Here is an essay on the state and how it is formed especially written for school and college students in Hindi language.
राज्य:
राज्य आधुनिक जीवन का सार्वभौम सत्य है परन्तु इसकी सर्वमान्य परिभाषा देना सरल नहीं हैं । विद्वानो ने इसे अलग-अलग दृष्टि से परिभाषित करने का प्रयास किया है परिणामस्वरूप उनके द्वारा प्रतिपादित परिभाषाएं परस्पर भिन्न हैं ।
राज्य दीर्घ कालिक ऐतिहासिक प्रक्रिया के परिणाम हैं । अत इनका स्वरूप और इनके कार्य, समय और स्थान के संदर्भ से सतत् परिवर्तनशील हैं, अत: राज्य की परिभाषा काल और स्थान सापेक्ष है । विगत दो सो वर्षो में यूरोपीय देशों के उपनिवेशीय विस्तार के परिणामस्वरूप सम्पूर्ण विश्व न्यूनाधिक रूप में यूरोपीय तकनीक और यूरोपीय सांस्कृतिक और राजनीतिक मूल्यों के प्रभाव में आ गया ।
फलस्वरूप ”यथा राजा तथा प्रजा” के नियमानुसार यूरोपीय प्रशासनिक व्यवस्था और यूरोपीय राजनीतिक आदर्श परतंत्र उपनिवेशीय इकाइयों के वास्तविक सत्य बन गए । द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् क्षेत्रीय उपनिवेशवाद के अवसान और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी कुछ कारणों से स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया क्योंकि उपनिवेशवाद के पराजय की लड़ाई यूरोपीय उदारवादी राजनीतिक मूल्यों द्वारा प्रेरित थी, तथा यह लड़ाई सम्बद्ध उपनिवेशों के यूरोपीय उपनिवेशक देश के गृह प्रदेश में प्रचलित व्यवस्था के अनुरूप बनाने के लिए लड़ी गई थी ।
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उत्तर-उपनिवेशवादी दौर में विश्व की राजनीतिक और आर्यिक व्यवस्था का हुत गति से वैश्वीकरण हुआ । इसके प्रभाव में देशों की राजनीतिक व्यवस्था ओर उनके मूल्यबोध में एकरूपता उत्तरोत्तर बढ़ती गई । इन तत्वों के सम्मिलित प्रभाव में राज्य की यूरोपीय संकल्पना विश्वव्यापी आदर्श बन गई ।
अनेक विचारकों ने राज्य की यूरोपीय संकल्पना को राज्य का प्रतिमान मानते हुए उसकी आदर्शमूलक नटिन परिभाषाएं प्रस्तुत की हैं । इन परिभाषाओं का मुख्य उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि राज्य को कैसा होना चाहिए न कि राज्य क्या है ।
आदर्शमूलक विमर्श की यह मूलभूत मान्यता है कि मानव सभ्यता का क्रमिक विकास एक आदर्श स्थिति की प्राप्ति की ओर उन्मुख विकास प्रक्रिया का इतिहास है और राज्य की यूरोपीय संकल्पना इस आदर्श स्थिति का प्रतिनिधित्व करती है ।
इस मान्यता के अनुरूप राज्य के विकास की प्रक्रिया सार्वभौम प्रक्रिया है । जहां यूरोप में यह विकास प्रकिया अपना लक्ष्य प्राप्त कर चुकी है अन्यत्र यह प्रक्रिया अभी चालू है । यूरोपीय संकल्पना आज अनेक कारणों से राज्य के स्वरूप की प्राय सर्वमान्य संकल्पना बन चुकी है ।
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जीवन के सभी पक्षों में सामाजिक विकास की प्रक्रिया समय और स्थान सापेक्ष है इसलिए सभ्यता के विकास के बारे में किसी प्रकार की विश्वव्यापी एकरूपता की खोज का प्रयास भ्रांतिमूलक है । एक महत्वपूर्ण सामाजिक संगठन की इकाई के रूप में राज्य समाज की काल और स्थान सापेक्ष आवश्यकताओं के समाधान की दिशा में किए गए दीर्घकालिक प्रयासों ओर प्रक्रियाओं का परिणाम है ।
अत: इसके विकास का इतिहास अलग-अलग क्षेत्रों में पृथक-पृथक रहा है, यद्यपि विश्व इतिहास के आधुनिक दौर में भूमण्डलीकरण की व्यापक प्रक्रिया के प्रभाव में राज्य के स्वरूप में अधिकाधिक एकरूपता आई है । परन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि आज सभी देशों में राज्य का स्वरूप एक जैसा है । मानव मस्तिष्क एक जटिल इकाई है, जो सदा स्थानीय इतिहासजन्य मूल्यों की अंतर्निहित स्मृति और उनके प्रति लगाव से प्रभावित होता है ।
इसी लिए बढ़ती हुई एकरूपता के बाद भी भिन्न-भिन्न देशों में राजनीतिक मूल्य और व्यवहार पद्धति एक दूसरे से इतने भिन्न हैं । यही कारण है कि अपनी अन्यतम सामाजिक विविधताओं के बावजूद भारत विश्व का सबसे बड़ा और जनतांत्रिक मूल्यों की दृष्टि से अत्यधिक स्थायी गणतंत्र हैं ।
इस स्थायित्व का रहस्य हमारे सांस्कृतिक इतिहास तथा हमारे जनमानस में युग-युगान्तर से चली आ रही वसुधैव कुटुम्बकम की दार्शनिक आस्था में निहित है । इसके विपरीत पश्चिमी एशिया तथा दक्षिण-पूर्वी और पूर्वी एशिया के इस्लामी और चीनी संस्कृति वाले देशों में जनतंत्र सही अर्थ में पनप नहीं सका है ।
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इस दृष्टि से भारत और पाकिस्तान की तुलना महत्वपूर्ण है । यूरोपीय देशों का राजनीतिक इतिहास विश्व के अन्य देशों से इतना भिन्न है कि यूरोपीय राज्य की विकास प्रक्रिया को सार्वभौमता का जामा पहनाना त्रुटिपूर्ण होगा ।
