Read this article to learn about India’s current security environment in Hindi language.
भारत की विदेश नीति पिछले पचास वर्षो से मूलतया जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में निर्धारित नीतियों के अनुरूप ही चलती आ रही है । यह नीति तात्कालिक अन्तरराष्ट्रीय सामरिक और राजनीतिक परिवेश की प्रतिक्रिया स्वरूप देश के अपने हितों की सुरक्षा को ध्यान में रख कर निर्धारित की गई थी ।
अपने सारे उतार चढाव के बावजूद रूस (पुराना सोवियत संघ) तथा संयुक्त राज्य अमरीका के बीच द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् प्रारम्भ हुई अन्तरराष्ट्रीय सामरिक प्रतिस्पर्धा 1990 में सोवियत संघ के विघटन के समय तक विद्यमान रही ।
अत: भारत की विदेश नीति की निरन्तरता यथावत बनी रही । 1990 से मई 1998 तक अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में एक प्रकार की शान्तिपूर्ण अनिश्चितता का वातावरण बना रहा । पूर्वी यूरोप तथा पश्चिमी एशिया की घटनाएं मुख्यतया स्थानीय और क्षेत्रीय समस्याएं थीं ।
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इस बीच संयुक्त राज्य अमरीका प्राय: सभी दृष्टियों से विश्व की एक छत्र राजनीतिक और सामरिक शक्ति के रूप में स्थापित हो गया था । परिणामस्वरूप संयुक्त राज्य का ध्यान सामरिक मुद्दों से हट कर अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी आर्थिक भागीदारी को बढ़ाने पर केन्द्रित हो गया ।
विश्व की अधिकांश-जनसंख्या दक्षिण और पूर्वी एशिया के देशों में निवास करती है, तथा कुछ अपवादों को छोड़, इस क्षेत्र के देश विकासशील अर्थव्यवस्था वाले देश हैं । अत यह सम्पूर्ण क्षेत्र वर्तमान समय में विश्व का सबसे बड़ा बाजार बन गया हैं । साथ ही विकास के भारत के साथ-साथ भविष्य में इस बाजार के उत्तरोत्तर वृद्धिगत होते जाने की सम्भावना हे ।
परिणामस्वरूप संयुक्त राज्य अमरीका समेत सभी विकसित पूंजीवादी औद्योगिक देश इस पूरे क्षेत्र में अपनी व्यापारिक भागीदारी तथा अपना पूंजी निवेश बढ़ाने के इच्छूक हैं । इस दृष्टि से दक्षिण एशिया तथा पूर्वी एशिया (जिसके अन्तर्गत आर्थिक और व्यापारिक दृष्टि से दक्षिण-पूर्वी एशिया के देश भी शामिल है) दो अलग-अलग बाजार हैं । पूर्वी एशिया के मामलों में चीन तथा जापान की भूमिका सर्वोपरि है ।
जापान विश्व के सवीधिक सशक्त आर्थिक व्यवस्था वाले देशों में से एक हैं तथा सोवियत संघ के विघटन के बाद से चीन संयुक्त राज्य अमरीका के पश्चात् राजनीतिक-सामरिक महत्व की दृष्टि से विश्व की दूसरे नम्बर की महाशक्ति के रूप में माना जाने लगा हैं ।
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द्वितीय युद्ध की समाप्ति के बाद से ही अमरीका और जापान के बीच निकट आर्थिक और राजनीतिक सम्बन्ध रहे हैं । अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जापान संयुक्त राज्य का निकट सहयोगी रहा है । रूस और चीन के आपसी सम्बन्धों में दरार पड़ने के साथ ही संयुक्त राज्य अमरीका चीन से सम्बन्ध सुधारने के प्रयास करता रहा था ।
सोवियत रूस के विघटन के बाद इस दिशा में प्रयास और भी तेज हो गए हैं । चीन की अणुशक्ति के विकास में अमरीका का परोक्ष सहयोग रहा है । क्लिण्टन प्रशासन के दौर में दोनों देशों के व्यापारिक सम्बन्धों में और भी वृद्धि हुई है ।
दक्षिण एशिया के मामलों मे भारत और पाकिस्तान की प्रमुख भूमिका है । इन दोनों देशों के बीच परस्पर तूलना की गुंजाइश शक्ति सम्पन्नता की दृष्टि से अत्यधिक सीमित है परन्तु ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमरीका प्रारम्भ से ही भारत और पाकिस्तान को बराबरी के स्तर वाले देशों के रूप में पेश करने का प्रयास करते रहे हैं ।
शीत युद्ध के दौर में इस नीति का अनुसरण करते हुए संयुक्त राज्य अमरीका ने पाकिस्तान को सैन्य उपकरणों से सम्पन्न करना प्रारम्भ कर दिया था । इस अमरीकी सहायता के परिणामस्वरूप ही पाकिस्तान भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित हुआ था ।
