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राष्ट्रीय राज्य तथा राज्य और राष्ट्र निर्माण:
राष्ट्रीय राज्य की परिभाषा करते हुए एक विद्वान ने लिखा है कि यह एक सीमाबद्ध भूखण्ड के एक छत्र प्रशासन के लिए निर्मित संस्थाओं की जटिल शृंखला है जिसे सम्पूर्ण क्षेत्र में हिंसात्मक कार्यों को नियंत्रित रखने का पूर्ण अधिकार है ।
राष्ट्रीय राज्य के निर्माण में दो केन्द्रीय प्रवृत्तियां सतत् सक्रिय रहती हैं एक राज्य-निर्माण की क्रिया और दूसरी राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया । राज्य निर्माण की प्रक्रिया का सम्बन्ध राज्य सत्ता (स्टेट पावर) के क्षेत्रीयकरण अर्थात् उसके प्रभाव के क्षेत्रीय विसरण से सम्बद्ध है ।
यह राज्य के सम्पूर्ण क्षेत्र को केन्द्रीय सत्ता में पूर्णरूपेण समाहित करने की प्रक्रिया है । मान (1984/1988) के शब्दों में राज्य-निर्माण की प्रक्रिया राजसत्ता के नागर समाज में प्रभावी ढंग से प्रविष्ट होने की प्रक्रिया है जिससे केन्द्रीय सत्ता की नीतियो को इसके सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र में पूरी दक्षता से लागू किया जा सके ।
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इसमें गिड्डेन्स द्वारा परिभाषित संनिरीक्षण (सर्विलेंस) सम्बन्धी अधिकार सम्मिलित हैं । देश में संचार और यातायात की सुविधाओं का प्रसार, कुशल नौकरशाही का विकास, और राष्ट्रीय एकता को पुष्ट करने के उद्देश्य से नागरिकों के आचार-विचार में नियमबद्धता लाने के प्रयास इसके अभिन्न अंग हैं ।
राष्ट्र और राज्य-निर्माण की प्रक्रिया से घनिष्ठ रूप में सम्बद्ध है तथा यह उसका कारण भी है और परिणाम भी । राष्ट्र-निर्माण उन विविध प्रक्रियाओं और उपायों का सम्मिलित प्रभाव है जिनके माध्यम से देश के नागरिकों में अपनी देश की सम्पूर्ण जनसंख्या को (उनकी अनेक स्थानीय और जातीय विभिन्नताओं के होते हुए भी) एक अविभाज्य परिवार की तरह परस्पर सहयोग की भावना से ओत-प्रोत सामाजिक इकाई के रूप में स्थापित करने की इच्छा जाग्रत होती है ।
नागरिकों में देश के राष्ट्रीय मूल्यों के प्रति आस्था अन्य किसी भी आन्तरिक अथवा बाह्य आस्था से अधिक बलवती बन जाती है । राष्ट्रीय गोरव के सामने आत्म गौरव का महत्व गौण हो जाता है, देश का भौगोलिक क्षेत्र देश के निवासियों के लिए माता-पिता तुल्य बन जाता है जिसकी मान मर्यादा की रक्षा के लिए वे अपना सब कुछ समर्पित करने के लिए प्रस्तुत हो जाते हैं ।
सभी नागरिकों में राज्य की एक सुस्पष्ट अवधारणा (स्टेट-आइडिया) का उदय होता है तथा राष्ट्र ओर राज्य समानार्थी बन जाते हैं । राज्य राष्ट्रीय-राज्य का स्थान प्राप्त कर लेता है । राष्ट्र और राज्य के बीच इसी अन्योन्याश्रयी सम्बन्ध से प्रेरित होकर रैटजेल ने लिखा था कि वे राजनीतिक इकाइयां सर्वाधिक स्थायी होती हैं जिनमें राष्ट्रीय चेतना तथा राज्य के भोगोलिक विस्तार में पूर्ण समरूपता विद्यमान है ।
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राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया के चार आधारभूत पक्ष हैं । प्रथम, राज्य के सभी नागरिकों ओर उसकी सभी क्षेत्रीय और जातीय इकाइयों में सम्मिलित राजनीतिक पहचान का क्रमिक विकास तथा राज्य के संविधान और केन्द्रीय मूल्यों के प्रति मर्यादा बोध का उदय ।
द्वितीय, देश के अन्दर प्रत्येक नागरिक को इच्छानुकूल जीवन यापन की प्रक्रिया में बिना किसी रोक-टोक के कहीं आने-जाने और बसने का पूर्ण अधिकार और अवसर । तृतीय, देश की समस्त क्षेत्रीय और जातीय इकाइयो के बीच सामाजिक आचार-विचार में किसी प्रकार के विद्वेश भाव का उत्तरोत्तर समापन और नागरिकों में व्यक्तिगत और राष्ट्रीय हितों के बीच स्पष्ट अन्तर-बोध का संचार तथा हर व्यक्ति को राष्ट्रीय मूल्यों और नियमों के प्रति पूर्ण आस्था का उदय और व्यक्तिगत स्तर पर सुसंस्कृत आचार विचार की पूर्ण स्वतंत्रता । चतुर्थ, आवागमन और संचार माध्यमों का पूर्ण विकास, जिससे सामाजिक सम्बन्धों में दूरियां कम सकें ।
राष्ट्र और राज्य निर्माण के अध्ययन में भौगोलिक परिदृष्टि:
भूगोल की एक परिभाषा के अनुसार यह दूरीपरक सामाजिक सम्बन्धों का विज्ञान है । यहां दूरी शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में किया गया है तथा उसमे सभी प्रकार की दूरियां अर्थात् वैचारिक, भावनात्मक, और मूल्य बोध सम्बन्धी दूरियों के साथ-साथ आर्थिक सामाजिक दूरियां भी सम्मिलित हैं ।
इन विभिन्न प्रकार की दूरियों को मापने और उनके परिणामों के विश्लेषण करने की प्रक्रिया में मानव भूगोल का विद्यार्थी सामाजिक व्यवस्था में निहित क्षेत्रीय विषमताओं तथा तज्जनित सामाजिक समस्याओं और विसंगतियों के मूलभूत कारणों की व्याख्या करने में सफल होता है ।
