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वैज्ञानिक अध्ययन की एक स्वतंत्र शाखा के रूप में राजनीतिक भूगोल का जन्म 1896-1897 में जर्मन विद्वान फ्रेडरिक रैट्ज़ेल (1844-1904) के शोध प्रपत्र ”राज्यों के क्षेत्रीय विकास के नियम राजनीतिक भूगोल के वैज्ञानिक अध्ययन में एक योगदान” (1896) तथा एक वर्ष बाद उनकी पुस्तक राजनीतिक और भूगोल (1897) के प्रकाशन के साथ हुआ था यद्यपि ”राजनीतिक भूगोल” का नामकरण रैट्ज़ेल के काफी पहले ही हो चुका था ।
यह बात इसी से स्पष्ट है कि जर्मन दार्शनिक इमैनुअल कांट (1724-1804) ने कोनिसबर्ग विश्वविद्यालय में 1765 से प्रारम्भ कर प्रति वर्ष ” भौतिक भूगोल” शीर्षक से दी जाने वाली व्याख्यानमाला में भूगोल की प्रमुख शाखाओं का नाम गिनाते हुए राजनीतिक भूगोल की भी चर्चा की थी ।
परन्तु कांट की व्याख्यानमाला में राजनीतिक भूगोल की परिभाषा, उसके स्वरूप उसकी विशिष्ट परिदृष्टि आदि पर कोई चर्चा नहीं थी । अत राजनीतिक भूगोल के इतिहासकार इस बात पर निर्विवाद सहमत हैं कि आधुनिक राजनीतिक भूगोल के जनक जर्मन भूगोलविद फ्रेडरिक रैट्ज़ेल ही थे ।
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सामाजिक विकासवाद तथा रैट्ज़ेल का राजनीतिक भूगोल:
हर प्रमुख विचारक और उसकी मान्यताएं तथा अवधारणाएं, उसके युग की सामाजिक और वैज्ञानिक चिंतन धारा से अनिवार्य रूप से प्रभावित होती हैं । वे बहुत हद तक अपने युग की देन होती हैं ।
यह बात रैट्ज़ेल के संदर्भ में पूर्णतया सत्य है । भूगोल के अध्ययन की ओर प्रवृत होने के पूर्व रैट्ज़ेल ने प्राणि विज्ञान का गहन अध्ययन किया था तथा इस क्षेत्र में उसने विश्वविद्यालय से उच्च उपाधि अर्जित की थी ।
1944 में जन्मे रैट्ज़ेल ने जब होश संभाला उस समय चार्ल्स डार्विन (1809-1882) की पुस्तक जातियों का उदभव (1859) प्रकाशित हो चुकी थी, अर्थात् उस युग के वैचारिक इतिहास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्रांतिकारी घटना घटित हो चुकी थी ।
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रैट्ज़ेल की प्राथमिक स्तर के बाद की शिक्षा इसी वैचारिक हलचल के दौरान हुई थी । प्राणिशास्त्री होने के कारण वे डार्विन की विचारधारा के रहस्यों से पूर्णतया परिचित थे । डार्विन का जातियों के उद्भव का सिद्धान्त मूलरूप से इस मान्यता पर आधारित था कि जातियां समय और स्थान के परिप्रेक्ष्य में उत्तरोत्तर संचयी विकास के परिणाम हैं ।
उत्क्रांति की इस प्रक्रिया में जातियों का उनके क्षेत्रीय वातावरण अथवा परिवेश से समायोजन एक स्वाभाविक और शाश्वत प्रक्रिया हैं, तथा कालांतर में वे ही जातियां अपने अस्तित्व की सुरक्षा करके विकास प्रक्रिया में आगे भाग ले पाती हैं जो परिवेशजन्य कठिनाइयों का सफलतापूर्वक सामना करने में सक्षम हैं ।