राज्य की संकल्पना का ऐतिहासिक विकास:
राज्य आधुनिक जीवन का सर्वव्यापी सत्य बन गया है अत: बहुधा भ्रांति होती है कि राज्य युग युगान्तर से चली आ रही व्यवस्था है । वास्तव में राज्य अपेक्षाकृत एक नई सामाजिक कृति है जिसके वर्तमान स्वरूप का प्रारम्भ मात्र दो शताब्दी पुराना हे ।
यह पूरी तरह से आधुनिक युग के इतिहास की उपज है । इस इतिहास का प्रारम्भ पन्द्रहवीं और सोलहवी सदी के यूरोपीय पुनर्जागरण तथा धार्मिक-सांस्कृतिक सुधारों के साथ हुआ था । इसकी परिणति अट्ठारहवीं सदी की ज्ञानोदिप्ति (एनलाइटमेण्ट) में हुई थी तथा 1780 के दशक की औद्योगिक क्रांति, और 1789 की फ्रांसीसी क्रांति इसके प्रत्यक्ष परिणाम थे ।
इन्हीं सामाजिक-वैचारिक हलचलों ने ”यूरोपीय शताब्दी” (1815-1914) की नींव डाली थी । सौ वर्षो की यह अवधि विश्व भर में यूरोपीय वर्चस्व, यूरोपीय आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रसार तथा अधिकार का युग था ।
इन सौ वर्षो में यूरोपीय देशों ने विश्व के प्राय सभी भागों को अपने उपनिवेशीय नियंत्रण में कर लिया तथा यूरोपीय ज्ञान, संस्कृति, जीवन पद्धति, उत्पादन तकनीक, राजनीतिक व्यवस्था और मूल्य बोध धीरे-धीरे पूरे विश्व में व्याप्त हो गए ।
औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप यूरोपीय देश विश्व के सबसे सम्पन्न और शक्तिशाली देश बन गए । समुद्री परिवहन में वे पहले ही अग्रणी थे । इन दोनों बातों के सम्मिलित प्रभाव से वे विश्व के स्वामी बन बैठे । यूरोपीय आदर्श और आचरण पद्धति को स्वीकारना परतंत्र विश्व की विवशता, तथा कालान्तर में उनका अभ्यास बन गया । यही कारण था कि यूरोपीय राजव्यवस्था ओर राज्य की यूरोपीय परिकल्पना सर्वव्यापी बन गई ।
राजनीतिक भूगोल की विकास यात्रा की चर्चा के दौरान हमने देखा था कि राजनीति सामाजिक संगठन के विकास की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता थी तथा राजनीति की नींव आत्म नियंत्रण और आत्मानुशासन पर टिकी थी ।
यही आत्मानुशासन परिवारस्तरीय अनुशासन में प्रकट हुआ । बाद में अनेक पड़ोसी परिवारों के समूहों (ग्रामों) का विकास हुआ । इन्हें बाहरी संकट से उबारने और उनके आपसी झगड़ों के समाधान के लिए सामूहिक अनुशासन की आवश्यकता हुई ।
इस प्रकार पंचायती व्यवस्था का विकास हुआ । अनेक ग्रामों में क्षेत्रीय एकता और परस्पर निर्भरता की भावना के विकास के साथ ही राज्य का प्रारम्भिक स्वरूप उभरा होगा । राजनीति एक पुरातन सामाजिक आवश्यकता है, परन्तु आदि काल में समाज का स्वरूप आज से बहुत भिन्न था । इसलिए तत्कालीन राजनीति आज से बहुत भिन्न थी ।
उसका सम्बन्ध सत्ता अर्थात् अनुशासन व्यवस्था से तो था परन्तु शासन (गवर्नमेण्ट) से नहीं । सोलहवीं सदी के अन्त तक देश का राजा अथवा सम्राट मुख्यतया देश की सुरक्षा का संरक्षक था परन्तु सही अर्थ में (अर्थात् आज के अर्थ में) देश का शासक नहीं ।
जनता से निर्धारित अंशदान प्राप्त करने के उपरान्त सम्राट का उनके दैनिक जीवन में हस्तक्षेप नहीं के बराबर था (फोकाल्ट, 1979) । क्वेंटिन स्किनर (1978) के अनुसार अंग्रेजी के ”स्टेट” शब्द का मूल लैटिन भाषा का शब्द ”स्टेटस” (प्रस्थिति अथवा दशा) है ।
सत्रहवीं सदी के पहले इस शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग होता था, तथा व्यवस्था ओर सत्ता दोनों ही स्वयं राजा या सम्राट में निहित थी । स्टेट (राज्य) की आधुनिक अवधारणा इसी पुराने शाब्दिक अर्थ से सर्वप्रथम फ्रांस और उसके बाद इंग्लैण्ड में सोलहवीं सदी में विकसित हुई ।
इसका कारण यह था कि वे विशेषताएं जिनके कारण राज्य स्पष्टतया परिभाषित क्षेत्रीय सीमाओ से घिरे केन्द्रीय प्रशासनिक इकाई का रूप धारण करता था, सर्वप्रथम इन्हीं दोनों देशों में विकसित हुई थीं । स्किनर के अनुसार सोलहवी सदी के अंत तक इन दोनो देशो में राज्य की आधुनिक अवधारणा स्थापित हो चुकी थी और उनके राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रभाव के उत्तरोत्तर प्रसार के साथ यह अवधारणा सर्वमान्य आदर्श बन गई ।
राज्य के अंकुरण सम्बन्धी इस अवधारणा से स्पष्ट हे कि प्रशासन (गवर्नमेण्ट) के प्रारम्भ की प्रथम शर्त यह है कि देश के शासक राज्य व्यवस्था को उसी दृष्टि से देखे तथा वैसा ही व्यवहार करें जैसा कि परिवार का मुखिया (पिता) परिवार के प्रबन्धन मे करता है ।
अर्थात् प्रशासक के लिए राज्य के प्रबन्धन में देश की जनता के हितों को सर्वोपरि रखना प्रशासनिक प्रक्रिया की अनिवार्य शर्त है । ऐसे प्रशासनिक कर्तव्य मे राज्य का अन्य राज्यों से सम्बन्ध ओर उनके परिप्रेक्ष्य में देश के अस्तित्व की सुरक्षा का दायित्व सम्मिलित है ।
