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महान का योगदान:
अमरीकी विद्वान अल्फ्रेड थेयर महान (1840-1914) सामुद्रिक शक्ति प्रसार और नौसामरिक चिन्तन के क्षेत्र में अत्यधिक प्रभावपूर्ण विचारक थे । मगिरट स्प्राउट के शब्दों में प्राय सभी देशों की नौसैनिक विचारधारा पर महान का सीधा प्रभाव था ।
बीसवी सदी के प्रारम्भिक वर्षों में संयुक्त राज्य अमरीका की विदेशनीति को विश्वस्तरीय आयाम दिलाने में उनका महान योगदान था । वे स्वयं संयुक्त राज्य अमरीका की नैवल अकादमी के स्नातक थे तथा अमरीकी नौसेना से रीअर ऐड्मिरल के पद से 1906 में अवकाश ग्रहण किया था ।
नौसैनिक चिन्तन सम्बन्धी महान के विचार उनकी अनेक पुस्तकों और लेखों में व्यक्त हैं । इनमें तीन पुस्तकें विशेष महत्व की हैं: दि इंक्यूएंस ऑफ सी पावर अपॉन हिस्टरी, 1660-1783(1890), दि इंफ्लुएंस ऑफ सी पावर अपॉन फ्रेंच रिवोल्युशन एण्ड एम्पायर 1793-1832 (1892); तथा दि लाइफ ऑफ नेल्सन (1897) ।
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इन सभी में इस बात पर बल दिया गया हैं कि आधुनिक युग में विश्व शक्ति के रूप में स्थापित होने के लिए सामुद्रिक मार्गो का नियंत्रण एक अनिवार्य शर्त है । महान का निश्चित मत था कि शक्ति विस्तार की विश्वव्यापी होड़ में सामुद्रिक शक्तियां सदा ही विजयी रहेंगी ।
महान के सामरिक चिन्तन की कुछ आधारभूत बातें इस प्रकार हैं:
(1) पृथ्वी की सतह पर सभी महासागर ओर सागर परस्पर मिले हुए हें अत सामुद्रिक यातायात एक समन्वित व्यवस्था है;
(2) पृथ्वी पर एक विशाल स्थल खण्ड रूसी साम्राज्य के रूप में विद्यमान है जो यूरेशिया के मध्य में स्थित समुद्री मार्गों से पूरी तरह कटा हुआ है;
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(3) यह आन्तरिक उपमहाद्वीपीय प्रखण्ड पश्चिम, दक्षिण, तथा पूर्व में समुद्र तटीय शक्तियों से घिरा है; तथा
(4) विश्व के तीन सामुद्रिक स्थिति वाले देश यूरेशियाई महाद्वीप से अलग परन्तु अनेक दृष्टियों से उससे सम्बद्ध रूप में स्थित हें । ये हैं संयुक्त राज्य अमरीका, ग्रेट ब्रिटेन तथा जापान ।
उन्नीसवीं सदी में यूरोपीय संस्कृति वाले देशों की आर्थिक सम्पन्नता अन्तरराष्ट्रीय व्यापार पर निर्भर थी और अन्तरराष्ट्रीय व्यापार मुख्यतया समुद्री मार्गों के द्वारा होता था, अत: महान के अनुसार समुद्री मार्गो के समीप की स्थिति किसी देश के लिए आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से अत्यधिक लाभप्रद है ।
इसके विपरीत आन्तरिक महाद्वीपीय स्थिति सम्बद्ध देश को इन लाभों से वंचित कर देती है । महान के विचार में रूसी साम्राज्य महाद्वीपीय स्थिति के हानिकारी प्रभावों का अच्छा उदाहरण है । बाहरी देशों से इसका संचार सम्बन्ध अत्यधिक सीमित है तथा इसके विशाल क्षेत्रीय आकार के कारण देश के अन्दर विभिन्न स्थानों के बीच की दूरियां इतनी अधिक हैं कि संचार व्यवस्था स्थापित करना खर्चीला और कठिन कार्य है ।
