Read this article to learn about the historical review on core-curb and south-north relations division in Hindi language.
विश्व स्तर पर क्रोड़-ओर-उपान्त व्यवस्था की नींव पन्द्रहवीं सदी के अन्तिम चरण में खुले समुद्रों के आर-पार नौका गमन के प्रारम्भ के साथ ही पड़ी थी । समुद्री यातायात की तकनीक का श्री गणेश आइबेरियन प्रायदीप के देश स्पेन ओर पुर्तगाल के नेतृत्व में हुई थी अत: प्रारम्भिक दोर में ये दोनों देश विश्व के अग्रणी उपनिवेशक थे ।
इनके नाविक राजकीय सहायता और निर्देश के अन्तर्गत विश्व के विभित भागों में खोज यात्रा पर जाने लगे ओर नए ”खोजे” हुए क्षेत्रों को अपने-अपने देशों के नाम अधिकृत करने लगे । दोनों देशों की बढ़ती हुई प्रतिद्वंद्विता को समाप्त करने के लिए पवित्र रोमन साम्राज्य के सर्वोच्च धर्माधिकारी पोप की मध्यस्थता के परिणामस्वरूप टार्डेसिलास का समझौता हुआ था जिसके अनुसार केपवर्डे द्वीप से 370 ”लीग” पश्चिम से गुजरने वाली देशान्तर रेखा के पश्चिम में स्थित क्षेत्र स्पेन के हिस्से में माने गए तथा इसके पूर्व में स्थित भाग पुर्तगाल के हिस्से में ।
इस समझौते के कारण ही ब्राजील पुर्तगाली उपनिवेश घोषित हुआ जबकि दक्षिण अमरीका के शेप भाग स्पेन के अधिकार क्षेत्र में मान्य हुए । परन्तु कालान्तर में जैसे-जैसे यूरोप के अन्य देशों ने नौपरिवहन की क्षमता प्राप्त कर ली इस विभाजन व्यवस्था की व्यावहारिक मान्यता समाप्त हो गई ।
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हालैण्ड, ब्रिटेन तथा फ्रांस ने स्पेन और पुर्तगाल को सर्वत्र चुनौती देना शुरू कर दिया तथा सत्रहवीं सदी के प्रारम्भ में जैसे ही स्पेन और पुर्तगाल की सामुद्रिक शक्ति क्षीण होने लगी ये देश उनसे अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सीधी प्रतियोगिता में आ गए और शीघ्र ही उनमें वर्चस्व के लिए संघर्ष शुरू हो गया ।
तत्कालीन मान्यता के अनुसार ओद्योगिक विकास और आर्थिक सम्पतता के लिए देश की ओद्योगिक इकाइयों के लिए कच्चा माल और उनके उत्पादों की खपत के लिए सुरक्षित बाजार का होना उपलब्ध आवश्यक माना जाने लगा था । इन दोनों उद्देश्यों को पूरा करने का सबसे प्रभावी तरीका उपनिवेशों की स्थापना था ।
अत: यूरोप के तकनीकी विकास की दृष्टि से उन्नत देश उपनिवेशवाद की होड़ में लग गए । सत्रहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में हालैण्ड इस दौड़ में सबसे आगे था और सत्रहवीं सदी के प्रारम्भ में स्पेन ओर पुर्तगाल के वर्चस्व को समाप्त कर शघ्रि ही हालैण्ड विश्व का सबसे बड़ा व्यापारिक देश वन गया था ।
उसके जहाज भारत और इण्डोनेशिया से लेकर उत्तरी और दक्षिणी अमरीका के बन्दरगाहों से व्यापार सम्बन्ध स्थापित करने में सफल हुए । परन्तु उसे शीघ्र ही फ्रांस और ग्रेट ब्रिटेन की चुनौती का सामना करना पड़ा ।
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सन् 1651 में ब्रिटिश संसद ने हालैण्ड के अन्तरराष्ट्रीय व्यापार को चुनौती देने के उद्देश्य से नौपरिवहन अधिनियम (नैविगेशन एक्ट) बनाया जिसके अनुसार ब्रिटिश उपनिवेशों का सारा व्यापार केवल ब्रिटेन की व्यापारिक जहाजों द्वारा ही किया जा सकता था ।
परिणामस्परूप हालैण्ड तथा ब्रिटेन के बीच सैन्य संघर्ष आरम्भ हो गया जो 1652 से 1674 तक चलता रहा । 1674 में हालैण्ड की पराजय के पश्चात भारत ओर इसके समीप के क्षेत्रों का अन्तरराष्ट्रीय व्यापार ब्रिटेन के नियंत्रण में आ गया ओर इसके साथ ही स्पेन, पुर्तगाल तथा हालैण्ड अन्तरराष्ट्रीय व्यापार की दृष्टि से महत्वहीन हो गए ।
