Read this article to learn about the historical legacy of imperialism in Hindi language.
साम्राज्यवाद की ऐतिहासिक विरासत के दो पक्ष हैं । एक विश्व स्तर की आर्थिक व्यवस्था में इसका संरचनात्मक प्रभाव ओर दूसरा परतंत्र ओपनिवेशीय इकाइयों के जीवन पर इसके दूरगामी प्रभाव ।
साम्राज्यवाद के इस लम्बे दौर में विश्व अर्थव्यवस्था में स्पष्टतया दो अलग-अलग क्षेत्रीय स्तरों का विकास हुआ । एक ओर उपनिवेशवादी व्यवस्था वाले पश्चिमी यूरोप के उन्नत आर्थिक विकास वाली (जिसमें बाद में संयुक्त राज्य अमरीका और जापान भी शामिल हो गए थे) क्रोडीय इकाइयां थीं जो अन्तरराष्ट्रीय व्यापार में एकाधिकार के माध्यम से विश्व की सम्पूर्ण आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था की धुरी बन गई; और दूसरी ओर विश्व के शेष देश जिनकी अर्थव्यवस्था इस कोड अर्थव्यवस्था की परिपूरक बन कर रह गई ।
अफ्रीका, एशिया ओर दक्षिण अमरीका के देश क्रोड़ क्षेत्रों के ओद्योगिक संस्थानों के लिए कच्चे माल की आपूर्ति करने वाले ओर इस माल के निर्यात के बदले उनके बने वनाए औद्योगिक उत्पाद के आयातक बाजार के रूप में प्रतिस्थापित हो गए ।
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इस प्रकार की निर्यात उन्मुख नकद उपज की कृषि पर निर्भर अर्थव्यवस्था स्थानीय आर्थिक व्यवस्था के विकास में अवरोधक थी क्योंकि पूरी स्थानीय अर्थव्यवस्था विशेषकर उत्पादन सम्बन्धी नीतियों का निर्धारण ओर संचालन सम्बन्ध साम्राज्यवादी शक्तियों के नियंत्रण में था अत: उत्पादन से प्राप्त होने वाला सारा लाभांश या तो साम्राज्यवादी देशों के खाते में चला जाता था अथवा उनकी मिलों में निर्मित उपकरणों की खरीद के भुगतान में ।
यह स्थानीय अर्थव्यवस्था को यथासम्भव साम्राज्यवादी देशों पर निर्भर रखने तथा उपनिवेशों को ओद्योगिक विकास से वंचित रखने का प्रयास था क्योंकि अर्थव्यवस्था के सभी सम्भव गुणक प्रभाव (मल्टीप्लायर इफेक्ट्स) क्रोड़ क्षेत्रों को निर्यातित हो जाते थे ।
यही कारण है कि सामान्यतया जो देश जितने लम्बे समय तक परतंत्र रहा है । आज उसका आर्थिक विकास उतना ही अविकसित है । ऐसे देश विश्व के सबसे विपत्र और अशिक्षित जनसंख्या वाले हैं । इस दृष्टि से भारत ओर जापान की तुलना पर्याप्त शिक्षाप्रद है ।
उन्नीसवीं सदी में भारतीय अर्थव्यवस्था के अन्तरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में समन्वित किए जाने के परिणामस्वरूप देश का ओद्योगिक हास प्रारम्भ हो गया । विशेषकर देश का कपड़ा उद्योग पूरी तरह ठप हो गया, ग्रामीण और नगरी अर्थव्यवस्था के बीच परस्परतापूर्ण ऐतिहासिक सम्बन्ध समाप्त हो गए ।
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कृषि उत्पादन निर्यात उन्मुख हो गया जिसके फलस्वरूप भारत एक आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था वाले देश के स्थान पर ब्रिटिश अर्थव्यवस्था का परिपूरक ओर उसके ओद्योगिक उत्पादों का बाजार मात्र बन कर रह गया । इस प्रकार देश में विकासहीनता का दौर प्रारम्भ हुआ जो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तक चलता रहा । इसके विपरीत जापान में औद्योगिक कच्चे माल के उत्पादन की सम्भावनाएं सीमित थीं, अत: पश्चिमी देश उसके उपनिवेशीकरण की ओर आकर्षित नहीं हुए ।
फलस्वरूप जापान यूरोपीय साम्राज्यवाद जनित विकास हीनता ओर आर्थिक परतंत्रता से मुक्त अपने विकास की दशा स्वतंत्र रूप से निर्धारित करने में सफल हुआ । जैसा हाब्स्बॉन (1987) ने रेखांकित किया है, इस विषय में भारत का दुर्भाग्य उसकी संसाधन सम्पन्नता थी जिसके कारण वह ब्रिटिश साम्राज्य की आर्थिक व्यवस्था का विशिष्ट ”रत्न” बना रहा ।
यही कारण था कि जहां एक ओर अन्य क्षेत्रों में अठारहवीं शताब्दी में लगाए गए व्यापारिक अवरोध बहुत पहले हटा दिए गए थे वहीं भारत में इन में कभी भी ढील नहीं दी गई । भारत को पूरे साम्राज्यवादी दौर में ब्रिटेन की परिपूरक आर्थिक व्यवस्था के रूप में बनाए रखा गया ओर वहां ओद्योगिक विकास के सारे रास्ते बन्द कर दिए गए । साथ ही भारत का विकसित वस्त्र उद्योग बलात बन्द कर दिया गया जिससे कि ब्रिटेन के सूती कपड़ा मिलों के लिए सुरक्षित वाजार प्राप्त हो सके ।
भारत और ब्रिटेन के बीच व्यापार सम्बन्ध कितने असमान थे यह इसी बात से स्पष्ट है कि ब्रिटेन के मिलों के कपडों के आयात पर भारत में लिया जाने वाला सीमा शल्क मात्र दो प्रतिशत था जबकि भारतीय कपड़ा आयात पर ब्रिटेन में दस प्रतिशत कर वसूल किया जाता था ।
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कृषि के क्षेत्र में साम्राज्यवादी प्रशासन की नीति केवल उन फसलों को बढ़ावा देने की थी जिनकी ब्रिटेन के उद्योगों को आवश्यकता थी । यही कारण था कि कपास की कृषि को विशेष बढ़ावा दिया गया और इसकी कृषि में लगी भूमि पर करों मैं सूट दी गई । इस नीति के अनुसार उर्वर भूमि नकदी फसलों की कृषि में लगा दी गई अत: अन्न के उत्पादन में बहुत कमी आई और गरीब जनता आए दिन भुखमरी का शिकार होने लगी ।
भारत ओर ब्रिटेन के बीच साम्राज्यवादी दौर का सम्बन्ध क्रोड़-उपान्तीय आर्थिक सम्बन्ध का अच्छा उदाहरण था । दृष्टांत के लिए विश्व के अन्य क्षेत्रों के सन्दर्भ में ब्रिटेन के ऋणात्मक आर्थिक संतूलन का चालीस प्रतिशत घाटा भारत से प्राप्त आय द्वारा पूरा किया जाता था ।