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दूरीपरक दृष्टि उसके अध्ययन को समग्रता प्रदान करती है तथा उसे एकांगी होने से बचाती है । आदर्श मानव भौगोलिक विश्लेषण में आवश्यक है कि विद्यार्थी अपने अध्ययन में उन सभी प्रकार की दूरियों को समाविष्ट करे जिनके ऐतिहासिक प्रभाव वर्तमान सामाजिक व्यवहार को स्पंदित करते हैं तथा जो उनके रीति रिवाजों, वैयक्तिक पूर्व ग्रहों, प्रेरणाओं और अपेक्षाओं के माध्यम से उनके सम्पूर्ण जीवन को अभिभूत कर उनके जीवन मूल्यों और उददेश्यों को प्रभावित कर उनकी आत्मा के अभिन्न अंग बन जाते हैं ।
इस दृष्टि से भौगोलिक दूरियां मानव मन की अन्तर्निहित और उसके द्वारा स्वयं निर्मित दूरियां हैं । भूगोल की यह दूरीपरक दृष्टि राज्य की अनेक विविधताओं तथा उनके अन्तरसम्बन्ध के विश्लेषण, और उन निहित दूरियों को कम करके सम्पूर्ण राष्ट्र को अन्योन्याश्रयी सम्बन्ध में जोड़ कर एकता के सूत्र में बांधने के उपाय ढूंढने में सहायक है ।
एक अन्य परिभाषा के अनुसार भूगोल स्थानों, प्रदेशों तथा क्षेत्रीय समष्टियों का अध्ययन है । इस दृष्टि से भूगोल अन्य सामाजिक विज्ञानों से गुणात्मक रूप से भिन्न हैं जहां सामाजिक विज्ञान कीं अन्य धाराओं में जीवन के किसी विशेष पक्ष अथवा किन्हीं विशेष प्रकार के सामाजिक तत्वों का पृथक्-पृथक् रूप में अध्ययन किया जाता है वहीं भूगोल विशिष्ट स्थानिक, प्रादेशिक अथवा क्षेत्रीय इकाइयों का विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक और मानवीय कृत्यों के सम्मिलित प्रभाव से निर्मित समष्टि के रूप में अध्ययन करता है ।
राज्य एक ऐसी ही समष्टि है जो एक साथ ही मानवीय इकाई भी हैं और क्षेत्रीय इकाई भी । राज्य और राष्ट्र निर्माण के अध्ययन में हमारा सम्बन्ध राज्य के विभिन्न क्षेत्रों और उनमें निवास करने वाली सामाजिक इकाइयों को अन्योन्याश्रयी और पूर्णत क्रियाशील क्षेत्रीय-राजनीतिक इकाई के रूप में सूत्रबद्ध करने की समस्या के निरूपण और समाधान से हे ।
जैसा रैटज़ेल ने बताया था राज्य एक सुनिश्चित भूखण्ड में निवास करने वाली मानव समष्टि और उसकी भौगोलिक निवास भूमि में उभरी अविभाज्य पारस्परिक पहचान का परिणाम है । यही पहचान उसे राष्ट्रीय स्पन्दन देती है तथा उसे राजनीतिक व्यवस्था ओर समान राजनीतिक आस्था के सूत्र में बांधकर स्थायित्व प्रदान करती है ।
अत: भूगोल की प्रादेशिक विश्लेषण केन्द्रित अध्ययन पद्धति राष्ट्र और राज्य-निर्माण के अध्ययन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । अपने स्थूल क्षेत्रीय अस्तित्व के बावजूद प्रत्येक राज्य बहुत सीमा तक एक भावनात्मक इकाई है । अपनी अनेक स्थानीय विविधताओं के होते हुए भी देश की जनता भावना के स्तर पर एकता के सूत्र में बंधी होती हैं ।
नागरिकों को राष्ट्रीय-राज्य के प्रतिआस्थावान बनाए रखने वाले जीवन मूल्यों, आदर्शों, और सामाजिक उद्देश्यों की समष्टि को राज्य-विचार (स्टेट-आइडिया) की संज्ञा दी गई हैं । रैटज़ेल ने देश के राजनीतिक स्थायित्व में इसके केन्द्रीय महत्व को रेखांकित करते हुए लिखा था कि जिस राज्य में राज्य की भावना अथवा राज्य-विचार देश के सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र में समान रूप से व्याप्त होती है वही राज्य सर्वाधिक स्थाई होता है । राज्य-भावना एक जटिल संकल्पना है और इसका स्वरूप भिन्न-भिन्न देशों में एक दूसरे से भिन्न होता है ।
यह संस्कारों, अनुभवों और सामाजिक उद्देश्यों का जटिल मिश्रण है । इसके निर्माण में ऐतिहासिक चेतना, लोक साहित्य, जन नायकों की गाथाएं, धार्मिक विश्वासों, भाषा और कला रूपों (जिनके माध्यम से इनकी अभिव्यक्ति होती है) आदि के सम्मिलित योगदान का परिणाम है ।
देश की साहित्य, चित्रकला और वास्तुकला, तथा संगीत सम्बन्धी धरोहर इसके महत्वपूर्ण आधार हैं । पहचान की इस जटिलता के कारण राज्य-विचार का प्रमात्रीकरण कठिन है । परन्तु इस भावना के शक्तिदायी स्रोतों को पहचानना और मापा जा सकता है और उन्हें मानचित्र पर दर्शाना सम्भव है ।
इन मानचित्रों की सहायता से हम जान सकते हैं कि देश के किन भागों में राज्य-विचार सुदृढ है और किन भागों में अपेक्षाकृत शिथिल, अर्थात् कहां केन्द्रीय राजनीतिक व्यवस्था के प्रति नागरिक पूर्ण रूपेण आस्थावान नहीं हैं तथा अलगाववादी शक्तियां सक्रिय हैं ।
राष्ट्र निर्माण की चर्चा करते समय यह रेखांकित करना आवश्यक है कि जहां पूर्व आधुनिक काल में राष्ट्र भावना रक्त सम्बन्धों पर आधारित पहचान थी, परन्तु समाज के सांस्कृतिक विकास की प्रकिया में राष्ट्रीयता की भावना उत्तरोत्तर रक्त सम्बन्धों के बदले पारस्परिक सम्बन्धों से उद्भूत सामाजिक उददेश्यों और जीवन मूल्यों पर आधारित होती गई ।
परिणामस्वरूप इसका क्षेत्रीय विस्तार एक घर या समजातीय टोले से बढ़ते हुए क्रमश: गांव, फिर समस्त ग्राम-समूह, प्रदेश, और सम्पूर्ण देश तक फैल गया अर्थात् राष्ट्र भावना ने एक सामाजिक-और-क्षेत्रीय पहचान का रूप धारण कर लिया ।
