Read this article in Hindi to learn about environmental issues and human rights.
पर्यावरण के अनेक मुद्दों का मानवाधिकारों से गहरा संबंध है । इनमें पर्यावरणीय संसाधनों का समतामूलक वितरण, उनका उपयोग और बौद्धिक संपदा अधिकार, खासकर संरक्षित क्षेत्रों के आसपास जनता और वन्यजीवन के बीच का टकराव, बाँधों और खदानों जैसी विकास परियोजनाओं से जुड़ी पुनर्वास के प्रश्न तथा स्वास्थ्य के लिए पर्यावरण से जुड़े रोगों की रोकथाम शामिल हैं ।
समता (Equity):
पर्यावरण संबंधी प्रमुख प्रश्नों में एक प्रश्न यह है कि किसी समुदाय विशेष में संपत्ति, संसाधनों और ऊर्जा का वितरण कैसा हो । हम वैश्विक और क्षेत्रीय समुदाय के प्रश्नों, राष्ट्रीय, पारिवारिक और व्यक्तिगत प्रश्नों के बारे में सोच सकते हैं । जहाँ आर्थिक विषमताएँ जीवन की सच्चाई हैं, वहीं एक समुदाय के नागरिकों के रूप में हमें समझना चाहिए कि अमीर और गरीब, पुरुष और स्त्री या मौजूदा और भावी पीढ़ियों के बीच का बढ़ता अंतर कम करना होगा ताकि सामाजिक न्याय संभव हो सके ।
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आज आर्थिक रूप से विकसित और विकासशील देशों के बीच अंतर बहुत ज्यादा है । अनेक संस्कृतियों में स्त्रियों के मुकाबले पुरुषों के लिए एक बेहतर जीवनशैली उपलब्ध है । यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि हम मौजूदा पीढ़ी के लोग भावी पीढ़ियों को दरिद्र बनाकर अपने सभी संसाधनों का लोलुप उपयोग नहीं कर सकते । भूमि, जल, भोजन और आवास के अधिकार उसी पर्यावरण के अंग हैं जिसमें हम सभी भागीदार हैं ।
लेकिन जहाँ कुछ लाग भारी उपभोग पर आधारित अनिर्वहनीय जीवनशैली अपनाए हुए हैं, वहीं बहुत-से दूसरे लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं । हमारे जैसे विकासशील देश में भारी आर्थिक असमानताएँ मौजूद
हैं । इसलिए जरूरत ऐसी नैतिकता की है जिसमें समतामूलक वितरण प्रत्येक व्यक्ति की सोच का अंग बने ।
पर्यावरण में मौजूद प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग का अधिकार मानवाधिकारों का एक अभिन्न अंग है । इसका संबंध समाज के विभिन्न अंगों को प्राप्त संसाधनों संबंधी विषमताओं से है । निर्जन समुदायों में रहनेवाली जनता को ‘पारितंत्री जनता’ (ecosystem people) कहते हैं । वे खाद्य पदार्थों, लकड़ी और जंगलात की पैदावरों को जमा करते हैं, जलीय पारितंत्रों में मछलियाँ पकड़ते हैं या जंगलों और चरागाहों में शिकार करते हैं ।
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जब भूमि का उपयोग बदलता है तथा प्राकृतिक पारितंत्रों को सघन खेती के मैदान और चरागाहें बना दिया जाता है तो आम तौर पर इस आदिवासी जनता के अधिकारों की बलि चढ़ा दी जाती है । लुगदी और कागज उद्योग को बाँस पर दिए जानेवाले अनुदानों की मिसाल लीजिए जिससे इस उद्योग के लिए यह बाँस अनेक गुना सस्ता हो जाता है, जबकि अपना घर बनाने के लिए बाँस का प्रयोग करनेवाला ग्रामीण कोई अनुदान नहीं पाता ।
राह बात परंपरागत रूप से मुफ्त मिलनेवाले संसाधनों को जमा करने के मानवाधिकार का हनन करती है । एक और प्रश्न छोटे परंपरागत मछुआरों का है जिनको यांत्रिक ट्राउलरों से प्रतियोगिता करनी पड़ रही है जो समुद्री पारितंत्र में मछलियों का अत्यधिक शिकार करके उन्हें मछलियों से वंचित कर रहे हैं । इन लोगों की जीविका का अधिकार बड़े पैमाने के संयंत्रित, मछली मारनेवाले के शक्तिशाली आर्थिक हितों से टकराता है ।
