भारत को प्रमुख शक्ति बनाने की नींव इंदिरा गाँधी ने रखी । “Indira Gandhi laid the Foundation to Make India a Major Power” in Hindi Language!
इंदिरा युग में भारतीय विदेश नीति (1966 से 1977):
लालबहादुर शास्त्री के बाद श्रीमती इंदिरा गाँधी ने प्रधानमंत्री का पद संभाला । पंडित नेहरू के बाद देश की प्रधानमंत्री के रूप में श्रीमती गाँधी का कार्यकाल सबसे लबा कार्यकाल था । विदेश नीति की दृष्टि से श्रीमती इंदिरा गाँधी के कार्यकाल को दो भागों में बाँटा जा सकता है: पहला कार्यकाल 1966 से मार्च 1977 तक तथा दूसरा कार्यकाल जनवरी 1980 से अस्कर 1984 तक ।
अपने प्रथम कार्यकाल में श्रीमती इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में भारत ने नेहरू द्वारा प्रतिपादित बुनियादी नीति का पालन करते हुए बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार आचरण करने की क्षमता का परिचय दिया । पिछले दस वर्षों (1966-1976) में भारत ने न केवल विश्व-शांति बनाए रखनी चाही बल्कि एशिया और अफ्रीका में ऐसी स्थितियाँ पैदा करने का भी यत्न किया जिससे आर्थिक प्रगति हो सके और सब देशों में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा मिल सके ।
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उन्होंने भारत की तथाकथित गुटनिरपेक्ष नीति को समय की माँग के अनुसार स्वतंत्र, सर्जनशील और सक्रिय बनाने का प्रयास किया । आचार्य कौटिल्य ने विदेश नीति के छ: गुणों की चर्चा की है: संधि, विग्रह, आसन, यान, संयम और द्वैधीभाव ।
श्रीमती गाँधी ने समय-समय पर कौटिल्य की विदेश नीति के धनुष की छ: डोरों को आशिक रूप में बारी-बारी से आजमाने का प्रयास किया । उन्होंने यह अनुभव कर लिया था कि भारत अपनी प्रतिरक्षा के लिए अधिक दिनों तक शक्तिशाली राष्ट्रों पर भरोसा नहीं कर सकता है ।
अत: उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में सर्वप्रथम साम्यवादी विस्तारवाद और अमेरिकी विस्तारवाद के बीच के संतुलन को साधने के लिए भारत की स्थिर विदेश नीति में परिवर्तन और क्रांति के मार्ग को अपनाया । उन्होंने दुनिया की शांति की नकली और सतही चेष्टा में, शांति की कबूतरबाजी में देश के बुनियादी हितों का होम नहीं होने दिया । उनकी विदेश नीति के प्रमुख क्षेत्र थे-दक्षिण-पूर्व एशिया, अरब-इजराइल, हिमालय में नेपाल और भूटान, हिन्द महासागर, भारत-पाक चीन का त्रिभुज और अणु बम ।
श्रीमती गाँधी की विदेश नीति की प्रमुख उपलब्धियाँ इस प्रकार हैं:
(1) उपमहाद्वीप:
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जहाँ तक हमारे निकटतम पड़ोसी पाकिस्तान के साथ हमारे संबंधों का सवाल है, इस दशक के आरंभ में परिस्थितियाँ काफी अच्छी थीं । उसी समय ताशकन्द की जो घोषणा हुई थी, उससे दोनों देशों की समस्याओं को अच्छी तरह समझने का रास्ता खुला था ।
यदि इसे अच्छी भावना के साथ अमल में लाया जाता तो इससे भविष्य में भाई-चारे तथा शांति की आशा थी । जहाँ तक भारत का संबंध है, वह हमेशा की तरह पाकिस्तान के साथ अच्छे संबंध बनाना चाहता
था । लेकिन पाकिस्तान की मनोवृति और रवैये में विकृति पैदा हो गई और फिर बाद की वे सब घटनाएँ घटीं जिनका दिसम्बर 1971 में सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण सैनिक युद्ध के रूप में अंत हुआ ।
