Read this article in Hindi to learn about the development of political geography after 1933 in the world.
1933 का वर्ष राजनीतिक भूगोल के विकास के इतिहास में एक महत्वपूर्ण विभाजक हे । जर्मनी में हिटलर की नाजी पार्टी इसी वर्ष सत्ता में आई थी । नाजी शासकों और हाउशोपार के भूराजनीतिक संस्थान के सदस्यों के वीच जर्मनी के विकास और प्रसार की दिशा के बारे में वैचारिक मतैक्य था ।
दोनों ही रैटज़ेल द्वारा प्रतिपादित राज्य की जैविक संकल्पना और उसकी राजनीतिक परिणति के पक्षधर थे । इस अवधारणा के अनुसार यूरोप का सबसे अधिक और सघन जनसंख्या वाला देश होने के कारण जर्मनी के लिए अपनी सीमाओं का विस्तार करना न्यायसंगत कार्य था ।
क्षेत्र विस्तार की इस प्रक्रिया की अन्तिम परिणति देश के राजनायकों का विश्वव्यापी साम्राज्य की स्थापना का सपना पूरा करना था । मैकिंडर की हृदय स्थल संकल्पना के रूप में देश के शासकों को अपने इस सपने को साकार करने का रास्ता स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था और वे हाउशोफ़र और उसके अनुयायियों की सहायता से इस ओर अग्रसर थे ।
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नाजी पार्टी और हाउशोफ़र के संस्थान के बीच यह वैचारिक मतैक्य ब्रिटेन, फ्रांस और अन्य सामुद्रिक शक्तियों को अपने लिए हानिकारक प्रतीत हुआ । परिणामस्वरूप इन देशों के बुद्धिजीवियों को जर्मन भूराजनीति और राजनीतिक भूगोल की रैटज़ोलियन अवधारणा से वितृष्णा उत्पन्न हो गई ।
अत: इन देशों के भूगोलविद राजनीतिक भूगोल की नई परिभाषा ढूंढने में लग गए । इस समय तक आधुनिक भूगोल की दो प्रमुख दार्शनिक संकल्पनाएं थीं । एक रैटज़ेल द्वारा प्रतिपादित पारिस्थितिकीय (इकोलॉजिकल) परिदृष्टि तथा दूसरी रिचथोफन तथा हेट्नर द्वारा प्रतिपादित क्षेत्रीय अथवा स्थानिक (कोरोलॉजिकल या रीजनल) परिदृष्टि ।
पश्चिमी यूरोपीय और अमरीकी भूगोलवेत्ताओं का अब रैटजेल की पारिस्थितिकीय परिदृष्टि पर आधारित राजनीतिक भूगोल से मोहभंग हो चुका था अत: हटिशोर्न (1935), ह्विटलसी (1935, 1939) तथा ईस्ट (1937) जैसे विद्वानों ने राजनीतिक भूगोल को रैटज़ेल की पारिस्थितिकीय संकल्पना से काट कर रिचथोफन और हेटनर की क्षेत्रीय परिदृष्टि के अनुरूप ढालने का प्रयास किया ।
इस दिशा में ह्विटलसी की पुस्तक “द अर्थ एण्ड द स्टेट’ (1939) सर्वाधिक प्रभावशाली सिद्ध हुई । भूराजनीतिकों के अनुसार भूराजनीति एक सोद्देश्य अध्ययन था जिसकी दृष्टि राज्य विशेष के क्षेत्रीय हितों को प्राप्त करने पर केन्द्रित थीं (“जिओपालिटिक्स स्टडीज़ द स्पेस फ्राम द वियु पाइण्ट ऑफ द स्टेट”) अत: ह्विटलसी ने रेखांकित किया कि भूगोल की शाखा के रूप में राजनीतिक भूगोल राज्य केन्द्रित अध्ययन न होकर भू-केन्द्रित अध्ययन है (पोलिटिकल जिओग्राफी स्टडीज़ द स्टेट फाम द वियुप्लाइंट ऑफ स्पेस) ।
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यह बात पुस्तक के शीर्षक से स्पष्ट थी । अर्थात् राजनीतिक भूगोल के अध्ययन में भू (क्षेत्र अथवा ”अर्थ”) पहले आता है और राज्य वाद में । अर्थात् राजनीतिक भूगोल क्षेत्रीय अध्ययन हैं । अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित होने वाली राजनीतिक भूगोल पर लिखी गई यह प्रथम पुस्तक थी जो अपने कई संस्करणों में बीसवीं सदी के मध्य तक इस विषय की मानक पाठयपुस्तक के रूप में प्रतिष्ठित रही ।
राजनीतिक भूगोल की क्षेत्रमूलक कायापलट में एक अन्य अमरीकी विद्वान रिचर्ड हार्टशोर्न (1935) का योगदान अध्यधिक महत्वपूर्ण था । राजनीतिक भूगोल को पुनर्परिभाषित करते हुए हटिशोर्न ने लिखा कि ”यदि क्षेत्रीय परिदृष्टि के अनुसार भूगोल क्षेत्रों का विज्ञान (साइंस ऑफ एरियाज) है तो तदनुरूप राजनीतिक भूगोल राजनीतिक क्षेत्रों का विज्ञान है ।