इस दृष्टि से जातियों के विकास का इतिहास अस्तित्व रक्षा हेतु निरन्तर संघर्ष की कहानी है । इस संघर्ष में वे ही प्राणी विजयी होते हैं जिन्होंने अपने को वातावरण से पूरी तरह समायोजित कर लिया है । विद्वत् समाज में इस विकासवादी अवधारणा की व्यापक स्वीकृति से भूगोल के अध्ययन को बहुत प्रोत्साहन मिला था क्योंकि भूगोल प्रारम्भ से ही मानव पर्यावास के प्राकृतिक परिवेश और उस परिवेश से स्थानीय जीवन के सामाजिक ओर भौतिक समायोजन, तथा इन दोनों के अन्तरसम्बन्धों के अध्ययन पर केन्द्रित था ।
उन्नीसवीं सदी के अन्तिम चरण में अनेक समाजशास्त्री और मानवशास्त्री चिन्तक डार्विन के विकासवादी सिद्धान्त तथा उसकी पारिस्थितिकीय समायोजन की अध्ययन पद्धति की ओर आकृष्ट हुए थे । सामाजिक जीवन के विश्लेषण में इस पद्धति के समावेश की सम्भावनाओं के प्रति वे बहुत आशावान थे ।
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डार्विन की अध्ययन पद्धति के अनुसार किए जाने वाले सामाजिक अध्ययन को सामाजिक डार्विन की (सोशल डार्विनिज्म) की संज्ञा दी गई है । अंग्रेज दार्शनिक हरबर्ट स्पेंसर (1820-1902) इस विचारधारा के सबसे प्रबल समर्थक थे । स्पेंसर के इन विचारों तथा सामाजिक अध्ययन के क्षेत्र में उनके प्रयोग की सम्भावनाओं से रैट्ज़ेल अत्यधिक प्रभावित थे ।
डार्विन के सिद्धांत के अनुसार प्रकृति में विभिन्न जैविक इकाइयों के बीच अस्तित्व की रक्षा का संघर्ष एक शाश्वत प्रक्रिया है । इस संघर्ष में हर प्राणी अपने लिए निरन्तर जीवनयापन के साधनों के संचय में लिप्त रहता है । संसाधन क्षेत्रपरक हें अत: अस्तित्व सुरक्षा का यह संघर्ष आंशिक रूप से क्षेत्र प्रसार का संघर्ष भी है ।
डार्विन की यही मूलभूत अवधारणा रैट्ज़ेल के राजनीतिक भूगोल के अध्ययन की ओर प्रवृत्त होने की प्रमुख प्रेरणा और आधार बनी । विभिन्न प्रभुतासम्पन्न स्वतंत्र राजनीतिक इकाइयां (अर्थात् ”राज्य”) रैटज़ेल को अलग-अलग भूखण्डों में निवास करने वाले सामाजिक समूहों और उनके निवास क्षेत्रों के बीच उद्भूत आत्मिक सम्बन्धों से प्रादुर्भूत जीवन्त इकाइयां प्रतीत हुई ।
राज्यों के सन्दर्भ में डार्विन की अध्ययन पद्धति की उपयोगिता की सम्भावनाओं का परीक्षण करने के उद्देश्य से रैटज़ेल ने यूरोपीय महाद्वीप के विभिन्न राज्यों के उद्भव और क्षेत्रीय विकास के इतिहास का तुलनात्मक अध्ययन किया ।
इस अध्ययन के आधार पर लेखक को प्रकृति में व्याप्त विभिन्न जैविक इकाइयों के बीच अस्तित्व रक्षा के संघर्ष, और राज्यों के बीच होने वाले क्षेत्र प्रसार तथा शक्ति-संचयन के संघर्ष में बड़ी समानता दिखाई दी । रैटज़ेल द्वारा प्रतिपादित राज्य की जैविक संकल्पना यूरोपीय इतिहास के इसी साक्ष्य पर आधारित थी ।
1896 में प्रकाशित अपने लेख में रैटज़ेल ने राज्यों के क्षेत्रीय विकास के छ: आधारभूत नियम प्रतिपादित किए थे:
