Read this article in Hindi to learn about the selection of confederation system in India.
1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय ब्रिटेन के भारतीय उपनिवेश का भारत तथा पाकिस्तान के रूप में विभाजित हो जाने के साथ ही देश के पूर्वी और पश्चिमी प्रांतों के मुस्लिम बहुल क्षेत्र पाकिस्तान के अंग बन गए ।
अत: भारत में परिसंघ व्यवस्था के पक्ष में दिया जाने वारना एक महत्वपूर्ण तर्क अब निराधार हो गया । इस दृष्टि से स्वतंत्र भारत के लिए परिसंघ व्यवस्था का वरण काफी हद तक तात्कालिक स्थिति की अनिवार्यता नहीं थी ।
इस सन्दर्भ में ध्यातव्य है कि ब्रिटिश शासन काल में परिसंघ व्यवस्था के पक्ष में उभरती राजनीतिक चेतना, देश की अनेक भाषाओं के स्पष्टतया क्षेत्रीय आधार तथा लम्बी अवधि से अलग-अलग इकाइयों के रूप में चली आ रही रियासतों आदि के रूप में देश में विभिन्न प्रकार की पृथक्-पृथक् क्षेत्रीय अस्तित्व वाली राजनीतिक पहचानें विद्यमान थीं ।
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इनके फलस्वरूप परिसंघ व्यवस्था का वरण देश के विभाजन के बाद भी एक राजनीतिक उत्तरदायित्व बन गया था । हमारी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत भी ही निदेश दे रही थी देश के भिन्न-भिन्न भागों में अलग-अलग क्षेत्रीय पहचानों का विकास, ऐतिहासिक दृष्टि से, मूलतया देश की भौगोलिक संरचना का परिणाम है ।
उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में समुद्र तक; तथा पश्चिम में हिन्दूकुश से लेकर पूर्व में म्यांमार की पहाड़ियों के वीच फैला हुआ भारत भौगोलिक दृष्टि से एक स्पष्टतया परिभाषित इकाई है । आदिकाल से ही इस सम्पूर्ण क्षेत्र की अपनी अलग ऐतिहासिक पहचान रही है ।
हिन्दुओं के धर्ममंत्रों में देश की सभी पवित्र नदियों की चर्चा तथा देश के चारों कोनों में हिन्दुओं के पवित्रतम तीर्थों की स्थिति इसका स्पष्ट प्रमाण है । परन्तु इस अन्तरक्षेत्रीय एकता के सूत्र के बावजूद इतने विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र में अनेक क्षेत्रीय विभिन्नताएं वर्तमान हैं ।
संरचनात्मक दृष्टि से भारत उत्तर के विशाल मैदानी क्षेत्र, विंध्याचल और सम्बद्ध पहाड़ों के दक्षिण में फैला विशाल पठारी क्षेत्र, तथा पूवी और पश्चिमी तटीय क्षेत्रों में विभक्त है । आवागमन के आधुनिक साधनों के विकास के पूर्व इन क्षेत्रों के बीच अन्तरक्षेत्रीय संचार उनके बीच की भौगोलिक दूरियों, उच्चावच की कठिनाइयों तथा घने जंगलों के कारण सीमित था ।
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अत: देश के भिन्न-भिन्न भागों में अनेक क्षेत्रीय संस्कृतियों तथा उपसंस्कृतियों का विकास हुआ । विंध्याचल के उत्तर में आर्य-संस्कृति तथा दक्षिण में द्रविड़-संस्कृति प्रधान क्षेत्र थे । विंध्य क्षेत्र के घने जंगलों के कारण इन दोनों के बीच लम्बी अवधि तक आवागमन तथा सांस्कृतिक आदान-प्रदान सीमित रहा ।
स्वयं उत्तर के मैदानी क्षेत्र तथा पठारी प्रदेश में भी स्थलावृातियों की संरचनात्मक विविधता के परिणामस्वरूप अनेक अलग-अलग उपक्षेत्रीय संस्कृतियों का विकास हुआ । मैदानी क्षेत्र में पश्चिम में सिन्धु घाटी का क्षेत्र गंगा-यमुना के मैदान से राजस्थान की विस्तृत मरुभूमि प्रदेश के माध्यम से पृथक् था तथा दोनों मैदानी क्षेत्रों के बीच आवागमन संचार दिल्ली के उत्तर में स्थित अम्बाला तया पानीपत के बीच स्थित संकरे प्रदेश से होकर ही सम्भव था ।
