Read this article to learn about the political geography of international relations in Hindi language.
अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों का राजनीतिक भूगोल:
वीसवीं सदी के मध्य तक अन्तरराष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक भूगोल का अध्ययन राष्ट्रों के बीच परस्पर शक्ति विस्तार और तत्सम्बन्धी सेन्य संघर्षो तथा उनके समाधान के उपायों की खोज और विश्लेषण पर केन्द्रित था ।
परिणामस्वरूप सामरिक परिदृष्टि, सीमा विवाद तथा अन्य सम्बद्ध मुद्दे अध्ययन के मुख्य केन्द्र थे । ऐसी स्थिति में विद्यार्थियों का ध्यान मुख्यतया देश के भोगोलिक संसाधनों, उसकी भौगोलिक स्थिति से उद्भूत लाभ अथवा हानि और उनके समाधान के उपायों पर केन्द्रित था ।
ADVERTISEMENTS:
इसमें आर्थिक, सांस्कृतिक तथा अन्य प्रकार के राजनीतिक सम्बन्धों, अर्थात् अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में मानवीय पहल के अध्ययन के लिए कोई स्थान नहीं था । द्वितीय विश्व के बाद क्षेत्रीय विस्तार उन्मुख उपनिवेशवाद की समाप्ति के साथ ही राष्ट्रीय राजनीतिक इकाइयों के बीच विभिन्न प्रकार के असामरिक सम्बन्ध अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन के मुख्य विषय बन गए तथा राजनीतिशास्त्र में इनके अध्ययन के लिए एक नई शाखा का विकास हुआ । भूगोल के क्षेत्र में इस प्रकार का अध्ययन का प्रारम्भ अस्सी के दशक में हुआ ।
अस्सी के दशक में वालरस्टाइन की विश्व व्यवस्था संकल्पना से आकर्षित होकर टेलर (1985) ने अन्तरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में राष्ट्रों के राजनीतिक भूगोल का अध्ययन करने की आवश्यकता पर जोर दिया । शीघ्र ही इस संकल्पना के प्रर्वतकों के अतिवादी रुख ने इस चिन्तन धारा को आर्थिक नियतिवाद का रूप प्रदान कर दिया । अध्येता राजनीति के सभी पक्षों को विश्व अर्थव्यवस्था के परिणाम के रूप में देखने लगे ।
अत: उनके विश्लेषण में राजनीतिज्ञों के क्रियाकलापों और उनके परिणामों के अध्ययन के लिए स्थान नहीं था । इस प्रकार का अध्ययन करने वालों में टेलर (1993 बी), एग्न्यू (1993), ओलाखलिन (1992), तथा ओटुआथेल (1986) के नाम शामिल हैं ।
ओटुआथेल ने राष्ट्रों की विदेश नीति के अध्ययन के सम्बन्ध में भूराजनीतिक आचार संहिता के महत्व की चर्चा की है । लेखक का विचार था कि विश्व के देशों के अन्तरराष्ट्रीय व्यवहार का अध्ययन इन संहिताओं के संदर्भ में करना चाहिए ।
ADVERTISEMENTS:
भूराजनीतिक आचार संहिता का तात्पर्य उन भौगोलिक तथा राजनीतिक मान्यताओं से है जिनके आधार पर कोई देश अपने अन्तरराष्ट्रीय राजनीतिक व्यवहार का संचालन करता है । उदाहरणार्थ द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राज्य अमरीका की हृदयस्थल की घेराबन्दी पर केन्द्रित विदेश नीति, तथा भारत की अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में तटस्थता की राजनीति अपने-अपने ढंग से सम्बद्ध देशों की भौगोलिक स्थिति ओर उनके राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित थी ।
उन्नीसवीं सदी के अवसान के साथ ही पृथ्वी के सभी क्षेत्रों की ”खोज” पूरी हो चुकी थी तथा सम्पूर्ण पृथ्वी एक अथवा दूसरे देश के अधिकार क्षेत्र में गई थी । परिणामस्वरूप अब क्षेत्रीय उपनिवेशवाद के अवसर समाप्त हो गए ।
