Read this article to learn about the contribution of geography in the study of international relations in Hindi language.
7वॉन डर वूस्टन (1997) के अनुसार अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन में भूगोल का योगदान तीन प्रविष्टियों पर केन्द्रित है । ये हैं खिलाड़ी, मैदान, और खेल । अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के प्रमुख खिलाड़ी विभिन्न राष्ट्रीय इकाइयां तथा उनके बीच विभिन्न प्रकार के सीमा के आर-पार होने वाले आदान-प्रदान में लगी संस्थाएं हैं ।
इनमें अन्तर-शासकीय संगठन इण्टरगवर्नमेण्टल अगिनाइजेशन्स (आई.जी.ओ) बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और विदेश नीति से सम्बद्ध समस्याओं में लगी संस्थाएं शामिल हैं । मैदान से तात्पर्य विश्व तथा क्षेत्रीय स्तर पर स्थित उस राजनीतिक आर्थिक और सामरिक परिवेश से है जिसके परिप्रेक्ष्य में कोई राज्य अपनी विदेश नीति का संचालन करता है तथा जो उसके अन्तरराष्ट्रीय आचरण को प्रभावित करती है ।
खेल से तात्पर्य देशों के बीच होने वाले विभिन्न प्रकार के बहुपक्षीय सम्बन्धों से है । इनमें व्यापारिक, सांस्कृतिक और अन्य प्रकार के मैत्री अथवा शत्रुतापूर्ण सम्बन्ध शामिल हैं । अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन की आधारभूत इकाइयां राज्य रूपी खिलाड़ी ही हैं । परिवेश (अर्थात् मैदान) तथा खेल का चुनाव और उसका संचालन उनके अनुरूप ही होता है ।
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अत: आवश्यक है कि अध्येता विश्व मंच के प्रमुख खिलाड़ियों के दिनानुदिन वदलते स्वरूप तथा इस परिवर्तन के सम्भावित परिणामों के प्रति सतर्क रहे । उदाहरणार्थ कुछ राज्यों की बाहरी ताकतों पर निर्भरता इतनी बढ़ गई है कि उनकी प्रभुसत्ता खतरे में पड़ गई है । वे स्वतंत्र निर्णय का अधिकार खो चुके हैं ओर उनकी प्रभावहीनता के परिणामस्वरूप देश में अराजकता उत्पन्न होती जा रही है ।
1998 में इण्डोनेशिया कुछ इसी प्रकार की स्थिति से गुजर रहा था । राज्यों की क्षेत्रीय पहचान सम्बन्धी इस दिन प्रतिदिन बढ़ते खतरे का अध्ययन अनुशीलन आज अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन की प्रमुख समस्या है । देशों के अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध का संचालन तत्कालिक और अस्थायी स्थितियों की प्रतिक्रिया मात्र न होकर अनेक स्थायी राष्ट्रीय हितों के परिप्रेक्ष्य में लिए गए निर्णय का परिणाम हैं ।
यह परिप्रेक्ष्य किसी देश के भौगोलिक परिवेश में निहित तीन तत्वों पर निर्भर है:
(1) कोई देश अन्तरराष्ट्रीय राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में अपनी स्वयं की स्थिति और अपनी भागीदारी का कैसा स्वरूप चित्रित करता है ।
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(2) अपने पास-पड़ोस के अन्तरराष्ट्रीय परिवेश में वह अपने लिए किस प्रकार की भूमिका की अपेक्षा करता है, राष्ट्र मानस में शत्रु और मित्र देशों के बारे में किस प्रकार का बिम्ब निर्मित हुआ है, तथा पास-पड़ोस के देशों की तुलना में उसकी अपनी आर्थिक ओर राजनीतिक स्थिति क्या है ।
(3) देश की आन्तरिक राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था तथा उसकी जातीय और धार्मिक के परिप्रेक्ष्य में उसे विश्व के अन्य देशों के साथ किस प्रकार के सम्बन्ध स्थापित करने की आवश्यकता । उदाहरणार्थ 1950 के बाद भूतपूर्व सोवियत संघ और उसके सहयोगी देशों की संगठनात्मक एकता बहुत हद तक हृदय स्थल संकल्पना में निहित उस क्षेत्र के शक्ति सामर्थ्य के अटल विश्वास पर निर्भर थी ।
इसी प्रकार संयुक्त राज्य अमरीका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों को सोवियत संघ की घेराबन्दी सम्बन्धी विदेश नीति स्पाइकमेन ओर केनान का संस्तुति के अनुरूप थी । इसके विपरीत अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में भारत की तटस्थतापूर्ण विदेश नीति देश के विशाल भौगोलिक आकार और जनसंख्या तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश की विकास योजनाओं के लिए सभी सम्भावित स्रोतों से तकनीकी और आर्थिक सहायता की आवश्यकता के राष्ट्रीय आकलन इत्यादि पर निर्भर थी ।
अत: किसी भी देश के अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों, और उसकी विदेश नीति के विश्लेषण में देश के हितों की दृष्टि से उसके अन्तरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय परिवेश की पूरी तस्वीर खींचना आवश्यक है । उदाहरणार्थ भारत की जनसंख्या की धार्मिक संरचना को ध्यान में रख कर ही देश की पश्चिम एशियाई विदेश नीति को समझा जा सकता है । देश की कुल जनसंख्या का आठवां भाग इस्लाम मतावलम्बियों का है तथा पश्चिम एशियाई समस्या को मुख्यतया इस्लाम बनाम यहूदी धमविलम्बियों के संघर्ष के रूप मे देखा जाता है ।
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अत: वोट बैंक की राजनीति के दौर में कांग्रेस सरकार को यहूदियों की अपेक्षा अरबों का साथ देना अधिक आवश्यक प्रतीत हुआ था । 1970 के दशक के उत्तरा में राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति के समाप्त होते ही भारत और इजराइल के बीच राजनयिक सम्बन्ध स्थापित हो गए थे ।
संक्षेप में अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धो के भूगोल के अध्ययन में विभिन्न स्तरीय परिवेशों (अर्थात् अन्तरराष्ट्रीय राजनीति के मैदान क्षेत्रों) का निरूपण, और अध्ययन किए जाने वाले विषय पर उनके प्रभाव का आकलन आवश्यक है ।