मदर टेरसा पर अनुच्छेद । A Short Paragraph on Mother Teresa in Hindi Language!
‘मदर टेरसा’ को बीसवीं सदी का संत कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा । चेहरे पर अद्भुत लावण्य; सफेद साड़ी में लिपटी, सिर को ढके मदर टेरसा धरती पर ईश्वर का प्रतिरूप थीं । भौतिकता के इस युग में जब हम सब अपने स्वार्थों में व्यस्त हैं, स्नेह की प्रतिमा एवं दया की देवी मदर विश्व के लाखों दुखियारों की आशा का केन्द्र थी ।
ग्रह-विहीनों के लिये उनका निस्वार्थ काम एवं गरीबों वृद्धों एवं अपंगों की सेवा उनके महान हृदय का द्योतक है । मदर टेरसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 को स्कोपज में हुआ । उनका बचपन का नाम ऐजन्स गोनजा बोजाजियू था । उनका परिवार अलबेनियन समुदाय से संबन्धित था । वह कैथलिक थे । जबकि अधिकतर अलबेनीयन मुसलमान हैं ।
उनके पिता ‘कोल’ व्यवसायी थे एवं यात्राओं में व्यस्त रहते थे । उनकी माँ ‘ड्राना’ एक घरेलू स्त्री थीं । अपने भाई बहनों में वह सबसे छोटी थीं । ऐजेन्स जब नौ वर्ष की थी तो उनके पिता का देहान्त हो गया । उनकी माँ ने घर-परिवार की देख-भाल की । उन्होंने शादी के जोड़े सिलकर व कढाई करके अपनी जीविका कमानी प्रारम्भ की ।
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कठिनाई के बावजूद इनका परिवार धार्मिक प्रवृति का था । वह प्रतिदिन गिरिजाघर जाते थे प्रतिदिन सायं प्रार्थना करते एवं गुलाब की माला अर्पित करते एवं पवित्र मरियम की आराधना करते । वह प्रतिवर्ष ‘लेटनाइस’ की तीर्थयात्रा पर जाते जहाँ हमारी महिला को सम्मानित किया जाता यह परिवार की एक प्रथा थी ।
धार्मिक वातावरण में पालन पोषण का ऐजेन्स पर गहरा प्रभाव पड़ा । छोटी उम्र में ही उसने ईसाई धर्म की शिक्षा का सारतत्व समझना प्रारम्भ कर दिया । वह उपदेशों का पालन करने का प्रयत्न करती । उनकी माँ ने ऐजेन्स को सहृदय एवं दूसरों का स्नेह करने के गुण सिखाये । ड़ाना अपने तीनों बच्चों का बहुत ध्यान रखती थी ।
उनके पड़ोस की एक शराबी महिला की दयनीय स्थिति से द्रवित हो उन्होंने उसकी भी जिम्मेवारी ले ली । वह दिन में दो बार उनकी देखभाल करने जातीं । उन्होंने एक विधवा और उसके छ: बच्चों की सहायता की । जब ड्राना नहीं जा पाती तो ऐजेन्स उसका यह काम संभालती थी । विधवा की मृत्यु के पश्चात् बच्चे उनके घर का ही एक हिस्सा बन गये ।
इस तरह उसकी माँ के दुखियों के लिये दया-भाव एवं सहिष्णुता ने ऐजेन्स के हृदय में भी दूसरों के लिये प्यार और सेवा भाव का दीप जलाया । इसके हृदय का यह कोमल भाव उसके जीवन में इस तरह छा गया कि बाद में उसने दुनिया के सभी सुखों का त्याग कर दिया । उन्होंने अपना पूरा जीवन गरीब एवं जरूरत मदों के नाम कर दिया ।
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पहली बार 12 वर्ष की उम्र में उसके मन में ईश्वर का कार्य करते हुये जीवन व्यतीत करने की इच्छा बलवती हुई । किन्तु अभी परिपक्वता नहीं थी । उसने बहुत प्रार्थनायें कीं एवं अपनी माँ एवं बहन से इस बारे में बात की । उसने ‘लीगॉन ऑफ मेरी’ के फादर से भी अपनी इच्छा जाहिर की जिनकी उसने एक भाषा सीखने में मदद की थी ।
उसने उनसे पूछा कि: “मैं निर्णय कैसे ले सकूँगा ? उन्होंने उत्तर दिया, अपने आनन्द के माध्यम से । अगर तुम्हें इस विचार से खुशी होती है कि ईश्वर ने तुम्हें उसकी एवं तुम्हारे पड़ोसी की सेवा के लिये चुना है तो यह प्रमाण है कि तुम्हें आदेश मिला है… तुम्हारे अन्दर का वह गहन भाव तुम्हारा कम्पास है जो तुम्हारे जीवन को दिशा निर्देश देगा ।”
