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भारत की परिसंघ राजव्यवस्था:
यूरोप के अधिकांश देशों के विपरीत भारत के सांस्कृतिक विकास में प्रारम्भ से ही निरन्तरता वनी रही है इस बात के होते हुए भी कि देश को प्राचीन काल से ही समय-समय पर अनेक बाहरी आक्रमणों का सामना करना पड़ा है ।
इस निरन्तरता के फलस्वरूप भारत में हिमालय से रामेश्वरम् तथा द्वारका से भारत-म्यांमार सीमा तक सांस्कृतिक एकता के सूत्र सतत संचरित रहे हैं । किन्तु इस सांस्कृतिक एकता के साथ-साथ क्षेत्रीय विभिन्नता सदा विद्यमान थी ।
अत: देश में केन्द्रीय और क्षेत्रीय दोनों प्रकार की पहचानों का साथ-साथ अस्तित्व रहा है । आज की शब्दावली में भारत प्रारम्भ से ही एक बृहत् सांस्कृतिक संघ वन गया था । आदि काल से ही इस आधारभूत सांस्कृतिक संघ को राजनीतिक बाना पहनाने के प्रयास होते रहे थे ।
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चक्रवर्ती साम्राज्य, चक्रवती राजा तथा अश्वमेध करने की पद्धति देसी ही प्रवृति की परिचायक थी । राजनीतिक सर्वोच्चता का यही सिद्धान्त वाद में मुगुलों तथा उनके पश्चात् ब्रिटिश शासकों द्वारा अपनाया गया । इस प्रकार प्रशासनिक स्तर पर देश में क्षेत्रीय अनेकता के साथ-साथ केन्द्रीय एकता के सिद्धान्त को निरन्तर मान्यता मिलती रही है । परन्तु इस ऐतिहासिक विरासत के आधार पर भारत की वर्तमान परिसंघीय व्यवस्था को स्वयंभूत विकास के रूप में देखना सही नहीं होगा ।
वर्तमान व्यवस्था मूलतया ब्रिटिश शासन के प्राय 150 वर्षों के राजनीतिक-आर्थिक घटनाक्रम और तज्जनित वैचारिक प्रगति का सीधा परिणाम है । भारत में ब्रिटिश प्रभाव का प्रारम्भ दिसम्बर 1600 ईसवी में ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना के साथ हुआ था । परन्तु प्रारम्भ के 150 वर्षो में उसका राजनीतिक प्रभाव नगण्य था । मुगुल शासन के उत्तरोत्तर शक्तिहीन हो जाने, तथा भारत में फ्रांसीसी प्रभाव के अवसान के साथ ही भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों का समूह बन गया था ।
इस स्थिति का लाभ उठाते हुए ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारियों ने राजनीतिक हस्तक्षेप आरम्भ कर दिया था । अनेक प्रकार की कूटनीतिक चालों के सहारे कम्पनी ने प्लासी (1757) तथा बक्सर (1764) के युद्ध में विजय प्राप्त कर लेने के साथ ही बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा पर राजनीतिक सर्वोच्चता प्राप्त कर ली थी ।
1800 में टीपू सुल्तान तथा 1818 में मराठों की पराजय के साथ भारत का अधिकांश क्षेत्र ब्रिटिश आधिपत्य में आ गया था । 1849 में सिखों की पराजय के पश्चात् हिमालय से कन्याकुमारी तथा सिन्धु से ब्रह्मपुत्र तक ब्रिटिश राजनीतिक प्रभुता सम्पूर्ण देश में स्थापित हो गई थी । परन्तु शीघ्र ही कम्पनी सरकार की शोषक और दमनकारी नीतियों से देश के अधिकांश क्षेत्रों में (विशेषकर उत्तर भारत में) व्यापक असंतोष की लहर उठने लगी थी ।
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इस असंतोष की परिणति 1857 के ”प्रथम स्वतंत्रता संग्राम” के रूप में सामने आई (जिसे अंग्रेजों ने ”सैन्य विद्रोह” नाम दिया) । देश की असंतुष्ट जनता का ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक जुट हो जाने का यह प्रयास लंदन स्थित ब्रिटिश सरकार के लिए चिन्ता का विषय बन गया ।
