Read this article to learn about the various methods for reducing radiation scattering in Hindi language.
मुख्य एक्स किरणों के दो घटक होते हैं एक कहलाती है लक्षणात्मक (करेक्टरास्टिक) जो लक्ष्य के परमाणुओं के उत्तेजन के कारण पैदा होती है व दूसरी कहलाती है ब्रह्मस्टोहलंग जो लक्ष्य के परमाणुओं के नाभिकीय आवेश के कारण उस पर पड़ने वाले इलेक्ट्रानों के त्वरण परिवर्तन के कारण उत्सर्जित होती है ।
रोगी के शरीर में जैसे ही ये किरणें गमन करती हैं वैसे ही उनका अवशोषण व प्रकीर्णन शुरू हो जाता है । कुछ फोटोन प्रकाश विद्युत प्रक्रिया से अवशोषित हो जाते हैं व बाकी विभिन्न दिशाओं में प्रकीर्णित हो जाते हैं । अवशोषित फोटोन शरीर के परमाणुओं के इलेक्ट्रोनों को उत्तेजित करते हैं जो अधोत्साहित होने पर लक्षणात्मक एक्स किल्पें उत्सर्जित करते हैं ।
अत: निदान वाली ऊर्जा सीमा के फोटोनों के गमन करने के कारण शरीर में अधिकांश फोटोन काम्पटन प्रक्रिया द्वारा प्रस्थ्यईइं फोटोन होते हैं ओर कुछ प्रकाश विद्युतीय (फोटो इलेक्ट्रिक प्रोसेस) प्रक्रिय के फलस्वरूप उत्पन्न, लक्षणात्मक किरणों के फोटोन होते हैं । चूंकि प्रकीर्णित फोटोन सीधे रेखा में गमन नहीं करते |
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अत: बनने कर प्रतिबिम्ब विकृत हो जाता है । अच्छे रेडियाग्राफ में फिल्म घनत्व का अधिक से अधिक एक चौथाई भाग ही इन प्रकीर्णित किरणों के कारण हेय चाहिए । ट्यूब विभव, विकिरण क्षेत्र के क्षेत्रफल तथा उद्भासित भाग के मोटाई और घनत्व में वृद्धि होने से प्रकीर्णित विकिरण में वृद्धि होती है ।
प्रकीर्णित विकिरण का स्तर न्यूनतम करने के लिए विभिन्न विधियां काम में लाई जा सकती हैं जो निम्न प्रकार हैं:
1. पुंज प्राचल (पेरामीटर) का यथोचित चयन:
संपुंजक (कालीमेटर) द्वारा पुंज सीमा को घटा कर केवल वांछित भाग तक सीमित करने से प्रकीर्णिन के लिए ऊतक का कम आयतन उपलब्ध होता है अत: प्रकीर्णित विकिरण घटाया जा सकता है । इसके अलावा KVP घटाने से न केवल विपर्यास ही बढ़ता है वरन प्रकीर्णन भी कम होता है । हालांकि यह लाभ, कम KVP की किरणों की आवश्यक भेदन क्षमता न होने के कारण सीमित गहराई तक ही मिल सकता है ।
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2. रोगी की अनुकूल स्थिति करना:
जब चित्रण करने वाले स्थान पर फिल्म के बीच स्थित ऊतक की मोटाई अधिक हो तो प्रकीर्णन के कारण वांछित क्षेत्र का प्रतिबिम्ब विकृत हो जाता है । अत: वांछित क्षेत्र और फिल्म के बीच दूरी जितनी कम संभव है उतनी रखनी चाहिए ।
3. अंग का संपीडन:
चित्रण होने वाले अंग का जब संपीडन करते हैं (यानी कि उसकी मोटाई को देखते हैं) तब नरम या मुलायम ऊतकों के दबने के कारण जिस मोटाई से किरणें गुजर रही थीं वह कम हो जाता है ।
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4. वायु-अंतराल तकनीक:
यदि रोगी व फिल्म के बीच 15-20 सेमी की दूरी रखी जाय तो कम दूरी पर जो तिरछी प्रकीर्णित किरणें फिल्म पर पड़ रही थीं, वे अब दूरी के कारण फिल्म से अलग हटकर निकल जायेंगी और उसे प्रभावित नहीं करेंगी ।
5. ग्रिड का प्रयोग:
ग्रिड, सीसे (लेड) की पतली पट्टियों की एक कतार हैं जो निम्न परमाणु संख्या के पदार्थ पर समान दूरी पर इन पट्टियों को समानान्तर स्थित करके बनाई जाती हैं । यदि फिल्म व रोगी के बीच यह ग्रिड लगाई जाय तो बहुत सी प्रकीर्णित किरणें जो रोगी के शरीर से मुख्य किरणों के साथ कोण बनाती निकल रही हैं ।
ग्रिड द्वारा अवशोषित करली जाती हैं जिसके फलस्वरूप वे फिल्म को प्रभावित नहीं करती । हालांकि कुछ मुख्य किरणें भी अवशोषित होंगी पर अधिकांश भाग निकल जाने के कारण फिल्म पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा । फिर भी ग्रिड लगाने पर ‘केवी’ बड़ा देना चाहिए ।
6. तीब्रतावर्धक पट और फिल्म कैसेट का डिजायन:
क्योंकि फिल्म से पार होने वाली कुछ किरणें कैसेट धारक के पीछे से प्रकीर्णित होकर फिर फिल्म को प्रभावित कर सकती हैं । अत: कैसेट के पीछे एक अधिक परमाणु संख्या वाला धातु लगा दिया जाता है ।
इससे यह सुनिश्चित हो जाता है कि पीछे लौटने वाली प्रकीर्णित किरणें इस धातु द्वारा प्रकाश वियुत विधि से अवशोषित करती जाएंगी, जिससे वे फिल्म पर न पड़कर, प्रतिबिम्ब को धुंधला न करेंगी ।