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वामपंथी अर्थनीतिक चिन्तन धारा के प्रमुख विद्वान अर्थशास्त्रीय विचारक वालरस्टाइन के अनुसार वर्तमान समय में सभी राष्ट्रीय इकाइयां एक ही विश्व-व्यवस्था (वर्ल्ड सिस्टम) के अन्तर्गत परस्पर सम्बद्ध इकाइयां हैं, परिणामस्वरूप विश्व में किसी भी राष्ट्रीय इकाई को सही परिपेक्ष में समझने के लिए उसे विश्वव्यापी अर्थव्यवस्था की पृष्ठभूमि में देखना आवश्यक है ।
इस विचारधारा को ”विश्व-व्यवस्था” परिदृष्टि (या ”वर्ल्ड सिस्टम्स” सिद्धान्त) की संज्ञा दी गई है । वालरस्टाइन के अनुसार वर्तमान विश्व-व्यवस्था एक तीन स्तरीय अर्थनीतिक संरचना (स्ट्रक्चर) के माध्यम से कार्यान्वित होती है ।
ये तीन स्तर हैं उपान्तीय क्रोड़ (”कोर”), उपान्त (”पेरिफरी”) और अर्द्धउपान्त (”सेमीपेरिफरी”) । कोड़ के अन्तर्गत विश्व के आर्थिक दृष्टि से सबसे उन्नत औद्योगिक देश, पश्चिमी यूरोपीय तथा उत्तरी अमरीकी देश और जापान सम्मिलित हैं ।
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इन्हें क्रोड़ की संज्ञा इसलिए दी गई है कि इन देशों की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में विश्व स्तरीय अर्थव्यवस्था की निदेशक भूमिका है । परिणामस्वरूप अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवहार के नियम इनके द्वारा अपने ही हितों के अनुरूप निर्धारित होते हैं ।
पूरी व्यवस्था में इनकी सहभागिता आर्थिक-सामाजिक शोषण की हैं । उपान्त के अन्तर्गत विश्व के अपेक्षाकृत अविकसित और निम्न आर्थिक स्तर वाले एशियाई अफ्रीकी और लैटिन अमरीकी देशों की गणना है । अर्द्धउपान्त स्तर का प्रतिनिधित्व पश्चिमी यूरोप के अधिकांश छोटे-छोटे देश करते हैं जो औद्योगिक और आर्थिक दृष्टि से विकसित तो हैं परन्तु इस स्थिति में नहीं है कि वे स्वयं दिग्गजों की श्रेणी में खड़े हो सकें ।
इन्हें अर्द्धउपान्त की संज्ञा इसलिए दी गई है कि इनके आर्थिक स्तर में क्रोड और उपान्त दोनों की विशेषताएं विद्यमान हैं । वालरस्टाइन की विचारधारा में इन तीनों शब्दों का तात्पर्य मूल रूप से उनसे जुड़े विशिष्ट प्रकार के आर्थिक क्रियाकलापों से है न कि निर्दिष्ट क्षेत्र विशेष से ।
अत: जो देश आज निदेशक की भूमिका में है और क्रोड़-क्लब का सदस्य वह स्थिति में परिवर्तन होने पर पदच्युत होकर अर्द्धउपान्तीय बन सकता है । यह समा व्यवस्था मूलरूप से आर्थिक शोषण की व्यवस्था है जिसमें धनी राष्ट्रों द्वारा निर्धन और विकासशील देशों का निरन्तर शोषण होता है ।
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परिणामस्वरूप विकसित और सम्पन्न देश उत्तरोत्तर विकसित होते जा रहे हैं तथा उपान्तीय विकासशील देश उत्तरोत्तर विकास यात्रा में और पीछे लूटते जा रहे हैं और वे आर्थिक व्यवस्था के भूमण्डलीकरण के प्रभाव में विकसित देशों के स्थायी बाजार बनते जा रहे हैं ।