दूसरे शब्दों में राजनीतिक भूगोल में हम राज्यों को क्षेत्र के एक लक्षण के रूप में देखते हैं तथा इसका अध्ययन और विश्लेषण अन्य प्रकार के क्षेत्रीय लक्षणों के परिप्रेक्ष्य में सम्पन्न होता है” । शीघ्र ही यह परिभाषा राजनीतिक भूगोल की सर्वमान्य परिभाषा बन गई ।
इस नई परिभाषा के अन्तर्गत राजनीतिक भूगोल में राज्यों को मूलरूप से एक विशिष्ट प्रकार के क्षेत्र के रूप में देखा जाने लगा । एक ऐसा क्षेत्र जिसकी विशिष्टता इस बात में निहित थी कि उसकी सीमाएं राजनीतिक प्रभाव पर आधारित हैं ।
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परिणामस्वरूप भूगोल की अन्य शाखाओं की भांति राज्यों के अध्ययन में भी क्षेत्रीय विश्लेषण और क्षेत्रीय अध्ययन पद्धति का प्रचार हुआ । अत: राजनीतिक भूगोल का ध्यान मूलरूप से राजनैतिक इकाइयों (राज्यों) के क्षेत्रीय निरूपण (एरियल मॉर्फालॉजी) पर केन्द्रित हो गया ।
हार्टशोर्न (1935) के अनुसार इस अध्ययन पद्धति के मुखय चरण इस प्रकार हैं:
(1) राज्य के क्षेत्र का विवरणात्मक विश्लेषण (अर्थात्र इसकी स्थिति, आकार, ओर इसके प्राकृतिक और सांस्कृतिक भूदृश्यों का निरूपण) ।
(2) राज्य के क्षेत्र का व्याख्यात्मक निर्वचन । इसके अन्तर्गत क्रोड़ क्षेत्रों ओर राजधानी की स्थिति तथा उसके राजनीतिक परिणाम, सीमाओं की स्थिति और उनकी परिवर्तनशीलता आदि सम्मिलित थे ।
(3) राज्य की वर्तमान क्षेत्रीय सम्पदा का आकलन तथा तत्सम्बन्धी समस्याओं का विश्लेषण ।
इस नई विचारधारा के अनुसार प्रत्येक राजनीतिक क्षेत्र अपने आप में एक सम्पूर्ण क्षेत्रीय इकाई है जो अपनी तरह की अन्य राजनीतिक इकाइयों से सर्वथा भिन्न तथा अनूठी है । अत: राज्यों के भौगोलिक अध्ययन में सार्वभौंम नियमों के प्रदिपादन के प्रयास निरर्थक हैं ।
प्रत्येक राजनीतिक इकाई एक पृथक् मानव समष्टि ओर विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र के (अर्थात् पृथ्वी के एक विशिष्ट भाग के) पारस्परिक समायोजन का परिणाम है । इसी कारण भिन्न-भिन्न राजनीतिक इकाइयां अधिकांश महत्वपूर्ण मुद्दों में एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं । राजनीतिक भूगोल की मूल अवधारणा में यह बहुत बड़ा परिवर्तन था ।
रैटज़ेल की पारिस्थितिकीय अध्ययन विधि के अन्तर्गत राज्य एक क्रियाशील और जीवंत इकाई था । अन्य क्रियाशील संगठकों की भांति इसके आचरण के भी कुछ सामान्य ”नियम” अथवा प्रवृत्तियां थीं और अन्य मानवीय संगठनों की तरह इसके कुछ उददेश्य थे जिनकी प्राप्ति हेतु इसके विभिन्न अवयव सतत् क्रियाशील थे ।
अत: रैटज़ेल की अवधारणा के अनुसार प्रत्येक राज्य एक विशिष्ट प्रकार के सोद्देश्य मानवीय संगठन का प्रतिनिधित्व करता था । दूसरे शब्दों में वह एक वर्ग का सदस्य था और मोटे तौर पर उसकी आचरण पद्धति उस वर्ग के अन्य सदस्यों की आचरण पद्धति को समझने में सहायक थी । रैटज़ोलिक राजनीतिक भूगोल राज्यों के अध्ययन में साधारणीकरण अर्थात् सामान्य तथ्यों और नियमों की खोज का पक्षधर था । यह सिद्धान्तपरक (“नोमोथेटिक”) अध्ययन था ।
तत्कालीन राजनीतिक भूगोल ओर राजनीतिशास्त्र के अध्ययन में मूल अन्तर यह था कि राजनीतिशास्त्र एक ”नीतिपरक’ अध्ययन था, जबकि राजनीतिक भूगोल की पारिस्थितिकीय अवधारणा नैतिक मूल्यों के प्रति सर्वथा उदासीन क्षेत्रपरक राजनीतिक भूगोल के प्रवर्तकों के अनुसार राजनीतिशास्त्र और राजनीतिक भूगोल की संकल्पना में मुख्य अन्तर यह था कि राजनीतिक भूगोल भिन्न-भिन्न राजनीतिक क्षेत्रों को एक दूसरे से सर्वथा पृथक् और अनूठी क्षेत्रीय इकाइयों के रूप में देखता था, जबकि राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थी प्रत्येक राज्य को एक विशिष्ट प्रकार के संगठन का प्रतिनिधि मानते हैं । अत: राजनीतिक आचरण विचार और पद्धति का सिद्धान्तपरक अध्ययन राजनीतिक भूगोल के अध्ययन क्षेत्र के बाहर (ओर राजनीतिशास्त्र का भाग) माने जाने लगे ।