परन्तु प्रशासनिक धर्म मे जनता के प्रति वात्सल्य का भाव सर्वोपरि महत्व का है । अत: प्रशासन देश के जनजीवन के सर्वागीण प्रबन्धन के दायित्व का निर्वाह है । पूर्व-आधुनिक काल में सामान्य जन के दैनिक जीवन की कठिनाइयों से सम्राट का कुछ भी लेना-देना नहीं था ।
सम्राट की चिंता यहीं तक सीमित थी कि सामाजिक असंतोष राजनीतिक सत्ता के विरुद्ध क्रांति का रूप धारण न कर ले । जब तक देश छोटे-छोटे तथा एक दूसरे से प्राय: असम्बद्ध आत्मनिर्भर समुदायों में विभक्त थे, राजनीतिक सत्ता प्रत्येक समुदाय से अलग-अलग निबट सकती थी क्योंकि प्रत्येक की समस्या और असंतोष जोड़े से लोगों का स्थानीय असंतोष था ।
धीरे-धीरे इन समुदायों में आपसी सम्बन्ध गहरे होने लगे, उनमें परस्पर एकता और भागीदारी का भाव दृढ़ होने लगा, उन्हें अपनी कठिनाइयों और उनके समाधान का स्रोत एक ही केन्द्रीय सत्ता में निहित दिखने लगा । परिणामस्वरूप अपनी समस्याओं के निराकरण के लिए उन्हें सम्मिलित प्रयास का मार्ग अधिक प्रभावी प्रतीत होने लगा ।
इस प्रकार नागरिकों में राष्ट्रीय भावना का सूत्रपात हुआ । देश अलग-अलग पहचान वाले समुदायों का समूह न रहकर एक बृहत्तर जनसमुदाय बन गया । इस नई स्थिति के परिणामस्वरूप राज्यधिकारी को शासक, अर्थात् ”रुलर’ के स्थान पर ‘गवर्नर’ (प्रशासक), बनना पड़ा । यही आधुनिक प्रकार के राज्य स्थापना का प्रारम्भिक चरण था ।
इस सन्दर्भ में शीर्ष और पाद (”हाई एण्ड लो”) राजनीति का अन्तर जानना आवश्यक है । शीर्ष राजनीति का सम्बन्ध राज्य के अस्तित्व की सुरक्षा से सम्बन्धित कार्यो अर्थात् युद्ध और शान्ति, अन्य देशों से सम्बन्ध तथा देश को एक सूत्र में बांधे रखने की दिशा में किए जाने वाले प्रयासों से है ।
ऐसे प्रयास मूल रूप से राज्य के प्रबुद्ध वर्गो, उदाहरण के लिए प्रशासकों, सेनाध्यक्षों और अन्य शीर्ष स्तरीय अधिकारियों आदि के निर्णय के क्षेत्र हें । सामान्य नागरिक अर्थात् तृणमूल स्तरीय जनसंख्या से उनका सीधा सम्बन्ध नहीं है ।
इसके विपरीत पाद राजनीति का सम्बन्ध उन आर्थिक और सामाजिक नीतियों से है जो आम नागरिक के दिन प्रतिदिन के जीवन से सीधे रूप में जुड़ी हैं । इनमे स्वास्थ्य, शिक्षा, सामान्य प्रशासन, आन्तरिक शांति आदि सम्मिलित हैं ।
इनके क्रियान्वयन में स्थानीय प्रशासन केन्द्रीय भूमिका निभाता हैं ओर जनतांत्रिक व्यवस्था में सामान्य जनता का संतोष अथवा क्षोभ, राज्य के प्रति नागरिकों की आस्था अथवा अनास्था इन्हीं बातो पर निर्भर है । इस परिप्रेक्ष्य में हम कह सकते हैं कि पूर्व-आधुनिक युग शीर्ष राजनीति प्रधान युग था, और वर्तमान काल की राजनीति प्रधानतया पादस्तरीय है । शीर्ष से पाद राजनीति, और शासन से प्रशासन की ओर प्रगति का प्रधान कारण औद्योगीकरण और उसके परिणामस्वरूप नगरों का विकास था ।
यह दोनो ही प्रक्रियाएं उन्नीसवीं सदी के अन्तिम चरण में विशेष रूप से मुखर हुई थी । इनके सम्मिलित परिणाम से भूमिहीन ओर विपन्न श्रमजीवी बड़ी संख्या में नगरों की ओर आकृष्ट हुए, उनमे अपने हितों की समानता की पहचान उभरी तथा उनके लिए संघर्ष हेतु एक जुट होने की चेतना उत्पन्न हुई ।
इससे श्रमिको और मालिकों में वर्ग विभाजन की चेतना जागत हुई और देश के जन (पीपुल) के जनसमुदाय (पापुलेशन) में रूपान्तरण प्रारम्भ हुआ । विचारको के अनुसार राज्य की आधुनिक परिकल्पना का सूत्रपात सोलहवीं सदी के अन्तिम चरण में जन के जनसमुदाय में रूपान्तरित होने के साथ ही हुआ था ।
देशवासियों में सामूहिक पहचान की चेतना के साथ ही नागरिक चेतना उद्भूत हुई ओर भिन्न-भिन्न क्षेत्रीय राजनीतिक इकाइयों में निवास करने वाली जनता राजनीतिक सत्ता को बनाए रखने के लिए किए जाने वाले प्रयासो का केन्द्र बिन्दु बन गई ।
समाज और राज्य के सम्बन्ध उत्तरोत्तर गहनतर होते गए, नागरिकों की सुख-सुविधा का प्रबन्ध करना शासकों का धर्म बन गया तथा शासक प्रशासक बन गए । राज्य के लिए यह नया उत्तरदायित्व था क्योंकि अभी तक देश की सुरक्षा की व्यवस्था करना ही शासकों का प्रमुख उत्तरदायित्व रहा था ।
इस बड़े उत्तरदायित्व के निर्वाह के लिए राज्य को अतिरिक्त आय और अधिक संसाधन की आवश्यकता हुई । इसके लिए संस्थाओं तथा नौकरशाही व्यवस्था की स्थापना, आय के नए स्रोत (विभिन्न प्रकार के कर लगाने) खोजने, ओर सम्पूर्ण देश को एक सूत्र में बांधने के लिए यातायात और संचार सम्बन्धी सुविधाओं का विकास आवश्यक हो गया । अब राज्य मूलतया प्रशासनिक व्यवस्था का पर्याय बन गया । राजनीति शीर्ष स्तरीय विषयों के स्थान पर पाद स्तरीय विषयों पर केन्द्रित हो गई ।
औद्योगीकरण और नगरीकरण की प्रक्रिया उन्नीसवी सदी में विशेष रूप से मुखर हुई थी । अत मूलस्तरीय राजनीति का अधिकतम विकास भी इसी काल में हुआ । नगरीकरण की प्रक्रिया की मुखरता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सोलहवीं सदी के अंत में विश्व की कुल जनसंख्या का मात्र 7.6 प्रतिशत दस हजार अथवा उससे अधिक जनसंख्या वाले नगरों मे निवास करता था ।