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परिणामस्वरूप देश में अन्तरक्षेत्रीय समग्रता का अभाव है । इस स्थिति के कारण रूसी साम्राज्य को सामुद्रिक शक्तियों के लिए बाहरी देशों से पूरी तरह काट देना सरल कार्य है । महान के शब्दों में यदि रूसी साम्राज्य को विच्छिन्न करना सम्भव न भी हो तो कम से कम उसे बांध कर रखना अवश्य ही सम्भव है ।
महान के अनुसार ग्रेट ब्रिटेन की भौगोलिक स्थिति सामुद्रिक यातायात की दृष्टि से आदर्श स्थिति है । यही कारण है कि अपने इतने लघु आकार का होते हुए भी ब्रिटेन इतने विशाल साम्राज्य की स्थापना में सफल हो सका था ।
महान ने ब्रिटेन की सामुद्रिक शक्ति के विकास के इतिहास ओर उसके भौगोलिक आधार का गहन विश्लेषण किया । इस विश्लेषण के आधार पर महान का निष्कर्ष था कि यूरोपीय देशों में ब्रिटेन एक मात्र ऐसा देश है जो कि पूरी तरह समुद्र से घिरा है ।
परिणामस्वरूप जहां एक ओर यूरोपीय महाद्वीप के अन्य देशों को बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा हेतु निरन्तर प्रयत्नशील रहना पड़ता था वहीं ब्रिटेन को इस तरह का कोई खतरा नहीं था । इसीलिए वह निर्वाध रूप से शक्ति संचयन कर सका था ।
सीमाओं की सुरक्षा हेतु उसे सेना तथा युद्ध के साज सामान पर खर्च करने की आवश्यकता नहीं थी अत: ब्रिटेन यह धन और जन संसाधन देश की नौसेना तथा युद्धपोतों के विकास में लगा सका । ब्रिटेन की भौगोलिक स्थिति की दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि वह उत्तरी यूरोपीय देशों तथा अटलाण्टिक सागर के बीच स्थित है । परिणामस्वरूप उत्तरी और पश्चिमी यूरोपीय देशों का गहरे समुद्र वाला सारा व्यापार ब्रिटिश चैनल से होकर गुजरता था ।
अत: ब्रिटेन इस व्यापार में सरलता से भाग ले सकता था । साथ ही ब्रिटेन की नौसेना इस व्यापार में अवरोध भी उत्पन्न कर सकती थी । परिणामस्वरूप शीघ्र ही ब्रिटेन अन्तरराष्ट्रीय व्यापार में अग्रणी भूमिका निभाने लगा तथा विश्व के सभी महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग उसके नियंत्रण में आ गए ।
प्राय: सभी महत्वपूर्ण सामुद्रिक मार्गो के निर्णायक महत्व वाले स्थानो पर ब्रिटिश नौसेना ने अपने नौसैनिक बेड़े तैनात कर लिए थे । इनमें जिब्राल्टर का जलडमरूमध्य, स्वेज नहर, उत्तम आशा अन्तरीप, सिंगापुर, हांग कांग, मैगलन जलडमरूमध्य, तथा विषाण अन्तरीप (केप ऑफ हार्न) शामिल थे ।