ऐसे में देश के अन्दर स्थिति सामाजिक इकाइयों के बीच ”हम और वे” का अन्तर राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं रह जाता क्योंकि भाषा और बोलचाल के मुद्दे लोगों की व्यक्तिगत आस्था और उनके आवास स्थान तक सीमित मुद्दे बन जाते हैं क्योंकि जनतांत्रिक व्यवस्था में हर व्यक्ति को प्रशासन अपनी व्यक्तिगत आस्था के अनुरूप जीवन यापन की स्वायत्तता प्रदान करता है । ऐसे में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक शब्द राजनीतिक दृष्टि से निरर्थक हो जाते हैं । यदि ऐसा नहीं है तो उस सीमा तक राज्य अपना उत्तरदायित्व निभाने में विफल रहा है ।
राष्ट्र-निर्माण और सामाजिक बहुविधता:
राष्ट्र-निर्माण मूलतया देश के अन्तर्गत नागरिक समाज को सुदृढ़ भावनात्मक एकता के सूत्र में आबद्ध करने की प्रक्रिया है । यदि सम्पूर्ण देश विभिन्न प्रकार की जातीय पहचान अर्थात् भाषा, धर्म, वर्ण, आदि की दृष्टि से समरूप है तो इस चेतना को दृढ़ता प्रदान करना अपेक्षाकृत सरल होगा क्योंकि लोगों में परस्पर समानताएं अधिक और असमानताएं और विरोध उत्पन्न करने वाली बातें कम होंगी । यही कारण है कि सामाजिक बहुविधता (पलूरलिज़्म) वाले दोशों में राष्ट्र-निर्माण की समस्या विशेष जटिल होती हैं ।
कार्यात्मक बनाम संघीय बहुविधता:
सामाजिक बहुविधता के दो क्षेत्रीय प्रारूप हें । एक वह जिसमें असमानता उत्पन्न करने वाले तत्व देश के सम्पूर्ण भूखण्ड में सर्वत्र मिश्रित प्राय: रूप में वितरित हैं जैसे कि स्फटिक शिला में विभिन्न रंगों वाली बिन्दियां । दूसरा वह जिसमें ये भिन्न-भिन्न तत्व क्षेत्रीय रूप में भिन्न-भिन्न प्रदेशों में अलग-अलग केन्द्रित होते हैं ।
उदाहरण के लिए सिख धर्मावलम्बी बड़ी संख्या में पंजाब में बसे हैं । इसी प्रकार कश्मीर घाटी मुस्लिम बहुल प्रदेश है । पहले प्रकार की बहुविधता को हम प्रकार्य बहुविधता (फंक्शनल पलूरलिज्म) तथा दूसरी को परिसंघ बहुविधता (फेडरल प्लूरलिज्म) कहते हैं ।
पहले प्रकार की स्थिति में सारी सामाजिक विषमताओं और तज्जनित असंतोष के बावजूद सभी पक्ष अपनी भौगोलिक विवशता को समझने लगते हैं । प्रत्येक गुट को भली प्रकार ज्ञात होता है कि उसकी लड़ाई न्यायपूर्ण सामाजिक वितरण की लड़ाई है क्योंकि समाज के अन्य गुटों की भांति देश का सम्पूर्ण भूखण्ड उसकी भी मातृभूमि है ।
इसीलिए सारी समस्याओं के होते हुए भी प्रकार्य विविधता राज्य में विघटन का संकट नहीं पैदा कर पाती । इससे राज्य के क्षेत्रीय अस्तित्व को खतरा नहीं उत्पन्न होता । इसके विपरीत परिसंघ बहुविधता की स्थिति में अलग-अलग विषमतामूलक तत्वों के अलग-अलग क्षेत्रों में केन्द्रीकृत होने के परिणामस्वरूप प्रत्येक परस्पर प्रतिस्पर्धी अथवा विरोधी सामाजिक गुट अपने आप को एक पृथक क्षेत्रीय संगठन के रूप में देखने लगता है ।
उसके सदस्य अपने क्षेत्र विशेष को अपनी विशिष्ट मातृभूमि (होमलैण्ड अथवा गृह प्रदेश) के रूप में देखने लगते हैं । उनकी राजनीतिक चेतना और राजनीतिक मांगों को स्पष्ट क्षेत्रीय आधार प्राप्त हो जाता है । फलस्वरूप गुट के उग्रवादी तत्व अपनी कल्पना अलग राजनीतिक इकाई के रूप में करने लगते हैं । यही कारण है कि परिसंघात्मक बहुविधता का राजनीतिक प्रबन्धन अपेक्षाकृत बहुत जटिल कार्य है । साथ ही दोनों प्रकार की बहुविधता स्थितियों में राष्ट्र-निर्माण की समस्या गुणात्मक रूप में एक दूसरे से भिन्न है ।
राजनीतिक स्तर पर सामाजिक बहुविधता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
सामान्यतया यूरोपीय संस्कृति वाले औद्योगिक रूप में विकसित देशों में व्याप्त सामाजिक बहुविधता मूलतया प्रकार्यात्मक प्रकार की है । स्विटजरलैण्ड तथा कनाडा इसके अपवाद हैं । स्विटजरलैण्ड अपनी चौराहा जैसी भौगोलिक स्थिति के कारण तथा कनाडा, फ्रांस और ब्रिटेन के पुराने उपनिवेशीय प्रदेशों के विलय से प्रादुर्भूत होने के कारण ।
इसके विपरीत अफ्रीका और एशिया के अधिकांश देश परिसंघीय बहुविधता वाले हैं । भारत में इसका परिसंघीय रूप देश के विशाल भौगोलिक आकार और तज्जनित कारणों से उत्पन्न सांस्कृतिक विकास की स्थानिकता का परिणाम है । अफ्रीका और अन्य उत्तर-उपनिवेशीय क्षेत्रों में इसका कारण मूलतया उपनिवेशीय देन है ।
जैसा कि डग्लस (1997) ने स्पष्ट किया है उन्नीसवीं सदी के तीसरे चतुर्थांश तक आते-आते यातायात के क्षेत्र में तकनीकी विकास में क्रांतिकारी प्रगति के परिणामस्वरूप पृथ्वी तल पर स्थानों के बीच भौगोलिक दूरियों के अवरोधी प्रभाव में आशातीत कमी आ गई ।
इसके फलस्वरूप राजनीतिक इकाइयों के लिए दूरस्थ प्रदेशों में प्रभाव बढ़ाना सरल हो गया । यूरोप के समुद्र तटीय स्थिति वाले देशों में साम्राज्य विस्तार की होड़ लग गई । पुराना उदारवादी विचार कि हर राष्ट्रीय इकाई को राजनीतिक सम्प्रभुता का जन्मसिद्ध अधिकार है अब विश्वव्यापी मान्यता न रहकर केवल यूरोपीय देशों तक ही सीमित हो गया । तत्कालीन यूरोपीय मान्यता के अनुसार यूरोप के बाहर रहने वाले सामाजिक समुदाय सांस्कृतिक विकास के उस स्तर तक नहीं पहुंचे थे कि वे अपने देश का शासन स्वयं संभाल सकें ।