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साथ ही चीन तथा पाकिस्तान के बीच उत्तरोत्तर बढ़ती निकटता में अमरीका प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से निरन्तर भागीदार रहा है । 1987 में पाकिस्तान को आणविक हथियार से सम्पन्न करने में चीन को अमरीका की शह प्राप्त थी । अमरीका की इसी कूटनीति के कारण भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने आणविक हथियार बनाने का निर्णय लिया था ।
पाकिस्तान को अमरीका तथा चीन की मिली भगत से आणविक शस्त्रों से सज्जित किए जाने के साथ ही दक्षिण एशिया के सुरक्षा वातावरण में बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया था । पाकिस्तान के हौसले बुलन्द थे तथा उसकी सेना ने अपनी खुफिया एजेंसियों (इंटेलिजेंस एजेंसीज) के माध्यम से जम्मू-कश्मीर में व्यापक स्तर पर घुस-पैठ करके अशांति उत्पन्न करना प्रारंभ कर दिया था ।
परन्तु मोटे तौर पर राजीव गांधी के शासन काल तक भारत की अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा को आच नहीं आई थी । 1989 के बाद से भारत की राजनीति अस्थिरता के दौर में प्रविष्ट हो गई । केन्द्र में सरकारों का वनना बिगडना प्रारम्भ हो गया । परिणामस्वरूप अन्तरराष्ट्रीय मैचों पर भारत की बात का महत्व उत्तरोत्तर कम होता गया ।
साथ ही भारत पर अन्तरराष्ट्रीय दबाव निरन्तर बढ़ता गया और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी स्वतंत्र निर्णय की क्षमता में हास आया । यही कारण था कि हमारे चारों ओर असुरक्षा का वातावरण उत्तरोत्तर गहन होता रहा तथा चीन अपनी सैन्य शक्ति (विशेषकर आणविक शक्ति) का निरन्तर विस्तार करता रहा ।
चीन ओर अमरीका की मिली भगत से पाकिस्तान की मारक शक्ति में निरन्तर वृद्धि होती रही, परन्तु भारत एक मूक और निरीह दर्शक की भांति अमरीका की थानेदारी स्वीकार करता हुआ भारत की अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा का निरन्तर ह्रास देखता रहा ।
परिणामस्वरूप जवाहर लाल नेहरू तथा इन्दिरा गांधी के शासनकाल में विश्व स्तर पर एक महान शान्तिप्रिय राष्ट्रीय इकाई के रूप में सर्वमान्य भारत 1990 के दशक में एक बृहत् आकार वाली क्षेत्रीय राजनीतिक शक्ति (रिजनल पावर) मात्र बन कर रह गया ।
1987 में राजीव गांधी सरकार द्वारा भारत में आणविक अस्त्रों के विकास का निर्णय लिए जाने के तीन वर्ष बाद 1990 में भारत ने भी इन शस्त्रों का विकास कर लिया था । परिणामस्वरूप पिछले आठ वर्षों से दक्षिण एशिया में भारत और पाकिस्तान के बीच आणविक शक्ति संतूलन स्थापित हो जाने के कारण परस्पर अपभीति (डिटरेंस) का वातावरण बना हुआ है क्योंकि दोनों ही पक्ष एक दूसरे की आणविक शक्ति और उसके सम्भावित परिणामों के प्रति जागरूक हैं ।
यही कारण है कि जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित घुस-पैठ के कारण आतंकवाद की निरन्तर विकट होती समस्या के बावजूद दोनों देशों के बीच 1990 के बाद से कोई युद्ध नहीं छिड़ा था । शीत युद्ध के सामरिक इतिहास से स्पष्ट हैं कि दोनों के बीच अब ऐसे किसी युद्ध की सम्भावना नहीं रह गई है । स्पष्ट है कि दक्षिण एशिया में भारत और पाकिस्तान के बीच परस्पर अपभीति का वातावरण लम्बे समय तक बना रहेगा तथा एक पक्ष आणविक शक्ति के विकास में दूसरे की बराबरी का निरन्तर प्रयास करता रहेगा ।
मई 1998 में भारत और पाकिस्तान द्वारा किए गए आणविक परीक्षण पाकिस्तान द्वारा गोरी मिसाइल छोड़ने के जवाब में किया गया प्रतिक्रियात्मक कदम था । पाकिस्तान समय-समय पर भारत पर आक्रमण का दुस्साहस करता रहा है तथा उसके नेता भारत पर आणविक प्रहार की बात भी करते रहे हैं ।
पाकिस्तान के वर्तमान प्रधान मंत्री श्री नवाज शरीफ ने अपने एक भाषण में 24 अगस्त 1994 को (जब कि वे विपक्ष के नेता थे) भारत पर ऐसे आक्रमण की इच्छा प्रकट की थी । अत: भारत की चिन्ता और उसकी प्रतिक्रिया को आसानी से समझा जा सकता है ।
