Read this article to learn about the history of economic globalization in Hindi language.
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में पश्चिमी यूरोपीय देशों की केन्द्रीय भूमिका के समाप्त होने के साथ ही यह स्पष्ट हो गया था कि नई अन्तरराष्ट्रीय व्यवस्था में पूंजीवादी पश्चिमी देशों का नेतृत्व संयुक्त राज्य अमरीका के पास आ गया है ।
अत: उसके राजनेताओं ने नई व्यवस्था को अपने अनुरूप ढालने और नियंत्रित रखने के तौर तरीके ढूंढने शुरु कर दिए । इस दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम जुलाई 1944 में ब्रेटन बुड्स में संयुक्त राष्ट्र मुद्रा और वित्तीय सम्मेलन के रूप में सामने आया ।
वहां हुए विचार विमर्ष के परिणामस्वरूप संयुक्त राज्य अमरीका ने अन्तरराष्ट्रीय राजनीति से दूर रहने की अपनी पुरानी नीति का परित्याग कर दिया तथा एक नई अन्तरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के नेतृत्व के लिए प्रस्तुत हो गया ।
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इस नई व्यवस्था के उददेश्यों में सभी स्वतंत्र देशों के बीच सीमारहित व्यापार सम्बन्ध को प्रोत्साहन देना ओर उनकी मुद्राओं में परस्पर परिवर्तनीयता ओर विनिमय को बढ़ावा देना शामिल था । अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की स्थापना इसी योजना के अन्तर्गत की गई थी । इस कोष को संयुक्त राज्य की विशाल आर्थिक शक्ति (जो 1950 में दुनिया की कुल आर्थिक शक्ति के लगभग आधे के बराबर थी) का सहारा प्राप्त था ।
अत: अमरीकी डालर अलरराष्ट्रीय व्यापार की मानक मुद्रा बन गया । इस हेतु अमरीकी सरकार ने डालर को सोने के मूल्य के साथ जोड़ दिया जिसके फलस्वरूप भविष्य में देश की संचित स्वर्ण राशि से अधिक डालर मुद्रित नहीं हो सकता था ।
1944 में पारित ये प्रस्ताव पश्चिमी पूंजीवादी व्यवस्था के लिए दूरगामी प्रभाव वाले थे तथा उनकी स्थापना के साथ हो पूंजीवाद के स्वर्ण युग का प्रारम्भ हुआ । अगले पच्चीस वर्षों तक विश्व आर्थिक व्यवस्था इन्हीं नीतियों के अन्तर्गत संचालित होती रही थी ।
अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा इण्टरनेशनल बैंक फोर रिकंस्ट्रक्श्न एण्ड डेवलपमेण्ट (विश्व बैंक) इसी नई व्यवस्था के केन्द्रीय तंत्र थे । नई विश्व व्यवस्था का पहला उद्देश्य युद्ध के दोरान ध्वस्त हुई पश्चिमी यूरोपीय तथा जापानी अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण था ।
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1947 से 1952 के बीच के पांच वर्षों में विश्व बैंक ने जापानी अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए 70 करोड़ अमरीकी डालर का निवेश किया था । पश्चिम यूरोप में मार्शल योजना के अधीन इसी दौर में 13 अरब डालर का निवेश किया गया ।
