भारत के परंपरागत मूल्यों के स्रोत | “Sources of the Traditional Values of India” in Hindi Language!
भारत के परंपरागत मूल्यों के स्रोत:
किसी भी राष्ट्र के विश्व दृष्टिकोण, जो कि किसी सामाजिक क्रिया के रूप में हो और उसके निर्माता जो उस सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण के अंश हो जहाँ वे क्रियाशील हैं, उन परंपराओं तथा मूल्यों विशेष तौर पर वे जो कई युगों से संचारित होते आए हैं, के महत्त्व का खंडन नहीं किया जा सकता है ।
परंपरागत भारतीय मूल्यों के मुख्य स्रोत वेद हैं । इनके अलावा मनु, याज्ञवल्क एवं पराशर ऋषियों द्वारा रचित ग्रंथ, धर्मशास्त्र, बौद्ध एवं जैन ग्रंथ, महाकाव्य रामायण एवं महाभारत, पुराण, दंतकथाएँ, प्रसिद्ध राष्ट्रीय घटनाओं का इतिहास एवं धर्मग्रंथ तथा उपासना की पुस्तकें आदि स्रोत हैं ।
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सामाजिक मूल्यों में जन शिक्षा के माध्यम के रूप में ये महाकाव्य धर्मग्रंथों तथा विधि-ग्रंथों से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, जिनका ज्ञान कुछ लोगों तक ही सीमित है । उपर्युक्त मूल्यों के परंपरागत स्रोत आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन जैसे मानव जीवन के विभिन्न पक्षों को छूते हैं, क्योंकि प्राचीनकाल में भारतीय मानव क्रियाओं को सख्ती से विभाजित नहीं किया गया था ।
द्वितीय, इन परंपरागत मूल्यों में कई बदलाव आए । इस बदलाव का कारण इस्लाम एवं पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव, विवेकानंद, टैगोर, तिलक, अरविंद, गाँधी एवं नेहरू जैसे आधुनिक भारत के चिंतक, जो काफी हद तक प्राचीन भारतीय चिंतन से प्रभावित थे तथा जिसने स्वतंत्र भारत के स्वरूप के निर्माण में उनके चिंतन को प्रभावित किया ।
विश्व दृष्टिकोण के विकास में परंपरागत मूल्यों एवं विषयों की प्रकृति:
विश्व दृष्टिकोण के परिप्रेक्ष्य में भारतीय दार्शनिक दृष्टिकोण ने व्यापक रूप से योगदान दिया है । इन योगदानों की व्याख्या निम्नलिखित रूप में की जा सकती है |
(1) सहिष्णुता:
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यह भारतीय दार्शनिक भाव को प्रदर्शित करता है, जो अतिवाद को अस्वीकार करता है तथा तर्क या विवेक की प्रथा पर विश्वास करता है और मतांधता का विरोध करता है । जैसे कि प्राचीन भारतीय कहावत के अनुसार, ‘वेद, वदे जयते तत्वसिद्धि’ अर्थात् ज्ञानोदय की प्राप्ति वाद-विवाद से ही होती है ।
प्राचीन भारतीय परंपरा विवेक की सर्वोच्चता पर विश्वास करती है । प्रजना (विवेक) एक महत्त्वपूर्ण धारणा है जो यह निर्देशित करता है कि कोई अपने जीवन के तीन लक्ष्यों: धर्म, अर्थ एव काम की प्राप्ति कैसे कर सकता है ।
उदाहरण के तौर पर, महाभारत में धर्म को अनुभव और विवेक के आधार पर परखने की बात कहकर उसे तुलनात्मक बनाया गया है । कर्त्तव्य एवं विवेकपूर्ण प्रथा के लिए अमतांधता का मार्ग भारतीय संस्कृति का केंद्र माना जाता है तथा यह सत्य पर एकाधिकार की माँग नहीं करता है, यहीं से सहिष्णुता का उदय होता है ।
