Read this article to learn about the various ways for protection from radiation in Hindi language.
(क) इकाइयां / मात्रक:
किसी भी भौतिक राशि का मात्रात्मक अध्ययन करने के लिए इकाई या मात्रक की आवश्यकता होती है । विकिरणीय भौतिक में इकाइयां मामंक व माप को अन्तर्राष्ट्रीय आयोग द्वारा निश्चित किया जाता हैं ।
निन्नलिखित-राशियों की इकाइयां आगे के परिच्छेदों में दी गई हैं:
1. सक्रियता
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3. मात्रा
2. उद्भास
4. समतुल्य मात्रा
1. सक्रियता:
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किसी स्त्रोत की सक्रियता से उस स्त्रोत से निर्गत विकिरण का अनुमान लगताहै । सक्रियता की परिभाषा एक सैकन्द में विघटनों की संख्या से दी जाती है । इसकी इकाई बैक्वेरल (Bq) होती है । अर्थात एक विघटन प्रति सैकण्ड वाले स्त्रोत की सक्रियता एक बैक्तेरल होती है ।
इसकी पुरानी इकाई क्यूरी है । 1 क्यूरी = 3.7 x 1010 विघटन/सैकण्ड के तुल्य होती है अर्थात 1 ci = 3.7 x 1010 Bq
2. उद्भास:
उद्भास की इकाई रौन्जन है । एक रौन्जन एक्स व गामा किरणों की वह मात्रा है जो 0.001293 ग्राम वायु में सह कणीय उत्सर्जन सहित 1.0 ई॰ एस॰यू॰ के धनात्मक अथवा ऋणात्मक आवेश पैदा करता है । एक्स या गामा किरणों से सहकणीय उत्सर्जन इलेक्ट्रानों का होता है ।
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इन इलेक्ट्रोनों का परास (सीमा दूरी) इतना अधिक होता है कि 0.001293 ग्राम में इन उत्सर्जित इलेक्ट्रोनों द्वारा उत्पन्न संपूर्ण आयनीकरण एकत्रित करना संभव नही है क्योंकि ये इलेक्ट्रोनों चारों और फैलते हैं । और 0.001293 ग्राम की सीमा से भी बाहर जाकर आयनीकरण करते हैं ।
इस समस्या को हल करने के लिए यह आयतन चारों ओर इलेक्ट्रोनों के परास के तुल्य दूरी में वायु से भरा होना चाहिए जिससे 0.001293 ग्राम वायु से इस क्षेत्र में जितने इलेक्ट्रान वहां आते हैं उतने इलेक्ट्रान यहां प्राथमिक आयनीकरण से उत्पन्न होकर वहां जा सके ।
प्राथमिक आयनीकरण इस क्षेत्र में आने वाले विकिरण से होगा । इस प्रकार 0.001293 ग्राम वायु से खोए इलेक्ट्रॉन की भरपाई हो जाती है । इसको विद्युतीय संतुलन अवस्था कहते हैं । (चित्र 6.4) रोन्जन की अन्तर्राष्ट्रीय मानक इकाई कूलम्ब प्रति किलोग्राम है । (1R = 2.50 x 1054 प्रति कि॰ ग्राम)
3. मात्रा (डोज):
इसको अवशोषित मात्रा भी कहते हैं । आयनीकरण द्वारा किसी निश्चित क्षेत्र में पदार्थ की प्रति इकाई मात्रा को प्रदान की ऊर्जा अवशोषित मात्रा या केवल मात्रा कहलाती है । पहले यह इकाई रैड थी अब अन्तर्राष्ट्रीय इकाई “ग्रे” है । एक ग्राम पदार्थ में 100 अर्ग की अवशोषित ऊर्जा एक रैड कहलाती है । 100 रैड एक ग्रे के बराबर होती है । अर्थात 1 किलोग्राम में 1 जूल (107 अर्ग) की अवशोषित मात्रा 1 ग्रे होती है ।
4. तुल्यमात्रा:
अन्तर्राष्ट्रीय विकिरण संरक्षण आयोग (आई॰सी॰आर॰पी॰ 60) की संस्तुतियों के अनुसार पहले कहा जाने वाला मात्रा तुल्यांक (डोज इक्विवैलेंट) अब तुल्य मात्रा (इक्विवैलेंट डोज) कहलाता है । विभिन्न विकिरण से उदभासित ऊतकों में जैविक क्षति विभिन्न हो सकती है 1.0 ग्रे गामा या एक्स मात्रा से क्षति की तुलना में 1.0 ग्रे अल्फा मात्रा से क्षति अधिक होगी ।
