साहित्य और समाज । Article on the Influence of Literature on Society in Hindi Language!
साहित्य के शाब्दिक अर्थ पर यदि जाएं तो इसका अर्थ होता एक ऐसी विधा ”जिसमें हित की भावना सन्निहित हो ।” अत: साहित्य हित-चिंतन की भावना से ओत-प्रोत होता है । हालांकि मनुष्य भी हित-चिंतन की भावना से ओत-प्रोत होता है, किंतु इस भावना में ‘अहं’ मुख्य रूप लिए रहता है ।
मनुष्य की दृष्टि सीमित होती है जो स्वार्थपूर्ति करके वापस लौट आती है परतु साहित्य में विश्व-कल्याण की भावना प्रबल होती है । एक व्यक्तिगत हित-चिंतन है, तो दूसरा समष्टिगत हित-चिंतन । जिस साहित्य का लक्ष्य समष्टिगत हित-चिंतन होता है, असल मायनों में वही साहित्य है ।
प्रत्येक युग का श्रेष्ठ साहित्य अपने युग के प्रगतिशील विचारों द्वारा किसी न किसी रूप में अवश्य प्रभावित करता है । क्योंकि प्रगतिशील विचार ही श्रेष्ठ साहित्य की आधारशिला रखते है । पेट की भूख मिटाने के लिए जिस प्रकार से रोटी की आवश्यकता पड़ती है ।
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ठीक वैसे ही मस्तिष्क की भूख मिटाने के लिए एक स्वस्थ साहित्य की आवश्यकता होती है । साहित्य के द्वारा हम अपने राष्ट्रीय इतिहास देश की गौरव-गरिमा सभ्यता-संस्कृति पिछली पीढ़ी के प्रगतिशील विचारों एवं अनुसंधानों रीति-रिवाजों के बारे में जानते हैं ।
आज से एक शताब्दी पहले देश के कौन से भाग में किसका शासन था और कौन-कौन से रीति-रिवाज प्रचलित थे ? इन सबके विषय में साहित्य हमें जानकारियाँ उपलब्ध कराता है । हजारों वर्ष पूर्व भारतीय अध्यात्म के सिद्धांतों की परिकल्पना रखी गई और इन्हीं सिद्धांतों की कीर्ति को व्यवहारिक रूप में अनेक भारतीय साधु-संन्यासियों ने विश्वभर में प्रचारित-प्रसारित किया ।
कवि वाल्मीकि की पवित्र वाणी आज भी हमें जीवन की कठिनाइयों में हौसला बंधवाती-सी प्रतीत होती है । गोस्वामी तुलसीदास के साहित्यिक विचार आज भी अंधरी नगरी में दीपक लिए मानवीय कमजोरियों को उभार कर राह दिखाते प्रतीत हो रहे हैं ।
कालीदास का अमर काव्य आज भी रघुवंशियों के लोकप्रिय शासन का आदर्श उपस्थित कर रहा है । जिस देश और जाति के पास जितना अधिक उन्नत एवं समृद्धशाली साहित्य होगा उस देश की संस्कृति एवं सभ्यता उतनी ही अधिक समृद्ध प्रगतिशील और स्थायी मानी जाएगी ।
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कितनी ही जातियाँ और कितने ही नवीन धर्मो का प्रादुर्भाव हुआ, किंतु स्वस्थ एवं ऊर्जावान साहित्य के अभाव में वे सब मिट गए । इसी को ध्यान में रखकर इंकलाबी शायर इकबाल ने कहा:
”यूनान, मिश्रों, रोमां, सब मिट गए, जहां से,
कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी ।”
साहित्य और समाज के बीच भी एक प्रकार से अविच्छिन्न संबंध है । दोनों ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से एक-दूसरे पर आश्रित हैं । स्वस्थ समाज के बिना स्वस्थ साहित्य की परिकल्पना नहीं की जा सकती । समाज यदि शरीर है तो साहित्य उसकी आत्मा है ।
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साहित्य का निर्माण मानव-मस्तिष्क करता है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जो अपनी शिक्षा-दीक्षा रहन-सहन सब कुछ समाज के साथ लगातार संपर्क स्थापित करने से ही सीखता है । लोगों की आशाओं-आकांक्षाओं उनके सुख-दुख आदि से लगभग वशीभूत होकर साधारण मनुष्य अपने मनोभावों को कागज पर उतारकर समाज की एक सजीव तस्वीर प्रस्तुत करता है ।
समाज उसे साहित्यकार और उसके विचारों को साहित्य का नाम देता है । दूसरे शब्दों में कहें तो एक साहित्यकार लोक-भावना का प्रतिनिधित्व करता है । अत: समाज की जैसी भावनाएं होंगी तात्कालिक साहित्य भी वैसा ही होगा । यदि समाज में धार्मिक भावना अधिक होगी तो साहित्य पर उसका असर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दिखाई देगा ।
साहित्य का एक पहलू उसकी आलोचना करेगा तो साहित्य का दूसरा पहलू उसके पक्ष में आकर खड़ा हो जाएगा । यदि समाज विलासोम्मुख होगा, तब साहित्य में भी शृंगारिकता साफ झलकेगी । इसके अलावा विभिन्न देशों के जन-उभारों को जितनी सहायता साहित्य से मिली उतनी शायद ही किसी और विधा से मिली हो ।
फ्रांसीसी क्रांति के संदर्भ में रूसों वाल्टेयर दीदरो की भूमिका को कौन भूला सकता है । रूसी समाजवाद को सुदृढ़ करने में किसने निकोलोई आस्त्रोवत्सकी मैक्सिम गोर्की लियो टाल्सटाय, एंटन चेखव आदि को नहीं पढ़ा । समाज की प्रत्यक्ष दशा को जनता के समक्ष उभारकर प्रस्तुत करने में कौन मुंशी प्रेमचंद रवींद्रनाथ टैगोर बंकिमचंद्र चटर्जी जयशकर प्रसाद आदि को नकार सकता है ?
इन सभी ने अपने-अपने लेखों कथाओं में समाज का चित्रण प्रस्तुत करके यह स्पष्ट कर दिया कि समाज के वातावरण की नींव पर ही साहित्य का प्रासाद खड़ा होता है । अनुकूल वातावरण होने पर न केवल हमें साहित्य-सृजन को बढ़ावा देना चाहिए बल्कि साहित्य-पाठन को भी प्रोत्साहित करना चाहिए ।
ताकि समाज की चेतना का धरातल थोड़ा ऊँचा उठ सके और लोग सामाजिक आर्थिक सांस्कृतिक और राजनीतिक मुद्दों को लेकर विचारशील बन सकें । अंतत यही कहेंगे कि जीवन के कठिन दौर में भी साहित्य हमारे जीवन में आशाओं उमंगों और प्रेरणा के विभिन्न स्रोतों का समागम कराता है ।
इन्हीं भावनाओं और परिस्थितियों का प्रभाव साहित्यकार और उसकी रचनाओं पर पड़ता है । साहित्य के संदर्भ में आचार्य महावीर प्रसाद का यह कथन एकदम सार्थक होगा कि ”साहित्य समाज का दर्पण होता
है ।”