अत: प्रमुख उपनिवेशकों की प्रधान चिन्ता पहले से प्राप्त किए गए उपनिवेशों की सुरक्षा पर केन्द्रित हो गई । मैकिंडर (1904) की इतिहास की धुरी ओर हृदय स्थल सम्बन्धी संकल्पनाएं इसी प्रकार की चिन्ता का प्रतिफल थी । उपनिवेशवाद के दौर में जर्मनी पीछे रह गया था, क्योंकि वह 1871 के एकीकरण के पश्चात् ही एक शक्तिशाली देश बन पाया था ।
बीसवीं सदी के प्रारम्भ के साथ ही अन्तरराष्ट्रीय शक्तियों के बीच उनकी सरकारों के स्तर पर वैचारिक आदान-प्रदान तथा आर्थिक और सांस्कृतिक समझौते बढ़ने लगे थे यद्यपि अभी तक ये समझौते मुख्यतया द्विपक्षीय थे न कि बहुपक्षीय ।
ADVERTISEMENTS:
अर्थात् राज्यों के परस्पर सम्बन्ध सही अर्थों में अन्तरराष्ट्रीय नहीं थे । बहुपक्षीय सम्बन्धों की नींव प्रथम विश्वयुद्ध (जो वास्तव में यूरोपीय युद्ध ही था) के साथ ही पड़ी । 1920 में लीग ऑफ नेशन्स की स्थापना इस दिशा में पहला बड़ा कदम था । प्रथम विश्वयुद्ध के साथ ही द्विपक्षीय राजनयिक सम्बन्धों के आधार रार आपसी विवादों का समाधान करने की पुरानी प्रणाली का अन्त हो गया ।
साथ ही देशों की आन्तरिक राजनीति का स्वरूप परिवर्तित हो गया था । राज्यों की आन्तरिक राजनीति अब शासको की राजनीति के स्थान पर सचेत राष्ट्रीय उद्देश्यों और व्यापक जनसमर्थन वाले राष्ट्रीय राजनीतिक दलों तथा उनके नेताओं की राजनीति बन गई ।
यही कारण था कि 1920 के दशक में पूरे यूरोप में मतदान अधिकार पर लगे प्रतिबन्धों को प्राय पूरी तरह समाप्त कर दिया गया । इस दृष्टि से बीसवीं सदी का वास्तविक प्रारंभ प्रथम विश्वयुद्ध के बाद (1920 से) ही हुआ । 1920 के बाद से विश्व राजनीति मात्र यूरोप केन्द्रित राजनीति के स्थान पर सही अर्थों में विश्व राजनीति हो गई । अब यूरोप के बाहर के कुछ देश (उदाहरणार्थ संयुक्त राज्य और जापान) इसके सक्रिय भागीदार बन गए ।
प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के साथ ही अन्तरराष्ट्रीय राजनीति राष्ट्रीय मूल्यों और उद्देश्यों की राजनीति बन गई थी । इसकी नींव जर्मन राष्ट्रवाद के विकास के साथ ही पड़ गई थी । 1945 के बाद इस मूल्यबोध का मुख्य आधार साम्यवादी बनाम पूंजीवादी राष्ट्रवाद के प्रसार से जुड़ गया और अन्तरराष्ट्रीय राजनीति की धुरी पश्चिमी यूरोप से उत्तरी अमरीका में स्थानान्तरित हो गई । इसीलिए पिछले पचास वर्षो को अमरीकी अर्धशती का नाम दिया गया है ।
राष्ट्र संघ की स्थापना के साथ ही अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में शर्षिस्तरीय राजनीति (हाई पोलिटिक्स) का अन्त हो गया और अधोस्तरीय राजनीति (लो पॉलिटिक्स) का सूत्रपात हुआ । अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन में सैनिक शक्ति पर आधारित राजनयिक स्तर के समझौतों के आधार पर होने वाली द्विपक्षीय अन्तरराष्ट्रीय राजनीति को ”उच्च” राजनीति का नाम दिया गया है ।