ब्रिटिश साम्राज्य के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए 1858 में अंग्रेज सरकार ने भारत में कम्पनी के शासन को समाप्त कर देश के प्रशासन का दायित्व स्वयं संभाल लेया । देश की शासन व्यवस्था के व्यापारियो के हाथ से निकल कर सरकारी प्रशासकों को हस्तांतरित होने के व्यापक और दूरगामी प्रभाव हुए ।
अखिल भारतीय प्रशासनिक और सम्बद्ध सेवाओं को और प्रभावी बनाया गया, धीरे-धीरे उनमें भारतीय मूल के अधिकारियों की भगिदारी बढ़ती गई, परिणामस्वरूप स्वतंत्रता प्राप्ति के समय तक थोड़े से सर्वोच्च अधिकारियों के अतिरिक्त प्राय सभी अधिकारी भारतीय मूल के थे ।
नए प्रशासनिक नेतृत्व में संचार और आवागमन व्यवस्था में आशातीत प्रगति हुई तथा तार और रेल लाइनों का जाल पूरे देश में बिछ गया । सम्पूर्ण देश में एक ही प्रकार की समन्वित कानून और सुरक्षा व्यवस्था का प्रचार हुआ, सर्वत्र उच्च शिक्षा एक ही भाषा, अर्थात् अंग्रेजी के माध्यम से दी जाने लगी, फलस्वरूप देश में बौद्धिक एकता का विकास हुआ, यद्यपि इस नई शिक्षा प्रणाली का वास्तविक उद्देश्य ब्रिटिश शासन को छोटी-बड़ी सरकारी नौकरियों के लिए अंग्रेजी जानने वाले कर्मचारियों को तैयार करना था ।
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दूसरी और उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध (1869) में स्वेज नहर के बन जाने के बाद भारत यूरोप के अत्यधिक समीप आ गया था अत भारतीय कृषि विश्व बाजार से निकट से जुड़ गई । इससे सड़कों तथा रेलों के विकास को बढावा मिला तथा देश की अर्थव्यवस्था उत्तरोत्तर समन्वित होती गई ।
कालान्तर में स्थानीय व्यापारियों ने अपनी मिलें लगाना आरम्भ कर दिया । स्थानीय पूंजी से स्थापित ये उद्योग शीघ्र ही विदेशों से होने वाले औद्योगिक आयात के कट्टर विरोधी बन गए । अत: अब सम्पन्न व्यापारी वर्ग में भी विदेशी सरकार के प्रति विरोध का भाव जाग्रत होने लगा ।
इससे मध्यवर्गीय राष्ट्रीय चेतना और उच्चवर्गीय औद्योगिक हित रक्षा के बीच आपसी समझ का विकास हुआ । बीसवीं सदी के प्रथम चतुर्थांश में महात्मा गांधी के उत्तरोत्तर बढ़ते प्रभाव में देश के किसान, व्यापारी, तथा मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी, अर्थात् समाज के सभी वर्ग एक जुट हो गए क्योंकि इन सभी वर्गों में राष्ट्रीय चेतना और विदेशी शासन से मुक्ति की इच्छा प्रबल हो गई थी ।
1905 में जापान के हाथों रूस की पराजय के परिणामस्वरूप श्वेतवर्ण यूरोपीय जातियों की अपराजेयता सम्बन्धी धारणा समाप्त हो गई । इससे भारतीय राष्ट्रवादी चेतना को और प्रोत्साहन मिला । 1905 में कर्जन के बंगाल के विभाजन से क्षुब्ध राष्ट्रवादी शक्तियों को जापान के उदाहरण से बहुत साहस मिला ।
उनके विरोध का स्वर उग्र होता गया, तथा अन्तत अंग्रेज सरकार को बंगाल के विभाजन का निर्णय निरस्त करना पड़ा । राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत करने की दिशा में तिलक, गोखले, लाजपत राय, तथा अरविंद घोष के प्रयासों के सम्मिलित प्रभाव तथा अंग्रेज अधिकारियों द्वारा किए गए जलियांवाला बाग नरसंहार से राष्ट्र मानस में उत्पन्न रोष को महात्मा गांधी के नेतृत्व में मिले देश व्यापी समर्थन से अंग्रेजी शासन से मुक्ति के अभियान को प्रोत्साहन मिला ओर अखिल भारतीय स्तर पर राष्ट्रीय एकता के सूत्र और दृढ़ हो गए ।
ब्रिटिश शासनकाल में संवैधानिक विकास:
भारत का वर्तमान संविधान डेढ़ सौ वर्षों के ब्रिटिश शासन काल में हुई संवैधानिक प्रगति की परिणति है । अत: यहां उस दौर में हुई संवैधानिक प्रगति का संक्षिप्त विवरण आवश्यक है । ध्यातव्य हे कि ब्रिटिश शासकों ने स्वयं अपनी प्रशासनिक व्यवस्था का निर्माण मुगुल काल से चली आ रही सूबों और सरकारों की व्यवस्था की नींव पर किया था ।