इन बेड़ों के आधार पर ब्रिटेन यूरोप, एशिया तथा प्रशान्त महासागरीय क्षेत्रों में सरलता से निर्णायक स्थिति में आ गया । अटलाण्टिक सागर में एक ओर नोवा स्काटिया स्थित ब्रिटिश नौसैनिक बेड़ा संयुक्त राज्य अमरीका से सूदूर पूर्व (फार ईस्ट) को जाने वाले वृहद वृतीय व्यापारिक मार्ग की निगरानी कर सकता था तो दूसरी ओर ब्रिटिश वेस्ट इण्डियन द्वीप समूह पनामा नहर के रास्ते होने वाले व्यापार पर निगाह रख सकता था ।
अन्य देशों से ब्रिटेन की भौगोलिक स्थिति की तुलना के आधार पर महान का निष्कर्ष था कि मात्र संयुक्त राज्य अमरीका ही एक ऐसा देश है जो स्थिति और संसाधनों में ब्रिटेन की बराबरी कर सकता है और उसे मात भी दे सकता है ।
इसकी सीमाओं पर कोई अन्य शक्तिशाली राज्य नहीं है । साथ ही इसकी स्थिति भी दो महान समुद्रों के बीच हैं जिससे देश को प्रारम्भ से ही सामरिक सुरक्षा प्राप्त रही है । उपनिवेशों की कमी को वेह आसानी से अपने उपमहाद्वीपीय भौगोलिक क्षेत्र में निहित संसाधनों से पूरी कर सकता है ।
एक ओर अटलाण्टिक तथा दूसरी ओर प्रशान्त महासागर के तट पर स्थित होने के कारण संयुक्त राज्य को एक साथ ही यूरोपीय तथा एशियाई दोनों क्षेत्रों से व्यापार की सुविधा प्राप्त थी । दोनों समुद्रों को जोड़ने के लिए महान ने पनामा नहर के निर्माण की सिफारिश की ।
उसे पूरा विश्वास था कि संयुक्त राज्य एक दिन विश्व का सबसे शक्तिशाली राज्य बन जाएगा । ब्रिटेन की सामुद्रिक शक्ति के विकास के विश्लेषण के आधार पर महान ने सामुद्रिक शक्ति के विकास के लिए कुछ निर्णायक तत्वों की पहचान की ।
ये हैं:
(1) देश की भौगोलिक स्थिति और उसकी स्थल सीमाओं की लम्बाई;
(2) देश का भौतिक धरातल प्रारूप । धरातल ऐसा होना चाहिए कि देश के आन्तरिक भागों और उसके तट के बीच आवागमन सम्बन्ध सरलता से स्थापित हो सके, और उसके तट पर अच्छे बन्दरगाहों का निर्माण हो सके,
(3) देश का भौगोलिक विस्तार, उसकी तटीय सीमाओं की लम्बाई तथा उसकी स्थल सीमाओं की सुरक्षा,
(4) देश की जनसंख्या का आकार । जनसंख्या जितनी ही अधिक होगी नौसैनिक बेड़ा उतना ही बड़ा हो सकेगा;
(5) देश का राष्ट्रीय चरित्र, अर्थात् नागरिकों में सामुद्रिक यातायात के प्रति आकर्षण और उनकी सामुद्रिक शक्ति विस्तार में आस्था; शासन का स्वरूप ओर शासकीय नीतियां ।
अर्थात् आवश्यक है कि देश के शासक अपनी सामुद्रिक शक्ति के विकास की ओर सचेत हों तथा उस दिशा में सशक्त कदम लेने के लिए तत्पर हो । ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमरीका के सामुद्रिक हितों की चर्चा करते समय महान सदा ही रूसी साम्राज्य की किलेबद स्थिति ओर उसके सामरिक प्रभाव विस्तार की सम्भावनाओं के प्रति सचेत थे ।
महान के अनुसार रूस का मुख्य सामरिक उद्देश्य दक्षिण में अफगानिस्तान और ईरान के रास्ते भारतीय तट तक पहुंचना था । इसी प्रकार पूर्व में वह मंचूरिया के रास्ते प्रशान्त महासागर में प्रवेश करने का इच्छुक था । इस सम्भावना को वास्तविकता में परिवर्तित करने के रूसी मंतव्य को असफल करने के लिए आवश्यक था कि ब्रिटेन और अन्य सामुद्रिक प्राक्तियां एक जुट होकर रूस का मार्ग अवरुद्ध करें ।