इसके विपरीत लोकतान्त्रिक सरकारों के प्रतिनिधियों के विचार विमर्श के आधार पर अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के मैत्रीपूर्ण संचालन को अधोस्तरीय अन्तरराष्ट्रीय राजनीति कहते हैं । पिछले तीस-पैंतीस वर्षो में गृह-युद्ध से त्रसित अनेक देशों में संयुक्त राष्ट्र संघ के बीच बचाव के प्रयासों के अन्तर्गत दूसरे निरपेक्ष देशों की सेनाओं की सहायता से शान्ति स्थापित करने की दिशा में किए गए महत्वपूर्ण कार्यों को ध्यान में रखते हुए सैद्धान्तिक स्तर पर उच्चस्तरीय और अधोस्तरीय अन्तरराष्ट्रीय राजनीति के बीच अन्तर करना उत्तरोत्तर कठिन हो गया है ।
पुरानी पद्धति की उच्चस्तरीय राजनीति की समाप्ति के अनेक कारणों में से एक महत्वपूर्ण कारण यह था कि द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् द्विध्रुवीय अन्तरराष्ट्रीय राजनीति और दोनों शक्ति ध्रुवों के बीच सामरिक प्रतिस्पर्धा के परिणामस्वरूप विश्वयुद्ध अब एक कभी न घटित होने वाली अब एक सम्भावना मात्र बन कर रह गई थी । परन्तु प्रलय की सम्भावना हर समय विद्यमान थी ।
अत: दोनों ही प्रतिस्पर्धी गुटों के सदस्य निरन्तर युद्ध को टालने के प्रयास में व्यस्त थे । इस दृष्टि से युद्ध अब मात्र अविकसित विश्व की घटना बन गई थी (गर्र, 1994) । यह सामान्य धारणा बन गई कि प्रत्येक देश की वर्तमान सीमाएं व्यावहारिक स्तर पर स्थायी सीमाएं हैं तथा इनके किसी प्रकार के अतिक्रमण का परिणाम विश्व राजनीति के दोनों प्रतिस्पधी गुटों के बीच संघषइ का कारण बन सकता है ।
बहुस्तरीय और बहुपक्षी अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों की दिशा में राष्ट्र संघ की स्थापना के साथ ही स्थायी अन्तरराज्यीय (इण्टरगवर्नमेण्टल) संगठनों का प्रारम्भ हुआ । प्रत्येक पक्ष तथा प्रत्येक महत्वपूर्ण उद्देश्य के लिए इन संगठनों के सदस्य देशों के प्रतिनिधियों द्वारा परस्पर सहयोग के आधार पर संचालित ये संगठन लीग ऑफ नेशन्स के जिनेवा स्थित मुख्यालय से कार्य करने लगे थे ।
इन संगठनों की निरन्तरता प्रदान करने के उद्देश्य से उनके स्थायी सचिवालय स्थापित किए गए । विभिन्न राष्ट्रों के पुराने संगठन का नाम ”लीग ऑफ नेशन्स” था । यद्यपि नाम के आधार पर इसके सम्पूर्ण विश्व राष्ट्रीय इकाइयों का संगठन होने का आभास मिलता था परन्तु व्यावहारिक स्तर पर यह वास्तव में केवल ”यूरोपीय” राष्ट्रों का संघ था ।
इसके सारे सदस्य यूरोपीय थे तथा इसकी स्थापना इन्हीं देशों में आपसी ताल मेल बैठाने के उद्देश्य से की गई थी । परन्तु उत्तरी और दक्षिणी अमरीका के देशों के अतिरिक्त प्राय सम्पूर्ण विश्व यूरोपीय देशों के अधीन था अत: इस लीग का कार्यक्षेत्र लगभग विश्वव्यापी था । उसके इसी सीमित क्षेत्रीय स्वरूप के कारण 1945 में संयुक्त राज्य अमरीका ने लीग की सदस्यता स्वीकार करने से मना कर दिया या ।
यही संयुक्त राष्ट्र: संघ (यूनाइटेड नेशन्स) की स्थापना का प्रारम्भिक कारण था । परन्तु सबसे महत्वपूर्ण कारण यह था कि 1945 के बाद विश्व राजनीति का स्वरूप एकदम परिवर्तित हो गया था । कल तक ”महान” शक्तियों के रूप में मान्य विभिन्न यूरोपीय देश (ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस, हालैण्ड, जर्मनी आदि) अब मध्यम महत्व वाले लघु आकार के देश बन गए थे ।
अत: पूंजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले पश्चिमी देशों का नेतृत्व अब ब्रिटेन के हाथ से निकल कर संयुक्त राज्य अमरीका के पास चला गया था । यही कारण है कि आधुनिक अन्तरराष्ट्रीय राजनीति के इतिहास को दो मुख्य काल खण्डों में विभक्त किया गया है ।
