Read this article in Hindi to learn about the fifty years of confederation rule in India.
राजनीतिक दल व्यवस्था:
अनेक विद्वानों ने इस बात पर जोर दिया है कि परिसंघ व्यवस्था की निरन्तरता तथा उसका स्थायित्व मूलतया किसी देश के राजनीतिक दलों के स्वरूप और उनके जन समर्थन के क्षेत्रीय प्रारूप पर निर्भर है ।
देश के मुख्य राजनीतिक दल जितने ही व्यापक क्षेत्रीय समर्थन वाले होंगे देश की प्रशासनिक व्यवस्था उतनी ही संतुलित होगी तथा राष्ट्र के विकास में उसी अनुपात में क्षेत्रीय संतुलन आएगा ।
परिणामस्वरूप केन्द्र तथा राज्यों के परस्पर सम्बन्ध तथा उनके बीच होने वाला अन्तरक्षेत्रीय संचार एक ही स्तर के होगे । देश की सभी क्षेत्रीय इकाइयां राष्ट्रीय सत्ता के केन्द्रीय आदर्शों के प्रति आस्थावान होंगी । इसके विपरीत यदि मुख्य राजनीतिक दलों का जनसमर्थन भौगोलिक दृष्टि से देशव्यापी न होकर कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित हो तो केन्द्रीय शासन के प्रति सभी क्षेत्रों के आस्था भाव के पूर्णतया समर्पित होने की संभावना बहुत कम हो जाएगी और क्षेत्रीय संतुलन में ह्रास आएगा ।
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परिणामस्वरूप केन्द्रीय सरकार की लोकतांत्रिक वैधता प्रभावित होगी, केन्द्र और राज्यों के सम्बन्धों में तनाव आएगा तथा अलगाववादी प्रवृतियों को बढ़ावा मिलेगा । भारत इसका अच्छा उदाहरण है । वास्तव में भारत की परिसंघ व्यवस्था के स्थायित्व का पचास वर्षों का इतिहास देश में राजनीतिक दलों, विशेषकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विकास और पराभव का इतिहास है । अत: इस इतिहास की संक्षिप्त समीक्षा आवश्यक है ।
कांग्रेस के विकास के इतिहास को कुछ सुनिश्चित चरणों में विभक्त किया जा सकता है:
(1) 1947 से 1977 तक,
(2)1967 से 1977 तक,
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(3)1977 से 1989, तथा
(4) 1989 से 1998 तक ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले बीस वर्षो में स्वतंत्रता संग्राम के दौर में उत्पन्न राष्ट्रीय एकता और परस्पर भाई-चारा की भावना यथावत बनी रही थी । केन्द्रीय तथा क्षेत्रीय दोनों ही स्तरों पर देश का शासन स्वतंत्रता सेनानियों के नेतृत्व में था ।
पूरे देश में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एक मात्र प्रभावी राजनीतिक दल था ओर केन्द्रीय तथा क्षेत्रीय दोनों ही स्तरों पर पूरे देश में कांग्रेस का एक छत्र राज्य था । अत: क्षेत्र-राज्य सम्बन्धों में किसी प्रकार के दरार की सम्भावना नहीं थी, इसलिए और कि स्वतंत्रता संग्राम के दिनों से ही कांग्रेस पार्टी का केन्द्रीय ”हाईकमान” पूरे देश के लिए पार्टी का केन्द्रीय ”कमान” था ।
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साथ ही तत्कालीन कांग्रेस पार्टी लोकतांत्रिक मूल्यों पर संरचित पार्टी थी । अत: विभिन्न क्षेत्रों के मुरन्य मंत्री अपने-अपने राज्य के शीर्षस्थ और क्षेत्रीय स्तर पर व्यापक जन समर्थन वाले राजनेता थे जिन्हें हाईकमान अनुशासित तो रख सकता था परन्तु जिनकी वाणी को वह दबा नहीं सकता था ।