इस चर्चा को समाप्त करने के पहले यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि महान के समय में ब्रिटेन में रानी विक्टोरिया के शासन काल का स्वर्ण युग चल रहा था । अत: ब्रिटेन की सामुद्रिक शक्ति और उसका राजनीतिक प्रभाव सर्वव्यापी था । बीसवीं सदी के प्रारम्भ के साथ ही तकनीकी विकास का व्यापक दौर प्रारम्भ हो गया था जिसके परिणामस्वरूप यातायात ओर युद्ध कौशल के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए ।
प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् सामुद्रिक शक्ति की वर्चस्वता धीरे-धीरे वायवीय शक्ति के हाथ चली गई । अत: 1930 के बाद महान के विचारों की सामयिकता द्रुत गति से समाप्त हो गई । परन्तु यह निर्विवाद है कि महान अपने युग के मूर्धन्य सामरिक चिन्तक थे और उनकी कृतियों में मैकिंडर की हृदय स्थल विचारधारा के बीज स्पष्टयता विद्यमान थे ।
मैकिंडर का योगदान:
सर हल्फोर्ड मैकिंडर (1861-1947) अपने समय के मूर्धन्य भूगोलविद् और विचारक थे । वे लण्डन विश्वविद्यालय में भूगोल के आचार्य, लण्डन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स के निदेशक तथा ब्रिटिश संसद के सदस्य भी थे । राजनीतिक भोगोलिक अध्ययन के इतिहास में उनका केन्द्रीय महत्व इस बात में निहित है कि उन्होंने पुथ्वी की सतह पर महाद्वीपों तथा महासागरों के क्षेत्रीय वितरण प्रारूप तथा यूरोपीय इतिहास के राजनीतिक घटनाक्रम में एक नए प्रकार के कार्यकारण सम्बन्ध का रहस्योद्घाटन किया जो कि दीर्घकाल तक पश्चिमी देशों के राजनीतिक भौगोलिक चिन्तन का आधार बना रहा ।
मैकिंडर ने यूरोपीय राजनीतिक इतिहास को मूलतया स्थल ओर सामुद्रिक शक्तियों के बीच सतत् संघर्ष के घटनाक्रम के रूप में देखा । उसका विश्वास था कि इसमें निहित कार्य कारण सम्बन्ध एक शाश्वत सत्य है ।
इतिहास की भौगोलिक धुरी (1904) और भौतिक आधार पर परिभाषित हृदय स्थल संकल्पना:
मैकिंडर ने अपनी विश्व सामरिक परिदृष्टि का स्पष्टीकरण 1904 में ”दि जिओग्राफिकल पिवट ऑफ हिस्टरी” शर्षिक एक लेख के माध्यम से किया । यह लेख सवप्रथम लण्डन की रोयल जिओग्राफिकल सोसायटी के सम्मुख पढ़ा गया था तथा उसी वर्ष सोसायटी की पत्रिका जिओग्राफिकल जर्नल में प्रकाशित हुआ था ।
मेकिंडर के अनुसार उत्तर कोलम्बस काल में विश्व राजनीति उत्तरोत्तर एक समन्वित प्रक्रिया बन गई थी और उन्नीसवीं सदी के अन्त तक अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एक बन्द व्यवस्था (क्लोज सिस्टम) में परिवर्तित हो गई थी ।