दो सौ साल बाद 1790 में यह प्रतिशत मात्र 10 था, परन्तु सत्रहवीं सदी के अन्त तक इसमें तीन गुणा वृद्धि हुई । 1890 में कुल जनसंख्या का 29 प्रतिशत दस हजार से अधिक जनसंख्या वाले नगरों में निवास कर रहा था ।
इस जनसंख्या का अधिकांश भाग सुविधाओं से वंचित विपन्न श्रमजीवियों का था जो इन नगरों में केन्द्रित उद्योगों में जीविकोपार्जन के लिए आकर्षित हुए थे । सम्पन्न पूंजीपति वर्ग विपन्न और साधनविहीन वर्ग को नैतिक दृष्टि से पतित, छत के रोगों का स्रोत, और सामाजिक अशांति के कारक के रूप में देखता था ।
उनसे उन्हें अपने अस्तित्व को खतरा प्रतीत होने लगा था, यद्यपि यही श्रम उनकी मिलों, अन्य औद्योगिक संस्थानों, और उनकी आर्थिक समृद्धि की आधारशिला था । विपन्न श्रमिकों की ओर से अधिक सुविधा तथा बेहतर जीवन स्तर के उपादानों की मांग और श्रमिकों में बढ़ती जागति से पूंजीपति वर्ग में व्याप्त भय को देखते हुए राजसत्ता को इस वर्ग की ओर उत्तरोत्तर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता महसूस हुई ।
शासकों के लिए यह एक अभूतपूर्व स्थिति थी । इस नई चुनौती का सामना करने के लिए राज्य के प्रशासनिक दायित्व में अभूतपूर्व वृद्धि हुई । राज्य उत्तरोत्तर एक सशक्त सामाजिक प्रशासनिक तंत्र बन गया । समाज में वर्ग विभाजन गहरा होता गया, राजनीतिक प्रक्रिया क्लिष्टतर होती गई तथा राजनीति जीवन के सभी पक्षों से सीधे तौर पर जुड़ गई ।
देश की आर्थिक प्रगति और कल्याणकारी प्रशासन वीसवीं सदी के राज्य के प्रमुख उत्तरदायित्व बन गए । आधुनिक राज्य की विशिष्ट पहचान इसकी प्रशासनिक क्रियाशीलता हैं । परन्तु शासन (गवर्नमेण्ट) और राज्य (स्टेट) परस्पर सम्बद्ध होते हुए भी एक दूसरे से भिन्न प्रकार की व्यवस्थात्मक इकाइयां हैं ।
प्रशासन राज्य का प्रतिनिधि तथा उसके द्वारा निर्मित व्यवस्था का परिणाम और अंग हैं । राज्य से पृथक उसकी पहचान करना सम्भव नहीं हैं । राज्य का उद्देश्य राज्य के दैनिक क्रियाकलाप को नियमपूर्वक संचालित करना है ।
इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दो प्रकार की रणनीतियां (स्ट्रैटेजी) आवश्यक हें । एक दीर्घकालिक उद्देश्यों की प्राप्ति सम्बन्धी .नीति निर्धारण, तथा दूसरा निर्धारित नीतियों के क्रियान्वयन हेतू अल्पकालिक व्यवस्था के लिए प्रशासन ।
अत: प्रशासन राज्य के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतू दिन प्रतिदिन के कार्यो के प्रबन्धन के लिए निर्मित यंत्रावली हैं । वास्तव में राज्य प्रभुसत्तासम्पन्न ओर सर्वथा स्वायत्त इकाई है और शासन राज्य के मूल उत्तरदायित्व के निर्वाह के लिए उसी द्वारा निर्मित संस्था मात्र है ।
अत: उदारवादी जनतांत्रिक व्यवस्था में शासन का विरोध न्याय सम्मत क्रिया हैं जबकि राज्य का विरोध देश द्रोह और राष्ट्र की अस्मिता पर प्रहार माना जाता है । राज्य और उसके शासन तंत्र एक दूसरे से इतने समीप से जुड़े हैं कि दोनों के बीच का यह अन्तर व्यवहार के स्तर पर मात्र सैद्धान्तिक प्रतीत होता है ।
परन्तु यह अन्तर जनतंत्र के अस्तित्व के लिए आधारिक महत्व का है । इस प्रश्न का निर्णय कि राज्य व्यवस्था का परम उद्देश्य जन कल्याण है अथवा शासक वर्ग का हित साधन राज्य और प्रशासन के इसी अन्तर पर निर्भर है ।
आधुनिक राज्य के उद्भव में तकनीकी विकास का योगदान भी निर्णायक प्रभाव वाला था । नई तकनीकों के प्रयोग से सभ्यता का आधार ही बदल गया क्योंकि मानव और प्रकृति के बीच अनादिकाल से चले आ रहे निरन्तर सम्बन्ध में प्राकृतिक परिवेश की भूमिका निर्णायक रही थी ।
आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक के विकास के बाद यह निर्णायक भूमिका प्रकृति के स्थान पर मानव प्रयास के पक्ष में आ गई । अब संसाधनों के अधिक गहन दोहन और उत्पादकता में सर्वत्र आशातीत वृद्धि के परिणामस्वरूप औद्योगिक रूप में विकसित देशों में पूंजीवाद का प्रादुर्भाव हुआ तथा समाज में वर्गविभेद को बढ़ावा मिला ।
यही मध्यमवर्गी (बुर्जुआ) क्रांति और जनतांत्रिक और समाज केन्द्रित प्रशासनिक व्यवस्था का मूल कारण बना । नई व्यवस्था में सत्ता सम्राट और सामंतों से हस्तांतरित कर ”जन” प्रतिनिधियों के हाथ आ गई, तथा बीसवीं सदी में ”जन” की पहचान सामान्य जनता से जुड़ गई ।
राज्य सत्ता अब स्थायी संस्थाओं के माध्यम से जनतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप संचालित होने लगी । परिणामस्वरूप देश का सम्पूर्ण क्षेत्र एक संयुक्त बाजार में परिवर्तित हो गया । इससे श्रम तथा पूंजी दोनों की अन्तरक्षेत्रीय गतिशीलता को प्रोत्साहन मिला ।