1. राजनीतिक भूगोल पृथ्वी पर होने वाले जनसंख्या स्थानान्तरण के स्थाई कारकों का अध्ययन हैं । राजकीय इकाइयां क्षेत्रीय आमाप (साइज़) और आकार (शेप) के मामले में अपनी जनसंख्या पर निर्भर हैं अत: देश की जनसंख्या की गतिशीलता, राज्य की सीमाओं के अन्दर और उनके परे उसके प्रसार और स्थानांतरण, उसकी संख्या में ह्रास और वृद्धि राज्य की गतिशीलता की प्रगति अथवा अवनति के परिचायक हैं ।
ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया में राज्य की जनसंख्या और उसके भौगोलिक क्षेत्र के बीच गहन आत्मिक सम्बन्ध स्थापित हो जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप एक के अभाव में दूसरे की पहचान करना असम्भव हो जाता है । जनसंख्या और उसके भौगोलिक क्षेत्र के बीच इसी अटूट सम्बन्ध से राष्ट्रीय एकता की भावना का जन्म होता है जो राष्ट्र की जीवन्तता और गतिशीलता का मूल आधार है ।
2. राज्य की यही जीवन्तता और उसका जैविक स्वरूप राजनीतिक भूगोल के अध्ययन में राज्य की मूलभूत मान्यता है । इसके अनुसार ऐसी हर जीवन्त इकाई इस प्रकार की अन्य जीवन्त क्षेत्रीय राजनीतिक इकाइयों से पृथक पहचान वाली तथा परस्पर प्रतिस्पर्धापूर्ण राष्ट्रीय चेतना वाली इकाई होती है । ये इकाइयां एक दूसरे से राजनीतिक सीमाओं अथवा जनशून्य प्रदेशों द्वारा पृथक् की जाती है ।
3. राज्य के अन्दर निवास करने वाला जन समूह अपने जीवनयापन की प्रक्रिया में सतत गतिशील रहता है, जीविकोपार्जन के प्रयास में लगे लोग देश के एक भाग से दूसरे भाग में स्थानांतरण करते रहते हैं यही स्थानांतरण और अन्तरक्षेत्रीय संचार देश के क्षेत्रीय समायोजन और उसके एकात्मक स्वरूप का केन्द्रीय आधार है । कालान्तर में यह जनसंख्या संचार सीमा पार के क्षेत्रों और जनशून्य प्रदेशों में भी होने लगता है तथा देश इन नए क्षेत्रों को अपने में आत्मसात कर लेता है ।
4. ऐतिहासिक साक्ष्य के अनुसार इस प्रकार का क्षेत्रीय विस्तार प्राय कभी भी उपान्तीय और अनुपजाऊ इलाकों में नहीं होता । राज्यों के विकास की इस परस्पर प्रतिस्पर्धा पूर्ण प्रक्रिया के कारण उनके क्षेत्रीय स्वरूप में निरन्तर परिवर्तन आता रहता है ।
लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए बाध्य होते हैं क्योंकि उनका निवास क्षेत्र किसी पडोसी राज्य द्वारा हडप लिया गया है । वहीं दूसरी ओर शाक्तिशाली पड़ोसी राज्य कालान्तर में राष्ट्रीय एकता के सूत्र के शिथिल होने पर विच्छिन्न होकर छोटी-छोटी स्वतंत्र इकाइयों में विभक्त हो सकते हैं । जुड़ने और अलग होने की यह क्षेत्रीय प्रक्रिया राज्यों की उत्क्रांति (इवोल्युशन) का अनिवार्य अंग है ।
5. इस प्रकार का प्रत्येक क्षेत्रीय परिवर्तन सम्बद्ध राज्यों के जीवन में हलचल उत्पन्न करता है उनके जीवन के स्थायित्व को भंग करता है । जहां एक ओर यह परिवर्तन विजयी राज्य के नागरिकों के जीवन में सम्पन्नता लाता है वहीं दूसरी ओर विजित देश के नागरिकों के लिए संकट का कारण वन जाता है । क्षेत्रीय प्रसार ओर हास की यह कहानी राज्यों की विकास यात्रा का अपरिहार्य अंग हैं ।