अत: सिन्ध और पंजाब में दो अलग-अलग स्थानीय संस्कृतियों का विकास हुआ तथा प्रत्येक में एक दूसरे से अलग स्थानीय भाषा विकसित हुर्ब । अम्बाला से पूर्व की ओर छोटा नागपुर के पठार तक गंगा-यमुना का मैदान अबाध रूप में फैला हे । इस सम्पूर्ण प्रदेश में अनेक स्थानीय बोलियों के होते हुए भी पूरे प्रदेश में हिन्दी के रूप में एक ही भाषा और एक ही प्रकार की वृहद् सांस्कृतिक पहचान का विकास हुआ ।
हिमालय की निचली पहाड़ियों तथा छोटा नागपुर के पठार के बीच के क्षेत्र से निकल कर गंगा बंगाल के डेल्टाई प्रदेश में प्रवेश करती है । प्राचीन युग में सघन वनों के कारण मध्य गंगा के मैदान तथा बंगाल प्रांत के डेल्टाई प्रदेश के ब्रीच संचार सम्बन्ध कठिन था ।
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अत: बंगाल में अलग भाषा और पृथक् स्थानीय पहचान का विकास स्वाभाविक था । इसी प्रकार शिलांग के पठार के अस्तित्व के कारण बंगाल से अलग स्थित होने के फलस्वरूप ब्रह्मपुत्र घाटी में असमिया के रूप में अलग भाषा और सांस्कृतिक पहचान का विकास हुआ ।
परन्तु उत्तर की इन सभी भाषाओं में संस्कृत और प्राकृत की ऐतिहासिक विरासत के कारण सीमित स्तर की परस्पर पहचान व्याप्त हे । राजस्थान की मरुभूमि और विंध्य पर्वत के दक्षिण में पश्चिम से पूर्व की ओर क्रमश गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश तथा उड़ीसा स्थित हैं ।
उत्तरी मैदानी प्रदेशों की तरह ये भी पृथक् सांस्कृतिक और भाषाई पहचान वाले हैं परन्तु मध्य प्रदेश के हिन्दी भाषी प्रदेश के अतिरिक्त इनमें प्रत्येक की अपनी अलग भाषा और लिपि है । महाराष्ट्र की काली मिट्टी के क्षेत्र के दक्षिण में कन्नड भाषी कर्नाटक प्रदेश, तथा उसके और दक्षिण स्थित पश्चिमी तटीय प्रदेश में मलयालम भाषी केरल स्थित हैं ।
केरल पश्चिमी घाट के उच्च प्रदेश द्वारा तमिल भाषी तमिलनाडु से पृथक है । इसी प्रकार मैसूर घाट कन्नड़ ओर तमिल क्षेत्रों के बीच विभाजक का काम करता है । तमिलनाडु के उत्तर में कृष्णा और गोदावरी के मैदान में तेलुगू भाषी आंध्र प्रदेश स्थित है ।
भारतीय इतिहास के लम्बे दौर में ऊपर वर्णित प्रत्येक क्षेत्र की अलग ऐतिहासिक पहचान बन गई थी, इस तथ्य के होते हुए भी कि प्रत्येक क्षेत्र अनेक अलग-अलग रियासतों में विभक्त था । परन्तु प्रत्येक विस्तृत प्रदेश में समय-समय पर क्षेत्रीय स्तर के शक्तिशाली राज्यों द्वारा पूरे प्रदेश को एक समन्वित राजनीतिक इकाई के रूप में बांधने के प्रयास निरन्तर किए जाते रहे थे । यही कारण था कि विभिन्न भाषाई क्षेत्र अलग-अलग पहचान वाले क्रोड़ प्रदेशों के रूप में स्थापित हो गए और देश के राजनीतिक इतिहास में उन्हें दीर्घकालिक निरन्तरता प्राप्त हो गई । (चित्र 9.1 तथा 9.2)
इन पृथक-पृथक क्षेत्रों की सीमाओं के अवरोधी प्रभावों के परिणामस्वरूप दैनन्दिन जीवन के स्तर पर प्रत्येक क्षेत्र प्राय एक अलग क्षेत्रीय इकाई के रूप में विकसित हुआ । परन्तु इनके बीच स्थित अवरोध इतने प्रभावी नहीं थे कि पास-पड़ोस के अन्य क्षेत्रों से वे पूरी तरह कट जाएं ।