उपनिवेशवादी शक्तियों के अनुसार स्थानीय जनसंख्या की राजनीतिक सांस्कृतिक शिक्षा हेतु आवश्यक था कि यूरोपीय देश उनका मार्ग दर्शन करें और उन्हें अपने राजनीतिक नियंत्रण में रखे । डग्लस के अनुसार मैकिंडर इस विचार के प्रबल समर्थक थे । राष्ट्रीय स्वायत्तता सम्बन्धी ये विचार सामाजिक डार्विनवाद (सोशल डार्विनिज़्म) से प्रेरित थे । इसके अनुसार परिस्थितिजन्य कारणों से विभिन्न क्षेत्रों के निवासियों में विवेकशीलता का स्तर भिन्न-भिन्न है ।
अर्थात् प्रकृति ने कुछ समुदायों को शासन करने के लिए तथा शेष को दूसरों की सेवा करने और परतंत्र रहने के लिए बनाया है । इस मान्यता के परिणामस्वरूप उपनिवेशीय इकाइयों के सीमा निर्धारण में स्थानीय जनता की जातीय एकता और परस्पर भिन्नता को कोई महत्व नहीं दिया गया ।
अत: ये इकाइयां बहुधा बहुविधतापूर्ण इकाइयां बन गई । उदाहरणार्थ 1885 में बर्लिन में अफ्रीकी उपनिवेशीय इकाइयों के सीमा विवादों के समाधान के लिए एकत्रित यूरोपीय महाशक्तियो को सभागार में बैठे-बैठे छोटे से मानचित्र पर सीधी रेखाएं खींच कर उन की स्थायी सीमाएं निश्चित करने में कोई संकोच नहीं दुआ ।
परन्तु स्थानीय स्तर पर इस निर्णय ने लोगों के जीवन की दिशा ही बदल दी । कल तक संयुक्त जीवन बिताने वाली जातीय इकाइयां नई राजनीतिक सीमाओं के अस्तित्व में आते ही दो या दो से अधिक उपनिवेशीय शक्तियों के अधिकार क्षेत्रों में बंट गई ।
साथ ही एक ही उपनिवेशीय इकाई में परस्पर विरोधी तथा एक दूसरे से पृथक् क्षेत्रीय पहचान वाली सामाजिक इकाइयों का समावेश हो गया । परिणामस्वरूप वे बहुविधतापूर्ण इकाइयां बन गई । द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात उपनिवेशवाद की समाप्ति पर उदित हुए नए सम्प्रभुता सम्पन्न राज्यों को इस प्रकार परिसंघीय बहुविधता विरासत में मिली । सामाजिक बहुविधता की राजनीति के अध्ययन की दिशा में पिछले चार दशकों में पयप्ति प्रगति हुई हैं ।
राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रीय एकता के विश्लेषण में कार्ल ड्वायस्च (1953) का योगदान विशेष महत्वपूर्ण रहा है । परवर्ती विद्वानों में गर्र (1970) और होरोविज (1985) के नाम उल्लेखनीय हें । सन सत्तर के दशक में मानव भूगोल के अध्ययन के मानव केन्द्रित, अर्थात् मनुष्य के सामाजिक जीवन के अध्ययन पर केन्द्रित होने के साथ ही राजनीतिक भूगोल के अध्ययन में राज्य और राष्ट्र केन्द्रीय महत्व के विषय बन गए ।
पाउण्ड्स ने अपनी पाठ्यपुस्तक के द्वितीय संस्करण (1972) में इस विषय पर एक अलग अध्याय का समावेश किया था जिसमें राष्ट्रीय ओर जातीय अनेकता की चर्चा सम्मिलित थी । परन्तु आज के संदर्भ में पाउण्ड्स की दृष्टि आधुनिक नहीं थी । उसके बाद से प्राय सभी मानक पाठ्यपुस्तकों में राज्य और राष्ट्र की विस्तृत चर्चा हुई है ।
राज्य के आधुनिक स्वरूप पर डीयर और क्लार्क (1978) तथा जांस्टन (1993) का योगदान उल्लेखनीय है । राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक अनेकता ओर तत्सम्बन्धी विषयों पर क्लिअट और वाटरमैन (1982), जांस्टन, नाइट और कॉफ्मैन (1988) तथा विलियम्स और कॉफमैन (1989) ध्यातव्य हैं ।
परन्तु इन सारे प्रयासों मे विकासशील देशों की सामाजिक बहुविधता की राजनीति और उस सन्दर्भ में राज्य तथा राष्ट्र-निर्माण की समस्या को समग्रता में देखने के प्रयास नहीं हुए हें एक महत्वपूर्ण अध्ययन में नियल्सन (1995) ने राष्ट्रीय-राज्य की परिभाषा करते हुए लिखा था कि यह संज्ञा केवल उन्हीं राज्यों को दी जानी चाहिए जिनमें समान सामाजिक पहचान वाली जनसंख्या पूरे देश की जनसंख्या का साठ प्रतिशत अथवा इससे अधिक हो ।
नियल्सन की परिभाषा के अनुसार उस समय विश्व के कुल 164 राज्यों में से 107 राष्ट्रीय-राज्य थे । शेष 57 में से 17 ऐसे थे जिनमें सबसे बड़ी सामाजिक इकाई (उपराष्ट्र) 40 से 60 प्रतिशत के बीच की जनसंख्या वाली थी (सोवियत रूस इस वर्ग का प्रमुख प्रतिनिधि था) ।
इक्कीस राज्यों में दो उपराष्ट्रीय इकाइयां मिलकर 60 प्रतिशत जनसंख्या की भागीदार थीं (इनमें बेलिजयम और फीजी प्रमुख उदाहरण थे) तथा शेष 19 राज्य तथाकथित बहुरष्ट्रिाय प्रकार के राज्य थे । ये सारे ही राज्य प्राय, एशियाई और अफ्रीकी देश थे । दूसरी ओर यूरोपीय और अमरीकी देश प्रमुखतया राष्ट्रीय इकाइयां थीं । विकासशील देशों की सामाजिक (राष्ट्रीय) बहुविधता परिसंघीय प्रकार की थी ।
परन्तु विद्वानों ने राष्ट्र और राज्य निर्माण के अध्ययन में प्रकार्य और परिसंघीय अनेकरूपता के विभेद को पूर्ण रूप से नजर अन्दाज कर दिया है, अत: वे राष्ट्र निर्माण की अफ्रीकी और एशियाई समस्या के मूल स्वरूप को समझने में विफल रहे हैं ।
परिसंघीय बहुविधता और राष्ट्र-निर्माण:
पृथक्-पृथक् क्षेत्रीय पहचान वाली सामाजिक इकाइयों के अस्तित्व वाले उत्तरउपनिवेशवदि दौर के देशों में राष्ट्र मानस में राष्ट्रीय-राज्य की स्थापना के प्रति प्रबल आस्था के होते हुए भी जनतांत्रिक व्यवस्था वाले देशों में परिसंघ शासन प्रणाली का चुनाव एक सामान्य घटना हे । यहां हम इसी प्रकार की व्यवस्था वाले राज्यों में राष्ट्र निर्माण की समस्या ओर उसेके समाधान की दिशा मे दृश्यगत प्रवृत्तियों की चर्चा करेंगे ।