6. क्षेत्रीय प्रसार और ह्रास की यह प्रक्रिया राज्यों के विकास में तीन विशिष्ट प्रकार की प्रवृत्तियों को जन्म देती है । प्रथम, विवर्धन (एन्लार्जमेण्ट) तथा द्वितीय, जनन (रिप्रोडक्शन)- यह दोनों प्रवृतियां साथ-साथ सक्रिय रहती हें ।
एक तीसरी प्रवृत्ति स्थापन (एस्टैब्लिशमेण्ट) की है । इसके अनुसार राज्य की विकास प्रक्रिया में देश की जनसंख्या और उसके भौगोलिक क्षेत्र के बीच का आत्मिक अन्तरसम्बन्ध उत्तरोत्तर और गहन होता जाता है । फलस्वरूप देश की मिट्टी उसके निवासियों के जीवन मूल्यों, आदर्शों तथा मान्यताओं का अभिन्न अंग वन जाती है ।
रैटज़ेल के अनुसार:
पृथ्वी की सतह पर राज्य के क्षेत्रीय विकास की तुलना पादपों के अन्तर्मुखी विकास की प्रक्रिया से की जा सकती है । विकास की इस प्रक्रिया में और उनको पौष्टिकता प्रदान करने वाली मिट्टी के वीच अभिन्नता स्थापित हो जाती है ।
इस दृष्टि से यह मुहावरा कि प्रत्येक राष्ट्र की जडें देश की मिट्टी से गहराई से जुड़ी हैं मात्र अलंकारिक अभिव्यक्ति नहीं अपितु सर्व सत्य कथन है । प्रत्येक राष्ट्र एक जीवन्त इकाई है जो विकास की प्रक्रिया में अपने देसा की मिट्टी से उत्तरोत्तर गहनतर सम्बन्ध में जुड़ता जाता हे ।
जिस प्रकार कोई व्यक्ति किसी खंजर भूखण्ड को अथक परिश्रम और खून पसीना एक करके अपने अस्तित्व का अभिन्न अंग वना लेता है और उस व्यक्ति को उसकी भूमि से अलग करना कठिन हो जाता है, उसी प्रकार राष्ट्र और देश की मिट्टी के बीच के आत्मिक सम्बन्ध को तोड़ना सम्भव नहीं है ।
राज्य की जैविक परिकल्पना:
रैट्ज़ेल के अनुसार राज्यों की प्रकृति और उनका विकास तीन आधारभूत तत्वों पर निर्भर है:
(1) राज्य स्वभाव से ही क्षेत्रीय इकाइयां हैं । वे स्थानिक हैं अत: क्षेत्रीयता उनका अनिवार्य गुण है । इस क्षेत्रीयता के दो पक्ष हैं । पहला इसकी भौतिक स्थिति, तथा दूसरा अन्य राज्यों के सन्दर्भ में इसकी सापेक्षिक स्थिति अथवा परिस्थिति ।
(2) राज्य के निर्माण के दो आधारभूत तत्व हैं उसकी जनसंख्या और उसका भौगोलिक क्षेत्र । इन दोनों के अनिवार्य संयोग तथा उनके उत्तरोत्तर गहनतर होते हुए आत्मिक सम्बन्ध से ही राज्य की राष्ट्रीय पहचान बनती है ।
(3) राज्य सदैव प्रकृति निर्दिष्ट भूखण्ड में प्रादुर्भूत होते हैं । इस भूखण्ड में स्थित किसी प्रारम्भिक क्रोड़ से विकास यात्रा प्रारम्भ कर अपने प्रभाव क्षेत्र का प्रसार करते हुए प्रत्येक राज्य अपने भूखण्ड विशेष की प्राकृतिक सीमाओं को प्राप्त करने की दिशा में निरन्तर प्रयत्नशील रहता है ।
अनेक शक्ति सम्पन्न राज्य शक्ति संचयन की होड़ में अपनी प्राकृतिक सीमाओं को भी पार कर लेते हैं । यही मूलभूत अवधारणा कालान्तर में ”प्राकृतिक सीमाओं” की परिकल्पना का आधार बनी ।