परिणामस्वरूप पूरा देश शासक और शासित की क्रियाशील भागीदारी पर केन्द्रित नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) के रूप में स्थापित हो गया । इस नई राज व्यवस्था में प्रत्येक नागरिक अपने व्यक्तिगत जीवन में पूर्णतया स्वतंत्र और समान अधिकारों वाला बन गया ।
राज्य की आधुनिक संकल्पना की दो मूलभूत विशेषताएं हैं । प्रथम, यह एक केन्द्रीय नियंत्रण वाली राज सत्ता हे जिसका अधिकार देश के सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र पर समान रूप में फैला है । सत्ता का अधिकार राज्य द्वारा स्थापित संस्थाओं के माध्यम से राज्य द्वारा नियुक्त अधिकारियों द्वारा निरपेक्ष रूप में संचालित होता है और राज्य की विधि देश के प्रत्येक नागरिक पर समान रूप से लागू होती हें । द्वितीय, सत्ता का अधिकार और देश का प्रबन्धन शासक और शासित की आपसी स्वीकृति से बनाए गए नियमों और उपनियमों के अनुसार कार्यान्वित होता है ।
इस दूसरी विशेषता का तात्पर्य यह है कि:
”राज्य नैतिक मूल्यों पर आधारित समुदाय है, इसलिए देश के प्रत्येक नागरिक के लिए इसके द्वारा पारित विधियों का पालन करना आवश्यक है । साथ ही यह भी स्पष्ट है कि यदि राज्य के नियम-विनियम तथा उसके प्रशासनिक निर्णय विधि संगत नहीं हैं तो नागरिक उन्हें मानने के लिए बाध्य नहीं हैं क्योंकि उन्हें मानना उसका संवैधानिक उत्तरदायित्व नहीं है । … राज्य एक संप्रभु इकाई है, परन्तु इसकी सत्ता की वैधता देहा के नागरिकों की संस्तुति पर निर्भर है” ।
जैसा कि गैम्बल ने रेखांकित किया है, ”एक नागरिक संगठन के रूप में आधुनिक राज्य संयत नागरिक समाज (सिविल सोसायटी) का मात्र निष्क्रिय संरक्षक न होकर उसका सक्रिय निर्माता और सुधारक भी है । देश को नई दिशा देने, तथा उसे रूढ़िगत संस्कारों से मुक्त्त कर आधुनिक विवेक सम्मत मूल्यों की ओर उन्मुख करने की दिशा में राज्य द्वारा निरन्तर और उत्तरोत्तर अधिक सक्रिय प्रयास किए जाते रहे हैं ।”
राज्य की प्रकृति और उसका स्वरूप:
आधुनिक राज्य के स्वरूप के बारे में दो मुख्य दृष्टिकोण हैं । एक को लोकतांत्रिक- और-बहुवादी (डिमॉक्रेटिक प्लूरलिस्ट) दृष्टिकोण के नाम से जाना जाता है तथा दूसरे को आमूल परिवर्तनवादी (रैडिकल) अथवा मार्क्सवादी दृष्टिकोण की संज्ञा दी गई है ।
जनतांत्रिक-बहुवादी विचारधारा के अनुसार प्रत्येक राज्य देश में निवास करने वाले परस्पर प्रतिस्पर्धी गुटों के आपसी मतभेदों को समाप्त कर उनमें सामंजस्य स्थापित करने के उद्देश्य से निर्मित एक निष्पक्ष न्यायाधिकरण है जो विभिन्न गुटों के बीच अनेक संस्थाओं के क्रियाशील योगदान के माध्यम से सर्वमान्य निर्णय करने के लिए बनाया गया है ।
परन्तु जैसा अनेक विद्वानों ने रेखांकित किया है, प्रतिस्पर्धी गुटों के बीच होने वाला संघर्ष प्राय: बराबरी का संघर्ष नहीं होता क्योंकि राज्य की नीति निर्धारण प्रक्रिया में बहुधा साधन सम्पन्न वर्ग के प्रतिनिधियों का वर्चस्व होता है, जिसके कारण शासन द्वारा पारित नीतियां उस वर्ग के हितों पर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में सुरक्षात्मक दुष्टिकोण अपनाती हैं ।
दूसरी ध्यान देने की बात यह है कि पिछली अर्द्धसदी में सभी स्तरों पर विभिन्न वर्गों के सदस्य अपने विशिष्ट वर्ग हितों की सुरक्षा हेतु संघर्ष करने के उद्देश्य से परस्पर प्रतिस्पर्धा गुटों में संगठित हो गए । वर्तमान समय में वर्ग-हित का संघर्ष इन्हीं संगठनों अथवा संघों के स्तर पर लड़ा जाता है ।
फलस्वरूप व्यक्तिगत हितों और प्रत्येक वर्ग के अपेक्षाकृत कम प्रभावशाली गुटों, जैसे छोटे-छोटे व्यापारियों अथवा अपेक्षाकृत छोटे उद्योगों में कार्यरत श्रमिकों तथा खेतिहर मजदूरों, के हितों को समुचित सुरक्षा नहीं मिल पाती । इस प्रवृति के परिणामस्वरूप पिछले दशकों में जनतांत्रिक-वहुवादी राज्य हुत गति से निगम राज्य (कार्पोरीट स्टेट) का रूप ले रहा है ।
इस परिवर्तित स्थिति को अपूर्ण बहुवाद (इम्परफेक्ट प्यूरलिज़्म) की संज्ञा दी गई है । इसके विपरीत मार्क्सवादी विचारधारा राज्य की निष्पक्षता के दावे को मात्र धोखा मानती है । इसके अनुसार राजसत्ता वर्ग संघर्ष से परे न होकर वर्ग संघर्ष में सक्रिय भागीदार है ।
मार्क्सवादी चिन्तन धारा के अनुसार सभी सामाजिक इकाइयां वर्ग संघर्षमय इकाइयां हैं जिनमें एक शक्ति सम्पन्न वर्ग अन्य वर्गों पर शासन करता है । इस दृष्टि से राज्य और उसकी सम्पूर्ण प्रशासनिक व्यवस्था सम्पन्न वर्ग की स्वार्थ सिद्धि के लिए, उन्हीं के द्वारा निर्मित उपकरण (इंस्ट्रूमेंण्टैलिटी) मात्र है ।