अर्द्धउपान्तीय देशों की स्थिति बीच की है । एक ओर ये विकासशील देशों के शोषण में भागीदार हैं तो दूसरी ओर स्वयं ”क्रोड़” प्रदेशों के शोषण के शिकार । ब्रिटिश भूगोलवेत्ता पीटर टेलर ने 1982 में वालरस्टाइन की विश्व-व्यवस्था की अवधारणा के अनुरूप राजनीतिक भूगोल के अध्ययन की संस्तुति की और तीन वर्ष बाद राजनीतिक भूगोल पर एक पाठ्यपुस्तक प्रस्तुत करते हुए विषय को इस अवधारणा के अनुरूप ढालने का प्रयास किया ।
टेलर साठोत्तर युग में उभरे, मात्रात्मक और व्यवस्थापरक परिदृष्टि वाले वामपंथी विचारक थे तथा राजनीतिक भूगोल के अध्ययन की ओर अभी नए-नए प्रवृत्त हुए थे । अपनी इस वैचारिक पृष्ठभूमि के कारण मात्रात्मक क्रांति के पक्षधर अन्य चिन्तकों की भांति ही टेलर पुराने संस्कारों वाले वर्णनात्मक और क्षेत्रपरक राजनीतिक भूगोल से पूरी तरह असंतुष्ट थे ।
परिणामस्वरूप वे राजनीतिक भूगोल की ऐतिहासिक अवधारणाओं को नकारते हुए इसके आमूल पुनर्विलोकन के पक्षधर थे । मात्रात्मक अध्ययन पद्धति और क्षेत्रपरक (स्पेशियल) भूगोल के समर्थक टेलर को पिछले सात दशकों से अध्ययन किया जाने वाला राजनीतिक भूगोल अत्यन्त असंतोषप्रद तथा नए वैचारिक विमर्श से पूरी तरह विमुख प्रतीत हुआ ।
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टेलर (1985) ने अपनी पाठयपुस्तक के प्रथम संस्करण में लिखा है कि वे एक ऐसे राजनीतिक भूगोल की तलाश में थे जो सत्तर के दशक के पहले याले राजनीतिक भूगोल को शीरूपेण स्थानच्युत कर दे क्योंकि उनकी दृष्टि में सत्तर के पहले के राजनीतिक भूगोल का साहित्य अस्सी के दशक के प्रारंभ के समय तक सर्वथा प्रवाह शून्य, ऊर्जाहीन, और मुख्य धारा से कटे जलाशय जैसा हो गया था अत: अब उसका कोई औचित्य नहीं रह गया था ।
अत: आवश्यकता इस बात की थी कि राजनीति के अध्ययन पर केन्द्रित अन्य विषयों से नए विचारों और विश्लेषण पद्धतियों को आत्मसातकर एक नए राजनीतिक भूगोल का निर्माण किया जाए जो वैचारिक स्तर पर आधुनिक होने के साथ-साथ समाज की समकालीन समस्याओं को समझने तथा उनका समाधान करने में सहायक हो । विश्व व्यवस्था विचारधारा के अनुसार दुनिया में सर्वत्र और सभी स्तरों पर राजनीतिक-आर्थिक क्रियाकलाप विश्वव्यापी अन्योन्याश्रयी अर्थव्यवस्था से सीधे प्रभावित हैं ।
अत: अन्तरराष्ट्रीय व्यापार पर आधारित विश्व अर्थव्यवस्था (ग्लोबल इकॉनोमी) ही आज हमारे जीवन का अन्तिम सत्य बन गई है तथा राष्ट्रीय प्रभुता (नेशनल साँवरेन्टी) इसके प्रभाव में अर्थहीन छलनी मात्र बन कर रह गई है । तकनीकी विकास के वर्तमान दौर में राजनीतिक सीमाओं के वावजूद अन्तरराष्ट्रीय सामाजिक और आर्थिक प्रभाव अब देश के जन-जन तक पहुंच रहे हैं ।