जल जैसे बुनियादी संसाधनों तक के लिए ग्रामीण समुदायों के अधिकारों के और औद्योगिक क्षेत्र के बीच गंभीर टकराव हैं क्योंकि अपनी उत्पादकता बनाए रखने के लिए उद्योगों को भारी मात्रा में जल चाहिए । बाँध और खनन जैसी बड़ी विकास परियोजनाएँ भूमि और साझे संसाधनों पर आदिवासी जनता के अधिकारों का हनन करती हैं । मूलवासी जनता के अधिकारों के आंदोलन आज दुनियाभर में तेज हो रहे हैं ।
पर दशकों पहले की जा चुकी कार्रवाईयों को पलटना ऐसी पेचीदा समस्या है जिसका कोई आसान हल नहीं है । अनेक मामलों में अधिक से अधिक सावधानी और संवेदनशीलता के साथ वार्ताएँ चलाकर ही न्यायपूर्ण लेनदेन किया जा सकता है । इसके लिए पर्यावरण के स्थानीय मुद्दा की और साथ ही स्थानीय जनता के अधिकारों की गहरी समझ आवश्यक है ।
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पोषाहार, स्वास्थ्य और मानवाधिकार (Nutrition, Health and Human Rights):
पर्यावरण, पोषाहार और स्वास्थ्य के बीच ऐसे संबंध हैं जिन पर मानवाधिकारों की दृष्टि से विचार करना आवश्यक है । समुचित पोषाहार और स्वास्थ्य बुनियादी मानवाधिकार हैं । जीवन का अधिकार हमारे संविधान में एक बुनियादी अधिकार है । चूँकि एक ह्रासमान पर्यावरण जीवन की अवधि को कम करता है, इसलिए यह बात हमारे बुनियादी संवैधानिक अधिकार का हनन है ।
पोषाहार अमीर और गरीब, समस्त जनता के स्वास्थ्य को प्रभावित व निरूपित करता है । इसका संबंध इससे है कि हम किस प्रकार बढ़ते, विकास करते, काम करते, खेलते, संक्रमण का प्रतिरोध करते तथा व्यक्तियों, समुदायों और समाजों के रूप में अपनी आकांक्षाओं को साकार करते हैं । गरीबी, भूख, कुपोषण और कुप्रबंधित पर्यावरण ये सब हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करते और एक देश के सामाजिक-आर्थिक विकास को बाधित करते हैं ।
खासकर विकासशील देशों में लगभग 30 प्रतिशत मानव इस समस्या से ग्रस्त हैं । 20वीं सदी की स्वास्थ्य क्रांति में पीछे छूट गए लाखों लोगों को समझने और सहारा देने के लिए मानवाधिकार का दृष्टिकोण आवश्यक है । हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारे पर्यावरण संबंधी मूल्य और हमारी दृष्टि का संबंध मानवाधिकारों से हो और उनके लिए बेहतर कानून बनें जिनको बेहतर पर्यावरण, बेहतर स्वास्थ्य और बेहतर जीवनशैली की आवश्यकता है ।
स्वास्थ्य और निर्वहनीय मानव विकास समता के मुद्दे हैं । हमारी विश्वीकृत 21वीं सदी में एक स्वास्थ्यकर पर्यावरण, पोषाहार में सुधार और निर्वहनीय जीवनशैलियों के साथ-साथ समता का आरंभ नीचे से होना चाहिए । पहली बात पर पहले विचार करते हुए हमें यह भी समझना होगा कि रोगों की रोकथाम और उन्मूलन के लिए आवंटित संसाधन तभी कारगर होंगे जब हम उनके बुनियादी कारणों, जैसे कुपोषण और पर्यावरणीय प्रश्नों और उनके परिणामों को सफलता से उठाएँ ।
बौद्धिक संपदा अधिकार और जैव-विविधता की सामुदायिक पंजिकाएँ (Intellectual Property Rights (IPRs) and Community Biodiversity Registers (CBRs)):
पारंपरिक और खासकर वनवासी आदिवासी जनता ने अनेक पीढ़ियों से स्थानीय पौधों और पशुओं का उपयोग किया है । ज्ञान के इस भंडार से आधुनिक दवा-उद्योग की अनेक नई ‘खोजें’ हुई हैं । ऐसे ‘परिणामों’ से पैदा राजस्व उस दवा उद्योग को जाता है जिसने अनुसंधान करके उत्पादों का पेटेंट कराया हो । इससे मूल आदिवासी उपभोक्ता के लिए कुछ नहीं बचता जबकि उद्योग को अरबों रुपयों की कमाई होती है ।