राजनीतिक इतिहास के विकास में यह पहली बार सम्भव हुआ था कि विद्वान विश्व स्तर पर इतिहास और भूगोल के परस्पर सहसम्बन्ध के आधार पर इतिहास के भौगोलिक कारकों के सिद्वान्त का निरूपण कर सकें ।
पृथ्वी के स्थलाकृतिक मानचित्र के आधार पर मैकिंडर को ऐसा प्रतीत हुआ कि भूमण्डलीय स्तर पर पृथ्वी की सतह पर यूरोप, एशिया तथा अफ्रीका के परस्पर संयोग से निर्मित एक विशाल स्थत्न खण्ड तथा कुछ अन्य छोटे बड़े स्थल खण्ड (उत्तरी और दक्षिणी अमरीका, आस्ट्रेलिया, ग्रेट ब्रिटेन, और जापान आदि) स्थित हें ।
मैकिंडर ने यूरोप, एशिया तथा अफ्रीका के संयुक्त स्थल खण्ड को विश्वद्वीप का नाम दिया । साथ ही लेखक ने इस ओर भी ध्यान आकृष्ट किया कि पृथ्वी की सतह के कुल क्षेत्रफल का प्राय तीन चौथाई भाग सागरीय जल से घिरा है और केवल एक चौथाई भाग स्थल है । इस चौथाई भाग का करीब दो तिहाई क्षेत्रफल अकेले विश्वद्वीप में निहित है तथा शेष बाकी छोटे वड़े अनेक भूखण्डों में बंटा हुआ है ।
तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि विश्वद्वीप में पृथ्वी की कुल जनसंख्या का ”सात बटे आठ” (87.5%) भाग निवास करता है तथा शेष एक वटे आठ जनसंख्या अन्य भूखण्डों में वितरित है । इस प्रकार क्षेत्र तथा जनसंख्या दोनों ही दृष्टियों से विश्वद्वीप सही अर्थो में ”विश्वद्वीप” कहा जा सकता है ।
मैकिंडर को ऐसा प्रतीत हुआ कि मानचित्र पर विश्व के स्थल क्षेत्र तीन स्तरों (टीयर्स) में विभक्त हैं । प्रथम स्तर आंतरिक ओर आर्कटिक जल प्रवाह वाले एशिया के आन्तरिक क्षेत्रों का है । यह तीन ओर से पर्वतों और ऊंची अवरोधक पहाड़ियों से घिरा है और चौथी ओर वर्षपर्यन्त बर्फ से ढके समुद्र से । यही मैकिंडर का धुरी प्रदेश (”पिवट” क्षेत्र) था जिसे 1919 में लेखक ने हृदयस्थल (हार्टलैण्ड) का नाम दिया ।
इसका विस्तार उत्तर से दक्षिण आर्कटिक सागर से हिमालय की श्रेणियों तक, ओर पश्चिम में वोल्गा नदी से पूर्व में पूर्वी साइवेरिया तक चला गया था । अपनी इस स्थिति के कारण यह समा क्षेत्र सामुद्रिक शक्तियों की पहुंच के बाहर था ।
अत: सामरिक दृष्टि से वह एक विशाल दुर्ग के समान सुरक्षित था । परन्तु इस किले की दीवार पश्चिम में खुली थी । पूर्वी यूरोप के रास्ते यूराल पर्वत और कैस्पियन सागर के बीच स्थित स्टेप्स घास की संकरी मैदानी पड़ी से होकर किले में प्रवेश सम्भव था (चित्र संख्या 7.1) ।
मैकिंडर की संकल्पना के अनुसार ध्रुवी क्षेत्र के पश्चिमी, दक्षिणी और पूर्वी किनारों पर एक विशाल चन्द्राकार क्षेत्र स्थित है जिसकी नदियां वर्षपर्यन्त खुले समुद्रों में प्रवाहित होती हैं । अत: इस क्षेत्र के देश पूरी तरह सामुद्रिक शक्तियों के प्रभाव में हैं ।