अब अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर वर्चस्व की लड़ाई फ्रांस तथा ब्रिटेन के बीच सिमट गई थी । दोनों ही भारत, उत्तरी अमरीका और वेस्ट इण्डीज (कैरिबियन क्षेत्र) में साम्राज्य विस्तार की होड़ में आमने-सामने आ गए । तत्कालीन अन्तरराष्ट्रीय व्यापार व्यवस्था में कैरिबियन क्षेत्र (वेस्ट इण्डीज द्वीप समूह) अत्यधिक महत्व के थे ।
फ्रांस ने वेस्ट इण्डीज से त्रिकोणीय व्यापार सम्बन्ध स्थापित किए थे । इस क्षेत्र में उसने बड़े पैमाने पर गन्ने की खेती का विकास किया । अत: अफ्रीका से नए विश्व के लिए दास लाने वाले फ्रांसीसी जहाज अपनी वापसी यात्रा में यूरोपीय बाजार के लिए चीनी ले जाते थे ।
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फ्रांस की कुल व्यापारिक आय का लगभग एक तिहाई भाग इस त्रिकोणीय व्यापार से ही प्राप्त होता था । इसी प्रकार 1713 से प्रारम्भ कर स्पेन के अमरीकी उपनिवेशों को ”गुलाम’ उपलब्ध कराने का कार्य प्राय पूरी तरह फ्रांस के एकाधिकार में था ।
ब्रिटेन के व्यापारिक जहाज अपने देश के औद्योगिक उत्पाद और शराब की आपूर्ति अफ्रीकी बाजार के लिए करते हुए वहां से ”गुलामों” की खेप लेकर स्पेन के अमरीकी उपनिवेशो को पहुंचाते थे । वापसी यात्रा में वे नई दुनिया से कपास, तम्बाकू और चीनी भर कर यूरोपीय बाजार को पहुंचाते थे ।
इस व्यापारिक प्रतिस्पर्धा के परिणामस्वरूप फ्रांस और ब्रिटेन के बीच 1756 से 1763 तक युद्ध का वातावरण बना रहा । 1763 में ब्रिटेन के हाथों फ्रांस की पराजय के पश्चात् उसके अमरीकी साम्राज्य का अवसान हो गया तथा पूरे उत्तरी अमरीकी क्षेत्र के व्यापार पर ब्रिटेन का एकाधिकार हो गया ।
विश्व व्यापार में ब्रिटेन की यह बढ़ती हुई भागीदारी उसकी औद्योगिक इकाइयों के लिए वरदान सिद्ध हुई और देश के ओद्योगिक विकास में आशातीत प्रगति हुई । 1780 से 1840 के बीच व्रिटिश औद्योगिक उत्पाद सूती कपड़े पर केन्द्रित था तथा विश्व बाजार में इस उत्पाद में ब्रिटेन का व्यापार सर्वोपरि था ।
उन्नीसवीं सदी के प्रथम चतुर्थाश के अन्त तक सूती कपड़ा देश के कुल निर्यात मूल्य की आधी आय अर्जित कर रहा था । ब्रिटेन के विभिन्न उपनिवेश, विशेष कर भारत, उसकी सूती कपड़ा मिलो में तैयार माल के लिए सुरक्षित बाजार बन गए थे ।
1940 के बाद इस्पात ब्रिटेन का मुख्य औदयोगिक उत्पाद बन गया क्योंकि विश्व भर में रेल लाइनों के विस्तार के कारण इस्पात की मांग वहुत बढ़ गई थी । देश के इस्पात के कुल उत्पाद का अस्सी प्रतिशत रेल के कल पुर्जों के रूप में होता था ।
उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में ब्रिटिश पूंजी निवेश के लिए रेल सबसे लाभप्रद सौदा था । 1870 में ब्रिटेन के कुल विदेशी निवेश का दस प्रतिशत भाग अकेले भारतीय रेल में लगा था । उन्नीसवीं सदी में विश्व व्यापार में ब्रिटेन की दीर्घकालिक और चुनौती रहित वर्चस्व के परिणामस्वरूप अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था में व्यापक और दूरगामी परिवर्तन आए । अब ब्रिटेन अकेले ही विश्व व्यवस्था के क्रोड़ (जिसमे ब्रिटेन के अतिरिक्त पश्चिमी यूरोप के औद्योगिक देश और संयुक्त राज्य अमरीका सम्मिलित थे) का नेतृत्व करने लगा था ।
विद्वानों के अनुसार 1846 में अस्सी वर्ष पुराने अन्न अधिनियम (कार्न लॉ), जिसके अन्तर्गत विदेशों से अन्न निर्यात मना था, के निरस्त हो जाने और 1873 की आर्थिक गिरावट के बीच की अवधि में ब्रिटेन विश्व आर्थिक व्यवस्था का अकेला क्रोड़ था ।