परिणामस्वरूप कांग्रेस के एक छत्र राज्य के कारण केन्द्रीयकरण की सर्वव्यापी प्रवृति के बावजूद प्राय सभी राज्यों में क्षेत्रीय प्रशासन व्यवहार के स्तर पर सर्वविधि स्वायत्त था । इस युग को नेहरू युग कहा जा सकता है । इस युग की दल व्यवस्था को कांग्रेस व्यवस्था अथवा ”कांग्रेस सिस्टम” के नाम से जाना जाता है ।
व्यावहारिक स्तर भारत के परिसंघ शासन के प्रथम बीस वर्ष प्रभावी प्रतिपक्ष विहीन तथा कांग्रेस की राजनीतिक सर्वोच्चता का युग था । सैद्धांतिक दृष्टि से यह व्यवस्था परिसंघ व्यवस्था की द्विस्तरीय निर्णय व्यवस्था की मूल आत्मा के अनुरूप नहीं थी ।
परन्तु इसके होते हुए भी नेहरू युग स्वतंत्र भारत के इतिहास में अनेक अर्थो में परिसंघ शासन का स्वर्ण युग था, ओर केन्द्र की सर्वव्यापी सर्वोच्चता के साथ राज्यों की स्वायत्तता पूर्णतया सुरक्षित और प्रभावी थी । आर्थिक और सामाजिक नियोजन द्वारा संतुलित विकास की दिशा में देश प्रभावी रूप में अग्रसर था ।
जवाहर लाल नेहरू के देहावसान के साथ ही देश की राजनीतिक व्यवस्था में तुत गति से परिवर्तन आया । 1967 के आम चुनाव के बाद यद्यपि केन्द्र में कांग्रेस की सरकार यथावत् बनी थी परन्तु छह भिन्न-भिन्न राज्यों में प्रतिपक्ष की मिली जुली सरकारें सत्ता में आ गई थीं । कांग्रेस हाईकमान का प्रभाव द्रुत गति से घटने लगा था ।
अनेक राज्यों में इसके विधायक पार्टी से अलग होकर प्रतिपक्ष के साथ मिलकर सरकार चलाने में सहयोग करने लगे थे । इस प्रकार 1967 कांग्रेस की सर्वोच्चता के अवसान का वर्ष था । दो वर्ष बाद केन्द्रीय स्तर पर पार्टी में विभाजन हो गया यद्यपि केन्द्र में शासन की बागडोर इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के हाथ में बनी रही ।
श्रीमती गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी में आन्तरिक लोकतंत्र द्रुत गति से समाप्त हो गया । राज्यों के मुख्य मंत्री केन्द्रीय नेतृत्व द्वारा नियुक्त किए जाने लगे न कि पहले की तरह सवीधिक क्षेत्रीय जनाधार के आधार पर । परिणामस्वरूप क्षेत्रीय प्रशासन का प्रभावीपन तथा केन्द्र और राज्य के अन्तरसंबंधों में गुणात्मक अन्तर आया ।
जनाधारहीन मुख्य मंत्री क्षेत्रीय स्वायत्तता की सुरक्षा करने में अक्षम थे क्योंकि केन्द्रीय नेतृत्व की अनुकम्पा से सत्ता हासिल करने वाले मुख्य मंत्री केन्द्रीय नेतृत्व की इच्छा के विपरीत नहीं बोल सकते थे । 1971 के चुनाव में श्रीमती गांधी के नेतृत्व को पूरे देश में व्यापक जनसमर्थन मिलने के साथ ही पाटी में आन्तरिक लोकतंत्र पूरी तरह समाप्त हो गया । तृणमूल स्तर पर पार्टी जनता से कट गई ।
परिणामस्वरूप सभी राज्यों में स्थानीय स्तर पर कांग्रेसी नेतृत्व तथा उसकी नीतियों के प्रति असंतोष पनपने लगा । क्षेत्रीय स्तर के इन असंतोषों को लोकनायक जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्तर पर एक जुट होने का अवसर मिला ।
केन्द्रीय सरकार ने प्रतिपक्ष के बढ़ते जन समर्थन को दबाने के लिए दमनकारी नीतियों का सहारा लिया । जून 1975 में आपात की घोषणा कर दी गई । सभी प्रतिपक्षी नेता हिरासत में ले लिए गए । लोकतांत्रिक अधिकार समाप्त कर दिए गए ।