ऐजेन्स अठारह वर्ष की थी जब निर्णय लिया गया । दो वर्ष उसने लेप्टिस में कई धार्मिक निकायों में कार्य किया । तब उसने भारत में मिशनरी बनने का निर्णय लिया । तब उसने हमारी लोरेटो महिला जो उस समय भारत में सक्रिय थीं उनसे जुड़ने का निश्चय किया । 25 सितम्बर, 1928 को वह डब्लिन के लिये रवाना हुई जो लोरेटो बहनों का मातृग्रह है ।
यहां ऐजेन्स ने अंग्रेजी बोलना सीखा और उसे एक धार्मिक जीवन जीने का प्रशिक्षण मिला । बहनों की आदतें प्राप्त करने के पश्चात् उसने लिसिक्स की लिटिल टेरसा की स्मृति में अपने को ‘सिस्टर टेरसा’ कहलवाना पसन्द किया । एक दिसम्बर 1928 को ‘सिस्टर टेरसा’ एक नये जीवन की शुरूआत के लिये भारत रवाना हुई ।
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दार्जलिंग में अपना व्रत धारण करने के पश्चात् सिस्टर टेरसा ने एक छोटे से अस्पताल में स्वयँ को रोगियों एवं जरूरतमंदों की देखरेख के लिये समर्पित कर दिया । बाद में उन्हें एक अध्यापिका का प्रशिक्षण दिया गया । वह कलकत्ता के एक सैकेण्डरी विद्यालय की प्रधानाध्यापिका बनी ।
सिस्टर टेरसा विद्यार्थियों को इतिहास एव भूगोल ही नहीं पढ़ाती थीं बल्कि वह बच्चों के चरित्र एवं उनके परिवार के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिये भी समय निकालती थीं । जो भी उनके समीप आता उन्हें प्यार करता । बच्चों के साथ उन्हें इतना अधिक स्नेह था कि वह उन्हें ‘माँ’ बुलाने लगे । उनके संस्थान के बाहर ही कलकता की झुग्गी झोपड़ियां स्थित र्थी ।
दरिद्र लोग वहाँ अत्यन्त दयनीय एवं भयंकर परिस्थितियों में जीवन बसर करते थे । इससे उन्हें बहुत दुख हुआ । सिस्टर टेरसा दुर्दशा की इस व्यापकता से मुँह न मोड़ सकीं । वह कुछ लड़कियों के साथ वहां जाती और हर तरह से उनकी मदद करने का प्रयास करतीं । किन्तु उनका प्रयास उन्हें सन्तुष्ट नहीं कर पाता था ।
इन वर्षों के दौरान बेल्जियम-वालोन-जेसिट के फादर हेनरी से उन्हें बहुत प्रेरणा मिली । अपनी संतप्त आत्मा की शान्ति एवं मार्गदर्शन के लिये सिस्टर टेरसा 10 सितम्बर, 1937 का एकान्तवास के लिये दार्जलिंग गयीं । कई वर्षों पश्चात् मदर टेरसा ने इसे अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण यात्रा बताया ।
इसी यात्रा के दौरान उन्होंने ईश्वर की पुकार सुनी । उनका संदेश स्पष्ट था । उसने दरिद्रों की सहायता के लिये एवं उनके साथ रहने के लिये कान्वेन्ट छोड़ दिया । ”यह एक आदेश था एक कर्तव्य बिल्कुल स्पष्ट । मुझे ज्ञात था मुझे क्या करना है मगर मैं नहीं जानती थी कैसे ?” 10 सितम्बर को ‘प्रेरणा दिवस’ कहते हैं । कान्वेन्ट का छोड़ना सरल काम नहीं था ।
इस पर बहुत विचार करने की आवश्यकता थी । कलकत्ता के आर्चविशप श्री पिरियर ने इसके बारे में सोचा । उस समय की राजनैतिक स्थिति अनिश्चितता से भरी थी । भारत स्वतंत्रता प्राप्ति की राह पर था । प्रश्न उठा क्या एक यूरोप निवासी को स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् स्वीकारा जायेगा ? क्या रोम इस निर्णय से सहमत होगा ।
सेंट एना की बेटियाँ, सिस्टरस, जो गहरे नीले रंग की साड़ी पहनती थीं एवं गरीबों की सहायता के लिये काम करती थी उनके साथ जुड़ने से पूर्व सिस्टर टेरसा को कम से कम एक वर्ष प्रतीक्षा करने के निर्देश मिले । वह बहुत निराश हुई । वह गरीबों के बीच काम ही नहीं करना चाहती थीं उनके साथ रहना भी चाहती थीं और प्रतीक्षा उन्हें अन्तहीन लग रही थी ।
अगस्त, 1948 में उन्हें रोम से पोप की एवं डबलिन से मदर जनरल की लोरेटो समुदाय छोड़ने की सहमति मिली । मदर टेरसा ने 38 वर्ष की आयु में दरिद्रता, पवित्रता एवं अनुसरण का व्रत लिया । सिस्टरस ऑफ लोरेटो की भव्यता को त्याग उन्होंने नीले बार्डर वाली सफेद सस्ती सूती साड़ी पहननी प्रारम्भ की ।