वर्तमान विश्वव्यापी मुक्त व्यापार व्यवस्था और संचार प्रणाली में आई इलेक्ट्रोनिक क्रान्ति के पूर्व विश्व के सभी भागों में क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर नागरिकों का आर्थिक और सामाजिक जीवन प्राय पूर्णतया राष्ट्रीय राजतंत्र की नियंत्रण और निर्देश व्यवस्था द्वारा संचालित था ।
अन्तरराष्ट्रीय स्तर के आर्थिक और सांस्कृतिक आन्दोलन उसके पहुंच के बाहर थे, इस यथार्थ के होते हुए भी कि अन्तरराष्ट्रीय व्यापार दीर्घ काल से राज्यों को परस्पर अन्योन्याश्रयी बना रहा था । संक्षेप में राजनीतिक सीमाएं व्यावहारिक स्तर पर सांस्कृतिक और आर्थिक सीमाएं भी थीं क्योंकि राज्य सर्वविधि प्रभुता सम्पन्न इकाई था । अब स्थिति एक दम भिन्न है । मुक्त व्यापार और संचार व्यवस्था की भूमण्डलीय पहुंच के परिणामस्वरूप राजनीतिक सीमाएं बहुत हद तक प्रभावहीन हो गई हैं ।
अब अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक और सांस्कृतिक आन्दोलन राज्यों के अस्तित्व के बावजूद जन-जन को सीधे तौर पर प्रभावित करने लगे हैं तथा आर्थिक व्यवस्था के संचालन और नियोजन में केन्द्रीय सरकार की भूमिका प्रभावहीन हो गई है, विशेषकर विकासशील देशों में जहां केन्द्रीय सरकारों की अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष के अनुदान पर निर्भरता ने उन्हें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए अपने द्वार खोलने के लिए विवश कर दिया है ।
क्रोड़, उपांत और अर्द्धउपांत व्यवस्था इस स्थिति का लाभ उठाने के उददेश्य से विकसित की गई द्वन्द-नियंत्रण योजना है । टेलर ने अपने नए राजनीतिक भूगोल में इस तीन स्तरीय क्षैतिज व्यवस्था को तीन स्तरीय ऊर्ध्वाधर मापक के रूप में प्रस्तुत किया ।
ये मापक हैं अनुभव, पूर्वग्रह और वास्तविकता मापक । टेलर ने इसके माध्यम से क्रमश: स्थानीय, राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर की राजनीति के विश्लेषण में अन्तरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की निदेशक भूमिका और राज्यों के जीवन में उसके सर्वपक्षीय प्रभाव का विश्लेषण करने का प्रयास किया ।
लेखक के अनुसार अन्तरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था ही आज जीवन का सार्वभौम सत्य है तथा प्रभावहीन राज्य स्तरीय सत्ता इसके समक्ष मात्र छलावा तथा धोखे की टट्टी बन कर रह गई है जिसकी अब एक मात्र भूमिका अनुभव और वास्तविकता के स्तरों के बीच अवरोध का सम उत्पन्न करना है ।
इस अवरोध के अस्तित्व बोध के कारण देश के नागरिक अपनी आर्थिक कठिनाइयों के लिए अपने देश की राजसत्ता को दोषी ठहराते हैं जबकि विश्व आर्थिक व्यवस्था द्वारा आरोपित नीतियों के अनुरूप आचरण करना आज विकासशील राज्यों की मजबूरी है क्योंकि विश्व-व्यवस्था के विशाल जगन्नाथ रथ के सामने ये राज्य पूरी तरह असमर्थ हैं । इससे राजनीति विद्रुप हो जाती है क्योंकि समस्याओं का असली जनक, अर्थात् अन्तरराष्ट्रीय व्यवस्था और उसकी कर्णाधार पूंजीवादी अन्तरराष्ट्रीय शक्तियां जनता की निगाह में दोष मुक्त हो जाती हैं ।