परन्तु स्थिति उत्तरोत्तर बिगड़ती ही गई । अन्तत आन्तरिक और अन्तरराष्ट्रीय आलोचना के दबाव में आपाए के समाप्त कर आम चुनाव कराने की घोषणा की गई । स्वतंत्रता प्राप्ति के वाद से ही निरन्तर चुनाव जीतते रहने के बावजूद कांग्रेस पाटी का कुल जनसमर्थन हमेशा ही विपक्षी पार्टियों के सम्मिलित जनसमर्थन से कम था ।
अत: 1977 में प्रतिपक्ष के जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में कांग्रेस विरोधी खेमे में एक जुट होकर जनता पाटी के नाम से चुनाव मैदान में उतरने से मार्च 1977 के आम चुनाव मे कांग्रेस बुरी तरह पराजित हो गई । भारत के इतिहास में 1967 से 1977 के दस वर्ष अनेक अर्थो में परिसंघ व्यवस्था के प्रदूषण के वर्ष थे ।
इस अवधि में लोकतांत्रिक मूल्यों में व्यापक गिरावट आई; क्षेत्रीय स्वायत्तता पर व्यापक प्रहार हुआ, दलीय राजनीति के तौर तरीकों में गिरावट आई, राष्ट्रीय दलों का अवसान हुआ तथा क्षेत्रीय दलों तथा जात-पात के आधार पर राजनीतिक गुट बंदी का दोर प्रारम्भ हुआ जिससे राष्ट्रीय संचेतना विच्छिन्न हुई ।
1979 में जनता सरकार के गिरने तथा पार्टी के अनेक घटकों में बंट जाने के साथ ही यह प्रवृत्ति ओर भी सुदृढ़ हो गई । जनता पाटी कांग्रेस का विकल्प नहीं बन सकी । प्रतिपक्षी राजनीति के लिए यह अपने आप में एक अशुभ लक्षण था ।
दूसरी ओर कांग्रेस की व्यापकता सीमित हो गई । परिणामस्वरूप देश की राजनीति में क्षेत्रीय पार्थक्य ओर विकेन्द्रीकरण का आरम्भ हुआ, राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय स्तर की राजनीतिक संचेतना में अलगाववादी प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला, ओर देश की केन्द्रीकृत परिसंघ व्यवस्था उपान्तीकरण के मार्ग पर अग्रसर हो गई ।
इसका सबसे स्पष्ट प्रमाण 1980 के दशक में क्षेत्रीय दलों की संख्या में वृद्धि तथा उत्तर भारत में जनता दल का जात-पात के आधार पर अनेक गुटों में विभाजन के रूप में उपलब्ध है । इससे राजनीतिक दल व्यवस्था में गिरावट आई तथा राजनीति उत्तरोत्तर आदर्शहीन होती चली गई ।
फलस्वरूप 1979 में जनता पार्टी के प्रयोग के पूरी तरह से असफल हो जाने के बाद 1980 के चुनाव में अपनी सारी कमियों के बावजूद श्रीमती गांधी की कांग्रेस लोगों को एकमात्र विकल्प प्रतीत हुई । परन्तु कांग्रेस शासन के इस नए दोर में स्थिति बद से बदतर होती गई ।
पुरानी नीतियां जारी रहीं, और क्षेत्रीय स्वायत्तता का हनन होता रहा । इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी को सहानुभूति मत का लाभ मिला । साथ ही विपक्ष के बुरी तरह विभक्त होने के कारण चुनाव में कांग्रेस पार्टी को अप्रत्याशित सफलता प्राप्त हुई । परिणामस्वरूप राजीव गांधी के नेतृत्व में केन्द्रीकरण में ओर भी वृद्धि हुई ।
क्षेत्रीय स्वायत्तता पर प्रहार होता रहा । परिणामस्वरूप राजनीतिक संचेतना में क्षेत्रीय विभाजन की प्रवृत्ति और भी प्रबल हुई । इन बातों का सम्मिलित परिणाम यह हुआ कि 1989 के चुनाव में कांग्रेस लोक सभा में बहुमत नहीं प्राप्त कर सकी और तब से आज तक किसी भी लोक सभा चुनाव में किसी दल को अपने बलबूते पर बहुमत नहीं मिल सका है । यह देश में राजनीतिक चेतना की बढ़ती हुई विच्छिन्नता का प्रमाण है ।