दोनों पक्षों के पास एक दूसरे को क्षति पहुंचाने की आणविक क्षमता स्पष्ट तौर पर स्थापित हो जाने के बाद अब दोनों देशों के बीच परस्पर अपभीति का वातावरण पूरी तरह स्थापित हो गया है । इसके साथ ही 1998 में दक्षिण एशिया में एक नए शीत युद्ध की नींव पड़ गई ।
अत: भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बने रहने के बावजूद उनके बीच निकट भविष्य में किसी बड़े युद्ध (विशेषकर आणविक शस्त्रों के प्रयोग) की सम्भावना समाप्त हो गई है । दोनों देशो के बीच किसी प्रकार के शस्त्र संचयन की व्यापक होड़ की आशंका भी निराधार है ।
जब तक बाहरी देशों को यह प्रतीत होता रहा कि राजीव गांधी के बाद बनी भारत की केन्द्रीय सरकारें बाहरी दबाव तथा आन्तरिक शिथिलता के मिले जुले प्रभाव के कारण आणविक शक्ति का विकास नहीं कर सकती पाकिस्तान के लिए यह सर्वथा स्वाभाविक था कि वह अमरीका तथा चीन की चोरी छिपे सहायता से आणविक शक्ति संचय कर भारत को डराता रहे और कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों को निरन्तर बढ़ावा देता रहे ।
11 मई 1998 और उसके बाद के बम विस्फोटों के पश्चात् भारत के शस्त्रुओं का इस प्रकार का सम दूर हो गया है । बची-खुची कसर कारगिल युद्ध के अनुभव ने पूरी कर दी है । पाकिस्तानी शासकों को ज्ञात हो गया है कि अब भारत ईंट का जवाब पत्थर से देने की स्थिति में है ।
इन परीक्षणों के बाद अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन आया है । अब विश्व के सभी देशों को ज्ञात हो गया है कि भारत अपनी सुरक्षा के प्रति पूरी तरह सजग ओर सुरक्षा की दृष्टि से आत्म निर्भर है । वह पहले की तरह ही स्वतंत्र निर्णय लेने तथा बड़ी शक्तियों की ओर से किसी प्रकार का दबाव न मानने में सक्षम है । इन विस्फोटों के बाद से देश का साधारण व्यक्ति अपने आप को पहले से ऊंचा अनुभव करने लगा है ।
भारत और पाकिस्तान के बीच शस्त्रो की व्यापक होड़ की सम्भावना इसलिए भी नहीं हे कि पाकिस्तान अपेक्षाकृत एक छोटा तथा आर्थिक दृष्टि से दुर्बल राष्ट्र है । उसकी वर्तमान आणविक शक्ति भारत की तरह आत्मनिर्भरता से विकसित न होकर चीन और उत्तरी कोरिया की सहायता तथा अमरीकी प्रोत्साहन पर गधारित है ।
दूसरे शब्दों में पाकिस्तान की आणविक शक्ति बाहर से खरीदी हुई शक्ति है । ऐसा कोई भी सौदा स्वभाव से ही मंहगा होता है और पाकिस्तान जेसा गरीब राष्ट्र इसे देर तक सहन नहीं कर सकता । मई 1998 की घटनाओं के बाद पाकिस्तान की खस्ता आर्थिक स्थिति से यह अच्छी तरह सिद्ध हो गया है । भारत द्वारा 11 से 13, मई 1998 के बीच शक्ति 1 से 5 नाम से किए गए पांच विस्फोटों के साथ ही भारत एक अणुशक्ति सम्पन्न राष्ट्र बन गया है ।
इसका तात्पर्य है कि अब उसके पास किसी प्रकार के आणविक आक्रमण का सामना करने की पूर्ण क्षमता आ गई है और वह सुरक्षा की दृष्टि से पूरी तरह आत्म निर्भर हो गया हे । डा॰ ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के शब्दों में, ”भारत का आणविक शस्त्रीकरण का काम पूरा हो गया हे । आणविक शस्त्रों के निर्माण के लिए सही वातावरण ओर वांछित संशधन अब उसके पास उपलब्ध हैं” ।
डा॰ कलाम के अनुसार अग्नि तथा पृथ्वी नाम के हमारे “सर्फेस-टु-सर्फेस मिसाइल” अब सरलतापूर्वक विक शस्त्रों से सज्जित किए जा सकते हैं । वे सभी प्रकार के मारक शस्त्र ढोने व सक्षम हैं । इन विस्फोटों के फलस्वरूप भारत को प्राप्त हुए आंकड़ों के गजर पर देश अब इस स्थिति में आ गया है कि वह विभिन्न प्रकार और विभिन्न क्षमता वाले विक अस्त्रों तथा उनके वाहनों का उत्पादन कर सके ।
इन आंकडों से भारत अब बिना विस्फोट किए ही “कम्प्युटर सिमुलेशन” के आधार पर नए अस्त्रों आदि के माडल बनाने की स्थिति में पहुंच गया है । भारत का आणविक शक्ति विकास का कार्यक्रम देश की सीमाओं की सुरक्षा के लिए सक्षम अस्त्रों के विकास तक ही सीमित है जिससे कि देश की सुरक्षा के प्रति बची खुची आशंकाएं भी समाप्त हो जाएं ।