रैट्ज़ेल के अनुसार क्षेत्र प्रसार करना राज्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है क्योंकि विकास की प्रक्रिया में जनसंख्या वृद्धि अवश्यमभावी है, और इस बढ़ती जनसंख्या के जीवनयापन हेतु देश को अतिरिक्त क्षेत्र (अर्थात् साधन स्रोत) की आवश्यकता पड़ती है ।
राज्यों की प्रसारशील प्रवृति के परिणामस्वरूप राजनीतिक सीमाएं सतत परिवर्तनशील विभाजक रेखाएं बन जाती हैं । रैटज़ेल के विचार में विकास की यह प्रवृत्ति प्रकृति सम्मत प्रक्रिया है अत: शाक्तिशाली राज्य द्वारा पडोसी राज्यों की सीमाओं का उल्लंघन न्यायसंगत राजनीतिक व्यवहार है ।
संक्षेप में रैटज़ेल की मान्यता के अनुसार राज्य अस्तित्व रक्षा के संघर्ष में लिप्त स्पर्धाशील इकाइयां हैं । क्षेत्र प्रसार उनकी स्वाभाविक प्रवृति है । अत: राजनीतिक सीमाएं परिवर्तनशील रेखाएं हैं, तथा अस्तित्व रक्षा के इस संघर्ष में शक्तिमान ही विजयी होता है ।
कालान्तर में क्षेत्र प्रसार सम्बन्धी यही अवधारणा जर्मन भूराजनीति की ”शरणस्थान” (लेवेन्सराम) संकल्पना का आधार बनी । रैटज़ेल के अनुसार ”शरणस्थान” वह क्षेत्र है जिसमें कोई प्राणी अपनी विकास प्रक्रिया पूरी करता हैं । इस परिकल्पना का निरूपण रेटजेल ने राष्ट्रीय इकाइयों के जैविक पर्यावास (बायोलाजिकल हैबिटाट) के रूप में किया था जो राज्य की जैविक परिकल्पना के सर्वथा अनुरूप था ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जर्मनी के शासकों ने इस अवधारणा का व्यापक दुरुपयोग किया था अत: विश्वयुद्ध की समाप्ति के पश्चात् भूराजनीति के साथ-साथ ”शरणस्थान” की परिकल्पना को भी भौगोलिक विमर्श के दायरे से निष्कासित कर दिया गया ।
यह दुर्भाग्य द्यी कदम था क्योंकि जैसा अनेक विद्वानों ने रेखांकित किया है वैचारिक दृष्टि से शरण स्थान की संकल्पना एक महत्वपूर्ण अवधारणा थी जो कि वाद में पर्यावरण पारिस्थितिकी के प्रभाव में पुनर्जाग्रत हुई |
अपनी राजनीतिक भूगोल शीर्षक पुस्तक में रैटज़ेल ने राजनीतिक भूगोल को राज्यों का भूगोल, अर्थात् राज्यों के भौगोलिक विश्लेषण, के रूप में प्रतिपादित किया । उसके विचार में राज्य मूलतया जीवन्त क्षेत्रीय इकाइयां थीं ।
परन्तु प्राणिशास्त्र में उच्च शिक्षा प्राप्त रैट्जेल को भली-भांति ज्ञात था कि जैविक उपमा की अपनी सीमा है क्योंकि राजनीतिक इकाइयां विवेकशील मानव समूह का प्रतिनिधित्व करती हैं, परिणामस्वरूप उनके व्यवहार पर अन्तर्भूत सामाजिक आकांक्षाओं और संस्कारों का प्रभाव पड़ता है ।
इसके विपरीत अन्य प्रकार की प्राणिक इकाइयां विवेक शक्ति के अभाव में मशीनी व्यवहार करती हैं । अत: राज्यों ओर अन्य प्राणियों के बीच व्यवहार पद्धति में दिखाई देने वाली समानता को शब्दश: नहीं किया जा सकता था ।