1991 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी बहुमत न प्राप्त करने के बावजूद सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी तथा जोड़-तोड़ के आधार पर कांग्रेस की सरकार पांच वर्षों तक शासन करती रही थी । परन्तु 1996, 1998 तथा 1999 के चुनावों में कांग्रेस को सबसे बड़ी पार्टी का गौरव भी प्राप्त नही हो सका ।
यह ”कीर्ति” अब भारतीय जनता पार्टी को प्राप्त है । 1996 के चुनाव के साथ ही प्रशासनिक निर्णय की दृष्टि से भारत एक केन्द्र प्रधान संघ होने के स्थान पर क्षेत्र प्रधान संघ बन गया हैं । केन्द्र में मिली ली सरकारों की स्थापना के साथ ही क्षेत्रीय दलों को नया बल मिला है ।
वे राज्यों के साथ केन्द्र में भी शासक गुट के महत्वपूर्ण अंग बन गए हैं । इस प्रकार संघ उत्तरोत्तर उपान्तीकरण की ओर अग्रसर है । ध्यातव्य है कि 1977, 1989, 1996, 1998 तथा 1999 की पांचों की पांचों सरकारें मिली जुली सरकारें थीं । परन्तु 1996 के पहले की दोनो मिली जुली सरकारें राष्ट्रीय दलों की अथवा राष्ट्रीय दलों द्वारा समर्थित सरकारें थीं ।
समस्याओं को देखने का उनका तोर तरीका अखिल भारतीय राष्ट्रीय हितों से प्रेरित था । 1996 की सरकार मूलतया क्षेत्रीय आधार पर बनी क्षेत्रीय मूल्यों वारने दलों की सरकार थी । परिणामस्वरूप केन्द्रीय सरकार की नीतियों में केन्द्रीय परिदृष्टि के स्थान पर परस्पर प्रतिस्पर्धी क्षेत्रीय परिदृष्टियां हाबी हो गई, विशेषकर इसलिए और भी कि सही अर्थो में अखिल भारतीय जनाधार वाले दोनों ही राष्ट्रीय दल, भारतीय जनता पार्टी तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, सरकार से बाहर थे ।
1998 में मुख्य अन्तर यह आया कि सरकार लोक सभा के सबसे बड़े राजनीतिक दल के नेतृत्व वाली सरकार थी । अत: केन्द्रीय सरकार की परिदृष्टि राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य से प्रेरित परिदृष्टि थी क्योंकि मुख्य शासक दल भविष्य में अपने अकेले बूते पर केन्द्र सरकार बनाने का सपना देखता है तथा उस दिशा में उत्तरोत्तर प्रगतिशील है ।
भारतीय जनता पार्टी तथा उसके कुछ सहयोगी दलों के बीच समय-समय पर उभरने वाला तनाव उनके बीच इसी दृष्टि भेद का परिणाम है । 1996-97 में उत्तर प्रदेश में धारा 356 के अधीन केन्द्र सरकार का दृष्टिकोण, तथा 1998 में श्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार का तमिलनाडू में राष्ट्रपति शासन लगाने से मना करना दो भिन्न-भिन्न प्रकार की मिली जुली सरकारों के मूलभूत स्वरूप के अन्तर का प्रमाण था ।
अखिल भारतीय जन समर्थन वाले राष्ट्रीय दल के नेतृत्व में मिली जुली सरकार का बनना देश के राजनीतिक स्वास्थ्य के लिए शुभ लक्षण हैं । 1999 में श्री अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबन्धन को मिला व्यापक समर्थन इस बात का प्रमाण है कि देश के मतदाताओं ने इस प्रकार की सरकार के गठन के महत्व को पहचाना है । इस आधार पर भविष्य में दो प्रधान पार्टियों वाली दल व्यवस्था के स्थापित होने की संभावना दिखाई पड़ती है ।
परिसंघ की कुछ ज्वलंत समस्याएं:
(i) राजनीतिक विकेन्द्रीकरण:
कांग्रेस पार्टी का देश के मुख्य राजनीतिक दल तथा केन्द्र में शासन करने में सक्षम एकमात्र दल के रूप में विस्थापित हो जाने के पश्चात्, तथा लम्बी अवधि तक उसका कोई स्पष्ट विकल्प न मिलने के कारण देश की राजनीतिक स्थिति डावांडोल है ।