इस प्रकार यह शोषण व्यवस्था निर्बाध चलती रहती है । आज के परिप्रेक्ष्य में प्रभुता सम्पन्न राज्यों को बनाए रखने का मूल उद्देश्य ”वास्तविकता” (विश्वव्यापी शीर्षक अर्थव्यवस्था) और ”अनुभव” (प्रत्येक देश की स्थानीय जनता) के स्तरों के बीच धुएं के पर्दे का काम करना है जिससे कि सामान्य जन के स्तर पर विश्व के विकासशील देशों की जनता का विशाल समूह सही शत्रु की पहचान न कर सके, उसे आमने-सामने देख न सके और व्यवस्था के विरुद्ध जनाक्रोष विभिन्न राजनीतिक इकाइयों के स्तर पर अनेक परस्पर असम्बद्ध टुकडों में बंट जाए तथा यह शोषण व्यवस्था बिना रोक टोक चलती रहे ।
अपनी वैचारिक नवीनता और राजनीतिक भूगोल की ओर 1970 के बाद प्रवृत्त हुए अध्येताओं में वैचारिक क्रांति के प्रति स्वाभाविक सहानुभूति के कारण टेलर द्वारा प्रतिपादित विश्व-व्यवस्थापरक राजनीतिक भूगोल ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमरीका में काफी जनप्रिय हुआ ।
यह इसी बात से स्पष्ट है कि 1995 से 1993 के बीच इस पुस्तक के तीन संस्करण प्रकाशित हुए । विश्व-व्यवस्था परिदृष्टि के प्रवेश के साथ ही राजनीतिक भूगोल के क्षेत्र में वैचारिक स्तर पर एक प्रकार की दुविधापूर्ण स्थिति उत्पन्न हो गई ।
विद्यार्थियों के लिए विषय का स्वरूप और उसकी विशिष्ट पहचान को स्पष्ट रूप से रेखांकित करना कठिन हो गया । अत: राजनीतिक भूगोल में अस्मिता के इस संकट (क्राइसिस ऑफ आइडेंटिटी) की चर्चा विषय की प्रमुख शोध पत्रिकाओं में 1990-1993 के बीच छिट पुट रूप में होती रही ।
पहचान के बारे में दुविधा की स्थिति का मूल कारण यह था कि रैटज़ेल के समय से ही राजनीतिक भूगोल का प्राय: सौ वर्षो का इतिहास एक ऐसे विचार-विमर्श का इतिहास था जिसमें राज्य की सम्पूर्ण राजनीतिक-आर्थिक गतिविधि के अध्ययन-अनुशीलन में यह पूर्णरूपेण निर्विवाद मान्यता थी कि राज्य के सम्पूर्ण आर्थिक-राजनीतिक क्रियाकलाप का मूलाधार और उसका अन्तिम सत्य प्रभुता सम्पन्न राज्य व्यवस्था में ही निहित है ।
यद्यपि 1930 के पश्चात् के स्थानिक (बाद में क्षेत्रात्मक और मात्रात्मक) परिदृष्टि वाले राजनीतिक भूगोल और राजनीतिक भूगोल की मूल रैट्ज़ेलिक अवधारणा के बीच समानताओं का दर्शन करना कठिन अवश्य है परन्तु साधारणतया इस सम्पूर्ण विकास यात्रा में राजनीतिक भूगोल के अध्ययन-अनुशीलन का केन्द्र बिन्दु अर्थात् विषय का अंतिम सत्य हमेशा प्रभुता सम्पन्न राज्य में ही निहित माना जाता रहा । 1985 के बाद यह स्थिति एकदम बदल गई । विद्यार्थियों के निरन्तर बढ़ते हुए समूह के लिए राजनीतिक भूगोल का अंतिम सत्य अब राज्य के बजाय विश्व-व्यवस्था में निहित हो गया ।