साथ-साथ संयुक्त राज्य ने कोरियाई युद्ध ओर शीत युद्ध की तैयारियों के लिए सैन्य सामान की आपूर्ति पर भी पर्याप्त धन लगाया । दक्षिणी अमरीका, इजराइल तथा दक्षिण पूर्वी एशिया को आर्थिक सहायता दी गई ओर अमरीकी कम्पनियों को वहां निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया गया ।
विश्व बैंक की इन सहायता राशियों के परिणाम शीघ्र ही दिखाई देने लगे । पश्चिमी यूरोप के आर्यिक पुनर्निर्माण के साथ ही अनेक बड़ी-बड़ी अमरीकी कम्पनियों ने वहां बड़ी मात्रा मे पूंजी निवेश प्रारम्भ कर दिया । पचास के दशक में यूरोप में अनुमानत आठ अरब डालर का निजी अमरीकी पूंजी का निवेश हुआ ।
इन क्षेत्रों में अपेक्षाकृत सस्ता श्रम तथा विशाल स्थानीय बाजार पूंजी निवेशकों के लिए विशेष आकर्षण थे । 1957 में यूरोपीय आर्थिक समुदाय (यूरोपीय संगठन) की नींव पड़ने के साथ सम्पूर्ण क्षेत्र में मुक्त व्यापार की सुविधा इस निवेश में और भी सहायक हुई । शीघ्र ही इस क्षेत्र में डालर के रूप में मुद्रा का आदान-प्रदान सर्व स्वीकृत हो गया ।
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अत: अब अमरीकी निजी निवेश अमरीकी सरकार के हस्तक्षेप के बिना ही यहां सुचारु रूप से व्यापार विनिमय करने लगा । यही अमरीकी मुद्रा तथा अमरीकी अर्थव्यवस्था के अंतरराष्ट्रीयकरण की शुरूआत थी । “यूरोकरेंसी” अथवा “यूरोडालर” (जिसका अर्थ है अमरीकी डालर का यूरोपीय मुद्रा बाजार में बे रोकटोक सर्वस्वीकृत विनिमय और निवेश) के प्रचलन के साथ ही आर्थिक विषयों में सर्वव्यापी अमरीकी वर्चस्व और भूमण्डलीकरण की वास्तविक नींव पड़ी यद्यपि पचास और साठ के दशक में ऐसे किसी भूमण्डलीकरण के दर्शन का प्रयास निरर्थक होगा ।
साठ के दशक की मुख्य विशेषता यह थी कि अमरीकी पूंजी निवेश पश्चिमी यूरोप पर पूरी तरह छा जाने के बाद विश्व के अन्य क्षेत्रों में विस्तार करने लगा था । साथ ही यूरोप ओर जापान के आर्थिक पुनर्निर्माण के साथ ही इन देशों के व्यापारिक और ओद्योगिक संस्थान भी विश्व के अन्य क्षेत्रों में पूंजी निवेश के अभियान में लग गए थे ।
परन्तु अन्तरराष्ट्रीय कम्पनियों के आशातीत अन्तरराष्ट्रीय प्रसार के होते हुए भी विश्व व्यापार में लगी अधिकांश कम्पनियां अभी भी मूलतया “राष्ट्रीय” कम्पनियां थी और उनके अपने मुख्यालय उनके देश के अन्दर स्थित थे । साठ के दशक की एक अन्य विशेष उपलब्धि यह थी कि अन्तरराष्ट्रीय व्यापार में आशातीत वृद्धि के फलस्वरूप पश्चिमी यूरोप, जापान और संयुक्त राज्य अमरीका के बीच व्यापारिक और आर्थिक सम्बन्ध सुदृढ़ हो गए ।
फलस्वरूप अन्तरराष्ट्रीय बाजार में पूंजी निवेश में बहुत वृद्धि हुई । पश्चिमी यूरोप, जापान और संयुक्त राज्य के परस्पर बढ़ते आर्थिक सम्बन्ध ओर विश्व व्यापार व्यवस्था मैं उनकी सम्मिलित भागीदारी से विश्व व्यवस्था में उनका क्रोड़ स्वरूप स्पष्टतया प्रकट होने लगा ।
सत्तर के दशक में अन्तरराष्ट्रीयकरण की यह प्रवृत्ति और भी तीव्र ही गई थी । अब तक अमरीकी डालर की विश्वव्यापी स्वीकृति बहुत बढ़ गई थी, परन्तु डालर के मूल्य को सोने की संचित राशि के साथ जोड़ने की नीति के कारण उस के ओर अधिक प्रभाव प्रसार में कठिनाई थी ।