अत: उनके बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान निरन्तर चलता रहा था । इसके कारण अन्तरक्षेत्रीय सांस्कृतिक परस्परता तथा उसके फलस्वरूप अखिल भारतीय स्तर की भौगोलिक और सांस्कृतिक एकता की चेतना निरन्तर जाग्रत रही थी । इस दृष्टि से भारत आदिकाल से ही एक प्रकार का विशाल सांस्कृतिक समुदाय था जिसमें समय-समय पर विभिन्न क्षेत्रीय राजनीतिक पह्चानों को एक व्यापक समुच्चयी पहचान में बांधने के प्रयास होते रहे थे ।
अत: वृहत भौगोलिक आकार और स्पष्टतया परिभाषित क्षेत्रीय सांस्कृतिक-राजनीतिक अस्मिता वाले अनेक क्षेत्रों के अस्तित्व के बावजूद भारत सदा से परस्पर सम्बद्ध तथा न्यूनाधिक रूप में स्वायत्त क्षेत्रीय इकाइयों का विशाल समुदाय रहा है जिसमें आदिकाल से एक ही प्रकार के आदर्शों, मूल-भूत दार्शनिक मान्यताओं तथा धार्मिक प्रतीकों और आस्थाओं के सूत्र संचरित रहे हैं ।
सामान्यतया इस सांस्कृतिक मूल्यबोध को हिन्दू संस्कृति अथवा हिन्दू जीवन पद्धति की संज्ञा दी जाती है । परन्तु धार्मिक रीति रिवाजों के अतिरिक्त (जोकि अपने आप में क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर एक दूसरे से पर्याप्त भिन्न हैं) समाज के ये जीवन मूल्य तथा उसकी सांस्कृतिक विरासत भारत की सम्पूर्ण जनता के दैनिक सामाजिक व्यवहार के आधारभूत तत्व हैं ।
अत: भारत के इतिहास और भूगोल में आदिकाल से ही साधारण जन के स्तर पर एकतामूलक आस्थाएं विद्यमान रही हैं । इनके आधार पर किसी भी कुशल प्रशासक के लिए पूरे देश को राजनीतिक एकता के सूत्र में पिरोना अपेक्षाकृत सरल कार्य था । भारतीय इतिहास के चिन्तकों ने इस तथ्य को अच्छी तरह पहचाना है ।
कुछ ब्रिटिश इतिहासकारों ने भारत में अनेक भाषा-भाषी क्षेत्रीय राजनीतिक और सांस्कृतिक इकाइयों के अस्तित्व तथा देश के क्षेत्रीय शासकों के बीच समय-समय पर होने वाले संघर्षो के आधार पर भारत को परस्पर संघर्षरत और विच्छिन्न सामाजिक राजनीतिक इकाइयों की समष्टि के रूप में चित्रित करने का प्रयास किया है ।
वास्तव में भारत की भौगोलिक संरचना इस प्रकार की है कि उसमें एक दूसरे से सर्वथा पृथक् और परस्पर स्वतंत्र राष्ट्रीय संचेतना वाली इकाइयों के विकास के अवसर नहीं हैं । भारतीय समाज में समय-समय पर घटित होने वाला अन्तरक्षेत्रीय राजनोतिक संघर्ष इन क्षेत्रीय इकाइयों की सांस्कृतिक पहचान के परस्पर अधिच्छादन से उत्पन्न समस्या ओं का परिणाम था ।
इसके पीछे कोई मूल भूत सांस्कृतिक राष्ट्रीय वैमनस्य नहीं था । ये मूलतया एक वृहत समाज की भिन्न-भिन्न पारिवारिक इकाइयों के बीच के आपसी कलह थे । इतिहास साक्षी है कि ये सभी इकाइयां पूरे देश को एक सूत्र में बांधकर देश को महानता प्रदान करने की इच्छूक थीं ।
यही कारण है कि समय-समय पर अनेक शासकों ने अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना के प्रयास किए थे । साम्राज्यों का बनना तथा पुन: विच्छिन्न होकर छोटी-छोटी रियासतों में बंट जाना भारतीय इतिहास की एक शाश्वत प्रक्रिया रही है ।
यही कारण है कि यूरोप के विपरीत भारत में कभी भी राजनीतिक शक्ति संतुलन की अव धारणा को अवधारणा को प्रश्रय नहीं मिल सका तथा चक्रवती राजा का आदिकालीन आदर्श प्रकारान्तर से सत्रहवीं सदी में मुगल शासकों के समय तक जीवित रहा ।
भारत की वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था ब्रिटिश शासन के दौरान घटित घटनाक्रमों विकास प्रक्रियाओं तथा संवैधानिक प्रगति और प्रशासनिक व्यवस्था आदि का सम्मिलित प्रतिफल है । ब्रिटिश शासन मूलतया ऐकिक शासन था ।