राज्य के स्वरूप के सम्बन्ध में इस व्याख्य को उपकरण व्याख्या अर्थात् इन्स्ट्रूमेण्टलिस्ट एप्रोच के नाम से जाना जाता है । ब्रिटिश विद्वान मिलिबंड (1969) इस विचारधारा के प्रमुख समर्थक हैं । एक अन्य व्याख्या के अनुसार राज्य परस्पर प्रतिस्पधी हितों वाले वर्ग समूहों का अखाड़ा है, शक्ति सम्पन्नों द्वारा शक्तिहीनों के ऊपर नियंत्रण करने का साधन मात्र नहीं । यह ठीक है कि राज्य सम्पन्न वर्ग की शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है परन्तु राज्य में इस वर्ग के भिन्न-भिन्न गुटों के हित एक दूसरे से बहुधा विपरीत होते हैं ।
शक्ति सम्पन्न तथा उपेक्षित और विपन्न वर्गों के परस्पर संघर्ष में संतुलन बनाए रखने और राष्ट्र की उपेक्षित जनसंख्या के वर्ग असंतोष को सामाजिक क्रांति का रूप धारण करने से रोकने के उद्देश्य से राज्य अपनी नीति निर्धारण प्रक्रिया माध्यम से समाज के निर्धन और उपेक्षित वर्गों के हित में कार्य करता है ।
इस प्रक्रिया में पूंजीपति वर्ग के अपेक्षाकृत पिछड़े गुटों, उदाहरणार्थ छोटे व्यापारियों और छोटे-छोटे उद्योगों के मालिकों के हितों का त्याग करना शासकों की विवशता हो जाती है । यद्यपि राज्य पूंजीवादी वर्ग का प्रतिनिधि है परन्तु, इसमें छोटे पूंजीपतियों की भागीदारी नगण्य है । राज्य की इस व्याख्या को वर्ग शक्ति संतुलन विचारधारा की संज्ञा दी गई है ।
पूंजीवादी राज्य व्यवस्था में संकट की प्रवृत्तियां:
मार्क्स के अनुसार पूंजीवादी व्यवस्था स्वभावत संकट ग्रस्त व्यवस्था है । मार्क्सवादी चिंतक हेबरमास (1976) ने पूंजीवादी राज्य की चार संकटपूर्ण स्थितियों की पहचान की है । ये हैं: आर्थिक संकट, विवेक का संकट, वेधता का संकट, और अभिप्रेरण (मोटिवेशन) का संकट ।
जब किसी राज्य की अर्थव्यवस्था देश के समुचित विकास के लिए आवश्यक उपादान प्रस्तुत करने में अक्षम प्रतीत होती है तो आर्थिक संकट उत्पन्न होता है । ऐसी स्थिति में बाजार प्रणाली में प्रशासनिक हस्तक्षेप आवश्यक हो जाता है जिससे कि राजनीतिक संकट की सम्भावना को रोका जा सके ।
सभी देशों में आर्थिक क्षेत्र में शासन की बढ़ती हुई भागीदारी इस प्रकार के संकट का लक्षण हें । आर्थिक क्षेत्र में राज्य के हस्तक्षेप के साथ ही राजसत्ता का वर्गों के बीच निष्पक्ष मध्यस्थता सम्बन्धी दावा झूठा पड़ जाता हैं क्योंकि राज्य अर्थव्यवस्था में स्वयं सीधा भागीदार हो गया है ।
इससे वैचारिक संकट उत्पन्न होता है । प्रश्न उठता है कि राज्य का वास्तविक स्वरूप क्या है ? वह वर्ग संघर्ष में एक मध्यस्थ न्यायाधिकरण है अथवा किसी वर्ग विशेष का पक्षधर ? यदि राजसत्ता अर्थात् प्रशासन के हस्तक्षेप के पश्चात् भी देश के आर्थिक संकट का संतोषद्यी समाधान नहीं हो पाता तो नागरिकों के मानस में सत्ता के प्रभावशाली होने पर संदेह उत्पन्न होता है, उसकी वैधता रार प्रश्न चिह्न लग जाता है और मतदाता दूसरी सरकार की प्रतीक्षा करने लगते हैं ।
इससे अभिप्रेरणा का संकट उत्पन्न हो जाता है क्योंकि नागरिकों में शासन की अपेक्षित जिम्मेदारी, अर्थात् उसके द्वारा अर्पित की जाने वाली जन कल्याण सुविधाओं के प्रति उनमें जागत अपेक्षाओं तथा राज्य द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाओं के स्तर के बीच के निरन्तर बढ़ते अन्तर के कारण नागरिकों में राज्य के प्रति आस्था भाव में ह्रास होता है ।
अभिप्रेरणा के संकट का मूल कारण यह है कि हमारी पुस्तकों और शिक्षण संस्थाओं में आदर्श राज्य के उत्तरदायित्व के बारे में खींची गई छवि और व्यवहार के स्तर पर उसकी वास्तविक छवि एक दूसरे से बेमेल हो जाती हैं ।
परिणामस्वरूप नागरिकों में व्यवस्था को समर्थन देते रहने की प्रेरणा उत्तरोत्तर समाप्त होने लगती है । ध्यान से देखा जाए तो प्रतीत होगा कि पूंजीवादी व्यवस्था में राज्य को दो न्यूनाधिक रूप में परस्पर विरोधी लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयास करना पड़ता है ।
एक ओर आवश्यक है कि देश में पूंजी संचयन के लिए प्रभावी कदम उठाए जाएं जिससे आर्थिक विकास की गति बढ़े तथा अर्थव्यवस्था में पूंजी की वृद्धि हो तो दूसरी ओर यह भी आवश्यक है कि देश के आम नागरिक और सामान्य मतदाता को निरन्तर समुचित सुख-सुविधा प्रदान की जाती रहे जिससे वे शासन के प्रति यथावत आस्थावान बने रहें ।
राज्य को इन दोनों प्रकार के उत्तरदायित्वों के वहन के लिए दो अलग-अलग प्रकार के वित्तीय खर्च की आवश्यकता पड़ती है । पूंजी संचयन के लिए सामाजिक पूंजी का उत्पादन आवश्यक है । इसके अन्तर्गत आर्थिक विकास की निरन्तर प्रगति को प्रोत्साहित करने के लिए विभिन्न प्रकार की अवसंरचनाओं (इन्फ्रास्ट्रक्चर) का निर्माण सम्मिलित है ।
नागरिकों में देश की राजसत्ता के प्रति आस्था बनाए रखने के लिए समाज कल्याण पर धन लगाने की आवश्यकता होती है । ऐसे ही कार्य जनता को संतुष्ट रखते हुए राज्य व्यवस्था को वैधता प्रदान करते हैं ।