क्योंकि विभिन्न विकिरण द्वारा प्रति इकाई पथ ऊर्जा क्षय भिन्न-भिन्न होता है । कुल क्षतिविकिरण को अवशोषित ऊर्जा और प्रति इकाई पथ ऊर्जा क्षय पर निर्भर करती है । इस बाद की राशि पर गुणवता गुणक निर्भर करता है ।
एक्स व गामा के लिए गुणवता गुणक का मान एक लिया गया है । क्योंकि अल्फा गामा से 20 गुणा प्रभावशाली है अत: अल्फा का गुणवत्ता गुणक 20 हो जाता है । यों कहिए कि एक ही अवशोषित ऊर्जा के लिए अल्फा से क्षति गामा की तुलना में 20 गुणा होगी ।
(सारिणी 6.4 देखें) संपूर्ण क्षति की इकाई रैम अन्तर्राष्ट्रीय सीवर्ट है । इस प्रकार रैम/सीवर्ट में मात्रा = रैड x गुणवत्ता गुणक, सीवर्ट = ग्रे x गु० गुणक
(ख) संरक्षणों के लक्ष्य एवं उद्देश्य:
एक्स किरणों के आविष्कार के बाद से ही कार्मिक एवं जनसाधारण के लिए विकिरण सरंक्षण के लक्ष्य व उद्देश्य बदलते आ रहे हैं । प्रारंभ में विकिरण उद्मास या मात्रा में मापन का कोई साधन नहीं था ।
अत: लक्ष्य केवल यही था कि उद्मास इतना हो सकता हे कि उससे शरीर में दर्द नहीं । अत: कार्मिकों को तब तक कार्य करने की अनुज्ञा होती थी जब तक श्रईर में पीड़ा महसूस न होने लगे । इसलिए “सहने योग्य मात्रा” की विचार दर थी । बाद में संसूचन प्रणाली, मात्रा मापी के विकास और जोखिम के सम्बन्ध में जानकारी बढ़ने के साथ-साथ विचार धारा बदलती गई ।
विचारधारा बदलने के साथ अनुज्ञा सीमा भी बदलती गई । समय के साथ इस बदलाव को सारिणी 65 में तिथिवार दिया गया है । वर्तमान विचार धारा का आधार विकिरण से जोखिम की तुलना कार्मिकों के लिए अन्य व्यवसाय में जोखिम से और जनसाधारण के लिए दैनिकजीवन में जोखिम से करके अनुसय सीमा निर्धरित करना है ।
भारत:
1955- देशभर में विकिरण सुरक्षा कार्यक्रम चालू किया गया ।
1962 – परमाणु ऊर्जा अधिनियम बना ।
1971 – विकिरण संरक्षण नियम 1971 लागू किए गये ।
1992 – आई.सी.आर.पी. 60 के अनुसार अनुज्ञेय सीमा निश्चित करने की कार्यवाही की गई है । 5 रैम प्रतिवर्ष से धीरे-धीरे घटाकर कुछ वर्षों में 2 रैम प्रतिवर्ष लागू की जाएगी ।
अधिकमत अनुज्ञेय मात्रा सीमा (अन्अनुभा):
कार्मिकों के लिए विकिरण की अधिकतम अनुज्ञेय मात्रा सीमा का आधार अन्य सुरक्षित व्यवसायों में खतरे से तुलना करके उसे निर्धारित करना है । इसीप्रकार जनसाधारण के लिए दैनिक जीवन में अन्य खतरों से तुलना करके अधिकतम सीमा कार्मिक व जनसाधारण दो वर्गो के लिए निर्धारित की गई है ।
कार्मिक के लिए 50 मि॰ सीवर्ट/वर्ष निर्धारित की गई क्योंकि यह देखा गया है कि औसतन 5 मिली सीवर्ट/वर्ष ही प्रतिवर्ष प्राप्त होती है । और इस मात्रा पर खतरा अन्य सुरक्षित व्यवसायों में खतरे से कम है । इसी प्रकार जनसाधारण के लिए 5 मि॰ सीवर्ट निर्धारित की गई, पर जनसाधारण औसत मात्रा 1.7 मी॰ सीवर्ट से अधिक नहीं होनी चाहिए ।
इसके अलावा रिपोर्ट 26 से पहले N वर्ष की आयु तक कल विकिरण मात्रा (N-18) ली जा सकती थी पर उसके बाद से यह सूत्र हट गया अरै “जिस्सा” का सिद्धान्त लागू हुआ । इसके अलावा 18 वर्ष से कम की आयु के व्यक्ति विकिरण कार्य में नियुक्त नहीं किये जा सकते । यदि शरीर का केवल एक अंग ही उदभासित होता हो तो 50 मिली॰ सीवर्ट से भी अधिक विकिरण प्राप्त किया जा सकता है ।