केन्द्रीय सरकार के प्रभाव में हुत गति से आए ह्रास के परिणामस्वरूप देश के अन्दर स्थानीय तथा क्षेत्रीय पहचानें उत्तरोत्तर अधिक मुखर हुई हैं । परिणामस्वरूप क्षेत्रीय तथा स्थानीय स्तर की प्रशासनिक संस्थाओं में राजनीतिक तौर पर जागरूक स्थानीय गुटों के प्रभाव में वृद्धि हुई है ।
परन्तु यह बदलाव किसी योजनाबद्ध नीति का परिणाम नहीं है । इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक विकेन्द्रीकरण की समस्या पर व्यापक विमर्श नितान्त आवश्यक है जिससे कि केन्द्रीय सर्वोच्चता और क्षेत्रीय स्वायत्तता के बीच सही संतुलन स्थापित हो सके अन्यथा परिसंघ में विघटनकारी शक्तियां बलवान हो सकती हैं ।
राष्ट्रीय दलों के उत्तरोत्तर घटते वर्चस्व तथा क्षेत्रीय तथा जातीय पाटियों के केन्द्रीय स्तर की राजनीति में बढ़ती हिस्सेदारी का परिणाम यह हुआ है कि इन छोटी-छोटी पार्टियों के नेताओं को देश की विघटित होती दलगत राजनीति में ही अपना हित दिखने लगा है यदि सब कुछ इसी प्रकार से चलता रहा तो राष्ट्रीय एकता संकट में पड़ जाएगी ।
परन्तु यदि भारतीय जनता पाटी के नेतृत्व वाली सरकार का वर्तमान प्रयोग स्थायी सिद्ध होता है तो स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन आ सकता है क्योंकि उस स्थिति में बहुत सम्भव है कि देश की दलीय राजनीति तीन अलग-अलग दलों अथवा स्थायी गठबंधनों में विभक्त हो जाए, या कम से कम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा भारतीय जनता पार्टी स्थायी रूप से केन्द्रीय स्तर पर सत्ताधिकार के परस्पर प्रतिस्पर्धी विकल्प बन जाए । ऐसा होने पर देश की व्यवस्था में केन्द्रीय वर्चस्व के साथ-साथ क्षेत्रीय स्वायत्तता को बढ़ावा मिलेगा तथा राष्ट्र का राजनीतिक जीवन अधिक संतुलित हो सकेगा ।
(ii) त्रिस्तरीय परिसंघ:
इस संदर्भ में ध्यातव्य है कि संविधान के 73वें तथा 74वें संशोधन के परिणामस्वरूप भारत की शासन व्यवस्था द्विस्तरीय के स्थान पर सही अर्थों में त्रिस्तरीय व्यवस्था बन गई है । परिणामस्वरूप स्थानीय राजनीतिक चेतना में देशव्यापी राष्ट्र भाव की जागृति की सम्भावनाएं बढ़ गई हैं ।
यदि ग्राम पंचायतों तथा नगरपालिकाओं को कालान्तर में वांछित स्तर की प्रभावी स्वायत्तता प्राप्त हो जाती है तथा ग्रामों के स्तर पर जनतांत्रिक मूल्यों का प्रसार बढ़ता है, अर्थात् जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली व्यवस्था समाप्त हो जाती है, तो राष्ट्रीय जीवन में दूरगामी परिवर्तन आ सकते हैं ।
ग्रामों के स्तर पर स्वतंत्र राजनीतिक चिन्तन की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा और पंचायतों की वित्तीय स्वायत्तता के परिणामस्वरूप स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर पर प्रभावशाली राजनेताओं द्वारा जनता को जात-पात के आधार पर गोलकक्त करने की शक्ति में ह्रास आएगा ।