सहिष्णुता का यह मार्ग इस बात में विश्वास करता है कि मानव मस्तिष्क, जिसकी शक्ति और पहुँच सीमित है, सत्य की प्रकृति को उसकी पूर्णता में नहीं समझ सकता है । अत: ऋग्वेद में कहा गया है: ‘एकम् सद्विप्रह बहुध वदन्ति’ अर्थात् ‘विद्वान एक सत्य की विभिन्न तरीकों से व्याख्या करते हैं ।’
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उपनिषद् कहता है कि जिस प्रकार विभिन्न रंगों की गाय सफेद रंग का ही दूध देती है, उसी प्रकार विभिन्न मार्ग एक ही लक्ष्य की प्राप्ति करते हैं । सहिष्णुता का उल्लेख सिर्फ धर्मग्रंथों में ही नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक सत्य भी है ।
यही कारण है कि जब प्रथम यहूदी लोग 70 ईस्वी में केरल पहुँचे तो उनका स्वागत किया गया तथा उन्हें अपने धर्म का प्रचार करने की स्वतंत्रता दी गई । इसी तरह से इस्लाम के उदय के साथ पारसी अपना देश छोड्कर 7वीं सदी में भारत पहुँचे तो उन्हें भी अपना धर्म मानने तथा प्रचार करने की अनुमति दी गई । सम्राट अशोक के राज आदेश-पत्र भी सहिष्णुता की बात करते हैं ।
विदेश संबंधों के क्षेत्र में भारत की सहिष्णुता की प्रथा ने उसे किसी भी गुट से संबंध न रखने को बाध्य किया और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को किसी भी गुट के नजरिए से नहीं देखने का निर्णय लिया । भारत की सहिष्णुता एवं बहुलता के दृष्टिकोण ने उसे सहज ज्ञान से शीत युद्ध को देखने को प्रेरित किया जिसकी विशेषता असहिष्णुता थी तथा दोनों गुटों के इस दावे को अस्वीकार किया कि सत्य और सद्गुण पर उनका ही अधिकार है । भारत ने शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व एवं सभी देशों के साथ मैत्री के मार्ग को अपनाया ।
यही कारण है कि जब 1950 में तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन फॉस्टर डलेस तथा तत्कालीन उप-राष्ट्रपति रिचर्ड एम. निक्सन ने गुटनिरपेक्ष देशों के लिए असंसदीय भाषा का प्रयोग किया तब नेहरू ने उनसे आग्रह किया कि इस विचार-विमर्श को न दबाएँ तथा नए देशों के विदेश संबंधी विचार-विमर्शों में सहिष्णुता अपनाएँ ।
उन्होंने कहा कि ‘मैं मिस्टर निक्सन और मिस्टर डलेस को सुझाव देना चाहता हूँ कि वे जो कह रहे हैं, वह लोकतांत्रिक भावनाओं के विपरीत है । लोकतंत्र का सार है, विभिन्न मतों के प्रति सहिष्णुता ।’
भारत द्वारा विवादों का हल, विचार-विमर्श से निकालने के तरीके में ही सहिष्णुता की परंपरा की झलक मिलती है । स्थाई परिणाम भारतीय प्रथा का सार है तथा प्रयत्न यह करना चाहिए कि संघर्ष में लिप्त दो दलों को न्यूनतम क्षति पहुँचे ।
इसी प्रकार, महात्मा गाँधी ने भारतीय आंतरिक तनावों को सुलझाने की कोशिश की, महाभारत में आच्छादित वार्ता के सिद्धांतों को आधुनिक काल में अपनाया । नेहरू जी ने इस प्रथा को कई अवसरों पर अनुमोदित किया ।
