्यता एक प्रमुख अवरोधक तत्व है क्योंकि जनशून्य प्रदेशों से होकर संचार की स्थापना कठिन और महंगा कार्य है ।
परिणामस्वरूप ऐसे क्षेत्रों के दोनों ओर स्थित भागों के बीच दूरी और अलगाव का भाव बढता है । इसी प्रकार यदि किन्हीं कारणों से देश के कुछ हिस्सों की जनता सीमापार के क्षेत्रों के प्रति सहानुभूति रखने वाली हो तो क्षेत्रीय समग्रता और अन्तरक्षेत्रीय एकसूत्रता की स्थापना में कठिनाई उत्पन्न होती है ।
भारत में कश्मीर घाटी के सन्दर्भ में यह समस्या देश के लिए निरन्तर संकट पैदा करती रही है । परन्तु व्यावहारिक स्तर पर बहुधा इससे भी कठिन समस्या जनसंख्या संरचना के सामाजिक तत्वों के क्षेत्रीय केन्द्रीकरण से उत्पन्न परस्पर अलगाव की भावना से उद्भूत होती है ।
भारत में बोल चाल की भाषाओं तथा धार्मिक विश्वासों के क्षेत्रीय केन्द्रीकरण से उत्पन्न कठिनाई से हम भली भांति परिचित हैं । 1956 में राज्यों का पुनर्गठन भाषा के आधार पर ही करना पड़ा था तथा पंजाब और कश्मीर की समस्या काफी हद तक धार्मिक विश्वास के क्षेत्रीय केन्द्रीकरण का परिणाम है ।
इसी प्रकार शिक्षा ओर जीवन स्तर के मामले में अन्तरक्षेत्रीय विषमताएं, तथा क्षेत्रों के बीच आर्थिक दर्शन और वर्ग संघर्ष सम्बन्धी परस्पर प्रतिस्पर्धापूर्ण रुझान राष्ट्रीय एकता के रास्ते में कठिनाई के कारण बनते हैं ।
एकता मूलक तत्व:
कोई देश एक केन्द्रीय सत्ता द्वारा नियंत्रित है और अन्तरराष्ट्रीय समुदाय में उसे मान्यता प्राप्त है यह इस वात का स्पष्ट प्रमाण है कि उसमें कुछ ऐसे एकता मूलक तत्व निहित हैं जो सारी विविधताओं के उपरान्त भी पूरे भौगोलिक क्षेत्र और उसके निवासियों को ही लोकतांत्रिक सूत्र में पिरोने में समर्थ हुए हैं ।
इन एकता मूलक तत्वों में आधूनिक युग में सर्वप्रधान तत्व राज्य की विशिष्ट राजनीतिक अवधारणा (स्टेट-आइडिया) है । प्रत्येक राज्य किन्हीं विशिष्ट आदर्शों की प्राप्ति, किन्हीं सर्वमान्य मूल्यों की रक्षा, सांस्कृतिक धरोहरों, ऐतिहासिक सतियों अथवा सामाजिक पहचान को बनाए रखने आदि के आधार पर संगठित होता है ।
देश के स्वतंत्र इकाई के रूप में अस्तित्व का यही मूल आधार (रेजांदेत्र), उसको औचित्य प्रदान करने वाले यही तत्व अथवा उनका कोई विशिष्ट मिश्रित रूप राज्य की राजनीतिक अवधारणा का निर्माण करता है, जिसकी निरन्तरता हेतु राष्ट्र के नागरिक केन्द्रीय सत्ता के प्रति आस्थावान वने रहते हैं । भिन्न-भिन्न राज्यों की राजनीतिक अवधारणायें भिन्न-भिन्न होती हैं क्योंकि इसमें निहित तत्व स्थान और समय सापेक्ष हैं ।
इस अवधारणा के महत्व को रेखांकित करते हुए रैटज़ेल ने लिखा था कि ”ऐसे राज्य जिनमें राज्य की राजनीतिक अवधारणा देश के सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र में समान रूप से व्याप्त है” सर्वाधिक स्थायी होते हैं । हार्टशोर्न के अनुसार राज्य की राजनीतिक अवधारणा, उसके अस्तित्व में निहित आधारभूत तत्व, किसी भी राज्य के राजनीतिक भूगोल के अध्ययन का सबसे मह्त्वपूर्ण तत्व है अत: किसी भी राज्य के राजनीतिक भौगोलिक अध्ययन का प्रारम्भ उसकी राजनीतिक अवधारणा की पहचान से ही किया जाना चाहिए ।