साथ ही आदि युगीन सर्वोच्च सत्ता सम्बन्धी अवधारणा की (जिसे मुगलों ने भी स्वयं अपनाया था) भारत की ब्रिटिश कालीन प्रशासनिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका थी । यही कारण था कि भारत पर पूर्ण राजनीतिक अधिकार जमा लेने के बाद ब्रिटिश शासकों ने सशक्त केन्द्रीय नियंत्रण के साथ-साथ क्षेत्रीय स्तर पर प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण का सिद्धान्त यथा सम्भव अपनाने का प्रयास किया ।
इस दृष्टि से भारत में परिसंघीय व्यवस्था की नींव 1773 के रेगुलेटिंग एक्ट के पारित होने के साथ ही पड़ गई थी । इस ऐक्ट के अनुसार मद्रास, बम्बई, तथा बंगाल में फोर्ट विलियम (कलकत्ता) की प्रेसिडेंसियो के प्रशासन के लिए अलग-अलग गवर्नर-जनरलों की नियुक्ति का उपबंध था परन्तु साथ ही फोर्ट विलियम (बंगाल) की प्रेसिडेंसी के गवर्नर को गवर्नर-जनरल नामजद कर उसकी अध्यक्षता में एक परिषद की नियुक्ति का भी प्रावधान किया गया ।
यह परिषद सम्पर्ण भारत में युद्ध और शान्ति व्यवस्था से जुड़े प्रश्नों तथा प्रत्येक प्रेसिडेंसी में स्थानीय (देशी) शासकों से सम्बंधित समस्याओं पर विचार विमर्श के लिए अधिकृत सर्वोच्च संस्था थी । परन्तु स्थानीय (प्रेसिडेंसी) स्तर का सामान्य प्रशासन पूर्णतया सम्बद्ध गवर्नर के अधिकार मे था । इस दिशा में दूसरा महत्वपूर्ण कदम 1833 का चार्टर ऐक्ट का पारित होना था ।
इसके अनुसार फोर्ट-विलियम के गवर्नर को “गवर्नर-जनरल-इन-काउंसिल ऑफ इण्डिया” बना दिया गया । साथ ही उसको सम्पूर्ण भारत के लिए प्रशासनिक और नीति निर्धारण सम्बंधी अधिकार प्रदान किए गए ।
1858 के भारत शासन अधिनियम उपबंधों के अनुसार सपरिषद गवर्नर-जनरल, जो अभी तक लंदन स्थित ईस्ट इण्डिया कम्पनी के निदेशक मंडल तथा नियंत्रक बोर्ड के प्रति उत्तरदायी था, सीधे ब्रिटिश सरकार के लंदन स्थित सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इण्डिया के प्रति जावाबदेह बना दिया गया । अर्थात् भारत का प्रशासन सीधे तौर पर ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण में आ गया ।
1858 के इस अधिनियम के पारित होने के साथ ही प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया में आ गया क्योंकि इसके परिणामस्वरूप नीति निर्धारण के सभी अधिकार फोर्ट स्थित गवर्नर-जनरल में निहित हो गए थे । इससे प्रशासन में कठिनाई अनुभव लगी तथा क्षेत्रीय असंतोष को बढ़ावा मिला ।
अत: शीघ्र ही विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया को पुन: प्रारम्भ करना पड़ा । सेकेटरी ऑफ स्वेट फॉर इण्डिया ने यह मानते हुए कि प्रशासनिक नीतियों का निर्धारण प्रभावित जनसंख्या के समीपस्थ अधिकारियों द्वारा अधिक प्रभावी ढंग से किया जा सकता है, मद्रास तथा बम्बई की प्रेसिडेंसियों को क्षेत्रीय स्तर के प्रशासनिक निर्णय के स्वतंत्र अधिकार को पुन: बहाल कर दिया ।
1861 का इण्डियन कांउसिल ऐक्ट इसी उद्देश्य से पारित किया गया था । इसके अन्तर्गत जैसे-जैसे नए प्रांतों का निर्माण होता गया उन्हें इसी प्रकार की प्रशासनिक स्वायत्तता प्राप्त होती गई । प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण की दिशा में 1909 के काउंसिल ऐक्ट (जिसे मार्ले-मिण्टो सुधार के नाम से भी जाना जाता है) के अनुसार विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए केन्द्रीय और प्रांतीय परिषदों की सदस्य संख्या में वृद्धि की गई तथा प्रान्तीय परिषदों की अधिकारिता को और व्यापक बनाया गया ।