12 जनवरी, 1951 को रेडियो प्रसारण में अपने भाषण के दौरान उन्होंने कहा, ‘यदि हम शांति चाहते हैं तो हमें शांति की प्रवृत्ति का विकास करना होगा और उन लोगों को मित्र बनाना होगा जो हमें संदेह की दृष्टि से देखते हैं या जो सोचते हैं कि वे हमारे विरुद्ध हैं ।’ वार्ता का उपर्युक्त मार्ग भारत के चीन के साथ 1954 में पंचशील के समझौते में स्पष्टत: उल्लिखित है ।
यह चीन के साथ 1959 के सीमा-विवाद को कूटनीतिक वार्ता के द्वारा सुलझाने की बात करता है, यद्यपि स्थिति 1959 में अत्यधिक बिगड़ गई थी तथा 1962 के संघर्ष के बाद मित्र देशों द्वारा प्रस्तावित कोलम्बो प्रस्ताव को स्वीकार करना भारत का वार्ता के प्रति समर्थन दिखाता है । 2003 में प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा चीन यात्रा भारत-चीन संबंधों में सुधार की दिशा में एक सच्चा प्रयास था, जो कि भारत की वार्ता की प्रथा का एक मार्ग है ।
(2) मध्यम मार्ग का महत्त्व:
भारतीय संस्कृति की यह विशेषता रही है कि यहाँ के सभी भारतीयों ने आदर्श और दर्शन के मध्यम मार्ग के क्रियाकलापों को ही अपनाया था । संस्कृत की एक कहावत है: ‘अति सर्वत्र बरजायेत’ अर्थात् सदैव अति से दूर रहें । यह कहावत अतिवाद एवं चरमता की सोच के प्रति भारतीय दर्शन की घृणा को दर्शाती है ।
यह भारतीय संस्कृति में एक सूत्र की तरह चला आ रहा है । भारत द्वारा मध्यम मार्ग का महत्त्व उसके लक्ष्यों के संश्लेषण जैसे: धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में है । यद्यपि धर्म और मोक्ष को ज्यादा महत्त्व दिया गया है, परंतु अर्थ और काम को भी उपेक्षित नहीं किया गया है ।
उदाहरण के तौर पर, वात्सायन के कामसूत्र, खजुराहो की मूर्तियों एवं कहावत ‘सर्व गुण: कंचनमश्रयन्ति’ में यह सुस्पष्ट है । अत: भगवद्गीता सभी इच्छाओं की दिव्य स्वीकृति का उल्लेख करती है, जो कि नैतिक व्यवस्था और नैतिक संहिता का उल्लंघन नहीं करती है ।
इस बात में मतभेद हो सकता है कि भारतीय इन आदर्शों को कितने व्यवहार में ला पाए हैं और जीवन को सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक-धार्मिक व्यवस्थित अवस्था में पहुँचा पाए हैं, जहाँ दोनों लोकों, इस लोक और परलोक का आराम पा सकें । लेकिन भारतीय संस्कृति की इन सहक्रियाशील प्रेरणाओं का खंडन नहीं किया जा सकता है ।
माइकल ब्रिचर के अनुसार भारतीय दार्शनिक परंपरा का केंद्रीय सार महात्मा बुद्ध के समय से चला आ रहा है, जो अतिवाद एवं चरमपंथी मार्ग को अस्वीकार करता है । इसके विपरीत यह दार्शनिक सापेक्षता, बौद्धिक उदारता, अच्छाई एवं बुराई के सह-अस्तित्व पर बल देता है । संक्षेप में, यह समझौतों का मध्यम मार्ग का सिद्धांत तथा विरोधों से सहिष्णुता की बात करता है ।
नेहरू जी ने भी कहा है: ‘भारत ने विभिन्न धर्मों को अपनाया और उनमें सामंजस्य स्थापित किया यहाँ तक कि भूत में विज्ञान और धर्म के बीच विरोध में भी और शायद यह हमारी नियति थी कि विभिन्न विरोधी विचारधाराओं में सामंजस्य स्थापित करें ।’