राष्ट्र-निर्माण का उद्देश्य मूलतया देश के अन्दर स्थाई प्रशासनिक व्यवस्था और पूर्णतया समायोजित राजनीति को जन्म देना है । अर्थात् राष्ट्र-निर्माण की प्रथम शर्त यह है कि देश की समग्र जनता में समान राजनीतिक उद्देश्यों और विशिष्ट जीवन मूल्यों तथा आचार संहिता के प्रति प्रबल आस्था का संचार हो और अलगाववादी प्रवृतियों और क्षेत्रीय असंतोष का अंत हो ।
परिसंघीय शासन व्यवस्था के अन्तर्गत इसका तात्पर्य है कि राष्ट्रीय एकता के विकास के साथ-साथ क्षेत्रीय राजनीतिक घटकों को समुचित क्षेत्रीय स्वायत्तता के प्रति आस्थावान बनाए रखना आवश्यक है । दूसरे शब्दों में परिसंघीय शासन व्यवस्था वाले राज्यों में राष्ट्र निर्माण के प्रयासों को दो भिन्न-भिन्न स्तरों पर बराबर प्रयत्न शील रहने की आवश्यकता है ।
एक राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करना, तथा दूसरा, सदैव इस बात का ध्यान रखना कि एकता स्थापित करने की प्रक्रिया में अन्तरक्षेत्रीय समरूपता आरोपित करने के प्रयास न किए जाएं, अर्थात् परिसंघीय व्यवस्था को एकतंत्रीय व्यवस्था में परिवर्तित करने का प्रयास न हो ।
ऐसा करने से क्षेत्रीय असंतोष बढेगा जो कालान्तर में अलगाववादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देगा । भारत में नेहरू के पश्चात् आए कांग्रेसी प्रशासन के अन्तगर्त उत्तरोत्तर बढता हुआ सत्ता-संचयन तथा तज्जनित क्षेत्रीय असंतोष इसका स्पष्ट उदाहरण है ।
भारत उन थोड़े से सौभाग्यशाली देशों में हे जहां स्वतंत्र देश की राजनीति पूर्णरूपेण समायोजित राजनीतिक प्रक्रिया के साथ प्रारम्भ हुई और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भारत के प्राय सभी क्षेत्रों में समान रूप से जनसमर्थित राजनीतिक संगठन था ।
परन्तु धीरे-धीरे कांग्रेस का क्षेत्रीय जनाधार खिसकने लगा क्योंकि राज्यों की सरकारें व्यापक जनाधार वाले स्थानीय कयिकर्ताओं के स्थान पर केन्द्रीय नेतृत्व द्वारा नियुक्त प्रियजनों के हाथ में चली गई । बहुत दिनों तक सत्ता में रहने के कारण पार्टी नेतृत्व को सम हो गया था कि जनाधार जनसेवा से नहीं बल्कि केन्द्रीय नेता (इंदिरा गांधी, राजीव गांधी) के चमत्कार से प्राप्त होता है । परिणामस्वरूप देश की राजनीति में बिखराव आने लगा अलगाववादी क्षेत्रीय अस्मिता पुनर्जीवित होने लगी ।
क्षेत्रीय दलों का उदय इसी प्रवृत्ति का परिणाम था । संक्षेप में परिसंघीय देशों में राष्ट्र-निर्माण ओर राजनीतिक स्थायित्व का मूल मंत्र है कि जहां एक ओर सम्पूर्ण देश में केन्द्रीय सत्ता समानरूप से प्रभावों बने तथा देश में सर्वत्र नागरिकों में केन्द्रीय सत्ता के प्रति आस्था बड़े, वहीं दूसरी ओर यह भी आवश्यक है कि राजनीति में क्षेत्रीय बिखराव को रोकने तथा विभिन्न क्षेत्रों की स्थानीय समस्याओं को सुलझाने के प्रयास निरन्तर होते रहें । इसके लिए आवश्यक है कि केन्द्र और क्षेत्रों के बीच की संवैधानिक भागीदारी पर कुठाराघात न हो और क्षेत्रीय अस्मिता को समादर मिले ।
विभिन्न परिसंघीय प्रणाली वाले देशों में राजनीतिक स्थायित्व का तुलनात्मक विश्लेषण से परिसंघीय व्यवस्था के राष्ट्र निर्माण में निम्नांकित प्रवृत्तियों का आभास देता है:
1. परिसंघ व्यवस्था में राष्ट्रीय भावना की सुदृढ़ता और राजनीतिक स्थायित्व के लिए एक आधारभूत शर्त है कि संघ को आधार प्रदान करने वाली सामाजिक अनेकता सम्बन्धी पहचानों का क्षेत्रीय वितरण उनकी स्थानीय केन्द्रीयता के बावजूद एक दूसरे से पूर्णतया विलग न हो ।
पहचानों के पूर्ण क्षेत्रीय विलगाव की अवस्था में विभिन्न क्षेत्रीय पहचान वाली उपक्षेत्रीय इकाइयों में परस्पर मेल के सूत्र कमजोर होते हैं तथा आपसी स्पर्धा की होड़ में उनके टूटने का डर सदा बना रहता है । इसके विपरीत यदि इन उपक्षेत्रीय सामाजिक पहचानों के आधारमूलक तत्वों का क्षेत्रीय प्रसार एक दूसरे का अधिच्छादन करता हैं तो यह अधिच्छादन उनकी पारस्परिक अनेकता में एकता का समावेश करता है ।
पहचानों के अधिच्छादन के परिणामस्वरूप परस्पर विरोध के स्वर कुंद हो जाते हैं और अलगाववादी गोलबन्दी पर अंकुश लग जाता है, क्योंकि प्रत्येक उपक्षेत्रीय इकाई की सामाजिक पहचान वाले अनेक लोग, उनके बन्यू-बान्धव उनके अपने क्षेत्र से बाहर पड़ोसी (उपक्षेत्रों) राज्यों के निवासी हैं तथा वहां की सरकारों के सोहाई और न्यायप्रियता पर निर्भर हैं ।
ऐसे में क्षेत्रीय इकाइयों के लिए आवश्यक हो जाता है कि क्षेत्रीय हितों की सुरक्षा की मांग का स्वर इतना उग्र न हो कि दूसरे प्रदेशों में निवास करने वाले उनके अनेक अपने लोगों का जीवन कठिनाई में पड़ जाए । स्विट्जरलैण्ड इसका उत्तम उदाहरण है । वहां परिसंघ व्यवस्था की स्थापना धर्म और भाषा सम्बन्धी क्षेत्रीय पहचानों को क्षेत्रीय स्वायत्तता के माध्यम से एक संप्रभु राजनीतिक इकाई में बांधने के उद्देश्य से हुई थी ।
प्रादेशिक इकाइयों (कैन्टन) के स्तर पर वहां तीन भाषाओं, जर्मन, फ्रेंच और इटालियन तथा दो अलग-अलग धार्मिक पहचानों, प्रोटेस्टैण्ट और कैथलिक, का वर्चस्व था । क्षेत्रीय इकाइयों में भाषा और धर्म दोनों ही मुद्दों पर परस्पर विभेद और विरोध था ।