इन उत्पादों के उपयोग के बारे में मूलवासी जनता के लिए एक संभावित उपाय जैव-विविधता की एक सामुदायिक पंजिका तैयार करना है जिसमें स्थानीय उत्पाद और उनके उपयोग दिए गए हों ताकि दवा उद्योग उनका दोहन करे तो स्थानीय समुदाय को रायल्टी मिले । पर अभी भी इस बात को आम तौर पर स्वीकार नहीं किया गया है । ऐसी व्यवस्थाएँ करनी होंगी कि स्थानीय परंपरागत उपभोक्ताओं के अधिकारों की सुरक्षा हो सके ।
पारपंरिक चिकित्सा (Traditional medicine):
पारंपरिक चिकित्सा से तात्पर्य स्वास्थ्य के उन तौर-तरीकों, दृष्टिकोणों, ज्ञान और विश्वासों से है जो पौधों, प्राणियों और खनिजों पर आधारित, अकसर स्थानीय या क्षेत्रीय मूल की दवाओं से है । इसका संबंध आध्यात्मिक चिकित्सा, शारीरिक तकनीकों और अभ्यासों से हो सकता है । रोगों के निदान, इलाज और रोकथाम के लिए या मानव कल्याण के लिए इनका प्रयोग अलग-अलग या एक साथ मिलाकर भी किया जा सकता है । पारंपरिक चिकित्सा अकसर पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती है या किसी विशेष जाति या कबीले को ज्ञात हो सकती है ।
पारंपरिक चिकित्सा की लोकप्रियता विकासशील जगत के सभी क्षेत्रों में कायम है और औद्योगिक देशों में उसका उपयोग तेजी से बढ़ रहा है । भारत में प्राथमिक स्वास्थ्य-रक्षा की कुछ आवश्यकताएँ केवल पारंपरिक चिकित्सा से पूरी होती हैं, जबकि अफ्रीका में लगभग 80 प्रतिशत जनता प्राथमिक स्वास्थ्य-रक्षा में इसका प्रयोग करती है । औद्योगिक देशों में पारंपरिक चिकित्सा के रूपों को ‘पूरक’ या ‘वैकल्पिक’ चिकित्सा कहा जाता है ।
पारंपरिक चिकित्सा के कुछ अपने लाभ होते हैं क्योंकि यह सस्ती और स्थानीय स्तर पर उपलब्ध होती है । तो भी यह कुछ रोगों का कारगर इलाज नहीं कर सकती । इससे यह खतरा पैदा होता है कि पारंपरिक चिकित्सा कर रहा व्यक्ति को सही इलाज न मिल सके और उसे सही इलाज की तलाश में देर हो जाए । पारंपरिक तौर-तरीके कारगर हों, यह सुनिश्चित करने के लिए उनके दावों पर सावधानी से अनुसंधान करने की आवश्यकता है ।
रोगी की सुरक्षा के मुद्दों के अलावा यह खतरा भी है कि जड़ी-बूटियों का बढ़ता बाजार और उनके भारी व्यावसायिक मुनाफे के कारण जैव-विविधता को हानि पहुँचे, क्योंकि जड़ी-बूटियों पर आधारित दवाओं और स्वास्थ-रक्षा के अन्य प्राकृतिक उत्पादों का अति-दोहन हो सकता है । अनेक हिमालयी पौधों के साथ यही बात देखी गई है ।
निर्जन क्षेत्रों से पौधों के दोहन को नियंत्रित नहीं किया गया तो पौधों की अनेक संकटग्रस्त प्रजातियाँ नष्ट हो सकती हैं और अनेक प्रजातियों के प्राकृतिक आवास नष्ट हो सकते हैं । एक और संबंधित प्रश्न यह है कि आज पेटेंट कानून के अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों से और अनेक देशों के परंपरागत पेटेंट कानूनों से प्राप्त संरक्षण परंपरागत ज्ञान और जैव-विविधता की सुरक्षा के लिए अपर्याप्त है ।
ऐसी अनेक सुपरिचित वैज्ञानिक विधियाँ और उत्पाद हैं जिनके मूल पारंपरिक चिकित्सा की विभिन्न विधियों में हैं । वास्तव में 25 प्रतिशत आधुनिक दवाएँ ऐसे पौधों से बनती हैं जिनका पारंपरिक उपयोग होता था । हमें पता है कि योग से दमा के दौरे कम आते हैं ।
पारंपरिक चिकित्सा अनेक संक्रामक रोगों के लिए कारगर पाई गई है । विकासशील देशों की कोई एक-तिहाई से अधिक जनता बुनियादी एलोपैथिक दवाओं से वंचित है । सुरक्षित और कारगर पारंपरिक विधियों का व्यवहार स्वास्थ्य-रक्षा में वृद्धि का साधन हो सकता है ।