1971 में इस अवरोध को समाप्त करने के उद्देश्य से 1944 में प्रारम्भ की गई इस नीति को बदल दिया गया । राष्ट्रपति निक्सन के इस निर्णय के बाद अब अमरीका वांछित मात्रा में डालर छाप सकता था । इसके साथ ही अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और अमरीकी वित्तीय संस्थाओं का विकासशील देशों में विस्तार बढ़ा ।
सत्तर के दशक में डालर की आपूर्ति बढ़ने के साथ-साथ अनेक बड़े अमरीकी बैंको ने संगठित रूप में विकासशील देशों को निश्चित ब्याज दर पर ऋण देना प्रारम्भ कर दिया । इससे अमरीकी ओर अन्य बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को विकासशील देशों में कार्य क्षेत्र बढ़ाने में सुविधा हुई ।
1970 से 1982 के बीच अकेले संयुक्त राज्य की विभिन्न वित्तीय संस्थाओं ने विकासशील देशों को आठ अरब अमरीकी डालर के ऋण प्रदान किए । इसका अधिकांश भाग दक्षिण अमरीकी ओर पूर्वी एशियाई देशों को दिया गया ऋण था ।
इस निवेश के परिणामस्वरूप मेक्सिको, ब्राजील ओर अर्जेण्टीना में तुत गति से विकास हुआ तथा ब्राजील ओर अर्जेण्टीना को भूतकालीन (एक्स) तीसरी दुनिया का देश कहा जाने लगा । यही स्थिति दक्षिण कोरिया, ताइवान, सिंगापुर तथा हांगकांग में भी परिलक्षित हुई ।
संक्षेप में व्यापार का अन्तरराष्ट्रयिकरण चरम सीमा पर पहुंच गया तथा देशों की अर्थव्यवस्थाएं अधिकाधिक रूप में परस्पर निर्भर हो गई । अब किसी भी देश के लिए अपने को विश्व के अन्य देशों से काट कर रखना सम्भव नहीं रहा । परिणामस्वरूप राष्ट्रीय इकाइयो की प्रभुता में भी ह्रास आया ।
अनियंत्रित मात्रा में डालर नोटों के मुद्रण और सस्ते ब्याज दरों के कारण मुद्रा स्फीति में बहुत वृद्धि हुई तथा 1978 में इसका स्तर 14 प्रतिशत तक बढ़ गया था । अनेक विकासशील देशों में स्थिति ओर भी चिंतनीय थी ।
अमरीकी प्रशासन ने मुद्रास्फीति को रोकने के प्रभावी उपाय प्रारंभ किए, बाजार में मुद्रा प्रसार पर रोक लगाने के उद्देश्य से बैंकों की ब्याज दरों में वृद्धि की गई । 1978 में यह दर साढ़े नौ प्रतिशत के आस पास थी परन्तु 1982 में बढ़ कर पन्द्रह प्रतिशत से अधिक हो गई थी ।
ऋण लेने वाले विकासशील देशों के लिए इसका परिणाम अत्यधिक दुखद हुआ क्योकिं ऐसे समय में जब उनके निर्यात किए जाने वाले कच्चे माल का अन्तरराष्ट्रीय मूल्य घट रहा था उन्हे वर्षो पहले सस्ते ब्याज पर लिए गए ऋण की किश्तों का भुगतान अब तक की सबसे ऊंची ब्याज दरों के साथ करना पड़ रहा था ।
परिणामस्वरूप उनकी आर्थिक स्थिति शोचनीय हो गई । सारे विकास कार्य ठप हो गए तथा देश से पूंजी का पलायन शुरू हो गया । अनेक अफ्रीकी देश 1990 में 1960 की अपेक्षाकृत ओर भी गरीब हो गए थे । तीसरी दुनिया (अर्थात् विश्व स्तर पर विकसित ओर विकासशील देशों के बीच के विभेद) की समाप्ति की बात अर्थहीन हो गई थी ।