1914-1945 के युग को यूरोपीय संघर्ष का युग तथा 1945-1990 के बीच के युग को शीत युद्ध का नाम दिया गया है । 1945 के बाद विश्व राजनीति के गुरुत्वाकर्षण केन्द्र के संयुक्त्त राज्य अमरीका में स्थानान्तरित हो जाने के बाद यह स्वाभाविक था कि संयुक्त राष्ट्र संघ का मुरव्यालय जिनेवा से हट कर न्यूयार्क में स्थापित हो जाए ।
द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारम्भ होते ही क्षेत्रीय उपनिवेशवाद के लिए खतरे की घाटी बजने लगी थी । युद्ध के दौरान अपने उपनिवेशों में शान्ति बनाए रखने तथा युद्ध प्रयास में स्थानीय जनता का सहयोग प्राप्त करने के उद्देश्य से ब्रिटेन तथा अन्य यूरोपीय देशों ने अपने अधीन राष्ट्रीय इकाइयों को युद्धोपराल स्वतंत्र करने के आश्वासन दिए थे ।
युद्ध में हुए विध्वंस के उपरान्त उपनिवेशवादी देश अब इस स्थिति में नहीं रह गए थे कि वे अपनी परतंत्र इकाइयों को पुलिस और सैनिक कार्यवाइयों के आधार पर नियंत्रित कर सकें । अत: एक-एक कर सभी परतंत्र इकाइयां प्रमुतासम्पन्न रष्ट्रिाय राजनीतिक इकाइयों के रूप में स्थापित हो गई ।
यही कारण था कि 1950 के बाद विश्व में स्वतंत्र राज्यों की संख्या अर्थात् संयुक्त राज्य संघ की सदस्य संख्या हुत गति से बढ़ने लगी । परिणामस्वरूप संयुक्त राष्ट्र संघ सही अर्थों में एक विश्वव्यापी अन्तरराष्ट्रीय संगठन बन गया । उत्तरोत्तर अन्तरराष्ट्रीय राजनीति कुछ विकसित देशों की क्रियास्थली मात्र न रहकर अपेक्षाकृत एक मुक्त बहुराष्ट्रीय मंच में परिवर्तित हो गई ।
आर्थिक दृष्टि से विकसित यूरोपीय और अमरीकी देशों की अन्तरराष्ट्रीय राजनीति दो परस्पर विरोधी खेमों में विभक्त हो गई थी । एक ओर संयुक्त राज्य अमरीका के नेतृत्व में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था वाले उदार जनतांत्रिक राजनीति के पक्षधर पश्चिमी यूरोपीय और उत्तरी अमरीकी देश, तथा दूसरी ओर साम्यवादी राजनीतिक और मार्क्सवादी आर्थिक दर्शन के पक्षधर हृदय स्थलीय सोवियत संघ ओर उसके पूर्वी यूरोपीय तथा अन्य सहयोगी देश ।
पहले गुट को प्रथम विश्व (फर्स्ट वर्ल्ड) तथा दूसरे को द्वितीय विश्व (सेकेण्ड वर्ल्ड) के नाम से पुकारा जाने लगा था । इनके अतिरिक्त विकासशील और अविकसित अर्थव्यवस्था वाले नवोदित स्वतंत्र राज्यों का विशाल समूह भारत, मिश्र और यूगोस्लाविया के संयुक्त नेतृत्व में दोनों प्रधान गुटों के बीच समान दूरी बनाए रखने वाले तटस्थ अन्तरराष्ट्रीय विदेश नीति के पक्षधर था । विकासशील देशों के समूह को तृतीय विश्व के नाम से पुकारा जाने लगा ।
1945 के बाद की द्विध्रुवीय विश्व व्यवस्था का एक पक्ष हृदयस्थल बनाम तटीय पेटी के सामरिक संघर्ष पर केन्द्रित था । इस व्यवस्था की एक मुख्य विशेषता पश्चिमी देशों के बहुपक्षीय अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में संयुक्त राज्य का निर्विवाद वर्चस्व था ।
यह वर्चस्व उनके आर्थिक और व्यापारिक सम्बन्धों में स्पष्टतया परिलक्षित था । विश्वस्तरीय आर्थिक व्यवस्था के संचालन हेतु बनाई गई अनेक संस्थाओं का समायोजन तथा उनकी संरचना संयुक्त राज्य द्वारा निर्दिष्ट योजना के अनुसार थी ।
विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, ”गेट” (जोकि अब अन्तरराष्ट्रीय व्यापार संघ, डब्ल्यू.टी.ओ. में परिवर्तित हो गया हे) ये सभी अमरीकी वर्चस्व के प्रमाण थे । ध्यातव्य है कि 1950 के बाद देशों के बीच बहुपक्षीय अन्तरसम्बन्ध उत्तरोत्तर अत्यधिक व्यापक हो गए ।
इसका मूल कारण यह था कि 1930 के दशक से प्रारम्भ कर विभिन्न देशों के लोकतांत्रिक प्रशासन में राज्यों का आर्थिक-सामाजिक उत्तरदायित्व उत्तरोत्तर बढ़ता गया । साथ ही साधारण नागरिक का दैनन्दिन जीवन संघर्ष उत्तरोत्तर विश्वस्तरीय अर्थव्यवस्था से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में प्रभावित होने लगा । परिणामस्वरूप प्रत्येक राज्य को अपने देश के सामाजिक और आर्थिक प्रशासन को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए अन्तरराष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता पड़ी ।
समाजशास्त्री गिड्डेन्स (1987) के शब्दों में आर्थिक और तकनीकी क्षेत्रों में अन्तरराष्ट्रीय सहयोग आज किसी भी राज्य का विकल्प नहीं अपितु उसकी अनिवार्य आवश्यकता है । अस्सी के दशक में सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमरीका के बीच परस्पर वैमनस्य के शमन (देतांत) के परिणामस्वरूप अन्तरराष्ट्रीय राजनीति को प्रथम बनाम द्वितीय विश्व के द्वंद्वात्मक परिप्रेक्ष्य में देखने की प्रवृत्ति उत्तरोत्तर मन्द पड़ गई ।
साथ ही अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में आर्थिक विकास और अन्तरराष्ट्रीय व्यापार से सम्बद्ध प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण हो गए । अत विकसित और विकासशील का अन्तर अन्तरराष्ट्रीय पहचान तथा विश्व के राज्यों के वर्गीकरण का मुख्य आधार बन गया ।
अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन से सम्बन्धित विमर्श उत्तरोत्तर उत्तर (अर्थात् औद्योगिक दृष्टि से विकसित) तथा दक्षिण (अर्थात् औद्योगिक दृष्टि से पिछड़े) के देशों के बीच की खाई-उनकी परस्पर आर्थिक सामाजिक विषमता-के अध्ययन पर केन्द्रित हो गया ।
अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के शब्द भण्डार में इन दो शब्दों का प्रचार जर्मनी के चांसलर विली जाएंट द्वारा संयुक्त्त राज्य आयोग के तत्वावधान में लिखित पुस्तक की नार्थ- साउथ रा प्रोग्राम फॉर सवीइवल (1980) के प्रकाशन के बाद बहुत बढ़ गया ।
1989-1991 के दौरान पूवी यूरोप और सोवियत संघ की राजनीति में विघटनकारी परिवर्तनों के पश्चात् तथाकथित द्वितीय विश्व का अस्तित्व समाप्त हो गया । इसके साथ ही तृतीय विश्व के अस्तित्व का मूल आधार, अर्थात् दो प्रतिस्पधी शक्ति ध्रुवों के बीच तटस्थतापूर्ण व्यवहार के पक्ष में दिए जाने वाले तर्क का आधार समाप्त हो गया ।
पिछले चालीस वर्षों में तथाकथित प्रथम विश्व की पहचान का प्रमुख आधार मैकिंडरीय संकल्पना के अनुसार हृदय क्षेत्र में स्थित महाशक्ति से यूरोप और विश्व शांति के लिए सम्भावित संकट में निहित था । 1990 में इस संकट की समाप्ति के साथ ही यह आधार समाप्त गया ।