ब्रिटेन के औद्योगिक उत्पाद बे रोक-टोक समस्त विश्व में बिक रहे थे, ब्रिटिश पूंजी का सभी देशों में निवेश हो रहा था, तथा विश्व व्यवस्था के आर्थिक दृष्टि से उपान्तीय क्षेत्रों में अधिकांश की आर्थिक व्यवस्था ब्रिटेन से जुडी थी ।
उन्नीसवीं सदी के अन्तिम चतुर्थाश की आर्थिक कठिनाइयों के दौर में इस स्थिति में व्यापक परिवर्तन हुआ । विश्व आर्थिक व्यवस्था के अन्य क्रोड़ देशों ने धीरे-धीरे ब्रिटिश उत्पादों के आयात पर रोक लगा कर अपने देशी उद्योगों को प्रोत्साहन देना आरम्भ कर दिया फलस्वरूप उन्नीसवीं सदी के अन्त तक विश्व व्यापार में ब्रिटेन का एकाधिकार समाप्त हो गया ।
इस प्रकार अन्तरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का क्रोड़ पुन: बहुनाभीय बन गया । ब्रिटेन के घटते हुए अन्तरराष्ट्रीय प्रभाव को देखते हुए अन्य यूरोपीय देशों ने भी उपनिवेश विस्तार के प्रयत्न प्रारम्भ कर दिए जिससे कि ब्रिटेन की भांति वे भी अपने उपनिवेशों के रूप में राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए पूरक क्षेत्रों का निर्माण कर सके ।
यह प्रक्रिया 1880 में प्रारम्भ होकर 1930 के दशक तक चलती रही । लगभग पचास वर्षो से कुछ अधिक लम्बे इस युग को साम्राज्यवाद का युग (एज ऑफ इम्पीरियलिज्म) कहते हैं । व्यवहार की तत्कालीन भाषा में (हॉबसन, 1902) उपनिवेशवाद का तात्पर्य देश की जनसंख्या के एक छोटे भाग के वहिर्गमन के माध्यम से दूरस्थ प्रदेशों में नई बस्तियों (उपनिवेशों) कीं स्थापना से था ।
साम्राज्य का अर्थ किसी बाहरी देश द्वारा स्थानीय लोगों पर शासन करके उनके जीवन (अर्थात उनके विचारो उनकी आर्थिक, राजनीतिक ओर सामाजिक व्यवस्था ओर संस्कृति) को अपने लाभ और सुविधा के लिए नया मोड़ देना था ।
साम्राज्य विस्तार की इस होड़ के परिणामस्वरूप उन्नीसवीं सदी के अन्त तक अण्टार्कटिक को छोड़ प्राय: सम्पूर्ण विश्व विभित साम्राज्यवादी देशों के उपनिवेशों में बंट गया था । ब्रिटेन सबसे बड़े साम्राज्य का स्वामी था ।
उसके बाद क्रमश: फ्रांस ओर नीदरलैण्ड का स्थान था । अन्य साम्राज्यवादी देशों में बेल्जियम, स्पेन, पुर्तगाल, तुर्की और जर्मनी सम्मिलित थे । प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात तुर्की तथा जर्मनी के उपनिवेशों को लीग ऑफ नेशन्स का अधिदेश (मैण्डेट) बना दिया गया ।
इसके पहले स्पेन की राजनीतिक शक्ति के हास का लाभ उठाकर संयुक्त राज्य अमरीका ने उत्तरी अमरीका के स्पैनिश प्रभुत्व वाले क्षेत्रों को अपने अधिकार में कर लिया था । इसी प्रकार जापान ने चीन के कई भागों पर अधिकार जमा लिया था, तथा इटली ने उत्तरी पूर्वी अफ्रीका ओर भूमध्य सागर के द्वीपों में अधिकार जमाना प्रारम्भ कर दिया था ।
1931 में विश्व के साम्राज्यवादी मानचित्र में एक बड़ा परिवर्तन आया ब्रिटेन ने अपने यूरोपीय मूल की जनसंख्या प्रधान छ: उपनिवेशों आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, कैनेडा, आयरलैण्ड, न्यूफाउण्डलैण्ड तथा दक्षिणी अफ्रीका को पूर्णतया स्वतंत्र घोषित कर दिया ।
1930 के दशक के बीच के वर्षो में इटली ओर जापान ने दुत गति से क्षेत्र विस्तार किया या परन्तु द्वितीय विश्व युद्ध में धुरी देशों (एक्सिस पावर्स) की पराजय के बाद उनसे ये सारे क्षेत्र छिन गए । साथ ही 1945 के बाद उपनिवेशवाद के उन्मूलन का दौर प्रारम्भ हो गया तथा एक-एक कर सभी देशों की उपनिवेशीय इकाइयां स्वतंत्र राष्ट्रीय इकाइयां घोषित हो गई । परिणामस्वरूप साठ के दशक के प्रारम्भ में अफ्रीका के कुछ देशों को छोड़ प्राय सर्वत्र उपनिवेशवाद का अन्त गया था (चित्र 8.1) ।