साथ ही आर्थिक भूमण्डलीकरण की गति में ठहराव आ गया । इस दौर में जर्मनी और जापान विश्व के प्रमुख व्यापारी देश बन गए थे, तक विश्व स्तर रार मुद्रा बाजारों में पर्याप्त वृद्धि होने के फलस्वरूप आर्थिक भूमण्डलीकरण की नींव पक्की हो गई । संचार व्यवस्था में क्रांतिकरि प्रगति इसमें विशेष सहायक हुई थी ।
यद्यपि संयुक्त राज्य अमरीका की आर्थिक शक्ति निर्विवाद रूप में विश्व की मूर्धन्य शक्ति थी ओर उसका आकार जर्मनी और जापान के सम्मिलित आर्थिक शक्ति से बड़ा था परन्तु अब अमरीकी आर्थिक विकास अपेक्षाकृत मंद पड़ गया था जब कि जर्मनी ओर जापान में विकास दर उत्तरोत्तर बढ़ रहा था जिससे भविष्य में विश्व स्तर पर आर्थिक शक्ति संतुलन में परिवर्तन के लक्षण स्पष्ट होने लगे थे ।
1982 में जब मेक्सिको ने अपने अमरीकी ऋणों को चुकाने में असमर्थता प्रकट की तो अमरीकी वित्तीय संस्थाओं की स्थिति चिन्ताजनक हो गई । नीति निर्धारकों की दृष्टि में मेक्सिको को ऋण वापसी के लिए ओर ऋण देना ही एक मात्र रास्ता था अन्यथा अनेक निजी अमरीकी बैंक बन्द हो सकते थे ।
शर्त यह थी कि ऋण के बदले ऋण प्राप्त करने वाले देश को अपनी अर्थव्यवस्था में अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा सुझाए गए आर्थिक ”सुधार’ करने आवश्यक होंगे क्योंकि दिया गया धन तभी वापस मिल सकता था जब ऋणी देश उसकी वापसी के लिए अपने निर्यातों के द्वारा अतिरिक्त डालर कमाए ।
इसके लिए आवश्यक था अमरीकी ओद्योगिक उत्पादन में वृद्धि की जाय जिससे देश में लैटिन अमरीकी देशों के कच्चे माल की खपत बड़े ओर तैयार माल उनके बाजारों में बेचकर लाभ कमाया जा सके । इस उददेश्य से 1982 में अमरीकी प्रशासन ने अपने उद्योगों को सस्ते ऋण देना ओर विश्व के अन्य वित्तीय बाजारों से ऋण लेना शुरू कर दिया । परिणामस्वरुप जहां 1982 में विश्व बाजार में अमरीका की कुल संचित आस्तियां 141 अरब डालर से अधिक थीं, चार वर्ष बाद देश स्वयं ही 112 अरब डालर का ऋणी बन गया था ।
1990 में यह च्छ्रण राशि बढ़ कर 1000 अरब डालर हो गई थी यद्यपि विश्व स्तर पर अमरीकी कम्पनियों का प्रसार निरन्तर जारी था ओर वे पर्याप्त लाभ कमा रही थीं । अस्सी के दौर में जापान की आर्थिक शक्ति स्पष्टतया परिलक्षित होने लगी थी क्योंकि वह संयुक्त राज्य के विदेशी ऋणों का मुख्य हामीदार (अण्डरराइटर) बन गया था ।
साथ ही अनेक जापानी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां संयुक्त राज्य में उद्योग स्थापित करने लगी थीं । दशक के दौरान विश्व अर्थव्यवस्था त्रिध्रुवीय हो गई थी विश्व स्तर पर तीन महान आर्थिक शक्तियां-संयुक्त राज्य, जर्मनी, और जापान-सम्मिलित रूप में विश्व व्यवस्था का संचालन करने लगी थीं ।
अस्सी के दशक की एक ओर विशेषता यह थी कि अब विभिन्न प्रकार की सेवाएं प्रदान करने वाले व्यापारिक संस्थान विश्व स्तर पर पैर जमाने लगे थे । यह प्रवृत्ति बैंकों ओर वित्तीय संस्थाओं में विशेष रूप से दिखाई देने लगी थी ।