विभिन्न अंगों के लिए अधिकतम अनुज्ञेय सीमा निम्न (सारिणी 6.5 a) में दी गई है:
यू॰ के॰ के आंकड़े:
सामान्य तौर पर यह अनुभव हुआ है कि कार्मिकों को औसत मात्रा अनुज्ञेय सीमा की दसवां भाग मिलती है । अत: 500 मिली रैम प्रति वर्ष मिलती है । विकिरण से जोखिम 1.25 x 10-4 प्रति रैम है । उपर्युक्त सीमाएं संभावित (स्टोकेस्टिक) प्रभावों के आधार पर हैं ।
तथापि इनकी कोई अवसीमा या देहली (थ्रेशोलड) नहीं है (अर्थात कोई ऐसी सीमा जिससे कम पर कोई प्रभाव नहीं हो ।) फिर यह संस्कृतियां दी गइं कि सीमा के अंदर विकिरण जितना कम हो सके उतना लें अर्थात जितना स्वल्प संभव हो उतना, इसे अंगेजी में ALARA का सिद्धान्त कहते हैं ।
उद्देश्य सुरक्षा या संरक्षण पर व्यय और फायदे में संतुलन करना है । अभी तक ऊपरी सीमा व्यावसायिकों के लिए प्रतिवर्ष 50 मिसी॰ / वर्ष एवं जन साधारण के प्रति व्यक्ति के लिए 5 मि॰ सी॰/ वर्ष थी, पर अब आई॰सी॰आर॰पी॰ 60 के अनुसार यह सीमाएँ बदल गई है, क्यों कि हिरोशिमा एवं नागासाकी के उत्तरीजीवियों को प्राप्त विकिरण मात्रा की पुन: गणना करने पर उन मात्राओं का मान कम पाया गया । अर्थात जो प्रभाव उत्तर जीवियों में देखे गए वे वास्तव में कम मात्रा पर हुए ।
अत: अनुज्ञेय सीमा को कम कर दिया गया है । अब 50 मी॰सी॰/प्रतिवर्ष के स्थान पर 100 मि॰सी॰ प्रति 5 (लगातार) वर्ष या औसतन 20 मि॰सी॰ प्रतिवर्ष पर किसी एक वर्ष में 50 मि॰सी॰ की अधिक से अधिकमात्रा ली जा सकती है । जनसाधारण के लिए यह मात्रा 5 मि॰सी॰ प्रति 5 वर्ष (लगातार) या 1 मि॰सी॰ प्रति वर्ष है । अधिकतम सीमा मात्रा सारिणी 6.7 में दी गई है ।
चिकित्सीय परीक्षणों में प्राप्त विकिरण के लिए कोई सीमा निर्धारित नहीं है पर किसी भी परीक्षण में मात्रा पर नियंत्रण आवश्यक है । विकिरण से किसी भी परीक्षण का औचित्य चिकित्सीय दृष्टि से होना चाहिए अर्थात ये परीक्षण तब ही करने चाहिए जब निदान के लिए दूसरी तकनीक संभव न हो ।
यदि परीक्षण करना अनिवार्य है तो ऐसे उपाय करने चाहिए जिससे कम से कम विकिरण प्राप्त हो । ऐसा, किरण पुंज की सीमा को नियंत्रण करके और अनावश्यक उद्भास न देकर किया जा सकता है । परीक्षण किए जाने वाले अंग के अलावा दूसरे अंगों को बचाना चाहिए ।
विशेषत: बच्चा पैदा करने की आयु वालों के जननांगों को बचाना अत्यन्त आवश्यक है । गर्भवती महिलाओं का परीक्षण टालना चाहिए । विशेष कर 8-15 सप्ताह के गर्म में तो कदापि नहीं लेना चाहिए क्योंकि इस अवधि में विकिरण मिलने पर मानसिक विकलांगता की काफी संभावना होती है ।
ग. सरंक्षण के सिद्धान्त:
किसी उद्भास के ऐच्छिक स्तर तक काम करने के लिए सामान्यता तीन विधियां है ।
1. स्त्रोत व कार्यक्षेत्र के बीच दूरी बढ़ा कर (चित्र 6.5)
2. अवरोधक बढ़कर (चित्र 6.6)
3. उद्भास समय घटाकर
1. दूरी:
विकिरण की तीव्रता स्त्रोत से दूरी के वर्ग के विलोमानुपाती होती है । यदि स्त्रोत की तीव्रता I रखी जाय अर्थात जहां I दूरी, ‘d’ विकिरण की तीव्रता है । पूरी तरह से यह सूत्र बिन्दु स्त्रोत के लिए ही उपयुक्त है । फिर भी सभी गणनाओं में व्यावहारिक रूप में इसका उपयोग किया जा सकता है ।
