भारत की आणविक (परमाणु) निरस्त्रीकरण नीति । “India’s Nuclear Disarmament Policy” in Hindi Language!
भारत की आणविक निरस्त्रीकरण नीति:
संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा प्रणाली स्थापित करने के प्रयास में निरस्त्रीकरण तथा शस्त्र नियंत्रण को प्रमुख तत्त्व माना है । भारत विश्व शांति को स्थापित करने में स्वतंत्रता के बाद से ही प्रयत्नशील रहा है ।
विश्व के सामने इस समय सबसे बड़ा संकट है: परमाणु युद्ध का खतरा । निरस्त्रीकरण विशेषकर परमाणु निरस्त्रीकरण भारत के लिए हमेशा से चिंता का विषय रहा है । परमाणु शस्त्रों की उपस्थिति और शस्त्रों की होड़ जारी रहना मानवता के अस्तित्व के लिए खतरा है । परमाणु हथियार न तो लड़ाई के शस्त्र हैं और न ही उन्हें शांति कायम करने में सहायक के रूप में गरिमा दी जानी चाहिए ।
भारत का हमेशा यह मत रहा है कि निरस्त्रीकरण के बारे में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत उद्देश्यों और सिद्धांतों में निहित दृष्टि, दिशा और अवधारणाओं का पूरी तरह से पालन किया जाना चाहिए नहीं तो विश्व समुदाय निरस्त्रीकरण का लक्ष्य प्राप्त करने में कभी सफल नहीं हो पाएगा ।
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परमाणु शस्त्रों के क्षेत्र में भारत ने शस्त्रों की होड़ समाप्त करने के लिए कई महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव पेश किए हैं । भारत का परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम परमाणु ऊर्जा का शांतिपूर्ण कार्यों के लिए इस्तेमाल करने को वचनबद्ध है । इस दिशा में किए गए कुछ प्रयास इस प्रकार हैं:
(1) 1954 में भारत ने सुझाव दिया कि जब तक व्यापक परमाणु शस्त्र परीक्षण प्रतिबंध का उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता तब तक परमाणु हथियारों के सभी परीक्षण स्थगित कर दिए जाएँ ।
(2) 1964 में भारत ने सुझाव दिया कि परमाणु शस्त्रों के फैलाव की समस्या हल करने के लिए हथियारों के विकास तथा विस्तार को एक साथ ही अंतर्राष्ट्रीय संधि की व्यवस्थाओं के अंतर्गत रोक दिया जाए ।
(3) 1974 में भारत ने परमाणु शस्त्रों के इस्तेमाल या इस्तेमाल की धमकी पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की माँग की क्योंकि इस तरह का कोई भी इस्तेमाल संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा-पत्र का उल्लंघन और मानवता के प्रति अपराध है ।
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(4) 1982 में भारत ने कुछ ठोस कार्यक्रम प्रस्तावित किए: (क) निरस्त्रीकरण पर आयोजित विशेष अधिवेशन में परमाणु शस्त्रों का प्रयोग न करने के लिए सबके लिए अनिवार्य रूप से मान्य संधि पर विचार किया जाए ।
(ख) वर्तमान शस्त्र भंडार में कमी लाने के पहले कदम के रूप में परमाणु शस्त्रों के निर्यात पर रोक लगे तथा भविष्य में इसका उत्पादन पूरी तरह रोक दिया जाए सभी परमाणु परीक्षण तत्काल स्थगित किए जाएँ निर्धारित समय-सीमा के भीतर सामान्य एवं पूर्ण निरस्त्रीकरण की संधि करने के लिए बातचीत की जाए और संयुक्त राष्ट्र संघ लोगों में परमाणु शस्त्रों के खतरों के बारे में जागरूकता पैदा करे ।
(5) 1984 में भारत ने अर्जेंटीना, मैक्सिको, स्वीडन, ग्रीस तथा तंजानिया के साथ मिलकर पाँच महाद्वीपों के छह देशों का शांति अभियान चलाया । इस अभियान के तहत परमाणु शक्ति वाले देशों से परमाणु शस्त्रों के परीक्षण उत्पादन एवं तैनाती पर रोक लगाने तथा हथियारों में कमी लाकर पूर्ण निरस्त्रीकरण की दिशा में बढ़ने की अपील की ।