राज्य का विकासशील स्वरूप: समकालीन प्रवृत्तियां:
ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया के प्रारम्भ में राज्य प्रधानतया एक स्थानिक संगठन था । स्थानीय संस्कार और इसके प्रधान कारक थे । परिणामस्वरूप प्रत्येक राजनीतिक इकाई इस प्रकार की अन्य इकाइयों से अनेक बातों में विशिष्ट थी ।
उनमें आपसी सादृश्यता अपेक्षाकूत कम थी । प्रत्येक राज्य मूलतया एक राष्ट्रीय प्रभुतासम्पन्न इकाई था जो अपने कार्य क्षेत्र में पूर्णतया स्वतंत्र था, राज्य आदेश देता था, आदेश लेता नहीं था । अपनी भौगोलिक सीमाओं के अन्दर उसकी सम्प्रभुता निर्विवाद थी ।
प्रत्येक राज्य एक पृथक क्षेत्रीय सामाजिक संगठन था तथा अन्य राज्यों से उसके सम्बन्ध सीमित थे । भौगोलिक सीमाएं राजनीतिक और सांस्कृतिक विभाजक रेखाएं थीं । परन्तु उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में राज्यों के परिवेश में दूरगमिाए परिवर्तन आए ।
उनके बीच दिन प्रतिदिन बढ़ते आर्थिक और सांस्कृतिक सम्बन्धों के परिणामस्वरूप उनका पार्थक्य कम होता गया, शांतिकाल में राजनीतिक सीमाओं पर चौकसी में कमी आई तथा श्रम और पूंजी की अंतरराष्ट्रीय गतिशीलता में अत्यधिक वृद्धि हुई ।
इन सबके सम्मिलित प्रभाव से पृथक्-पृथक् सम्प्रभुता सम्पन्न और एक दूसरे से असम्बद्ध राज्य अब मात्र राष्ट्रीय इकाइयां न रह कर एक सम्पूर्ण अन्तरराष्ट्रीय राजनीतिक-आर्थिक प्रणाली की अन्योन्याश्रयी उपप्रणालियां बन गए । उनका परिवेश राष्ट्रीय से अन्तरराष्ट्रीय हो गया । राज्यों के बीच संरचनात्मक समानता उत्तरोत्तर बढती गई ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् उपनिवेशवाद के अवसान और परतंत्र उपनिवेशों के संप्रभु राज्यों के रूप में उदय होने के साथ ही राज्यों की परस्पर एकरूपता बढ़ती गई क्योंकि सभी उत्तर उपनिवेशवादी स्वतंत्र राजनीतिक इकाइयां अपने पुराने स्वामियों की राज्य व्यवस्था के अनुरूप ही अपने देश की राजनीतिक व्यवस्था को ढालने लगीं । राज्य की यूरोपीय संकल्पना अब सही अर्थो में वैश्विक संकल्पना बन गई ।
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में, विशेषकर व्यापारिक और आर्थिक क्षेत्र में अनेक परिवर्तन आए । उपनिवेशवाद की समाप्ति के परिणामस्वरूप उभरी नई राष्ट्रीय इकाइयों को पहले से चली आ रही अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था में समायोजित करने और राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों को दृढ़तर बनाने के उद्देश्य से पश्चिमी देशों, विशेषकर संयुक्त राज्य अमरीका के नेतृत्व में विश्व के सभी स्वतंत्र देशों का एक संघ, संयुक्त राष्ट्र संघ बनाया गया जिससे कि यूरोपीय उपनिवेशों के उत्तराधिकारी राज्यों को पुन: अन्तरराष्ट्रीय आथिइक और सांस्कृतिक व्यवस्था में आबद्ध किया जा सके ।
इन नव जाग्रत देशों को कच्चा माल और उनके विशाल बाजार पिछले सौ वर्षों से उन्नत आर्थिक विकास वाले पश्चिमी औद्योगिक देशों की समृद्धि के आधार रहे थे । यूरोपीय-अमरीकी वर्चस्व में पुन: स्थापित विश्व अर्थव्यवस्था का एक छत्र प्रमुत्च बनाए रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक जैसी वित्तीय अनुदान संस्थाओं संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक-सामाजिक ओर सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) आदि के माध्यम से अनेक उपाय किए ।
इन वित्तीय और शैक्षणिक सांस्कृतिक संगठनों के माध्यम से विश्व के सभी राज्य संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता प्राप्त कर एक विश्वव्यापी राजनीतिक व्यवस्था के अंग बन गए । अर्थात् प्रत्येक राज्य विश्वव्यापी राज्य व्यवस्था की उप-इकाई बन गया ।
यह नई उदीयमान व्यवस्था आर्थिक विनिमय व्यवस्था मात्र न रह कर निरन्तर अधिकाधिक आच्छादक राजनीतिक-सांस्कृतिक व्यवस्था में परिवर्तित हो गई । परिणामस्वरूप राज्यों के बीच संरचनात्मक और व्यावहारिक एकरसता बढ़ती गई क्योंकि विश्व के सभी भागों में राज्य स्तरीय इकाइयां एक ही प्रकार की अन्तररष्ट्रिाय शक्तियों और प्रभावो से प्रभावित होने लगी थीं ।
जैसा कि कॉनी मैक्नीली (1995) ने दर्शाया है इस एक रूपता का एक प्रमुख कारण यह है कि 1950 के बाद से विश्व के सभी राज्यों के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता उनके अस्तित्व की अनिवार्य शर्त बन गई है, विशेषकर विकासशील देशों के लिए जिन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ की वित्तीय और शैक्षणिक संस्थाओं से अनुदान की सतत् आवश्यकता बनी रहती है, और अनुदान पाने के लिए आवश्यक है कि पहले वे संघ की सदस्यता प्राप्त करें ।