परन्तु एक नई अवधारणा के प्रवर्तक होने के नाते अपनी बात पर जोर देने की प्रक्रिया में रैटज़ेल ने अपनी कृतियों में अनेक स्थानों पर ऐसे वक्तव्य दिए थे जिनसे इस भ्रांतिमूलक धारणा को बल मिला कि अपने व्यवहार पद्धति में राज्य अन्य प्राणिक इकाइयों के ही समान हैं ।
इसी कारण अनेक समालोचकों ने रैटज़ेल की जैविक राज्य सम्बन्धी संकल्पना को भोंडी नियतिवादी अवधारणा बताया । अपनी पुस्तक में रैट्रजेल ने यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया कि किसी भी राज्य की वास्तविक शक्ति उसके क्षेत्रीय विस्तार पर निर्भर है क्योंकि सामरिक शक्ति के विकास के लिए साधन सम्पन्नता आवश्यक है, अत: जिस राज्य का क्षेत्र जितना ही वृहद होगा वहां संसाधन के स्रोत उतने ही उत्तम होंगे ।
रैटज़ेल के अनुसार किसी राज्य के शक्तिशाली बनने की पहली शर्त है कि उसके नागरिक मानसिकता के स्तर पर विशाल स्थानिक संकल्पना (लार्ज स्पेस कंसेप्शन) के पक्षधर हों तथा उनमें राज्य के क्षेत्र प्रसार की आवश्यकताओं और सम्भावना के प्रति जागृति हो ।
राज्य की प्रसारशील अवधारणा के अनुरूप रैटज़ेल ने सीमान्तों को आत्मसात्करण की गतिशील पट्टियों के रूप में चित्रित किया क्योंकि पड़ोसी राज्यों के बीच होने वाले हर शक्ति परीक्षण के परिणामस्वरूप सीमान्त प्रदेश का कोई न कोई हिस्सा एक अथवा दूसरे राज्य द्वारा आत्मसात कर किया जाता है ।
रैटज़ेल के वैचारिक संस्कार:
राजनीतिक भूगोल में रैटज़ेल की विचार पद्धति डार्विन के अतिरिक्त दो अन्य विचारकों की मान्यताओं से निकट से प्रभावित थी । ये थे जर्मन भूगोलविद कार्ल रिट्टर (1779-1859) तथा जर्मन दार्शनिक और इतिहासकार गायफ्रीड वॉन हर्डर (1744-1803) |
रिट्टर के प्रभाव में उन्नीसवीं सदी के अनेक जर्मन भूगोलवेत्ताओं ने समकालीन राजनीतिक समस्याओं का उनकी ऐतिहासिक और भौगोलिक पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में विश्लेषण करने के प्रयास किए थे । रिट्टर द्वारा प्रतिपादित यह विकासपरक (अर्थात् इतिहासपरक) भौगोलिक अध्ययन पद्धति इतिहास के अध्ययन में हर्डर द्वारा प्रतिपादित पद्धति से प्रेरित थी । हर्डर की मान्यता के अनुसार किसी भी देश के इतिहास का सही विश्लेषण उस इतिहास के निर्माताओं की भौगोलिक स्थिति के सन्दर्भ में ही सम्भव है ।
अत: रैटज़ेल की विकासवादी अध्ययन पद्धति रिट्टर ओर हर्डर द्वारा चलायी गई विचार शृंखला की अगली कड़ी थी । रैट्ज़ेल के वैचारिक संस्कार में एक अन्य महत्वपूर्ण योगदान तत्कालीन जर्मनी में सामाजिक इकाइयों के अध्ययन में व्यक्तियों के स्थान पर समष्टियों के विश्लेषण पर जोर देने की प्रवृत्ति का था ।
यही कारण था कि ऐसे समय में जबकि यूरोपीय देशों में भूगोल का अध्ययन मुख्यतया छोटी-छोटी क्षेत्रीय इकाइयों और उनके मानव भूगोल सम्बन्धी पक्षों के विश्लेषण पर केन्द्रित था, आधुनिक वैज्ञानिक मानव भूगोल के मूर्धन्य प्रवर्तक रैट्ज़ेल ने राजनीतिक भूगोल को राज्यों (अर्थात् मानव समष्टियों और उनके भौगोलिक क्षेत्र की परस्पर समग्रता से प्रादुर्भूत वृहद क्षेत्रीय राजनीतिक इकाइयों) के अध्ययन पर केन्द्रित किया ।