विज्ञापन, इंस्योरेंस तथा एकाउंटिग सेवाओं में भी इसी तरह का प्रसार प्रारम्भ हो गया था । इसके दूरगामी परिणाम हुए । अभी तक अन्तरराष्ट्रीय व्यापार स्थूल उत्पादों (कमोडिटीज) पर आधारित था जिसमें वस्तुओं का आदान प्रदान होता था अत: व्यापार में राष्ट्रीय सीमाओं को लांघने की आवश्यकता पड़ती थी, और इसके लिए सम्बद्ध राज्य की अनुमति लेना अनिवार्य था । परन्तु सेवाओं और मुद्रा के अन्तरराष्ट्रीय व्यापार में ऐसी कोई रुकावट नहीं थी ।
एक स्थान पर बैठे ही इनका टेलीफोन ओर इलेक्ट्रानिक संचार माध्यमों द्वारा अन्तरराष्ट्रीय विनिमय किया जाने लगा था । आधुनिक मुद्रा विनिमय की यह प्रणाली इस अर्थ में ”अन्तरराष्ट्रीय” विनिमय हैं कि इसमें अनेक देशों की मुद्राओं का आदान प्रदान होता है ।
परन्तु आज मुद्रा बाजार का ”भूमण्डलीकरण” हो गया है क्योंकि सभी देशों की मुद्राओं का आपस में विनिमय होने लगा है । मुद्रा विनिमय में देशों की सीमाएं ओर उनकी सांस्कृतिक पहचान से किसी प्रकार की रुकावट नहीं होती ।
यह बाजार विश्व भर में फैला हुआ है । इसका कोई गह क्षेत्र नहीं है क्योंकि कम्प्यूटर स्कीन ओर टेलीफोन के माध्यम से संचालित होने के कारण इसका कार्यक्षेत्र विश्वव्यापी है और यह बाजार रात दिन कार्यरत रहता है ।
पूंजी के भूमण्डलीकरण के परिणामस्वरूप विश्व के सारे देश आर्थिक दृष्टि से एक दूसरे के अत्यधिक समीप हो गए हैं, ओर आज प्रत्येक देश एक समग्र विश्वव्यापी अर्थव्यवस्था का अभित अंग बन गया है । परन्तु इस सामीप्य ओर परस्परनिर्भरता से राज्यों की भौगोलिक विविधता समाप्त नहीं हुई है ।
धनी और निर्धन, शोषक ओर शोषित के बीच की खाई यथावत वर्तमान है । साथ ही भूमण्डलीकरण के परिणामस्वरूप तीसरी दुनियां का अस्तित्व समाप्त होने की बात सम्भावना से परे है क्योंकि नई विश्व व्यवस्था की इमारत सम्पन्न देशों द्वारा विकासशील देशों के शोषण के सिद्धान्त पर खड़ी है ।
परन्तु यह निर्विवाद सत्य है कि आर्थिक भूमण्डलीकरण आज के युग का यथार्थ वन गया है । सम्पन्न देशों की बड़ी-बड़ी कम्पनियां और ओद्योगिक संस्थान आज स्वयं भूमण्डलीकृत हो गए हैं क्योंकि उनकी उत्पादक इकाइयां अनेक देशों में स्थित हें । परिणामस्वरूप आज कुल विश्व व्यापार का प्राय: चालीस प्रतिशत भाग इन कम्पनियों की अलग-अलग इकाइयों के बीच आन्तरिक विनिमय के रूप में होता है ।
आज विभिन्न देशो की अर्थव्यवस्थाएं अन्तरराष्ट्रीय बाजार से इतने निकट से जुड़ गई हें कि आर्थिक मामलों में राज्यों की प्रभुसत्ता अधूरी हो गई है, विशेषकर विकासशील देशों की सरकारें अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के ऋणों के मार से इतनी दब गई हैं कि इन दोनों संस्थाओं के निर्देशों के अनुरूप देश की अर्थव्यवस्था का संचालन उनकी विवशता बन गई है । इस स्थिति का परिणाम कितना भयावह हो सकता है यह इण्डोनेशिया के उदाहरण से स्पष्ट है ।