(6) भारत ने 1925 की जिनेवा संधि, 1963 की आंशिक परीक्षण प्रतिबंध संधि, 1967 की बाह्य अंतरिक्ष संधि, 1971 की समुद्र तल संधि, 1972 की जैविक शस्त्र संधि और 1993 की रासायनिक हथियार संधि पर हस्ताक्षर किए ।
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किसी भी अंतर्राष्ट्रीय निरस्त्रीकरण समझौते के बारे में भारत की दृष्टि का आधार यह बुनियादी विचार रहा है कि केवल समान तथा भेदभावरहित संधियों से तनाव में कमी होती है और शांति होती है तथा निरस्त्रीकरण के लक्ष्य की ओर बढ़ने में मदद मिलती है ।
परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने से भारत का इन्दगर इसी दृष्टिकोण से प्रेरित है । जिन देशों के पास परमाणु शक्ति नहीं थी वे भी इस संधि के आलोचक थे । वे इसे भेदभावपूर्ण संधि मानते थे । उनकी आलोचना के मुद्दे इस प्रकार थे: (1) संधि के उन प्रावधानों का असमान स्वरूप जो केवल गैर-परमाणु देशों पर रक्षा उपायों को लागू करते हैं, (2) शस्त्रों से संपन्न राष्ट्रों को शांतिपूर्ण कार्यों के लिए परीक्षण करने का अधिकार देकर उनके आर्थिक हितों को कायम रखना (3) परमाणु हथियारों वाले देशों की वचनबद्धता की अस्पष्टता और (4) परमाणु शस्त्रों से रहित देशों की उचित सुरक्षा चिंताओं की अनदेखी ।
व्यापक परमाणु परीक्षण निषेध संधि (1996) यानी सी.टी.बी.टी को परमाणु हथियारों के विकास और विस्तार की रोकथाम का बहुत महत्वपूर्ण साधन माना गया । ऐसा दावा किया गया कि सभी विस्फोटों पर प्रतिबंध लग जाने से: (1) परमाणु शस्त्रों के विकास तथा स्तर में सुधार पर रोक लग सकेगी, (2) नई किस्म के उन्नत परमाणु शस्त्रों का विकास नहीं हो सकेगा, (3) परमाणु अप्रसार तथा परमाणु निरस्त्रीकरण की प्रक्रिया में मदद मिलेगी और (4) अंतर्राष्ट्रीय शांति तथा सुरक्षा मजबूत होगी ।
भारत ने सी.टी.बी.टी पर हस्ताक्षर करने को समयबद्ध निरस्त्रीकरण कार्यक्रम से जोड़ा । भारत का कहना था कि परमाणु अप्रसार संधि विश्व में परमाणु निरस्त्रीकरण के मसले से निपटने में विफल रही है । अपनी संभावनाओं के बारे में इस संधि की अंतर्निहित सीमाओं के कारण ऐसा नहीं लगता कि यह परमाणु निरस्त्रीकरण के लक्ष्य की दिशा में बढ़ पाएगी ।
भारत ने कहा कि वह इसे तभी स्वीकार कर सकता है जब पाँच परमाणु शस्त्र संपन्न देश परमाणु हथियारों को पूरी तरह समाप्त करने के समय बद्ध कार्यक्रम पर सहमत हो जाएँ । भारतीय परमाणु परीक्षण और निरस्त्रीकरण नीति के संबंध में विदेश नीति-परमाणु निरस्त्रीकरण पर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत का दृष्टिकोण सबसे पहले 1954 में सामने आया जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ‘स्टैंड स्टिल’ (जहाँ का तहाँ) (Stand still) समझौते का आह्वान किया था ।
भारत का दृष्टिकोण यह था कि परमाणु परीक्षण पर रोक के किसी भी समझौते से हथियारों की होड़ पर अकुश लगाने में मदद मिलेगी । इससे निरस्त्रीकरण पर समझौता होने का मार्गभी प्रशस्त होगा । 1956 तक परीक्षणों पर प्रतिबंध के बारे में विभिन्न देशों के अलग-अलग मत उजागर हो चुके थे ।
भारत और सोवियत संघ ने अंतर्राष्ट्रीय निगरानी के बिना ही सभी परमाणु परीक्षणों पर शीघ्र और अलग से समझौता करने का सुझाव दिया क्योंकि ऐसे परीक्षण छिपाए नहीं जा सकते । लेकिन पश्चिमी देशों का मत था कि पर्याप्त निगरानी के बाद ही परमाणु परीक्षणों पर सीमित रोक और अंतत: प्रतिबंध लगाया जाए । इसके फलस्वरूप अमेरिका, इंग्लैंड और सोवियत संघ ने आशिक परीक्षण प्रतिबंध संधि पर बातचीत प्रारंभ की ।