इस प्रकार की सांस्कृतिक-दार्शनिक परंपरा के कारण भारत ने शीत युद्ध के दौरान दो प्रतिद्वंद्वी अंतर्राष्ट्रीय विचारधाराओं-पश्चिम का उदारवादी प्रजातंत्र और सोवियत समतावाद के बीच का मार्ग अपनाया । व्यक्ति की गरिमा एवं नागरिक स्वतंत्रता का सम्मान लोकतांत्रिक राजनीतिक संस्थाएँ. कानून का शासन एवं आधुनिक तकनीक आदि मूल्यों के क्षेत्र में पश्चिम और भारत के बीच समानता है । इसी तरह, सोवियत वितरण न्याय उसकी उपनिवेशवाद एवं नस्लवाद के प्रति नीति और उसकी एशियाई मनोवृत्ति को भारत महत्त्व देता था ।
इसलिए भारत ने किसी भी गुट का पक्ष लेने से इन्कार किया और अपने आदर्शों तथा हित के लिए दोनों से सहयोग करने का निर्णय लिया । सम्राट अशोक का स्मरण करते हुए नेहरू जी ने कहा: ‘हम गुट की राजनीति जो कि एक-दूसरे की विरोधी हैं, से स्वयं को दूर रखते हैं । इन प्रतिस्पर्धाओं, घृणा एवं आतरिक द्वंद्व के बावजूद हम आपसी सहयोग और एक विश्व राष्ट्रमंडल की दिशा की ओर बढ़ रहे है ।’
यह मैत्री का संदेश था जिसे भारत ने 1946 में दिया । मैत्री की इस नीति ने भारत को ऐसे विश्व में युक्तिचालन करने की स्वतंत्रता प्रदान की जो अपने विभाजनों में बँटा हुआ था । यद्यपि कुछ आपत्तियों के बाद घड़ी शक्तियों ने भी कोरियाई, इंडो-चाइना, स्वेज एवं अन्य संकटों में भारत की तटस्थता की नीति को लाभदायक स्वीकार किया ।
इस प्रकार, भारत ने दोनों गुटों के बीच सेतु का काम किया और उनके बीच विचारधारा के संघर्ष में रुखेपन से ऐसे राष्ट्रों के समूह में विशिष्टता हासिल की, जो सैन्य शक्ति एवं आर्थिक सामर्थ्य में इससे कहीं अधिक थे ।
(3) अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का सम्मान:
भारतीय संस्कृति में प्रारभ से ही अंतर्राष्ट्रीय कानूनों को सम्मानित किया जाता रहा है, क्योंकि भारतीय दार्शनिकों ने इसे स्वीकृत किया है । जैसे-किसी अन्य देश के राजदूत अथवा दूत की हत्या न करना विदेशियों का अपहरण नहीं करना, शरणार्थियों की रक्षा करना, युद्धबंदियों के साथ सम्मानजनक व्यवहार करना, पराजितों को क्षमा कर देना आदि तत्त्व विश्व राजनीति के परिप्रेक्ष्य में भारतीय दृष्टिकोण के मूल स्रोत के रूप में माने जाते हैं ।
(4) सकारात्मक चिंतन की प्रधानता:
भारतीय दर्शन की यह विशेषता रही है कि यहाँ विद्वानों ने असत्य को नकारा है और सत्य को महत्त्व दिया है । भारतीय दार्शनिक मानव विकास के क्रम में नैतिक साधनों के द्वारा उपलब्धियों की प्राप्ति को ही सकारात्मक तत्त्व मानते हैं । इसलिए इसी तत्त्व को भारतीय परिप्रेक्ष्य में विशेष महत्त्व दिया गया है ।
(5) साम्राज्यवाद का विरोध:
भारत का चिंतन प्रारंभ से ही साम्राज्यवाद का विरोध करता रहा है । भारतीय राजाओं और सम्राटों ने केवल अपने भूखंड पर ही, जिसके अंतर्गत आसेतु हिमालय, अरुणाचल से अस्ताचल का भूभाग आता है पर विजय प्राप्त की है ।