इससे तृणमूल स्तरीय राजनीति में विवेकशीलता के संचार की सम्भावना बढ़ेगी । ऐसा होने पर अखिल भारतीय स्तर के राष्ट्रीय दलों को लाभ मिलेगा । परन्तु इससे कांग्रेस पार्टी के इन्दिरा गांधी वाले दिन वापस नहीं आ सकेंगे क्योंकि जागरूक स्थानीय मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करने के लिए राष्ट्रीय पार्टियों की तृणमूल स्तरीय अपेक्षाओं के प्रति सतत् सतर्क रहना आवश्यक होगा । इस स्थिति में कार्यकर्ताओं वाली (काडर) पार्टियों के विकास की सम्भावना बढ़ेगी ।
(iii) उत्तरोत्तर बढ़ता अन्तरक्षेत्रीय आर्थिक असंतुलन:
परिसंघ व्यवस्था का एक प्रमुख उद्देश्य देश के आर्थिक विकास में अन्तरक्षेत्रीय संतुलन स्थापित करना है । इस दिशा में भारत की प्रगति संतोषजनक नहीं रही है । पिछले दस वर्षो में आर्थिक उदारीकरण की दिशा में किए गए सुधारों (नीति परिवर्तनों) के परिणामस्वरूप यह स्थिति और भी चिन्ताजनक हो गई हे ।
इन ”सुधारों” के फलस्वरूप सत्ताधिकार केन्द्र से राज्यों के पक्ष में स्थानांतरित हुआ है । औद्योगिक विकास के क्षेत्र में केन्द्रीय नियंत्रण में दी गई ढील के परिणामस्वरूप अब केवल आठ ऐसे उद्योग हैं जिनकी इकाइयां खोलने के लिए केन्द्र की अनुमति आवश्यक है ।
शेष सभी उद्योगों के लिए राज्य सरकारों को स्वतंत्र निर्णय का अधिकार प्राप्त हो गया है । फलस्वरूप राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय पूंजी निवेश अब क्षेत्रीय स्तर की सरकारों नेप अधिकार क्षेत्र में आ गया है । परिणामस्वरूप देश की क्षेत्रीय राजनीतिक इकाइयां परस्पर प्रतिद्वंद्वी आर्थिक इकाइयां बन गई हैं ।
इस होड़ में औद्योगिक दृष्टि से अधिक विकसित और आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न राज्यों का पक्ष और भी सुदृढ़ हुआ हैं क्योंकि इन क्षेत्रों में विकास के लिए आवश्यक अवसंरचना पहले से ही वर्तमान हें अत पूंजी निवेशक उन्हीं क्षेत्रों की ओर आकर्षित होते हैं ।
परिणामस्वरूप अन्तरक्षेत्रीय आर्थिक विषमता में वृद्धि हुई है क्योकि अधिकांश नए पूंजी निवेश अपेक्षाकृत अधिक विकसित महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, गोवा, तमिलनाडु तथा आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में ही हो रहे हैं । इसी प्रकार अवसंरचना (इन्फ्रास्ट्रक्चर) क्षेत्र में विकास हेतु राज्यों के पक्ष में अधिकार हस्तान्तरण के परिणामस्वरूप अब विभिन्न राज्य अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं से सीधे ऋण प्राप्त करने लगे हैं ।
इसके परिणामस्वरूप क्षेत्रीय स्तर के नियोजन में केन्द्र का प्रभाव कम हुआ है और साथ ही अन्तरराष्ट्रीय पूंजी का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ रहा है । इससे अन्तरक्षेत्रीय विषमता में और वृद्धि होगी । 1996 में देश में सबसे अधिक विकास दर वाले सात राज्य क्रमश इस प्रकार थे तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, अरुणाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, तथा असम ।
अरुणाचल प्रदेश के अतिरिक्त इन सभी में क्षेत्रीय दलों का राज्य है । कुछ विद्वानों ने इस आधार पर निष्कष निकाला है कि राज्यों के बढ़ते आर्थिक वर्चस्व से क्षेत्रीय दलों को बढ़ावा मिला है । परन्तु इस संकल्पना की सत्यता संदिग्ध है । कम से कम इतना तो निश्चित ही है कि क्षेत्रीय दलों की वर्चस्वता और विकास दर में अन्योन्याश्रयी सम्बन्ध नहीं है । बिहार इसका स्पष्ट प्रमाण है ।