परन्तु क्षेत्रीय प्रसार की दृष्टि से इनका वितरण समरूप नहीं था अत: उनके प्रसार की क्षेत्रीय सीमाएं एक दूसरे का अधिच्छादन करती थीं । अर्थात् जहां एक ओर अनेक पड़ोसी प्रदेश (कैण्टन) भाषा की दृष्टि से परस्पर विरोधी गुटों में विभक्त थे वहीं धर्म के स्तर पर उनकी आस्थाएं एकरूप थीं । ऐसे में भाषा और धर्म दोनों की अलगाववादी क्षमता कुंद हो जाती है और उनका जातीय भूगोल उन्हें मिलजुल कर रहने के लिए बाध्य कर देता है ।
यदि हम स्विट्जरलैण्ड की तूलना कनाडा से करें तो स्थिति और भी स्पष्ट हो जाती है एक संप्रभु परिसंघ के रूप में कनाडा को फ्रांस के उत्तरी अमरीकी उपनिवेश क्युबेक को ब्रिटेन द्वारा संयुक्त राज्य अमरीका के उत्तर में स्थित अपने उत्तरी अमरीकी उपनिवेशों में मिलाने के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आया था ।
इसके कारण वहां एक ओर पूर्वी भाग में फ्रांसीसी संस्कृति, फ्रेंच भाषा और कैथोलिक मतावलम्बियों का विशाल क्यूबेक क्षेत्र है तो दूसरी ओर अंग्रेजी भाषी शेष प्रांतों का । अपनी भाषा और संस्कृति तथा विशिष्ट धार्मिक पहचान के कारण फ्रांसीसी मूल के लोग अपने प्रांत से बाहर जाने से कतरातें हैं ।
अत: देश में सांस्कृतिक सीमाएं अत्यधिक कठोर हो गई हें । इसके परिणामस्वरूप कनाडा की परिसंघ व्यवस्था निरन्तर आतरिक कलह से ग्रस्त रहती है । इस सन्दर्भ में भारत का दृष्टांत शिक्षाप्रद है । अनादिकाल से हिमालय से सेतु पर्यन्त विस्तृत क्षेत्रीय इकाई में समग्र सांस्कृतिक विकास की दीर्घकालिक प्रक्रिया के कारण भारत में क्षेत्रीय विविधताओं और विशिष्टताओं के होते हुए भी हिन्दू संस्कृति के अनवरत प्रवाह से जीवन मूल्यों में एकता तथा समान आध्यात्मिक मान्यताओं के प्रति समादर का संचार हुआ है ।
ऐसे में यहां अनेक बातों में सामान्य स्वीकृति से काम चलाना अपेक्षाकृत सरल हो सकता था । स्वतंत्रता संघर्ष में कांग्रेस को प्राप्त व्यापक समर्थन इसका प्रमाण है । परन्तु 1956 में भाषा के आधार पर प्रांतों के पुनर्गठन के पश्चात् अंतरप्रांतीय सम्बन्धों में भाषाई सीमाओं ने दीवारें खड़ी कर दीं ।
प्रत्येक राज्य उत्तरोत्तर एक विशिष्ट भाषा-भाषियों का गृहभूमि बन गया तथा धीरे-धीरे स्वतंत्रता प्राप्ति के समय की अन्तरप्रीन्तीय मैत्री भावना विलुप्त होने लगी और अलगाववादी शक्तियों को बढावा मिला । साथ ही उच्चतम स्तर तक की शिक्षा प्रादेशिक भाषाओं द्वारा दिए जाने के फलस्वरूप स्वतंत्रता प्राप्ति के दिनों में विद्यमान वैचारिक एकता के सूत्र कमजोर हुए हैं और युवक-युवतियों को अपने प्रदेश से बाहर के क्षेत्रों में काम मिलने के अवसर धीरे-धीरे समाप्त प्राय हो गए हैं ।
संयुक्त राज्य अमरीका का राजनीतिक इतिहास भी इस बात की पुष्टि करता है । अमरीका में दास प्रथा सदा से उत्तरी पूर्वी और दक्षिणी राज्यों के बीच मतभेद का प्रमुख कारण थी । परन्तु राजनीतिक दलों के प्रभाव क्षेत्र इस विभेद के क्षेत्रीय प्रारूप का अधिच्छेदन करते रहे थे क्योंकि प्रत्येक प्रमुख दल के सदस्य और समर्थक न्यूनाधिक रूप में पूरे देश में वितरित थे, अत: अपनी सारी अलगाववादी शक्ति के होते हुए भी दास प्रथा संघ के लिए अस्तित्व का संकट उपस्थित नहीं कर सकी थी ।
इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि मिसीसिपी घाटी का विशाल पश्चिमी क्षेत्र एक ओर दास प्रथा के विरोध के प्रश्न पर उत्तरी राज्यों के साथ था तो दूसरी ओर आर्थिक हितों की दृष्टि से लगभग 1850 ईस्वी तक वह दक्षिणी राज्यों पर निर्भर था क्योंकि दक्षिण वाहिनी मिसीसिपी नदी ही इस क्षेत्र के उत्पादों के लिए व्यापार का एक मात्र साधन थी ।
1850 के दशक के अन्त तक स्थिति में परिवर्तन आ गया था । रेलमार्गों के विस्तार के परिणामस्वरूप अब इस क्षेत्र का उत्तरी भाग उत्तरी राज्यों से अपेक्षाकृत अधिक प्रभावी ढंग से जुड़ गया । ऐसे में इस क्षेत्र के उत्तरी भागों की दक्षिणी राज्यों पर निर्भरता समाप्त हो गई और वे पूरी तरह उत्तरी राज्यों के साथ हो गए ।
परिणामस्वरूप उत्तर बनाम दक्षिण राजनीति की विभाजक रेखा अब प्राय ”दासता” और स्वतंत्रता प्रेमी राज्यों के बीच की मेसन एण्ड डिक्सन नामक विभाजक रेखा के समरूप हो गई । परिणामस्वरूप 1860 का राष्ट्रपति पद का चुनाव दास प्रथा बनाम स्वतंत्रता के प्रश्न पर लड़ा गया ।
ऐसे में स्वाभाविक था कि दक्षिण और उत्तर की राजनीतिक प्रतिक्रिया परस्पर विरोधी होती । परिणामस्वरूप रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार अब्राहम लिंकन जहां उत्तर के सभी क्षेत्रों में विजयी रहे थे वहीं दक्षिण में उन्हें समर्थन नहीं मिल पाया ।
ऐसे में लिंकन के राष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचित होने की घोषणा के साथ ही दक्षिणी राज्यों को अपने अस्तित्व के लिए खतरे की घण्टी सुनाई देने लगी । अमरीकी गृह युद्ध इसी द्वन्द्वात्मक स्थिति का परिणाम था । मलेशिया संघ भी इस संकल्पना का एक अच्छा उदाहरण है ।
