Read this article in Hindi to learn about the details of forest conservation act.
1980 में पारित और 1988 में संशोधित वन संरक्षण अधिनियम के महत्त्व को समझने के लिए उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझना आवश्यक है । 1927 के भारतीय वन अधिनियम ने 1920 से पहले पारित वन संबंधी सभी कानूनों को समन्वित किया ।
इस अधिनियम ने सरकार और वन विभाग को आरक्षित वन (Reserved Forests) बनाने तथा आरक्षित वनों का उपयोग केवल सरकारी कामों के लिए करने का अधिकार दिया । इसने संरक्षित वन (Protected Forests) भी बनाए जिसमें स्थानीय जनता द्वारा संसाधनों के उपयोग पर नियंत्रण था । कुछ वनों पर गाँव समुदायों का नियंत्रण था और ये ग्राम वन कहलाते थे ।
यह कानून 1980 के दशक तक लागू रहा जब यह महसूस किया गया कि केवल इमारती लकड़ी के लिए वनों का संरक्षण उचित नहीं है तथा वनों से प्राप्त सेवाओं और उसकी जैव-विविधता जैसी मूल्यवान परिसंपत्तियों के संरक्षण का महत्त्व इमारती लकड़ी से प्राप्त राजस्व के महत्त्व से अधिक है । इस तरह एक नया कानून अनिवार्य हो गया । इसलिए 1980 में वन संरक्षण अधिनियम पारित हुआ जिसे 1988 में संशोधित किया गया ।
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भारत की पहली वननीति 1952 में बनी । 1952 और 1988 के बीच वनों का इतना विनाश हुआ कि वनों और उनके उपयोग पर एक नई नीति बनाना आवश्यक हो गया । पहले की वन नीतियों का केंद्र केवल राजस्व का सृजन था । 1980 के दशक में स्पष्ट हो गया कि वनों का संरक्षण उनके अन्य कार्यों के लिए भी आवश्यक है, जैसे मृदा और जल व्यवस्थाओं के संरक्षण के लिए जो पारितंत्र को सुरक्षित रखने में सहायक होते हैं । इसमें स्थानीय निवासियों के लिए वनों से प्राप्त वस्तुओं और सेवाओं के उपयोग की व्यवस्था भी थी ।
इस नए नीतिगत ढाँचे ने अन्य कार्यों के लिए वनों के उपयोग की संभावना काफी कम कर दी । नई नीति में एक प्राकृतिक धरोहर के रूप में वनों के संरक्षण को स्थान दिया गया है; इसमें जैव-विविधता और जीनी संसाधनों का संरक्षण भी शामिल है । इसमें लकड़ी, खाद्यपदार्थों, चारे और अन्य वन्य उत्पादों के बारे में स्थानीय जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति को भी महत्त्व दिया गया है ।
इसमें पर्यावरण के स्थायित्व और पारितंत्र के संतुलन की रक्षा को प्राथमिकता दी गई है । इसमें स्पष्ट कहा गया है कि संरक्षित क्षेत्रों के तंत्र को मजबूती और विस्तार दिया जाना चाहिए । 1992 में संविधान के 73वें और 74वें संशोधनों ने पंचायती राज को आगे बढ़ाया । इनके अनुसार राज्य स्थानीय पंचायतों को स्थानीय वन संसाधनों के प्रबंध का अधिकार दे सकते हैं ।
1980 का वन संरक्षण अधिनियम वनविनाश रोकने के लिए बनाया गया । इसने सुनिश्चित किया कि केंद्र सरकार की अग्रिम अनुमति के बिना वनों को अनारक्षित न किया जाए । यह इसलिए किया गया कि कुछ राज्य गैर-जंगलाती कामों के लिए वनों को अनारक्षित करने लगे थे ।
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इन राज्यों ने अतिक्रमण को नियमित किया तथा बाँधों जैसी विकास परियोजनाओं से प्रभावित व्यक्तियों को इन्हीं अनारक्षित क्षेत्रों में बसाया । इस तरह एक नया कानून फौरन आवश्यक हो गया । इस कानून द्वारा देश में तेजी से हो रहे वनविनाश पर अधिक नियंत्रण हो पाया और अपराधियों के लिए दंड की व्यवस्था भी हो पाई ।
आरक्षित वनों में अपराध के लिए दंड:
एक अरक्षित वन में किसी को भी कटाई करने या आग जलाने का अधिकार नहीं है । मवेशियों का आरक्षित वनों में प्रवेश वर्जित है । पेड़ गिराना, लकड़ी, छाल या पत्ते जमा करना, खनन कार्य करना या दूसरी वस्तुएँ जमा करना दंडनीय अपराध है जिनके लिए छह माह की कैद या 500 रुपये तक का जुर्माना या दोनों की सज़ा हो सकती है ।
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सरंक्षित वनों में अपराध के लिए दंड:
कोई व्यक्ति अगर पेड़ काटने, छाल नोचने या पत्ते तोड़ने, वनों को आग लगाने, फैलाव रोकने की सावधानी रखे बगैर आग जलाने आदि के अपराध करता है, इमारती लकड़ी ले जाता है या मवेशियों से किसी पेड़ को नुकसान पहुँचाता है तो उसे छह माह तक कैद या 500 रुपये तक का जुर्माना या दोनों की सजा हो सकती है ।
अगर यह मानने का स्पष्ट कारण हो कि किसी वन्य उत्पाद के सिलसिले में वन में अपराध किया गया हैं तो उसमें प्रयुक्त सभी औजारों और उत्पाद को किसी वन अधिकारी या पुलिस अधिकारी द्वारा ज़ब्त किया जा सकता है । इस धारा के अंतर्गत किसी वस्तु को जब्त करनेवाला अधिकारी उस पर जब्ती दिखानेवाला एक निशान लगाएगा और जब्ती की सूचना मजिस्ट्रेट को देगा जिसे उस अपराध पर मुकदमा चलाने का अधिकार होगा । मजिस्ट्रेट के आदेश या वारंट के बिना भी कोई वन अधिकारी ऐसे किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है जिसके बारे में संदेह का कोई आधार हो ।
इस अधिनियम के समर्थन में हम क्या कर सकते हैं?
i. अपने स्थानीय हरित क्षेत्र में, जैसे आरक्षित और संरक्षित वनों में और संरक्षित क्षेत्रों में राष्ट्रीय पार्कों और अभयारण्यों में हो रही विध्वंसक गतिविधियों के प्रति सजग रहें । ऐसे किसी कार्य की सूचना वन विभाग को और प्रेस को भी दें । उल्लंघन की खबर वन संरक्षक, जिला वन अधिकारी, रेंज वन अधिकारी, वनों के गार्डों, जिला कमिश्नर को या स्थानीय निकाय को दी जा सकती है ।
ii. सरकार द्वारा पारित कानूनों, विस्तृत नियमों और आदेशों की जानकारी प्राप्त करें ।
iii. संबंधित स्थानीय गैर-सरकारी संगठनों से संपर्क रखें । अपने क्षेत्र में ऐसा कोई संगठन न हो तो समान विचारवालों के साथ मिलकर एक संगठन बनाएँ ।
iv. राष्ट्रीय पार्कों और अभयारण्यों के अस्तित्व और महत्त्व की चेतना जगाएँ तथा वन में होनेवाले गैरकानूनी कार्यों या वन्यजीवन के लिए पैदा होनेवाले विघ्न के खिलाफ जनमत तैयार करें ।
v. हरित क्षेत्रों की रक्षा के लिए अधिकारियों पर वन और वन्यजीवन से संबंधित कानूनों और नियमों को लागू कराने के लिए दबाव डालें ।
vi. आवश्यक हो और संभव हो तो दोषी पक्ष के खिलाफ एक जनहित याचिका के द्वारा कानूनी कार्रवाई करें । ऐसे गैर-सरकारी संगठनों की सहायता लें जो कानूनी कार्रवाई करा सकते हैं ।
vii. आवश्यक हो तो नियमों और कायदा-कानून को बदलवाने के लिए जनमत द्वारा दबाव डलवाएँ ।
viii. बेहतर और पर्यावरण-संवेदी सार्वजनिक यातायात और साइकिल मार्गों का प्रयोग करें । वन क्षेत्रों में गंदगी न फैलाएँ ।
ix. पौधे लगाकर, सींचकर और उनकी देखभाल करके हरियाली बचाने में भाग लें ।
वन संबंधी अपराधों की खबर किसे दी जाए?
यदि कोई व्यक्ति आरक्षित वनों, संरक्षित वनों, राष्ट्रीय पार्कों, अभयारण्यों या किसी अन्य वन क्षेत्र में पेड़ गिराता है, वन की भूमि पर अतिक्रमण करता है, कूड़ा फेंकता हैं, हरा पौधा काटता है और आग जलाता है तो आप इसकी खबर संबंधित वन/वन्यजीवन अधिकारी को दे सकते हैं । फौरन कार्रवाई के लिए पुलिस से संपर्क किया जा सकता है । वास्तव में आपको किसी भी हालत में एक प्राथमिकी रिर्पोट तो दर्ज करानी ही चाहिए, क्योंकि यह इसका एक महत्वपूर्ण सबूत है कि आपने रिपोर्ट दी है ।