This article provides a note on the new cold-war in Hindi language.
शीत युद्ध के लम्बे दौर में दक्षिण एशिया की अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में जहां एक ओर भारत और रूस के बीच परस्पर सुरक्षा की सन्धि स्थापित थी वहीं दूसरी ओर संयुक्त राज्य अमरीका लगातार पाकिस्तान को सैनिक साज सामान से सज्जित करता रहा था ।
साठ के दशक में, सोवियत-चीन सम्बन्धों, में आई गिरावट के साथ ही संयुक्त राज्य अमरीका चीन से चोरी छिपे सम्बन्ध बढ़ाता रहा था । 1970-71 के बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष के समय से संयुक्त राज्य, चीन, ओर पाकिस्तान के बीच की मैत्री विश्वविदित है ।
परन्तु दोनों शक्ति ध्रुवों के बीच शात्रवपूर्ण सम्बन्धों में ठहराव आने के फलस्वरूप अन्तरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान इस ओर आकर्षित नहीं हुआ । विशेषकर इसलिए ओर भी कि 1990 तक दोनों शक्ति ध्रुवों के बीच शक्ति संतुलन ओर उससे उत्पन्न अपभीति का वातावरण यथावत बना रहा था ।
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फलस्वरूप विश्व के किसी भी भाग में किसी प्रकार के व्यापक क्षेत्रीय सेन्य संघर्ष की सम्भावना नहीं थी । सोवियत संघ के विघटन के बाद स्थिति एकदम बदल गई है । चीन के हौंसलें और बुलन्द हो गए हैं । वह ग्लोप ओर अमरीका के बाहर सर्वत्र अपना राजनीतिक प्रभाव बढ़ाने में सतत् प्रयासशील है ।
उसके इस उददेश्य की प्राप्ति के रास्ते में भारत की अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा मुख्य अवरोध है । पिछले चार दशकों से भारत को अफ्रीका और एशिया के विकासशील देशों का नेतृत्व करता रहा है और वह पिछले पचास वर्षो से विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक तथा शांतिप्रिय राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित रहा है ।
अत: चीन तथा संयुक्त राज्य पाकिस्तान को सैन्य उपकरणों से पूरी तरह सम्पन्न करके उसके माध्यम से भारत को क्षेत्रीय सीमा विवादो में फंसाए रखना चाहते थे । पाकिस्तान के आणविक शक्ति परीक्षणों में चीन और संयुक्त राज्य द्वारा दी गई प्रत्यक्ष तथा परोक्ष सहायता का यही उद्देश्य रहा है ।
1998 में भारत द्वारा विकसित आणविक शस्त्रीकरण की क्षमता सिद्ध हो जाने के बाद अमरीका, चीन और पाकिस्तान की इस दीर्घकालिक योजना को बहुत धक्का लगा है । भारत के आत्मनिर्भर आणविक शस्त्रीकरण के पश्चात् अब पाकिस्तान के माध्यम से भारत को क्षेत्रीय झगड़ों में फंसाए रखने में अधिक सफलता नहीं मिल सकती क्योंकि अपभीति का वातावरण पूरी तरह स्थापित हो जाने के पश्चात् पाकिस्तान द्वारा अब किसी नसल व्यवहार की सम्भावना नहीं रही ।
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इन परीक्षणों के साथ ही भारत एक आणविक शक्ति सम्पन्न विश्व शक्ति बन गया है । इसके परिणामस्वरूप चीन तथा संयुक्त राज्य अमरीका द्वारा भारत को मात्र एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में सीमित रखने के सुनियोजित प्रयास को बहुत ठेस पहुंची है ।
इस छटपटाहट की प्रतिक्रिया स्वरूप चीन तथा संयुक्त राज्य अमरीका भविष्य में भी पाकिस्तान के माध्यम से भारत पर सुरक्षा दबाव बनाए रखना चाहते हैं । अमरीका तथा उसके मित्र देशों द्वारा भारत पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबन्धों के पीछे इसी प्रकार का उददेश्य निहित है ।
परन्तु भारत द्वारा किसी बाहरी शक्ति के दबाव की परवाह किए बिना स्वतंत्र निर्णय के आधार पर आगे बढ़ते रहने के इरादे की घोषणा से स्थिति तनावपूर्ण बन गई है अनेक विचारकों के अनुसार इससे दक्षिण एशिया में एक नए शीत युद्ध की सम्भावना बढ़ गई है ।