यह संधि 1963 में अस्तित्व में आई और भारत ने इस पर हस्ताक्षर किए । 1960 के दशक के अंतिम वर्षों में भारत ने इस बात पर चिंता प्रकट की कि परमाणु शस्त्रों वाले देश अपने शस्त्र भंडारी की जाँच के लिए कोई भी व्यवस्था करने से कतरा रहे हैं ।
इस चिंता को परमाणु अप्रसार संधि (एन.पी.टी.) पर बहस के दौरान दृढ़ता से प्रस्तुत किया गया । वास्तव में भारत ने इस संधि पर हस्ताक्षर करने से इनार करने कृएरर लिए इसके भेदभावपूर्ण स्वरूप को ही एकमात्र आधार बताया ।
1995 में परमाणु अप्रसार संधि को अनिश्चित काल के लिए बढ़ाने के फैसले और सी.टी.बी.टी पर बहस ने भारत को परमाणु निरस्त्रीकरण पर अपनी राय और स्पष्ट ढग से प्रस्तुत करने का मौका दे दिया ।
सी.टी.बी.टी पर भारत का रुख यह था कि यह परमाणु प्रसार के सभी पहलुओं को रोक पाने तथा अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा को बढ़ाने में कारगर भूमिका निभा पाने में समर्थ होनी चाहिए ।
इसलिए इस संधि में निरस्त्रीकरण और निश्चित समय-सीमा में परमाणु शस्त्र मुक्त विश्व का लक्ष्य प्राप्त करने की वचनबद्धता परिलक्षित होनी चाहिए । सी.टी.बी.टी के अंतिम पाठ का भारत ने यह कहकर विरोध किया कि इसमें परमाणु हथियारों वाले देशों को गैर-विस्फोटक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करके शस्त्रों से संबंधित अनुसंधान एवं विकास संबंधी गतिविधियाँ जारी रखने की छूट दी गई है ।
इसमें निरस्त्रीकरण के प्रति किसी सार्थक वचनबद्धता का अभाव था बल्कि स्थिति यह थी कि इसमें मौजूदा व्यवस्था को बनाए रखने की कोशिश थी । इसलिए बाद में फिस्साइल मैटीरियल कट-ऑफ ट्रीटी (Fissile Material Cut-off Treaty) पर हुई बहस इससे अलग नहीं थी ।
उल्लेखनीय है कि भारत अपने परमाणु परीक्षणों के बाद भी वैश्विक परमाणु निरस्त्रीकरण की अपनी माँग पर कायम है । भारत ने 1974 में पोखरण में अपने पहले परमाणु बम परीक्षण के 24 वर्ष बाद 11 तथा 13 मई, 1998 को कुछ और परमाणु परीक्षण किए ।
संसद में अपने वक्तव्य में प्रधानमंत्री श्री वाजपेयी ने पोखरण के बाद की भारत की परमाणु नीति के पहलुओं को स्पष्ट किया । पहला यह कि भारत न्यूनतम परंतु विश्वसनीय परमाणु प्रतिरोध क्षमता बनाए रखेगा । इसके लिए भारत को और परीक्षण करने की आवश्यकता नहीं है । इसलिए वह आगे परीक्षण करने पर स्वत: ही अपने ऊपर प्रतिबंध स्वीकार कर रहा है ।
दूसरा यह कि भारत परमाणु शस्त्रों के मामले में पहले इस्तेमाल न करने के सिद्धांत का पालन करेगा और अंतिम पहलू यह कि भारत वैश्विक परमाणु निरस्तीकरण पर अपनी वचनबद्धता जारी रखेगा । इस तीसरे पहलू का डरबन में गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में पुन: प्रतिपादन किया गया ।
17 अगस्त, 1999 को राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् द्वारा जारी भारतीय परमाणु सिद्धांत की रूपरेखा में भारत को सुरक्षा के बारे में फैसला करने की स्वायत्तता की बात कही गई । इसमें भारत की परंपरागत दृष्टि को प्रस्तुत किया गया कि सुरक्षा भारत की विकास प्रक्रिया का अभिन्न हिस्सा है ।
इसमें शांति और सुरक्षा में संभावित खलल पर चिंता प्रकट करते हुए विकास प्रक्रिया जारी रखने के लिए परमाणु प्रतिरोध क्षमता पैदा करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है । इस दस्तावेज में यह भी दलील दी गई है कि कोई वैश्विक परमाणु निरस्त्रीकरण नीति न होने के कारण भारत को अपने सामरिक हितों की रक्षा के लिए कारगर विश्वसनीय प्रतिरोध क्षमता और इस क्षमता के विफल हो जाने की स्थिति में पर्याप्त प्रतिकारात्मक क्षमता की आवश्यकता है । यह ‘पहले इस्तेमाल न करने’ के सिद्धांत और परमाणु निर्णय प्रक्रिया पर असैनिक नियंत्रण की व्यवस्था पर कायम है ।