यहां जातीय वितरण का समीकरण कुछ इस प्रकार का है कि चीनी मूल के लोग कुछ राज्यों में अधिसंख्यक गुट के रूप में विद्यमान हैं (यद्यपि पेनांग प्रांत के अतिरिक्त उन्हें कहीं भी पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं है) तो दूसरी ओर अन्य प्रांतों में वे महत्वपूर्ण अल्पसंख्यक गुटों के रूप में विद्यमान हैं ।
साथ ही नेगरी सेम्बिलन, मलक्का, और जोहोर प्रांतों मे मलेशिया और चीनी दोनों ही जातीय गुट अलग-अलग रूप में कुल जनसंख्या के चालीस प्रतिशत के भागीदार हैं । ऐसी स्थिति में दोनों के लिए आवश्यक है अपने सारे विभेदो को भुलाकर वे संयुक्त रूप से देश की राजनीति चलाएं तथा उसके अस्तित्व को सुरक्षित रखने के निरन्तर प्रयास करते रहे ।
2. इस बात पर विद्वानों में आम सहमति है कि परिसंघ व्यवस्था के स्थायित्व, अर्थात् राष्ट्र और राज्य की सुदृढ़ता बनाए रखने में राजनीतिक दलों का विशेष महत्व है । अमरीकी राजनीतिशास्त्री राइकर (1964) ने यहां तक कहा है कि परिसंघ की एकता उसके राजनीतिक दलों के स्वरूप पर निर्भर है । यदि राष्ट्रीय स्तर की राजनीति का नेतृत्व करने वाला दल अधिकांश प्रांतीय राज्यों में भी शासन करता हो तो देश की राजनीति में केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति और एकता के सूत्र दृढ़तर होंगे ।
राइकर के शब्दों में देश के संविधान में केन्द्रीकरण अथवा उपान्तीयकरण की प्रवृत्ति वहां केन्द्रीय शासन के प्रमुख दावेदार राजनीतिक दलों के केन्द्रीकरण के स्तर पर निर्भर है । राइकर का यह वक्तव्य मानने में कठिनाई नहीं हे । परन्तु इसी प्रसंग में उनका यह कहना कि देश की राजनीति और उसके संविधान में निहित केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति में राजनीतिक दलों की अपेक्षाकृत सामाजिक संरचना की भूमिका गौण है, इन पंक्तियों के लेखक के विचार में सर्वथा भ्रांतिमूलक है ।
राजनीतिक दल, उनकी संरचना और उनका क्षेत्रीय समर्थन, सामाजिक संरचना का प्रतिफल है, कोई बाह्य आरोपित व्यवस्था नही । यदि देश का समाज क्षेत्रीय दृष्टि से विविध पहचानों के वावजूद समान मूल्यों और आदर्शो के प्रति आस्थावान है तथा देश के नागरिक समान उद्देश्यों से अभिप्रेरित हैं तो स्वाभाविक है कि वहां की राजनीति और उसकी संवैधानिक संरचना केन्द्रीकरण की ओर प्रवृत्त होगी तथा संविधान केन्द्र को अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण अधिकार प्रदान करेगा, जैसा कि भारत के उदाहरण से स्पष्ट है ।
इसी प्रकार परिसंघ के निर्माण के समय आस्ट्रेलिया के विभिन्न प्रांतों के श्रमिक वर्ग में एकता की भावना इतनी बलवती थी कि आस्ट्रेलियन लेबर पार्टी आस्ट्रेलिया के एक समग्र राष्ट्रीय इकाई के रूप में उभरने के पहले ही एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल बन गई थी । परिणामस्वरूप अपने समय में आस्ट्रेलिया का संविधान सर्वाधिक केन्द्रीय प्रवृत्ति वाला परिसंघीय संविधान था ।
3. परिसंघीय राज्यों में राष्ट्रीय एकता की समस्या के तुलनात्मक विश्लेषण से प्रतीत होता हैं कि बहुजातीय जनसंख्या वाले परिसंघीय राज्यों में यदि क्षेत्रीय पहचान एक से अधिक सांस्कृतिक तथा सामाजिक तत्वों पर आधारित हो तो इस बात की सम्भावना अधिक है कि इन तत्वों में से कुछ का क्षेत्रीय वितरण क्षेत्रीय राजनीतिक इकाइयों की सीमाओं का अधिच्छादन करेगा ।
ऐसी स्थिति में विभिन्न तत्वों की अलगाववादी क्षमता पर अंकुश लगेगा और क्षेत्रीय इकाइयों के आपसी सम्बन्धों में सुधार होगा, उनमें परस्पर सहयोग की प्रवृत्ति वढ़ेगी और राष्ट्रीय एकता के सूत्र दृढ़ होंगे । उदाहरण के लिए भारत में आज सहस्त्रों वर्ष की सांस्कृतिक विरासत की समान भागीदारी के होते हुए भी विभिन्न क्षेत्रीय इकाइयों के बीच भाषा क्षेत्रीय पहचान का एक मात्र आधार बन गई है ।
प्रत्येक राज्य किसी न किसी भाषा-भाषी समूह का अनन्य (एक्सक्लूसिव) गृह क्षेत्र बन गया है तथा उत्तरोत्तर काम काज के अवसर पूरी तरह स्थानीय नागरिकों के लिए सुरक्षित होते जा रहे हैं । साथ ही पिछले चार दशकों में शिक्षा के सभी स्तरों पर क्षेत्रीय भाषाओं के प्राय एक मात्र माध्यम के रूप में उभरने के परिणामस्वरूप ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेजी के माध्यम से सर्वत्र उच्च शिक्षा की समान व्यवस्था के कारण उद्भूत बौद्धिक एकता प्राय विलुप्त होती जा रही है ।
ऐसे में विचार उठता है कि यदि हमारी क्षेत्रीय पहचानों में कुछ अन्य तत्वों का भी समावेश होता, अथवा (उदाहरणार्थ) यदि जाति-बिरादरी (जो आजकल कुछ क्षेत्रीय राजनेताओं जैसे मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और मायावती आदि की मूल पहचान बन गई है) के सूत्र मूल रूप से भाषाई सीमाओं में बंधे न होकर अन्तरक्षेत्रीय विस्तार वाले होते तो हमारे समाज में अन्तरक्षेत्रीय एकता के सूत्र अधिक मुखर ओर सुदृढ़ हो सकते थे, विशेषकर इस दुष्टि से कि आज के विघटित जनमानस के होते हुए भी पूरे देश में सांस्कृतिक एकता के सूत्र तथा भारतीय संस्कृति की सांस्कारिक समग्रता के प्रति आस्था का भाव सर्वत्र प्राय समान रूप से संचरित है ।