भारत पर आर्थिक प्रतिबन्धों के मामले में अमरीका को आन्तरिक और बाह्य दोनों ही स्तरों पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है । अमरीकी कम्पनियां भारतीय बाजार छोड़ने के पक्ष में नहीं है परिणामस्वरूप अमरीकी सरकार पर आर्थिक प्रतिबन्धों को हटाने के लिए दबाव निरन्तर बढ़ता जा रहा है ।
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दूसरी ओर अमरीका भारत पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबन्धों के प्रश्न पर रूस तथा फ्रांस का समर्थन पाने में विफल रहा है । साथ ही यूरोपीय संगठन के देश भारत में अपनी व्यापारिक भागीदारी वढ़ाने की ताक में हैं । परिणामस्वरूप अमरीकी कम्पनियों की चिन्ता और बढ़ गई है ।
अत: जहां तक अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्धों का प्रश्न है इस बात की पूरी सम्भावना है कि भारत को भविष्य में विशेष कठिनाईयों का सामना नहीं करना पड़ेगा । विश्व के इतने बड़े लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले बाजार को अनेक विकसित देश ललचाई आंखों से देख रहे हैं । भारत और रूस के बीच वैज्ञानिक और तकनीकी सहायता तथा आदान-प्रदान यथावत जारी है तथा फ्रांस तथा अन्य यूरोपीय देश भी भविष्य में इस क्षेत्र में भारत का सहयोग करने के लिए प्रस्तुत हैं ।
जहां तक चीन, पाकिस्तान, तथा अमरीका की धुरी पर केन्द्रित शीत युद्ध का प्रश्न हैं, इस दिशा में भारत अकेला नहीं है । भारत के विरोध में किए जाने वाले ऐसे किसी प्रयास से रूस अप्रभावित नहीं रह सकता । इस मुद्दे पर भारत को रूस का समर्थन ओर सहयोग निश्चित ही मिलता रहेगा । पाकिस्तान और ईरान के साथ चीन तथा अमरीका के सहयोग से पश्चिम एशिया में तनाव की सम्भावना बढ़ेगी तथा अरब-इजरायली सम्बन्धों में और तनाव आएगा ।
इससे अमरीका और इजरायल के सम्बन्धों में भी तनाव आना स्वभाविक है । इस घटनाक्रम से रूस की चिन्ता बढ़ेगी । अमरीका द्वारा ”नाटो” के प्र भाव क्षेत्र को पूर्वी यूरोप तक बढ़ाने के प्रयास से रूस को अमरीका के नापाक इरादों का अनुमान हो गया है ।
ऐसी स्थिति में रूस तथा भारत के बीच सुरक्षा सहयोग बढेगा । परिणामस्वरूप दक्षिण एशिया का यह सम्भावित शीत युद्ध विश्व स्तरीय हो जाएगा । चीन और संयुक्त राज्य अमरीका के बीच बढ़ती हुई मैत्री तथा चीन के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव से पूर्वी एशिया के देशों, विशेषकर जापान, को चिन्ता होना स्वाभाविक है ।
अत: वहां भी स्थिति सम्भावनापूर्ण बनी रहेगी । यदि भविष्य में ऐसा कोई शीत युद्ध दीक्षण एशिया तक सीमित न रहकर यूरोप तक एशिया के अन्य देशों को भी समेट लेता है, जिसकी कि पूरी सम्भावना है, तो इस प्रकार उत्पन्न भय का वातावरण दक्षिण एशिया के सुरक्षा वातावरण को और भी आन्दोलित कर देगा ।
संक्षेप में, बीसवीं सदी के अन्तिम वर्षों में भारत अन्तरराष्ट्रीय दबाव में अवश्य रहे परन्तु मई 1998 के आणविक परीक्षणों से प्राप्त हुई आयु निर्भरता से हमारे सुरक्षा वातावरण में गुणात्मक सुधार आया है । देश की अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई है, तथा भारत विश्व की गिनी चुनी महान शक्तियों की श्रेणी में आ गया है । इस परिवर्तित वातावरण ने भारत और रूस की पुरानी मैत्री को नई प्रासंगिकता प्रदान की है । परिणामस्वरूप अब अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को अलग-थलग करने के प्रयास सफल नहीं हो सकते ।