परिणामस्वरूप प्रथम विश्व के देशों के परस्पर सम्बन्धों में अब क्षेत्रीय और स्थानीय (राष्ट्रीय) स्तर के हित अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण हो गए । इससे संयुक्त राज्य अमरीका के नेतृत्व के स्तर की व्यापकता में भारी परिवर्तन आया, इस तथ्य के बावजूद की संयुक्त राज्य अब विश्व राजनीति का एक मात्र ध्रुव बन गया था ।
व्यावहारिक स्तर पर विश्व राजनीति अब एक बहुनाभीय व्यवस्था बन गई ओर सामरिक मुद्दों के स्थान पर आर्थिक-व्यापारिक मुद्दे अधिक महत्वपूर्ण हो गाए । संयुक्त राज्य अमरीका के अतिरिक्त इस व्यवस्था के प्रमुख नाभि स्थल यूरोपीय समुदाय ओर जापान हैं ।
इनमें से प्रत्येक के अपने विश्वव्यापी व्यापारिक और आर्थिक सम्बन्ध हैं । परन्तु उनके आर्थिक उद्देश्यों में परस्पर प्रतिस्पर्धा के बावजूद पूंजीवादी विश्व आर्थिक व्यवस्था के बाहुपाश को उत्तरोत्तर दृढ़ करने के उद्देश्य की प्राप्ति हेतु ये सभी नाभि प्रदेश एकजुट हैं ।
विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, और विश्व व्यापार संगठन इनके हितों की रक्षा के प्रमुख तंत्र हें । उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से ही अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में आर्थिक उद्देश्यों की भूमिका महत्व की रही है, तथा मैकिंडर की हृदय स्थल परिकल्पना स्वयं आर्थिक चिन्ता से प्रेरित थी (एग्न्यू और कॉर्ब्रिज, 1995), परन्तु अस्सी के दशक से व्यापार और अन्य आर्थिक मामले देशों की विदेश नीति के संचालन में निर्णायक तत्व बन गए हैं ।
परन्तु विश्व को परस्पर प्रतिस्पर्धाशील राष्ट्रीय इकाइयों के संघर्ष क्षेत्र के रूप में देखने की परिपाटी अभी भी विद्यमान हैं । परिणामस्वरूप भूमण्डलीकरण के अस्तित्व में आने के बाद भी विश्व व्यवस्था के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों को महान शक्तियों के प्रभुत्व प्रसार की दृष्टि से अनुकूल अथवा प्रतिकूल इकाइयों के रूप में देखने की प्रथा यथावत बनी हुई है ।
यही कारण है कि अपनी असुरक्षित स्थिति की प्रतिक्रिया स्वरूप और भविष्य में प्रतिदिन बढते संकट को ध्यान में रखते हुए जब भारत ने 1999 में परमाणु परीक्षण किया तो अमरीका और जापान की दृष्टि में वह एक जघन्य अपराध था ।
परन्तु फ्रांस जेसे सुरक्षित और सभी दृष्टियो से लघु आकार वाले देश द्वारा किया गया इसी प्रकार का परीक्षण वर्तमान समय में अपने आप को विश्व का एक छत्र पुलिस प्रशासक समझने वारने संयुक्त राज्य अमरीका की चिन्ता का विषय नहीं था । देशों की आन्तरिक राजनीतिक और उनकी आर्थिक व्यवस्था में गहरे सम्बन्ध के विकास की एक लम्बी कहानी है । इसी के परिणामस्वरूप प्रत्येक राष्ट्रीय इकाई में स्वायत्त राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का प्रादुर्भाव हुआ था ।
औद्योगिक क्रान्ति के बाद पूंजीवादी व्यवस्था के अस्तित्व में आने के साथ ही विकसित औद्योगिक व्यवस्था वाले देशों के अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्ध उनकी राष्ट्रीय राजनीति के अभिन्न अंग बन गए थे । परन्तु 1950 के पहले इन देशों की व्यापारिक और औद्योगिक इकाइयों की राष्ट्रीयता और उनके कार्यालयों (फैक्टरियों) की भौगोलिक स्थिति निर्विवाद रूप में देश की मिट्टी से जुड़ी थी ।