संघ की सदस्यता प्राप्ति के लिए कुछ अनिवार्य शर्तें पूरी करना आवश्यक है । ये शर्तें सभी नए सदस्यों के लिए अनिवार्य हैं अत सदस्यता के माध्यम से राज्यों में व्यावहारिक और संरचनात्मक एकरूपता को बढ़ावा मिला है, उनके राजनीतिक आदर्शों और उनकी क्रियापद्धति में अधिकाधिक समरूपता आई है तथा विश्व के सभी राज्यों के लिए विश्व परिवार के अन्य राज्यों के सन्दर्भ में अपनी पहचान बनाना आवश्यक हो गया है ।
परिणामस्वरूप आज प्रत्येक राज्य की संप्रभुता न्यूनाधिक रूप में अन्य राज्यों की संप्रभुता से अन्योन्याश्रयी रूप में जुड़ गई है । अर्थात् आज विश्व राजनीतिक व्यवस्था प्रत्येक राज्य के लिए एक प्रकार का नैतिक भूगोल अर्थात् उनका अनिवार्य व्यावहारिक परिवेश बन गया हैं जिसके अनुरूप अपने को ढालना उनकी विवशता हो गई है ।
संपरिवर्तन की यह प्रक्रिया राष्ट्र संघ द्वारा प्रतिपादित राष्ट्रीय लेखा प्रणाली की मानक व्यवस्था के माध्यम से विशेष रूप से प्रभावी हुई है । राष्ट्र संघ के सांख्यिकी विभाग द्वारा राष्ट्रीय लेखा प्रणाली की विस्तृत रूप रेखा जारी की गई है तीसरे विश्व की राष्ट्रीय इकाइयों के लिए इस रूपरेखा का पूर्ण क्रियान्वयन अनिवार्य हो गया है क्योंकि अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक से किसी प्रकार की वित्तीय सहायता प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि प्रतिवेदक देश का राष्ट्र संघ के राष्ट्रीय लेखा निदेशों के अनुरूप नियोजित हो ।
विकासशील देशों को इन संस्थाओं से वित्तीय सहायता की अपेक्षा निरंतर बनी रहती है अत: इन निदेशों का अक्षरश: पालन उनके लिए अनिवार्य हो गया है । इस प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा निर्धारित लेखा सम्बन्धी निदेशक सिद्धांत संघ के सदस्य राज्यों के लिए राज्य प्रबन्धन के मानक निदेश बन गए हैं ।
उनके माध्यम से राष्ट्र संघ के सदस्य राज्यों को उनके सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विकास में समान दिशा निदेश देने में सफल हुआ हे । इस विषय पर मैक्नीली (1995) द्वारा प्रस्तुत सविस्तार व्याख्या से स्पष्ट है कि राष्ट्र संघ के लेखा सम्बन्धी निदेश विकासशील देशों को विश्व आर्थिक व्यवस्था में गहन रूप से जोड़ने के उददेश्य से ही बनाए गए हैं ।
लेखा सम्बन्धी आकड़े एकत्रित करने के लिए जारी किए गए निर्देशों में समय-समय पर आए सशोधनों से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है । प्रारम्भ में एस.एन.ए. के अनुसार तैयार किए गए आकड़ों में राज्यों की राष्ट्रीय व्यवस्था के आर्थिक स्वास्थ्य के प्राथमिक सूचक के रूप में सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जी.एन.पी.) का प्रयोग किया जाता था ।
कालांतर में विकासशील देशों की आर्थिक व्यवस्था में विश्व बाजार के प्रमुख भागीदारों (क्रोड़ देशों) की उत्तरोत्तर बढ़ती हुई रुचि को ध्यान में रखते हुए इस काम के लिए जी.एन.पी. के स्थान पर जी.डी.पी. (सकल घरेलू उत्पाद) का प्रयोग होने लगा ।
इस परिवर्तन का मूल कारण यह था कि जी.एन.पी. (ग्रास नेशनल प्रोडक्ट) के आकड़े उस प्रकार के उत्पादनों का आकलन प्रदान करते हैं जो देश के निवासियों की आय वृद्धि से सम्बन्धित विकास प्रक्रिया के सूचक हैं । इसके विपरीत सकल घरेलू उत्पाद (ग्रास डोमेस्टिक प्राडक्ट जी.डीपी.) के आकड़े उस उत्पादन का आकलन प्रस्तुत करते हैं जो देश की अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य का अनुमान कराते हैं ।
विश्व बाजार के नेताओं की रुचि भिन्न-भिन्न देशों की अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य में निहित है न कि वहां के नागरिकों के आर्थिक स्वास्थ्य में । अत: देश के बाजार में पश्चिमी ओद्योगिक देशों की भागीदारी बढ़ाने के लिए जी.डी.पी. आकड़ों की आवश्यकता पड़ी ।
साथ ही यह भी आवश्यक प्रतीत हुआ कि प्रत्येक विकासशील देश विश्व बाजार की शक्तियों की अपेक्षा के अनुरूप राष्ट्रीय आकडों का लेखांकन करे । एस.एन.ए. प्रश्नावलियां इन्हीं उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए तैयार की गई हैं ।
उनका अक्षरश: पालन कराने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ का सांख्यिकीय विभाग प्रत्येक विकासशील देश में विशेषज्ञ सांख्यिकी सलाहकारों की नियुक्त करता है । इन सलाहकारों की उपस्थिति विश्व स्तर पर एक प्रकार के अन्तरराज्यीय ज्ञान-निदेशक समुदाय का निर्माण करने में सफल हुई है ।
ये तीसरे विश्व की ”किसी राष्ट्रीय इकाई के पास क्या होना चाहिए, उसको प्राप्त करने के लिए उसे क्या करना चाहिए, तथा उसे अपने आपको कैसा वनाने का प्रयास करना चाहिए” आदि सम्बन्धी दिशा निदेश देते हैं । इसीलिए विद्वानों ने एस.एन.ए. निदेशों को विचार की मातृका की (मैट्रिक्स ऑफ थॉट) संज्ञा दी है ।