इसको इस प्रकार सिद्ध कर सकते हैं:
माना किसी स्त्रोत से q कण प्रति सैकण्ड निकल रहे हैं । ये कण सभी दिशाओं में जायेंगे । इसलिए यदि हम ‘d’ दूरी के व्यास का गोला विचार करें तो ये ‘q’ कण उस गोले की पूरी सतह पर पड़ेंगे । गोले का क्षेत्रफल क्योंकि 4πd2 से दिया जाता है, अत: तीव्रता q/4πd2 कण प्रतिवर्ग होगी ।
यदि तीव्रता I प्रदर्शित करे तो I = q/4πd2 यहां यदि ‘q’ का मान न बदले और क्योंकि 4π वंश स्थिरांक है । अत:
I α I/d2
अब यदि d = 2, तो I = q/4 π x 4 = q/16 π
और यदि d = 4 तो I = q/4n x 16 = q/64 π
इससे यह प्रदर्शित होता है कि दूरी को दुगना करने पर तीव्रता चौथाई रह जाती है । इसको सामान्य रूप से निम्नलिखित तरीके से दिखाया सकता है । माना कि d1 व d2 पर क्रमानुसार I एवं I2, तीव्रताएं हैं ।
तो I1 = k/d12, एवं I2 = k/d22
या I1/I2 = d22/d12 या I2 = I1/ d12/ d22
2. अवरोधक:
विकिरण जब पदार्थ से गुजरता है तो उसके परमाणुओं के साथ अन्तर क्रिया करके अपनी ऊर्जा क्षय करता है । एक्स व गामा किरणें पदार्थ के परमाणुओं से तीन मुख्य प्रक्रिया करती हैं । जैसे:
(1) प्रकाश-विद्युत प्रक्रिया (फोटोइलेक्टिक प्रोसेस) (चित्र 6.7 अ) जिसमें परमाणु के अधिकतम बाधित (बाउन्ड) इलेक्ट्रोन फोटोन को अवशोषित करते हैं । और फिर स्वतंत्र होकर बाहर आ जाते हैं ।
(2) क्रोम्पटन प्रक्रिया (चित्र 6.7 व) जिसमें फोटोन परमाणु को स्वतंत्र या न्यूनतम बंधित इलेक्ट्रोन से टकराता है और स्वयं पकीणित हो जाता है और स्वतंत्र इलेक्ट्रोन बाहर आ जाता है ।
(3) युग्म उत्पादन (चित्र 6.7c) जिसमें फोटोन नाभिकीय विधुत क्षेत्र में अवशोषित हो जाता है और पोजिद्रोन और नेगाट्रोन की जोड़ी उत्पन्न होती है । यह युग्म बाद में फिर मिल कर गामा फोटोन बना देता है । इन प्रक्रियाओं की संभावना फोटोन की ऊर्जा एवं अवशोषण माध्यम के परमाणु संख्या पर निर्भर करती है । सामान्यत: जैसे-जैसे ऊर्जा बढ़ती है वैसे-वैसे संभावना घटती है । काफी कम ऊर्जा पर प्रकाश विद्द्युत प्रक्रिया प्रमुख हाती है और मध्यम ऊर्जा का काम्पटन प्रक्रिया प्रमुख होती है ।
उच्च ऊर्जा पर युग्म उत्पादन की प्रमुखता होती है । पदार्थ में गुजरने पर विकिरण या तो अवशोषित होता है या विकीर्णित या बिना अन्तक्रिया किए ही बाहर निकल जाता है । (चित्र 6.8) इस प्रकार अवशोषण एवं प्रकीर्णन से किरण पुंज क्षीण होता है अर्थात ऊर्जा क्षय करता है ।
क्षीण होने की क्रिया घाताडंक (एक्पोनेन्शल) होती है । अर्थात क्षीण या अवरोध की एक सी मोटाई की परतों से तीव्रता में घटत समान अंश से होती है । या यों कहिए, पहली परत से यदि तीव्रता 16 से 4 हो जाती है तो दूसरी परत लगाने से 4 की 1 रह जाएगी ।
क्षीण हुई तीव्रता I को गणित द्वारा इस प्रकार दिखाते है:
I = Io Be–bx
घ. संरक्षण विधियां:
संरक्षण के लिए यह सुनिश्चित करना होगा कि
1. प्रतिष्ठान उपयुक्त है ।
2. संरक्षण के उपयुक्त साधन प्रयोग में लाए गए हैं ।
3. संयंत्र उपयुक्त हैं ।
4. कार्यविधि संतोष जनक है ।
प्रतिष्ठान और संयंत्र की उपयुक्तता पर, “रडीयोलोजी विभाग की योजना” अध्याय में चर्चा की जाएगी । जहाँ कार्यविधि और संरक्षण साधन पर चर्चा करेंगे ।