इस क्षेत्र को लेखक ने आतिरक अथवा उपान्तीय अर्धचन्द्र (क्रिसेंट) की संज्ञा दी । इसके अन्तर्गत यूरेशिया महाद्वीप के पश्चिमी-दक्षिणी ओर पूर्वी तटों पर स्थित सभी देश शामिल थे । स्थल क्षेत्रों की तीसरी पेटी यूरेशिया के बाहर स्थित द्वीपों तथा महाद्वीपों की थी जिसे मैकिंडर ने बाहरी अर्धचन्द्र या द्वीपीय (इंसुलर) अर्धचन्द्र का नाम दिया ।
इसमें उत्तरी और दक्षिणी अमरीका, सहारा’ के दक्षिण में स्थित अफ्रीका महाद्वीप का क्षेत्र, आस्ट्रेलिया तथा सम्बद्ध द्वीपीय क्षेत्र शामिल थे । मेकिंडर ने ग्रेट ब्रिटेन को जापान को भी ”बाह्य” क्षेत्र के वर्ग में रखा क्योंकि यूरेशिया भूखण्ड के भाग होने के बावजूद ये उससे प्राकृतिक रूप से पृथक थे ।
मैकिंडर का दृढ़ विश्वास था कि मध्य एशिया का यह आन्तरिक प्रदेश पुराने विश्व के राजनीतिक इतिहास में सदा से ही निर्णायक भूमिका निभाता रहा है तथा वह भविष्य में भी विश्व राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहेगा ।
इसका उत्तरी, मध्य और पश्चिमी भाग एक विशाल घास का मैदान है तथा यूराल पर्वत और कैस्पियन सागर के बीच स्थित संकरे मैदानी क्षेत्र के रास्ते यह पूर्वी यूरोप के मैदानों से जुड़ा है । यूरोपीय इतिहास का लम्बा राजनीतिक उतार चढाव मैकिडर के विचार में समुद्री ओर स्थल शक्तियों के बीच शक्ति परीक्षण के संघर्ष की कभी न समाप्त होने वाली कहानी है ।
इस संकल्पना के अनुसार पांचवी ईसवी से प्रारम्भ कर सोलहवीं सदी के अन्त तक मध्य एशिया के आन्तरिक घास के मैदानों से तुरानी कबीलों के आक्रमण यूरोप के मैदानी तथा तटीय क्षेत्रों पर लगातार होते रहे थे । यूरोप के आधुनिक इतिहास का बहुत बड़ा हिस्सा इन्हीं आक्रमणों के प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष प्रभाव का परिणाम है । इन मध्य एशियाई आक्रमणकारियों का एक मार्ग यूराल पर्वत तथा कैस्पियन सागर के बीच से होकर यूरोपीय क्षेत्रों की ओर जाता था ।
दूसरा मार्ग कैस्पियन सागर और हिन्दूकुश के बीच से ईरान, मेसोपोटामिया (अब ईराक), तथा सीरिया की ओर जाता था । भारत और दक्षिणी चीन दीर्घ काल तक इन आक्रमणों से सुरक्षित थे (परन्तु उत्तरी चीन मंगोलिया के पठार के रास्ते उनका शिकार हो चुका था) । तिब्बत का पठार उनके रास्ते में एक अभेद्य दीवार के रूप में खडा था । तैमूर के आक्रमण के पश्चात भारत तथा मार्को पोलो की यात्रा के बाद दक्षिणी चीन भी मंगोल आक्रमणकारियों के प्रभाव में आ गए थे ।
मध्य एशिया के इस आन्तरिक क्षेत्र के सामरिक महत्व का सबसे प्रमुख कारण यह था कि समुद्री यातायात के युग के पूर्व यह घास से बिछा तथा प्राय समतल विशाल मैदान घोड़ों और ऊंटो की सवारी की दृष्टि से बहुत उपयोगी था । इसके कारण वहां की जनजातियों को संचार की वरीयता प्राप्त थी जिसका कि यूरेशिया के समुद्र तटीय प्रदेशों में सर्वथा अभाव था । सोलहवीं सदी में इस दीर्घकालिक स्थिति में हुत गति से परिवर्तन आया ।