समुद्र लाँघकर किसी दूसरे राज्य पर इन राजाओं ने अपना साम्राज्य स्थापित नहीं किया और किसी दूसरे देश की जनता को अपने वश में रखने का प्रयत्न नहीं किया । गुप्त वंश के बालादित्य ने मिहिरकुल को हराकर उसका राज्य उसे वापस लौटा दिया ।
ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं । प्राचीन समथ से भारत के सम्राटों ने विभिन्न देशों के साथ मित्रतापूर्ण संबंध स्थापित किए और विचार-विमर्श के आधार पर समस्याओं का समाधान किया । यही आदर्श भारत की वैदेशिक नीति के स्रोत के रूप में रहा है ।
(6) आदर्शवाद और यथार्थवाद भारतीय दर्शन का चिंतन हैं:
भारतीय दर्शन के अंतर्गत कुछ विद्वानों जैसे कौटिल्य, मनु, भारद्वाज, याज्ञवल्क्य, विष्णु शर्मा आदि की पुस्तकों में यथार्थवाद के तत्त्व मिलते हैं, क्योंकि ये लोग राज्य की सुरक्षा के लिए युद्ध रूपी साधन को आवश्यक मानते थे परंतु भारत का आदर्शवाद इस बात पर भी बल देता है कि राज्य को अहिंसा शांति सत्य त्याग आदि के तत्त्वों को अपनाना चाहिए ।
इसी के द्वारा किसी भी राज्य का चतुर्दिक विकास हो सकता है । इसके अंतर्गत सहयोग एवं सहअस्तित्व को विशेष महत्त्व दिया गया है और इस सिद्धांत को गाँधी नेहरू तथा अन्य नेताओं ने आधुनिक युग में स्वीकारा है ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के विश्व दृष्टिकोण पर परंपरागत मूल्यों का प्रभाव:
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत की वैदेशिक नीति के अंतर्गत विश्व दृष्टिकोण को भारतीय दर्शन के स्रोतों ने निम्नलिखित रूप से प्रभावित किया था:
(1) भारत ने उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का विरोध किया है ।
(2) भारत की वैदेशिक नीति में वर्णवाद और नस्लवाद विरोधी भावना रही है ।
(3) भारत ने किसी भी प्रकार के शोषण का विश्व स्तर पर विरोध किया है ।
(4) भारत ने नि:शस्त्रीकरण का समर्थन और युद्ध का विरोध किया है ।
(5) भारत ने जीतकर भी पाकिस्तान को उसका भू-भाग लौटा दिया ।
(6) भारत ने शरणार्थियों को शरण दी है, जैसे: दलाईलामा एवं अन्य देशों के शरणार्थी ।
(7) भारत ने सभी देशों के साथ सहयोग की नीति अपनाई है और विश्व संगठन का समर्थन किया है ।
(8) भारत ने दुश्मनों को भी गले लगाया है । जैसे: चीन ने भारत पर आक्रमण किया, फिर भी उसके साथ भारत मधुर संबंध बना रहा है ।
(9) भारत ने स्वतंत्रता के बाद मध्यम मार्ग का अवलम्बन करते हुए गुटनिरपेक्षता की नीति के अवलम्बन का समर्थन किया और अतिवाद से परहेज करते हुए दोनों गुटों में से किसी भी गुट को समर्थन न देकर उसका सदस्य नहीं बना । भारत ने सैनिक गुटबाजी से भी परहेज किया ।
(10) भारत की अंतर्राष्ट्रीय नीति में स्वतंत्रता के बाद भारत की सहिष्णुता के चरित्र को उजागर किया गया । भारत में सभी जातियों एवं संप्रदाय के लोग मिल-जुलकर एक साथ रहते हैं और सभी एक-दूसरे के सुख-दु:ख में साथ देते हैं । भारत ने उसी प्रकार से विश्व के सभी देशों के साथ मधुर संबंध रखा और विचार-विमर्श के आधार पर विश्व की समस्याओं का शातिपूर्ण समाधान चाहा है ।