परिणामस्वरूप नया राजनीतिक भूगोल अब अलग-अलग क्षेत्रों में स्थानीय मिट्टी और उससे आत्मिक रूप से जुड़ी जनसंख्या के अन्योन्याश्रयी सम्बन्ध से निर्मित जीवन्त राजनीतिक इकाइयों अर्थात् राज्यों के अध्ययन के स्थान पर प्रत्येक राज्य के राजनीतिक-आर्थिक जीवन में वहां के सांस्कृतिक भूदृश्य पर विश्व-व्यवस्था के प्रभाव के निरूपण और विश्लेषण पर केन्द्रित हो गया ।
परिणामस्वरूप नए-पुराने के इस द्वन्द्व में राजनीतिक भूगोल को पहचानना उत्तरोत्तर कठिन होता गया । इसी स्थिति की ओर: इशारा करते हुए लाखलिन (1990) ने लिखा था कि राजनीतिक भूगोल के साहित्य के अवलोकन से स्पष्ट आभास होता है कि राजनीतिक भूगोल के अध्ययन के उद्देश्यों तथा इस विषय के अध्ययन की पद्धति में सादृश्य और स्थायित्व का पूर्ण अभाव है । लाखलिन (1991) के शब्दों में, इस कारणवश राजनीतिक भूगोल को परिभाषित करना उत्तरोत्तर दुष्कर हो गया है ।
टेलर के विश्व-व्यवस्थापरक राजनीतिक भूगोल ने नए और पुराने राजनीतिक भूगोल के बीच एक अभेद्य दीवार खड़ी कर दी थी । 1985 में उनकी पाठ्यपुस्तक के प्रकाशन के पूर्व सारे विभेदों के वावजूद पुराने और नार के बीच एक प्रकार की निरंतरता विद्यमान थी क्योंकि दोनों ही अवधारणाओं में राजनीतिक भूगोल मूलतया राज्य और उसके राजनीतिक स्वरूप अथवा राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन था ।
इस पूरे दौर में राज्य ही देश के राजनीतिक क्रियाकलाप का अन्तिम सत्य था । विषय की अवधारणा में आए अनेक परिवर्तनों के बीच मनन-चिन्तन का हर दौर पूर्वगामी चिन्तन को न्यूनाधिक रूप में आगे उढ़ाने का प्रयास था ।
विश्व-व्यवस्था परिदृष्टि के प्रवेश के साथ ही राजनीतिक भूगोल की यह निरन्तरता समाप्त हो गई क्योंकि टेलर की पुस्तक के प्रकाशन के साथ ही राजनीति के अन्तिम सत्य सम्बन्धी मान्यता में अमूल परिवर्तन आ गया । विश्व-व्यवस्था की अवधारणा ने राज्य को राजनीतिक क्रियाकलाप में गौण प्रभाव के रूप में प्रतिस्थापित कर राजनीतिक भूगोल को सिर के बल खड़ा कर दिया है ।
परन्तु ध्यान से देखने पर प्रतीत होता है कि इस सारे शोर-शराबे के होते हुए भी राजनीतिक भूगोल के अध्ययन में व्यावहारिक स्तर पर निरन्तरता विद्यमान है तथा एक शाताब्दी पुरानी अध्ययन परम्परा के अनुरूप ही टेलर तथा उनके उान्य सहयोगी राजनीतिक क्रिया-कलाप के तीन स्तरीय अध्ययन में रत हैं । नए और पुराने राजनीतिक भूगोल का मूल अन्तर इस तथ्य मैं निहित है कि विषय की पुरानी अवधारणा राज्य केन्द्रित थी ।
उस में राज्य को एक सुनिश्चित भूखण्ड और उस पर निवास करने वाले जन समुदाय के बीच दीर्घ कालिक विकास प्रक्रिया में स्थापित अन्योन्याश्रयी अन्तर्सम्बन्धों से उद्भूत जीवन्त आत्मिक इकाई के रूप में देखा जाता था ।
अतएव राजनीतिक जीवन के सभी स्तरों पर राज्य ही अन्तिम सत्य था । इस मान्यता के अनुसार राज्य एक उद्देश्यपूर्ण कृति है जो देश के नागरिकों और प्रकृति प्रदत्त पर्यावास (अर्थ स्पेस) के अन्तरसम्बन्धों को नियमित करने और उन्हें न्यायोचित दिशा देने के निमित्त बनाई गई है ।