भारतीय जनता पार्टी का परिमार्जित रुख और उसके बढ़ते हुए क्षेत्रीय प्रभाव (जो 1998 के निर्वाचन के बाद से स्पष्टतया अखिल भारतीय स्तर का बन गया है) इसका प्रमाण है । यह बात ध्यान देने योग्य है कि यद्यपि वर्ण व्यवस्था (जिसके अन्यायपूर्ण प्रभाव की जितनी भी निन्दा की जाए कम है) देश में सर्वव्यापी है, परन्तु प्रत्येक भाषाई इलाके में इसका रूप एक दूसरे से भिन्न है । उदाहरणार्थ भारत में ब्राह्मण सभी प्रदेशों में निवास करते हैं परन्तु दक्षिण-उत्तर तथा पूरब-पश्चिम के ब्राह्मणों में खान-पान और विवाह सम्बन्ध, अर्थात् रोटी-बेटी के सम्बन्ध, संस्कार सम्मत नहीं है ।
4. संयुक्त राज्य अमरीका, आस्ट्रेलिया और स्विट्जरलैण्ड के उदाहरण से स्पष्ट है कि राष्ट्र और राज्य निर्माण में नागरिकों की अन्तरक्षेत्रीय संचरणता (मोबिलिटी) अत्यधिक महत्व की है । जब नागरिक इस बात के प्रति आश्वस्त रहता है कि उसे अपनी योग्यता के अनुरूप देश के किसी भी भाग में अप्रतिबंछित प्रतिस्पर्धा के आधार पर न्यायपूर्ण चयन प्रक्रिया के माध्यम से विभिन्न प्रकार की राजकीय और निजी क्षेत्र की नौकरियों के अवसर प्राप्त हैं तो स्वाभाविक रूप में उसके मन में राष्ट्र-प्रेम का भाव संचरित होता है ।
उसे देश का समग्र भौगोलिक क्षेत्र ”अपना” राह प्रदेश, अपनी मात और पितृ भूमि के रूप में दिखाई देने लगता है । साथ ही अन्तरक्षेत्रीय प्रवाह के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रीय पहचानों में आदान-प्रदान की प्रक्रिया को प्रोत्साहन मिलता है, उनके आपसी दुराव मिटते हैं और एकता के सूत्रों को सम्बल मिलता है ।
संयुक्त राज्य अमरीका इसका सबसे रोचक और शिक्षाप्रद उदाहरण हे । संयुक्त राज्य का निर्माण पूर्वी तटीय प्रदेश में स्थित तेरह पृथक-पृथक ब्रिटिश उपनिवेशों के आपसी विलय से हुआ था । देश का वर्तमान आकार बाद में पश्चिमी दिशा की ओर हुए उत्तरोत्तर विस्तार का परिणाम है ।
पश्चिम में स्थित विशाल उपमहाद्वीपीय क्षेत्र जनशून्य अथवा आदिवासी अमरीकियों (रेड इण्डियन) का प्रदेश था जो विकास के लिए सभी अमरीकी नागरिकों को समान रूप से उपलब्ध था । अमरीका के आधुनिक इतिहास का प्रारम्भ ही यूरोपीय मूल के लोगों के यहां आकर बसने से हुआ था, और जातीय मिश्रण का यह क्रम दीर्घकाल तक चलता रहा था ।
पश्चिम के विशाल सीमांत प्रदेश के विकास में भी यही प्रक्रिया चलती रही थी विभिन्न जातीय मूल के यूरोपीय लोग तथा भिन्न-भिन्न पूर्वी तटीय राज्यों के अन्य लोग यहां अपना भविष्य बनाने के उददेश्य से समान रूप से अकृष्ट हुए ।
अन्तरक्षेत्रीय जन प्रवाह की इस दीर्घकालिक प्रक्रिया में जातीय पहचानें पीछे कटती गई और अमरीकी आदर्श तथा अमरीकी संयुक्त राज्य (जो इस आदर्श का जनक था) के प्रति समान आस्था का संचार हुआ । पश्चिमी सीमांत में स्थापित नए राज्य ”अमरीकी” नागरिकों के राज्य थे अलग-अलग क्षेत्रीय इकाइयों अथवा क्षेत्रीय समुदायों और राज्यों के नहीं । इस प्रकार राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया सुदृढ़ हुई ।
उन्नीसवीं सदी के अन्त में जब सीमान्त क्षेत्र पूरी तरह से स्वायत्त क्षेत्रीय इकाइयों, भिन्न-भिन्न नए अमरीकी राज्यों के रूप में विभक्त हो गया तो उसके स्थान पर एक नए प्रकार का सीमान्त, अर्थात् महानगरीय सीमांत (मेट्रोपोलिटन फ्रण्टियर) अस्तित्व में आ गया । परिणामस्वरूप अन्तरक्षेत्रीय स्थानान्तरण की धारा अबाध रूप से प्रवाहित होती रही । विद्वानों का मत है कि संयुक्त राज्य में अन्तरक्षेत्रीय स्थानान्तरण बीसवीं सदी में उन्नीसवीं सदी की अपेक्षाकृत अधिक हुआ है ।
इसके विपरीत कनाडा में राज्य और राष्ट्र निर्माण की सारी समस्या इस बात पर केन्द्रित रही है कि क्यूबेक प्रांत सांस्कृतिक विषयों, विशेषकर भाषा और धर्म के प्रश्न पर शेष कनाडा से बहुत अलग है । इसके परिणामस्वरूप फ्रेंच भाषी कैनेडियन नागरिक क्यूबेक के बाहर जाने से हिचकते हैं और अंग्रेजी भाषी तथा फ्रेंच भाषी कनाडा के बीच की विभाजक रेखा उत्तरोत्तर किलर होती गई है ।
यही बात न्यूनाधिक रूप में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बने अनेक परिसंघ राज्यों के बारे में भी सच है । नाइजीरियाई प्रांत बियाफ्रा और शेष नाइजिरियाई प्रदेशों के बीच इसी प्रकार की द्वन्द्वात्मक कठिनाई लम्बे गृह युद्ध का कारण बनी थी ।
1971 के पहले पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान (किसी के शब्दों में ऊंट तथा भैंस) के बीच पहचान का ऐसा ही संकट था । इससे उत्पन्न अन्तरप्रांतीय जन प्रवाह सम्बन्धी अवरोध पुराने पाकिस्तानी संघ के विघटन और बांगलादेश के उदय का प्रमुख कारण बना था ।
भारतीय जनतंत्र में भाषाई आधार पर प्रांतों के पुनर्गठन से कुछ इसी प्रकार की कठिनाई उत्पन्न हुई है, और अन्तरक्षेत्रीय जन प्रवाह में ठहराव आया है । राजनेताओं को इस ओर अविलम्ब ध्यान देने की आवश्यकता है ।