इसकी पहचान के बाद ही स्पष्ट होगा कि देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्र किस आधार पर एकीकृत हुए हैं । ”जब तक हम इस मूलभूत अवधारणा का पता नहीं करते तब तक देश के राजनीतिक भूगोल के विश्लेषण का आधार नदारद होगा और हमारा अध्ययन भूगोल की विशिष्ट परिदृष्टि के योगदान से वंचित रहेगा” ।
राजनीतिक एकता की सुदृढ़ता को प्रभावित करने वाले दो अन्य प्रमुख तत्व है राष्ट्रीयता की भावना और क्रोड़ क्षेत्रों की स्थिति और स्वरूप । यहां मात्र इतना याद रखने की जरूरत है कि राष्ट्र सामाजिक अनुभूति जन्य भावना है जो समय और स्थान के अनुरूप परिवर्तनशील है ।
साथ ही सांस्कृतिक विकास के प्रारम्भिक दौर में इसका आधार पारिवारिक एकता की भावना और रक्त संबंध पर आधृत होती है । परन्तु उत्तरोत्तर यह भावना खून के रिश्तों से हटकर सामाजिक पहचान और सामूहिक उददेश्यों की सुरक्षा पर निर्भर हो जाती है । जहां राष्ट्रीयता की भावना जितनी ही व्यापक होगी वहां राजनीतिक एकता उतनी ही पुष्ट होगी ।
हार्टशोर्न के अनुसार क्रोड़ क्षेत्रों की संख्या तथा उनका स्वरूप गौण महत्व के हैं । उदाहरणार्थ संयुक्त राज्य अमरीका प्रारम्भ से ही तेरह क्रोड़ क्षेत्रों के सम्मिलन से बना था परन्तु उसको राजनीतिक अवधारणा की सुदृढ़ता के कारण देश की एकता प्रारम्भ से ही संदेह से परे रही है । परन्तु यह बात निर्विवाद है कि पुरानी संस्कृति वाले देशों में क्रोडों की बहुलता से क्षेत्रीय सांस्कृतिक विविधता में वृद्धि होती हे । परिणामस्वरूप राप्यीय एकता बनाए रखना उसी अनुपात में ओर कठिन हो जाता है ।
आन्तरिक संगठन और अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध:
वसिवीं सदी के अन्त तक दुनिया के अधिकांश देश मूलतया आत्मनिर्भर राजनीतिक आर्थिक इकाइयां थे अत: उनका राजनीतिक जीवन और उसका भौगोलिक विश्लेषण देश की आन्तरिक संगठनात्मक व्यवस्था के निरूपण तक ही सीमित था । बीसवीं सदी में यह स्थिति हुत गति से बदल गई ।
उत्तरोत्तर अन्तरराष्ट्रीय व्यापार और अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध राष्ट्रिय जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे । अत: हार्टशोर्न ने अपने प्रपत्र में किसी भी देश के राजनीतिक भूगोल के अध्ययन में देश के अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों पर ध्यान देना आवश्यक बताया । मूलतया ये सम्बन्ध चार प्रकार के हैं क्षेत्रीय अधिकार सम्बन्धी (जिसमें सीमा सम्बन्धी विवाद प्रमुख हैं), आर्थिक सम्बन्ध, राजनीतिक सम्बन्ध, ओर सामरिक नियोजन से सम्बद्ध प्रश्न ।
परन्तु तत्कालीन स्थिति के अनुरूप ही उन्होंनें बाह्य सम्बन्धों को गौण महत्व दिया तथा उन्हें मात्र ”प्रभाव” रूप में विश्लेषित किया क्योंकि तब; तक ये प्रभाव जीवन के ”अन्तिम” अथवा प्रधान सत्य नहीं बने थे । आज की परिवर्तित स्थिति में विश्वस्तरीय प्रभाव राज्य की क्रियाशीलता में अहम भूमिका निभाते हैं अत: उनका सविस्तार विशलेषण आवश्यक है ।