परन्तु इससे स्थिति में वांछित सुधार नहीं आ पाया । क्षेत्रीय स्वायत्तता तथा स्थानीय नागरिकों के प्रतिनिधित्व के लिए उत्तरोत्तर दबाव बढ़ता गया । परिणामस्वरूप 25 अगस्त 1911 के एक प्रतिवेदन में गवर्नर-जनरल ने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इण्डिया को लिखा कि भारतीय प्रशासन की तत्कालीन कठिनाइयों का एकमात्र समाधान यह है कि प्रांतों को उत्तरोत्तर स्वायत्त प्रशासन के अधिकाधिक अधिकार प्रदान किए जाएं जिससे कालान्तर में भारत क्षेत्रीय प्रशासन में पूर्णतया आत्मनिर्भर (स्वायत्त) प्रांतों की समष्टि बन जाए, तथा केन्द्रीय सरकार उनके ऊपर सर्वोच्च सत्ता के रूप में विद्यमान हो ।
इस समस्या पर विचार हेतु 1918 में माण्टेग्यू तथा चेम्सफोर्ड कमेटी द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में सविस्तार संस्तुतियां की गई थीं जिनका सार यह था कि प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण को उत्तरोत्तर और व्यापक बनाते हुए भारत को स्थानीय ओर क्षेत्रीय विषयों में पूर्णतया स्वायत्त प्रांतीय इकाइयों की समष्टि बना देना चाहिए ।
1919 का भारत शासन अधिनियम, जिसको सर फ्रेडरिक ह्वाइट (1926) ने परिसंघ व्यवस्था के बीज का नाम दिया था, इसी प्रतिवेदन की संस्तुतियों पर आधारित था । यद्यपि इस ऐक्ट में प्रांतों के कर लगाने और ऋण उगाहने के अधिकारों पर अनेक प्रतिबंध लगाए गए थे, परन्तु इन प्रतिबन्धों के बावजूद इस ऐक्ट के परिणामस्वरूप प्रांतीय सरकारों को अपने आय-व्यय का लेखा-जोखा रखने, बजट बनाने तथा केन्द्र से प्राप्त अनुदान राशि को व्यय करने की पूरी स्वतंत्रता प्राप्त हो गई ।
फलस्वरूप, कोटमैन (1941) के शब्दों में, 1919 के ऐक्ट ने भारत में परिसंघ शासन व्यवस्था का श्रीगणेश किया था क्योंकि इसके लागू होते ही प्रांतीय इकाइयां व्यावहारिक स्तर पर अपने-अपने क्षेत्रों में स्वायत्त प्रशासनिक इकाइयां बन गई थी । 1919 के अधिनियम के अनुसार प्रांतों के शासन में लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा मिला, शासन में जन प्रतिनिधियों की भागीदारी बढ़ी अत: सारे प्रतिबन्धों के बावजूद यह भागीदारी प्रभावपूर्ण थी ।
शासन में लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व के प्रवेश के साथ ही क्षेत्रीय स्तर पर राजनीतिक स्वायत्तता के प्रति चेतना दृढ़तर हुई तथा उत्तरोत्तर यह स्पष्ट हो गया कि भारत का शासकीय भविष्य एक परिसंघ व्यवस्था में ही निहित है ।
माण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड प्रस्तावों में निर्दिष्ट प्रांतों की सीमाओं को भाषा के आधार पर निर्धारित करने के सुझाव के परिणामस्वरूप जन मानस में परिसंघ व्यवस्था के प्रति आस्था और भी बलवती हुई । साथ ही प्रांतीय स्वायत्तता के सिद्धान्त से मुसलमानी राष्ट्रवाद को भी बढ़ावा मिला था क्योंकि इसके माध्यम से वे अपने लिए मुस्लिम बहुल प्रांतों में स्वायत्त क्षेत्रीय इकाइयां प्राप्त कर सकते थे ।
ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दौरान भारत का बहुत बड़ा क्षेत्र देशी राजाओं और नवाबों के अधिकार में था । 1919 के बाद वे भी परिसंघ व्यवस्था के पक्षधर बन गए क्योंकि इसके अधीन वे अपने-अपने राज्यों में अपना शासन और सशक्त करते हुए अपने क्षेत्रों को ब्रिटिश शासनाधीन प्रांतों में उभर रही लोकतांत्रिक आधी से सुरक्षित रख सकते थे ।