इसके विपरीत टेलर और उनके सहयोगियों द्वारा प्रतिपादित विश्व-व्यवस्थापरक राजनीतिक भूगोल सभी स्तरों पर हमारे राजनीतिक जीवन में विश्व-व्यवस्थाजन्य आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रभावों का निरूपण मात्र है परिणामस्वरूप राज्य के भौगोलिक क्षेत्र का मातृभूमि अथवा पितृभूमि वाला स्वरूप इसके अध्ययन क्षेत्र के बाहर है ।
लेकिन दोनों के वीच देसी द्वन्द्वात्मक स्थिति का होना जरूरी नहीं है, क्योंकि वास्तव में पिछले पचास वर्षों में विभिन्न देशों के बीच परस्पर सम्बन्ध उत्तरोत्तर सघन और परस्परावलंबी होते गए हैं ।
परिणामस्वरूप सही अर्थों में सम्पूर्ण विश्व एक विशाल परिवार अथवा समुदाय बन गया है । ऐसे में स्वाभाविक है कि परिवार के किसी भी सदस्य का जीवन उसके अपने स्वयं के विवेकजनित निर्णयों (राष्ट्रीय स्तर पर लिए गए निर्णयों) ओर सम्पूर्ण रारिवार-व्यवयगजनित निर्णयों के सम्मिलित प्रभाव का परिणाम है ।
किन्हीं स्थितियों में राष्ट्रीय स्तर की राजनीति तो कुछ अन्य में विश्व-व्यवस्था स्तर की राजनीति अधिक प्रभावी होती है । दुनिया के औद्योगिक दृष्टि से सबसे उन्नत और आर्थिक रूप से अधिक सम्पन्न देशों के जीवन का अपेक्षाकृत बहुत बड़ा भाग अन्तरराष्ट्रीय और विश्व-व्यवस्थाजन्य प्रभावों द्वारा संचालित है जबकि कम विकसित अर्थव्यवस्था वाले देशों में स्थानीय उत्पादन और देश की मिट्टी से जुड़े जीविकोपार्जन के तरीके उनके जीवन में अधिक प्रभावी भूमिका निभाते हैं ।
परिणामस्वरूप विकासशील देशों में नागरिक जीवन राष्ट्रीय स्तर की राजनीति पर अधिक निर्भर है । अर्थात् ”राज्य” और “विश्व-व्यवस्था” दोनों ही जीवन के अपरिहार्य सत्य हैं । इन दोनों में कौन गौण है तथा कौन प्रधान यह अध्ययन किए जाने वाले विषय तथा स्थान की स्थिति पर निर्भर है । आज राजनीतिक भूगोल में इन दोनों प्रकार के प्रभावों तथा परिदृष्टियों को उनकी समग्रता में देखने और स्वीकारने की आवश्यकता है । दोनों में किसी प्रकार के द्वन्द्व का दर्शन भ्रममात्र है ।
वालरस्टाइन की विश्व-व्यवस्था वाली अवधारणा समाज विज्ञान के अध्येताओं में पर्याप्त आलोचना का विषय रही है । टेलर की राजनीतिक भूगोल सम्बन्धी अवधारणा भी उन्हीं आलोचनाओं का शिकार है । जैसा कि एंथनी गिड्डेन्स ने रेखांकित किया है, वालरस्टाइन के विचार तन्त्र में दो प्रमुख त्रुटियां हैं । प्रथम, यह विचारक्रम लघुकरण के दोष से ग्रस्त है । इसका अर्थ यह यह नहीं है कि यह आर्थिक प्रक्रियाओं पर केन्द्रित है बल्कि यह है कि इसके अन्तर्गत राजनीति और संस्कृति दोनों का विश्लेषण मात्र आर्थिक प्रक्रियाओं के संदर्भ में ही किया जाता है ।
