Read this article in Hindi to learn about the crisis of understanding in political geography.
राजनीतिक भूगोल में विचक्षण के संकट (क्राइसिस ऑफ अण्डरस्टैंडिंग) की शुरूआत टेलर (1992ए) के एक सम्पादकीय लेख से हुई जिसमें लेखक ने अपनी पत्रिका पोलिटिकल जिओग्राफी की प्रकाशन नीति को स्पष्ट करते हुए यह वक्तव्य दिया था कि पत्रिका में प्रकाशनार्थ शोध पत्रों का चयन मात्र उनकी गुणवत्ता के आधार पर किया जाता है परन्तु यह भी आवश्यक है कि वे लेख राजनीतिक भूगोल के क्षेत्र में हमारी सूक्ष्म दृष्टि या अवबोध के विकास में सहायक हों । उसी पत्रिका में इस सम्पादकीय लेख की चर्चा करते हुए जॉन्स्टन (1993 क) ने प्रश्न किया कि यहां सूक्ष्म दृष्टि या अवबोध का क्या अर्थ है ?
उन्हें शंका थी कि पत्रिका में प्रकाशित अधिकांश लेख वास्तव में दृष्टि के विकास में कोई सीधा योगदान करते हें ”वे महत्वपूर्ण सूचनाएं प्रदान कर सकते हैं जिनका दूसरे अध्येता प्रयोग कर राजनीतिक अध्ययन में सूक्ष्मदृष्टि के विकास का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं परन्तु शायद ही कोई राजनीतिक भूगोल का विद्यार्थी ऐसा करता दिखाई दे रहा है क्योंकि सूक्ष्मदृष्टि का विकास शोध प्रवन्धों के बजाय पाठ्यपुस्तकों की रचना और प्रकाशन द्वारा अधिक सफलतापूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है” ।
ADVERTISEMENTS:
टेलर की पुस्तक के 1993 के संस्करण की चर्चा करते हुए जांस्टन ने यह विचार व्यक्त किया कि पुस्तक का लेखक राजनीतिक भूगोल का स्वरूप स्पष्ट करने में विफल रहा है क्योंकि पुस्तक के लेखक के वक्तव्य के अनुसार राजनीतिक भूगोल का उद्देश्य ”समकालीन राजनीतिक मुद्दों के विश्लेषण में योगदान करना है” ।
परन्तु (जांस्टन के विचार में) टेलर की पुस्तक ऐसा कोई योगदान करने में असमर्थ रही है । पुस्तक का योगदान कुल मिलाकर इस बात में निहित है कि उसके माध्यम से लेखक ने वालरस्टाइन की विश्व व्यवस्था अवधारणा के आधार पर राजनीतिक भूगोल की समस्याओं के विश्लेषण की एक विधि का निरूपण किया है ।
इस विधि का उद्देश्य विश्व आर्थिक व्यवस्था की संरचनात्मक प्रक्रिया और उससे उत्पन्न प्रभावों के आधार पर राजनीति के विभिन्न स्तरों और विभिन्न पक्षों को समझने की विधा प्रस्तुत करना है । इस प्रकार यह विधि सही अर्थों में प्रत्यपनन (रिट्रोडक्शन) पद्धति है जिसके अन्तर्गत घटनाओं की व्याख्या उनको वर्तमान स्वरूप में संचालित करने मे सक्षम यंत्रावली की परिकल्पना के आधार पर करने का प्रयास होता है ।
ध्यातव्य है कि वालरस्टाइन की मूल अवधारणा की समीक्षा करते हुए समाजशास्त्री गिड्डेन्स ने इस संकल्पना की इसी कमी की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए इसे प्रकार्यवादी करार दिया या । विचक्षण के इस संकट का मूल कारण इस बात में निहित था कि राजनीतिक भूगोल के पुनर्जागरण के पश्चात् इसका अध्ययन समाश्रित (कण्टिजेण्ट) सम्बन्धों और उनके प्रभावों के विशलेषण पर केन्द्रित हो गया था ।
ADVERTISEMENTS:
अत: जीवन के प्राथमिक प्रश्नो से इसका नाता टूट गया था । राजनीतिक भूगोल मूलतया एक प्राविधिक (टेक्नोक्रेटिक) अध्ययन बन गया था । परिणामस्वरूप इसका चिन्तन मनन सतह पर दिखने वाले तत्वों के परीक्षण तक ही सीमित हो गया था ।
भावना (फीलिंग) और अंत: प्रक्षा (इन्ट्युशन), अर्थात् दार्शनिक चिन्तन इसकी परिधि से बाहर हो गए थे । परिणामस्वरूप राजनीतिक भूगोल सामाजिक चिन्तन की धारा से पूरी तरह कट गया था । स्थानिक परिदृष्टि इस संकट के समाधान में सिद्ध होगी ।