ध्यातव्य है कि 1919 के अधिनियम ने प्रांतों और केन्द्र के वीच शासकीय अधिकारों के विभाजन के माध्यम से द्वैध (डायाकी) शासन की शुरुआत कर तथा प्रांतों की विधान सभाओं को क्षेत्रीय प्रशासन से सम्बन्धित मुद्दों पर निर्णय का अधिकार प्रदान कर देश में परिसंघ व्यवस्था से मिलती जुलती शासन प्रणाली का प्रारम्भ किया ।
परन्तु यथार्थत यह शासन व्यवस्था परिसंघ व्यवस्था नहीं थी । केन्द्रीय विधान सभा को अनेक विषयों में स्वतंत्र निर्णय का अधिकार नहीं था । उनके सम्बन्ध में सर्वोच्च अधिकार गवर्नर-जनरल में निहित थे । इसी प्रकार गवर्नर-जनरल को अधिकार था कि वह केन्द्रीय सरकार के किसी भी विधेयक पर रोक लगा दे अथवा उसे अन्तिम निर्णय के लिए लंदन भेज दे । साथ ही केन्द्रीय विधान सभा द्वारा अस्वीकृत किए गए प्रस्तावों को भी गवर्नर-जनरल अपनी स्वीकृति देकर उन्हें वैधता प्रदान कर सकता था ।
इसके अतिरिक्त आपात स्थिति में वह अध्यादेशों के माध्यम से नए अस्थाई अधिनियम भी बना सकता था । संक्षेप में 1919 की व्यवस्था के अनुसार भारत की केन्द्रीय सरकार प्रभुतासम्पन्न सरकार नहीं थी । साथ ही प्रांतीय सरकारों की स्वायत्तता संवैधानिक रूप में सुरक्षित न होकर गवर्नर-जनरल द्वारा प्रदत्त अधिकार पर निर्भर थी जो उनसे वापस लिए जा सकते थे । प्रांतीय विधान सभाओं के निर्णयों को गवर्नर जनरल बहुधा निरस्त कर देता था अत उनकी वित्तीय स्वायत्तता अत्यधिक सीमित थी ।
परिणामस्वरूप इस व्यवस्था से व्यापक असंतोष उत्पन्न हुआ । महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन के माध्यम से इसका पूरे देश में विरोध किया गया । इन विरोधों को ध्यान में रखकर अंग्रेज सरकार ने 1927 में साइमन की अध्यक्षता में एक स्टैटूटरी कमीशन गठित किया जिसने 1930 में अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया ।
इसके आधार पर 1935 में एक नया भारत शासन अधिनियम पारित हुआ । इसके अनुसार ब्रिटिश शासनाधीन प्रांतों और देशी रियासतों को प्रशासनिक इकाइयां मान कर भारत में पहली बार स्पष्टतया एक परिसंघ शासन व्यवस्था के निर्माण का प्रयास किया गया ।
इसके प्राविधानों के अनुसार रियासतों को संघ में सम्मिलित न होने की कट थी । चूंकि प्राय: सभी रियासतें संवैधानिक अनुशासन से दूर रहना चाहती थी अत: उन्होंने संघ में सम्मिलित न होने का निर्णय लिया । परन्तु इस संविधान में केन्द्र और प्रांतों के बीच अधिकार विभाजन का समुचित उपबंध था तथा प्रांतीय इकाइयां स्वायत्तता मण्डित शासनिक इकाइयां बना दी गई थीं । किन्तु यह संविधान देश के चुने हुए प्रतिनिधियों की जगह साम्राज्यवादी स्वामियों द्वारा निर्मित था ।
अत: इसमें साम्राज्यवादी हितों की सुरक्षा हेतु अनेक उपबंध शामिल थे जिनके कारण इसे सही अर्थों में परिसंघ संविधान नहीं कहा जा सकता परन्तु निश्चय ही यह परिसंघीय शासन व्यवस्था की दिशा में एक अच्छा आरंभ था । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यही अधिनियम हमारे नए संविधान का आधार बना ।
1935 के अधिनियम में 1932 में प्रारंभ किए गए साम्प्रदायिक अधिनियम (कम्यूनल आवर्ड) को और भी पुष्ट कर दिया गया था । ब्रिटिश प्रधान मंत्री रैम्से मैक्डानल्ड द्वारा पारित 1932 के उपबंध में केवल मुसलमानों के लिए पृथक् चुनाव क्षेत्रों की व्यवस्था थी, परन्तु 1935 के अधिनियम के अनुसार सिखों, इसाइयों, एंग्लो-इण्डियन्स, तथा यूरोपीय मूल के लोगों के लिए भी अलग-अलग चुनाव क्षेत्र वनाए जाने का प्राविधान या । इससे संविधान निर्माताओं के दूषित मंतव्य का अनुमान मिलता है । यह देश में बढ़ती हुई राष्ट्रीय चेतना को विभाजित करने की दिशा में की गई एक बड़ी कूटनीतिक चाल थी ।