यद्यपि यह सर्वविदित हे कि राज्यों का वर्तमान स्वरूप लम्बी ऐतिहासिक प्रक्रियाओं का परिणाम है तथा इसमें राष्ट्रीय समुदायों के आपसी युद्धों की प्रमुख भूमिका थी, परन्तु इसके बावजूद वालरस्टाइन और उनके अनुयायी इसे विश्व आर्थिक व्यवस्था का परिणाम सिद्ध करने का प्रयास करते हैं ।
गिड्डेन्स और अन्य विचारक इस तथ्य को अस्वीकार नहीं करते कि आधुनिक युग में मानव जीवन के सभी पक्षों में आए परिवर्तनों में विश्वव्यापी अर्थव्यवस्था की महत्वपूर्ण भूमिका रही है परन्तु साथ ही उनकी दृढ मान्यता हे कि विश्व की वर्तमान अर्थव्यवस्था स्वयं बहुत हद तक विश्वव्यापी राज्य व्यवस्था (सिस्टम ऑफ स्टेट्स) का परिणाम है ।
उपर्युक्त कारणों से वालरस्टाइन की परिकल्पना में सम्पूर्ण विश्व को आर्थिक तंत्र में बंधे परिवार के रूप में देखने की मान्यता त्रुटिपूर्ण है । यद्यपि इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि आज सम्पूर्ण विश्व एक ही विश्वव्यापी पूंजीवादी व्यवस्था का अभिन्न अंग है परन्तु हम जानते हैं कि इस अकाट्य अन्योन्याश्रयी आर्थिक सम्बन्ध के होते हुए भी दैनिक व्यवहार के स्तर पर हमारा विश्व अनेक पृथक-पृथक राष्ट्रीय समाजों की समष्टि है ।
अनेक महत्वपूर्ण मामलों में प्रत्येक राज्य का सामाजिक स्वरूप विश्व के अन्य राज्यों से सर्वथा भिन्न हैं । जहां तक समाज शब्द का प्रयोग आर्थिक संकुल के सीमित अर्थ में किया जाता है वहां ”एक समाज” की परिकल्पना पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती परन्तु राजनीतिक और सांस्कृतिक पक्षों से सम्बद्ध विचार विमर्श में यह परिकल्पना प्रभावी और स्वीकार्य नहीं है ।
गिड्डेन्स के अनुसार वालरस्टाइन की अवधारणा की दूसरी प्रमुख कठिनाई यह है कि यह प्रकार्यवाद (फंक्सनलिज्म) के दोष से पीडित है । यहां प्रकार्यवाद से तात्पर्य किसी वस्तु या तथ्य को उसके परिणामों के आधार पर विश्लेषित करने से है ।
जब शोधकर्ता सामाजिक संगठन के किसी एक पक्ष अथवा उपांग का विश्लेषण पूरे संगठन में संतुलन बनाए रखने की दिशा में उसके योगदान के आधार पर करने का प्रयास करता है तो शोध में प्रकार्यवाद का दोष उत्पन्न हा जाता है । इस प्रकार के शोध कार्य में निहित चिन्तन धारा मूलतया दोष पूर्ण है क्योंकि समाज में संतुलन सम्बन्धी आवश्यकताएं व्यक्तियों ओर समुदायों की होती हैं न कि सम्बद्ध संगठन की ।
गिड्डेन्स के अनुसार वालरस्टाइन की ”उर्द्धउपांत” सम्बन्धी अवधारणा प्रकार्यवाद के दोष से पीड़ित है क्योंकि वालरस्टाइन के अनुसार विश्व अर्थव्यवस्था के इस स्तर का उद्भव व्यवस्था में संतुलन लाने ओर क्रोड़ तथा उपान्त के बीच सम्पर्क के माध्यम के रूप में हुआ है ।
यह बात तो समझी जा सकती है कि अर्द्धउपान्तीय स्तर के देश विश्व-व्यवस्था के संचालन में संतुलन बनाए रखने में सहायक हैं परन्तु संतुलन में उनका वर्तमान योगदान उनके ऐतिहासिक अस्तित्व का कारक नहीं हो सकता । अस्तित्व पूर्वगामी तश्य है और संतुलन में योगदान परवर्ती क्रिया ।