इसके पश्चात् सिस्टर टेरसा नर्स का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिये पटना गयीं । उन्हें इस तरह के प्रशिक्षण तब महत्वपूर्ण लगा जब उन्होंने गन्दे एव अस्वस्थकर स्थान पर दरिद्रों के बीच रहने के जोखिम को समझा । अपना प्रशिक्षण पूर्ण करने के पश्चात् सिस्टर टेरसा कलकत्ता आयीं और गरीबों की सहायता एवं सहयोग करने जुट गयीं ।
शीघ्र ही कलकत्ता की झुग्गी झोपड़ियों में उनकी एक पहचान बन गयी । उनकी श्वेत साड़ी एवं धारा प्रवाह बंगाली एवं गंदी बस्तियों में सुधार के उनके अथक प्रयासों ने उन्हें लोकप्रिय बना दिया । एक एकाकी यूरोपियन महिला की निष्ठा को देख एक दिन एक युवा बंगाली लड़की जो पहले सिस्टर टेरसा की शिष्या रह चुकी थी उनके पास आयी और उनके इस महान कार्य में जुड़ने की इच्छा प्रकट करी ।
लड़की एक भरे पूरे परिवार की सदस्या थी सिस्टर टेरसा ने इस त्यागपूर्ण जीवन की कठिनाइयों से उसका परिचय करवाया और उसे एक वर्ष तक इस पर और सोचने को कहा अगर एक वर्ष बाद भी इस मिशन से वो जुड़ना चाहेगी तो ठीक है । 19 मार्च, 1949 को वह लड़की पुन: पूरी सादगी एवं निष्ठा के साथ प्रस्तुत हुई ।
सिस्टर टेरसा के साथ उनके मिशन में गरीबों के उत्थान के लिये जुड़ने वाली वह पहली स्त्री थी । सिस्टर सुबह तड़के उठ कर अपने कार्य में पूर्ण निष्ठा एवं आत्मिक बल के साथ जुट जाती थीं । यह बल उन्हें प्रार्थना से प्राप्त होता था । उसी समय अपने लक्ष्य के पूर्ण समर्पण के लिये सिस्टर टेरसा ने भारतीय नागरिकता ग्रहण कर ली ।
प्रत्येक बीतते दिन के साथ जरूरत मंदों की मदद करने की उनकी भावना और बलवती होती गयी । निरन्तर कार्य से उनके समुदाय में वृद्धि हुई । शीघ्र ही सिस्टर टेरसा एक धर्म सघ प्रारम्भ करने के विषय में सोचने लगीं । 7 अक्टूबर, 1950 को यह स्वप्न साकार हुआ ।
इस तरह चैरिटी के लिये मिशनरियों की सोसायटी का निर्माण सम्भव हुआ । यह पवित्र रोजरी के लिये एक प्रसन्नता का दिवस था । पांच वर्ष के पश्चात् यह धर्म संघ परमधर्माध्य क्षीय बन गया क्योंकि अधिक से अधिक सिस्टरस गरीबों की सेवा एवं सहायता के लिये अपने जीवन न्यौछावर करने का व्रत लेकर इस संघ से जुड़ गयीं ।
इस बढ़ती हुई सख्या के कारण कलकत्ता में चैरिटी की मिशनरियों को एक आवास की आवश्यकता थी । एक मुसलमान ने पाकिस्तान जाते समय अपना घर सस्ते दामों पर बेच दिया और यह प्रसिद्ध मर्दस हाउस, 54ए, लोअर (निम्न) सर्कुलर मार्ग, कलकत्ता में निर्मित हुआ ।
जैसे-जैसे सोसायटी बढ़ रही थी मदर का काम भी बढ़ रहा था । भारत के कोढ़ियों के बीच उनके काम को विश्व भर में मान्यता प्राप्त हुई । 1979 में उन्हें ‘शान्ति’ के लिये ‘नोबेल पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया । मदर टेरसा ने कहा: ”मैं अपने गरीब लोगों की गरीबी का चयन करती हूँ ।
किन्तु मैं भूखों, नंगों, बेघर, अपंग, अंधे, कुष्ठी और वह सभी लोग जो अपने को अवांछित महसूस करते हैं, जिन्हें प्यार नहीं मिला, जो समाज द्वारा धिक्कारे गये हैं लोग जो समाज पर बोझ बन गये एवं जिनसे लोगों ने नफरत की, इन सब के नाम पर यह नोबेल पुरस्कार प्राप्त करके आपकी आभारी हूँ ।”
5 सितम्बर, 1997 को 9.30 बजे सायं हृदय गति रुकने से मदर टेरसा का देहान्त हो गया । सम्पूर्ण विश्व के लिये यह एक असहनीय समाचार था । सिस्टर निर्मला को अपना उत्तराधिकारी चुनने के ठीक सात महीने पश्चात् 13 सितम्बर, 1997 को उन्हें दफनाया गया । इस निर्मल हृदय के अभाव को कोई नहीं भर सकता । मदर टेरसा सदैव उनकी स्मृति में जीवित रहेंगी जिनको उनके जीवनकाल में उनके स्पर्श का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।