(iv) अनुच्छेद 356:
संविधान के इस अनुच्छेद के अनुसार यदि राष्ट्रपति को राज्य के राज्यपाल से प्राप्त प्रतिवेदन के आधार पर यह विश्वास हो जाता है कि राज्य का शासन संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता तो वहां राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से इस धारा का अनेक बार प्रयोग हुआ है तथा अधिकांश अवसरों पर इस धारा का प्रयोग केन्द्रीय सरकार द्वारा प्रतिपक्षी दलों की राज्य सरकारों को गिराने के उद्देश्य से प्रेरित था । अत: अधिकांश राजनीतिक दल इस धारा को समाप्त करने की मांग करते रहे हैं । परन्तु सामाजिक अनेकता मूलक क्षेत्रीय इकाइयों में सामाजिक-राजनीतिक अशांति तथा संवैधानिक शासन तंत्र के विफल होने की सम्भावना बहुधा बनी रहती है ।
परिणामस्वरूप राष्ट्रीय एकता और शांति व्यवस्था के लिए इस अनुच्छेद का बने रहना आवश्यक प्रतीत होता है । परन्तु इस धारा को बनाए रखने के लिए समाज मे व्याप्त इस धारणा को दूर करना आवश्यक है कि प्रान्तीय इकाइयों के राज्यपाल निष्पक्ष अधिकारी न होकर राज्यों में केन्द्रीय शासक दल के अभिकर्त्ता हैं ।
इस धारा का दुरुपयोग रोकने के लिए दो उपाय हैं । एक, राज्यपाल की नियुक्ति को शासक दल के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा जाए तथा इस पद पर दलगत राजनीति से असम्बद्ध और निष्पक्ष विचार वाले सक्षम व्यक्तियों की नियुक्ति की जाए । दूसरा, राष्ट्रपति शासन लागू करने के पहले अन्तरराज्यीय परिषद का अनुमोदन प्राप्त करना अनिवार्य कर दिया जाए ।
केन्द्र में एक ही दल की बहुमत सरकार का दौर समाप्त हो जाने के कारण 1996 के बाद से धारा 356 के अन्तर्गत राज्य सरकारों को निरस्त करना उत्तरोत्तर बहुत कठिन (और प्राय असम्भव) हो गया हैं क्योंकि एस.आर. बोम्मई के नेतृत्व वाली कर्नाटक की सरकार के निरस्त करने के निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक ठहराए जाने के बाद से इस विषय पर सरकारिया कमीशन की संस्तुतियां संवैधानिक व्यवस्था के रूप में प्रतिष्ठित हो गई हैं ।
धारा 356 के दुरुपयोग को रोकने के लिए सरकारिया कमीशन ने अनेक देसी स्थितियों की गिनती की है जिनके होते हुए भी किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन नहीं लगाया जा सकता:
(1) कुशासन की शिकायत वशर्ते सरकार बहुमत में हो,
(2) एक सरकार के पतन के बाद दूसरी वैकल्पिक सरकार के गठन में राज्यपाल की विफलता के कारण हुई देर,
(3) लोक सभा चुनाव में शासक दल की हार,
(4) आन्तरिक अशांति जो केन्द्र द्वारा धारा 355 के प्राविधान के अन्तर्गत नियंत्रित नहीं की जा सकी है,
(5) धारा 256 और 257 के अन्तर्गत केन्द्र द्वारा राज्य सरकार को अनुदेश न दिए जाने की स्थिति में,
(6) वित्तीय घोटालो के आधार पर,
(7) वित्तीय आपातकाल की स्थिति,
(8) शासक दल में फूट पड़ने की स्थिति में ।
अर्थात् एक निकम्मी सरकार का केन्द्र द्वारा निरस्त्रीकरण प्राय असम्भव सा हो गया है और धारा 356 एक ऐसा प्राविधान बन गया है जिसे शायद ही कभी लागू किया जा सके । 1998-1999 में बिहार में राष्ट्रीय शासन लगाने और उसे पुन: वापस लेने की घटना से यह भली प्रकार स्पष्ट है ।