सामुद्रिक यातायात के विकास के साथ ही धुरी प्रदेश का सामरिक वर्चस्व समाप्त होने लगा । मैकिंडर के शब्दों में मध्ययुग में यूरोप दक्षिण में विशाल सहारा मरुभूमि, पश्चिम में अज्ञात और अभेद्य समुद्र, तथा उत्तर में बर्फीले सागर और घने जंगलो के कारण पिंजड़े में बंद पक्षी की भांति था और पूर्व में स्थित धुरी प्रदेश से उसके अस्तित्व के लिए सतत् संकट विद्यमान था ।
सोलहवीं सदी में समुद्री यातायात की सुविधा खुत्न जाने के वाद यूरोपीय देश अब इस स्थिति में पहुंच गए थे कि वे मध्य एशियाई धुरी प्रदेश को चौतरफा घेर सके । परन्त मैकिंडर के विचार में उन्नीसवीं सदी के अन्तिम वर्षों में इस स्थिति में परिवर्तन के स्पष्ट आसार दिखाई देने लगे थे ।
रेलों और स्वचालित मोटर वाहनों के निर्माण के परिणामस्वरूप स्थलीय यातायात के विकास की सम्भावनाएं अत्यधिक बढ़ गई थीं अत: मैकिंडर को लगा कि शघ्रि ही रेल मार्गो का जाल बिछ जाने के बाद धुरी प्रदेश पुन अपना पुराना सामरिक महत्व प्राप्त कर सकेगा ।
अत: यूरोप के तटीय देशों के लिए अस्तित्व का संकट पुन उठ सकता था क्योंकि आधुनिक तकनीकी ज्ञान की सहायता से रूसी साम्राज्य पुन विश्व का सबसे शक्तिशाली देश बन सकता था । उसे विशाल अर्द्धमहाद्वीपीय क्षेत्र के संसाधन उपलब्ध थे ।
इस सम्भावना के वास्तविकता में परिणत हो जाने की स्थिति में विशाल धुरी राज्य एक-एक कर समुद्रतटीय देशों को पराजित करके उन्हें हडप सकता था । ऐसी स्थिति में उसके पास एक विशाल नौसैनिक बेडा विकसित करने के लिए सभी साधन उपलब्ध हो जघरंगे ।
अत: रूसी साम्राज्य शीघ्र ही सामुद्रिक शक्ति में ब्रिटेन को बहुत पीछे छोड़ सकता था । परिणामस्वरूप रूस के लिए सम्पूर्ण विश्वद्वीप और तत्पश्चात् सम्पूर्ण विश्व पर आधिपत्य जमाना आसान हो जाता । 1904 में जब मैकिंडर ने अपने विचार प्रस्तुत किए थे उस समय रूसी साम्राज्य की शक्ति बहुत सीमित थी ।
अत: मैकिंडर के विचार में इस सम्भावना को यथार्थ में बदलने के लिए बाहरी सहायता आवश्यक थी । इस सहायता के दो सर्वोपयुक्त स्रोत थे जर्मनी (जोकि धुरी प्रदेश में उसके दक्षिण पश्चिमी द्वार से प्रवेश कर उसे एक महान शक्ति के रूप में विकसित कर सकता था) तथा चीन (जो जापान की सहायता से रूस को परास्त कर उस पर अपना साम्राज्य स्थापित कर सकता था) ।
मैकिंडर के विचार में अन्तत वही देश एक महान शक्ति के रूप में अस्तित्व बनाए रखने में सफल होगा जिसके पास स्वयं की विशाल गहभूमि हो । इस दृष्टि से तीन सो सालों के निरन्तर विकास के बाद मैकिंडर को अब ब्रिटेन का भविष्य अनिश्चित सा लगने लगा था क्योंकि यदि विशाल आन्तरिक एशियाई धुरी प्रदेश पूरी तरह विकसित हो गया तो भविष्य में ब्रिटेन के लिए विश्व के समद्रों पर नियंत्रण बनाए रखना सम्भव नहीं था मैकिंडर ।