वीसवीं सदी के अन्तिम चरण में इस स्थिति में बहुत अन्तर आ गया हैं । बड़ी-बड़ी कम्पनियो के औद्योगिक संस्थान उत्तरोत्तर अन्तरराष्ट्रीय व्यापकता वाले बन गए हैं । परिणामस्वरूप इनमें विदेशी निवेश इतना बढ़ गया है कि उनकी राष्ट्रीय तथा भौगोलिक पहचान अस्पष्ट हो गई है, यद्यपि इनके मुख्यालय अभी भी देश के अन्दर स्थित हैं और उनका नीति निर्धारण इन मुख्यालय में ही होता है ।
परन्तु उनके अधिकारियों का चयन अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर होता है और वे एक देश से दूसरे देश में स्थानान्तरित होते रहते हैं । परिणामस्वरूप इन संस्थानों की राष्ट्रीय पहचान धूमिल हो गई हैं । इस प्रकार के आर्थिक भूमण्डलीकरण के परिणामस्वरूप वित्तीय बाजार अब अन्तरराष्ट्रीय आयाम वाला बन गया है तथा अधिक से अधिक लाभांश की खोज में बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपने पूंजी निवेश अन्तरराष्ट्रीय स्तर रार निरन्तर एक देश से दूसरे देश में स्थानान्तरित करती रहती हें ।
देशों के राष्ट्रीय शासन पूंजी के इस निरन्तर स्थान परिवर्तन को नियंत्रित करनें में असमर्थ हैं क्योंकि ज्योंही कोई देश उन पर सरकारी नियंत्रण का प्रयास करता है सम्बद्ध बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपना निवेश अन्यत्र (किसी और देश में) स्थानान्तरित कर देती हैं । परिणामस्वरूप देश में आर्थिक अस्थिरता ओर बेरोजगारी उत्पन्न हो जाती है ।
1950 के पहले विश्व आर्थिक व्यवस्था में किसी भी देश का राष्ट्रीय वर्चस्व उस देश की स्थानीय अर्थव्यवस्था और उसकी उत्पादकता पर निर्भर था । बहुधा सबसे अधिक आर्थिक उत्पादन करने वाला देश विश्व का सबसे बड़ा व्यापारिक केन्द्र और सबसे बड़ा वित्तीय बाजार भी होता था ।
परिणामस्वरूपर विश्व व्यवस्था में देश की कम्पनियों की भागीदारी से अर्जित सम्पूर्ण लाभांश का पुनर्निवेश देश के अन्दर स्थित आर्थिक औद्योगिक इकाइयों में होता था जिससे देश की राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति कय दोनों में ही वृद्धि होती थी । पूंजी के भूमण्डलीकरण के वर्तमान दौर में इस स्थिति में आमूल परिवर्तन आ गया है ।
व्यापारिक केन्द्रों ओर वित्तीय बाजार का अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर विकेन्द्रीकरण हुआ है । किसी देश की बहुराष्ट्रीय व्यापारिक तथा औद्योगिक इकाइयों को प्राप्त होने वाले लाभांश का पुनर्निवेश अब देश के अपने भौगोलिक क्षेत्र में स्थित इकाइयों में ही हो यह आवश्यक नहीं है ।
अत: उपनिवेशवादी युग की स्थिति के सर्वथा विपरीत वर्तमान दौर में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लाभांश का बहुत बड़ा भाग देश के बाहर स्थित औद्योगिक और व्यापारिक इकाइयों में किया जाने लगा है । उपनिवेशवाद के दोर में ब्रिटेन के अन्तरराष्ट्रीय निवेश का सम्पूर्ण लाभांश पुनर्निवेश हेतु देश में वापस आ जाता था और स्थानीय जनता उससे पूर्ण रूपेण लाभान्वित होती थी ।
इसके विपरीत वर्तमान दौर में अमरीकी वर्चस्व से प्राप्त होने वाले लाभांश का काफी बड़ा हिस्सा देश के बाहर अन्य देशों में निवेश किया जाने लगा है । अत: अमरीकी कम्पनियों द्वारा अर्जित लाभांश में अमरीकी जनता की सीधी भागीदारी में बहुत कमी आई है ।