देश की समा प्रशासनिक व्यवस्था केन्द्रीय शासन द्वारा नियुक्त अधिकारियों के माध्यम से संचालित थी । परिणामस्वरूप देश के नागरिकों का दैनिक जीवन उनके सुख-दुख सीधे तौर पर एक ही केन्द्रीय सत्ता की नीतियों के प्रतिफल बन गए थे ।
इस प्रकार भारत के सभी क्षेत्रों में सामान्यजन अपनी समस्याओं के समा धान के लिए एक ही केन्द्रीय सत्ता की ओर देखने लगा था । अत: केन्द्रीय सत्ता के प्रति उत्तरोत्तर उभरता हुआ असंतोष कालान्तर में लोगों में भावनात्मक एकता का कारक बना ।
इसके फलस्वरूप राष्ट्रीय स्तर पर परस्पर सहयोग की इच्छा जाग्रत हुई और धीरे-धीरे यही सहयोग भाव भारत में विदेशी सत्ता से मुक्ति प्राप्ति के लिए अखिल भारतीय स्तर की राष्ट्र भावना का आधार बन गया जिसमें भाषा क्षेत्र जाति और धर्म सम्बन्धी विभेद अर्थहीन हो गए ।
भारत में ब्रिटिश शासन के अन्तिम सौ वर्षों का केन्द्रीकृत शासन सम्पूर्ण भारत को एक समन्वित आर्थिक और राजनीतिक इकाई के रूप में स्थापित करने में सफल हुआ था । पूरे देश की अव्यवस्था एक साझा बाजार का अंग बन गई थी ।
अन्तर क्षेत्रीय व्यापार और संचार में वृद्धि हुई तथा प्रथम विश्व युद्धु के बाद सम्पूर्ण भारत अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर एक समन्वित राजनीतिक इकाई के रूप में मान्य हो गया परिणामस्वरूप भारत की ब्रिटिश सरकार द्वारा किए गए अन्तरराष्ट्रीय समझौते देशी रियासतों के लिए भी अनिवार्यत मान्य हो गए थे ।
रेलों का प्रसार, तथा डाकखानों, तार घरों, टेलीफोन, और रेडियो संचार के विकास से अन्तरक्षेत्रीय पार्थक्य में ह्रास आया और राष्ट्र स्तरीय एकता सुदृढ़ हुई । इन सबके सम्मिलित प्रभाव के कारण ही स्वतंत्रता संग्राम के दौर में कांग्रेस को देशव्यापी समर्थन प्राप्त हुआ था ।
अत: यह निर्विवाद सत्य था कि अंग्रेजी सत्ता की समाप्ति पर सम्पूर्ण भारत एक प्रभुतासम्पन्न राष्ट्रीय इकाई के रूप में कायम रहेगी । परन्तु स्वतंत्र भारत की शासन व्यवस्था ऐकिक होगी अथवा परिसंघीय यह निश्चय ही विवादस्पद था ।
दोनों ही प्रकार की व्यवस्था के पक्ष में तर्क के लिए पर्याप्त गुंजाइश थी । भारत का संस्कार प्रारम्भ से ही एकता में अनेकता (अथवा अनेकता में एकता) का रहा है । ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत अन्तिम पचास वर्षो की संवैधानिक प्रगति भी देश को परिसंघ प्रणाली की दिशा में अग्रसर कर रही थी ।
क्षेत्रीय स्तर पर भाषाई राष्ट्रवाद का विकास, तथा पूरे देश में छोटी बड़ी अनेक रियासती इकाइयों को अस्तित्व भी ऐकिक की अपेक्षा परिसंघीय व्यवस्था के पक्ष में था । वास्तव में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारतीय समाज का राष्ट्रीय मनोविज्ञान क्षेत्रीय स्वायत्तता के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता का पक्षधर था ।
अत: देश के राजनायकों का परिसंघीय शासन व्यवस्था ही देश के लिए सबसे उपयुक्त प्रतीत हुई । परन्तु प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण के बावजूद भारत में ब्रिटिश शासन व्यवस्था मूलतया एक केन्द्रीकृत ऐकिक शासन व्यवस्था थी अत भारत के संविधान निर्माताओं ने इस स्थिति का लाभ उठाते हुए देश के संविधान में केन्द्रीय शासन की सर्वोच्चता को सुरक्षित रखा । इसीलिए अनेक विधिवेत्ताओं ने भारत को केन्द्रीकृत परिसंघ व्यवस्था का नाम दिया है ।