अध्ययन की इस क्षेत्रीय व्यापकता के कारण ही राजनीतिक भूगोल का अध्ययन लम्बे समय तक मानव भूगोल की मुख्य धारा से कटा रहा । परन्तु इसके होते हुए भी विषय प्रवर्तन की सामाजिक उपादेयता के कारण राजनीतिक भूगोल भूगोल की सर्वाधिक लोकप्रिय शाखा के रूप में प्रतिष्ठित हो गया । यही कारण था कि उस युग का प्रत्येक अग्रणी भूगोलविद् कम-से-कम आंशिक रूप में अपने को राजनीतिक भूगोल के अध्येता के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए प्रयत्नशील रहा था ।
राजनीतिक भूगोल की इस त्वरित परन्तु दूरगामी लोकप्रियता का मुख्य कारण यह था कि रैटज़ेल द्वारा प्रतिपादित राज्य की जैविक परिकल्पना में तत्कालीन यूरोप में प्रचलित उपनिवेशवादी राज्य के आदर्शरूप का यथार्थवादी निरूपण प्रस्तुत हुआ था ।
यही कारण था कि तत्कालीन राजनीतिक चिन्तन में राजनीतिक भूगोल और राज्य की जैविक (आर्गनिस्मिक) अवधारणा सामान्य विमर्श के अंग बन गए थे । बोमैन, ह्विट्लसी और मैकिंडर ने भी अपने लेखों में अनेक स्थानों पर “आर्गनिज़्म” शब्द का बहुधा प्रयोग किया था ।
सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर मैकिंडर की हृदय स्थल परिकल्पना रैटज़ेल द्वारा प्रतिपादित जैविक राज्य की परिकल्पना का ही अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के विश्लेषण के सन्दर्भ में किया गया एक सफल प्रयोग था ।
राजनीति सम्बन्धी रैटज़ेल की त्रुटिपूर्ण अवधारणा:
एक प्राणिवैज्ञानिक होने के नाते रेटजेल मानवशास्त्रीय और समाजशास्त्रीय अध्ययन पद्धति से प्राय: अनविज्ञ थे । यही कारण था कि लेखक को राज्यों ओर प्राकृतिक जेविक इकाइयों में व्यवहार में सादृश्यता स्थापित करने के प्रयास में किसी प्रकार की विसंगति का आभास नहीं हुआ तथा उसने अन्य जैविक इकाइयों की भांति राज्यों को भी भौतिक वातावरण, अर्थात् उनकी मिट्टी की शाश्वत शक्ति (इटर्नल पॉवर ऑफ द स्वायल) के परिणाम के रूप में निरूपित किया ।
ऐसी नियतिवादी जैविक परिदृष्टि के अन्तर्गत नैतिकता और मानवीय मूल्यों के लिए कोई स्थान नहीं था । यह बात लेखक के निम्नलिखित कथन से स्पष्ट है ”सही और यथार्थमूनक राजनीति सदा ही भौगोलिक अवस्थाओं पर आधारित होती है । राज्य के भौगोलिक क्षेत्र और उनमें निहित संसाधन देश के आत्मगोरव की भावना के मुख्य आधार हैं” ।
परन्तु रैटजेल द्वारा प्रतिपादित राज्य की जैविक परिकल्पना तत्कालीन यूरोप के सन्दर्भ में सर्वथा यथार्थमूलक परिकल्पना थी, इसीलिए समाजशास्त्रीय मान्यताओं की दृष्टि से त्रुटिपूर्ण होने के उपरान्त भी रैटजेल की इस अवधारणा और उस पर आधारित राजनीतिक भूगोल को इतनी व्यापक लोकप्रियता प्राप्त हुई ।