इस युद्ध में भारत की सशस्त्र सेनाओं को गौरवपूर्ण विजय प्राप्त हुई । इस सैनिक विजय ने भी भारत को विचलित नहीं किया और भारत ने स्वयं युद्ध-विराम की घोषणा कर दी और 1971 के संघर्ष के दौरान विजित क्षेत्रों से अपनी सेनाएँ लौटाने को तैयार हो गया ।
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जुलाई 1972 में शिमला समझौते पर हस्ताक्षर, शांति के प्रति भारत की प्रतिबद्धता का एक दूसरा प्रमाण था । अप्रैल 1974 में दोनों देशों ने 1971 के युद्ध के पहले एक-दूसरे के बंदी बनाकर रखे हुए सभी नागरिकों को वापस भेज देना स्वीकार किया ।
सितम्बर 1974 में डाक और तार के संचार संबंध स्थापित करने के बारे में एक समझौता हुआ । इसके बाद दिसम्बर 1974 में एक व्यापार समझौता हुआ और जनवरी 1975 में जहाजरानी समझौता हुआ । बंगलादेश के साथ घनिष्ठ राजनीतिक और आर्थिक संबंध स्थापित किए गए ।
मार्च 1972 में उस समय की ढाका सरकार के साथ शांति, मैत्री और सहयोग की एक 25 वर्षीय संधि पर हस्ताक्षर किए गए । बंगलादेश के बाद की परिवर्तित परिस्थितियों में भी नई सरकार के प्रतिनिधियों से तुरंत बातचीत आरंभ की गई ।
(2) पड़ोसी:
एशिया में अपनी बड़ी महत्त्वपूर्ण स्थिति के कारण नेताओं के एक-दूसरे देश के दौरों द्वारा पारस्परिक हितों के मामलों पर विचार-विमर्श करके और द्विपक्षीय बातचीत द्वारा आपसी समस्याओं को सुलझाकर अफगानिस्तान, नेपाल, श्रीलंका और बर्मा आदि अपने अत्यंत निकट के पड़ोसी देशों के साथ घनिष्ठ और मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किए ।
पारस्परिकता और आपसी लाभ के सिद्धांत के अनुसार अफगानिस्तान और नेपाल के साथ घनिष्ठ आर्थिक और सांस्कृतिक संबंध बने । मार्च 1967 में बर्मा के साथ समझौता किया और जून 1974 में श्रीलंका के साथ जलडमरूमध्य के पानी के विभाजन के बारे में एक समझौता हुआ जिससे कच्छा-टिबू का मसला भी शांतिपूर्ण ढंग से सुलझ गया ।
ये दोनों समझौते द्वि-पक्षीय बातचीत के आधार पर पड़ोसियों के साथ उलझे हुआ मसलों को सुलझाने की नीति के परिचायक हैं । विदेश नीति की दृष्टि से श्रीमती गाँधी ने दो दृष्टियों से विशेष योगदान दिया-पहली तो यह कि भारत के विश्व संबंधी दृष्टिकोण में उपमहाद्वीपीय मसले को सबसे अधिक महत्त्व दिया गया और दूसरी यह कि जैसी स्थिति हो, उसके अनुसार सहयोग की नीतियों द्वारा महाद्वीप में संबंधों का विकास किया जाए ।
(3) अफ्रीका:
भारत की जाति-भेद और उपनिवेशवाद विरोधी नीति और अफ्रीकी देशों के स्वाधीनता आंदोलन के समर्थन के कारण उसका अफ्रीकी देशों के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित हुआ । भारत ने कई अफ्रीकी देशों के साथ तकनीकी, आर्थिक और व्यापारिक करार भी किए । पुर्तगाल की नई सरकार द्वारा गोआ, दमन, दीव और नगर हवेली को भारत का अंग स्वीकार कर लेने से दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंध स्थापित हो जाने के लिए मार्ग प्रशस्त हो गया ।
(4) एशियाई संबंध:
भारत ने समानता और आपसी हित के आधार पर दक्षिण-पूर्वी एशिया और पश्चिमी एशिया के देशों के साथ मैत्री और सहयोग का हाथ बढ़ाया । उसने ‘आसियान’ के तत्वावधान में इस क्षेत्र के देशों के बीच प्रादेशिक सहयोग का स्वागत किया और दक्षिण-पूर्वी एशिया को शांति स्वाधीनता और तटस्थता के एक क्षेत्र ‘के रूप में विकसित करने की उनकी भावना का समर्थन किया ।
अगस्त 1974 में इडोनेशिया के साथ महाद्वीपीय समुद्र सीमा के पुन: निर्धारण के संबध में एक समझौता हुआ । इंडोचायना के संबंध में भारत ने हमेशा इस मत का समर्थन किया कि वहाँ की समस्या का कोई सैनिक समाधान नहीं हो सकता ।
वियतनाम और कम्बोडिया में राष्ट्रीय शक्तियों की विजय से यह सही सिद्ध हो गया कि इस संबंध में भारत का रवैया ठीक था । पश्चिमी एशिया में भारत ने लगातार अरब-इजराइल संघर्ष में अरब पक्ष का समर्थन किया ।
पेट्रोल के मूल्य में वृद्धि हो जाने के कारण पैदा होने वाले ऊर्जा संकट के बाद अरब देशों के साथ आर्थिक संबंधों को और अधिक महत्त्व दिया गया । दिसम्बर 1975 में भारत-कुवैत संधि हुई और 1974 में ईरान के साथ घनिष्ठ आर्थिक सहयोग हेतु एक कमीशन स्थापित किया गया ।
(5) सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप:
भारत और सोवियत संघ के संबंधों की विशेष बात यह है कि 1971 में सोवियत संघ और भारत के बीच शांति मैत्री और सहयोग के बारे में एक संधि पर हस्ताक्षर किए गए । इस संधि से भारतीय उपमहाद्वीप में स्थिरता और शांति स्थापित होने में बड़ी मदद मिली ।
इससे भारत के विरुद्ध किसी आक्रमण के खतरे की अवस्था में सोवियत सघ की सहायता का आश्वासन भी प्राप्त हुआ । दिसम्बर 1970 में भारत और सोवियत संघ के बीच एक पाँच-वर्षीय व्यापार समझौता हो जाने से भारतीय अर्थव्यवस्था के बुनियादी क्षेत्रों में दोनों देशों के बीच सहयोग की व्यवस्था की गई ।
इसके अतिरिक्त भारत तथा सोवियत सघ के बीच व्यापार की मात्रा 1973 में 412 करोड़ रुपए से बढ्कर 1974 में 750 करोड़ रुपए हो गई । सोवियत संघ के साथ घनिष्ठ संबंधों के अलावा पूर्वी यूरोप के देशों के साथ भारत के सहयोग में भी महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई ।
चेकोस्लोवाकिया के साथ 1966 में, बल्गारिया और हंगरी के साथ 1973 में, रूमानिया तथा जर्मन प्रजातंत्रीय गणराज्य के साथ 1974 में एक संयुक्त कमीशन की स्थापना से यह स्पष्ट हो गया कि भारत इन देशों के साथ घनिष्ठ सहयोग विकसित करने को कितना महत्त्व देता है ।
(6) गुटनिरपेक्षता:
दस वर्ष की इस अवधि में गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत को और अधिक व्यापक रूप से स्वीकार किया गया जबकि अक्तूबर 1964 में हुए दूसरे गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में 47 देशों और 10 पर्यवेक्षकों ने भाग लिया, वहाँ 1970 में लुसाका में हुए तीसरे सम्मेलन में 54 देशों और 11 पर्यवेक्षकों ने भाग लिया और दिसम्बर 1973 में अल्जीयर्स में हुए शिखर सम्मेलन में 75 देशों और 24 पर्यवेक्षकों ने भाग लिया । इन सम्मेलनों में भारत ने यह प्रयास किया कि इन गुटनिरपेक्ष देशों की एकता और पारस्परिक सहयोग की आवश्यकता पर बल दिया जाए ।
(7) चीन:
भारत निरंतर इसी नीति पर अमल कर रहा है कि चीन के साथ संबंध अच्छे बनाए जाएं । 1976 मे पीकिंग में भारतीय राजदूत की नियुक्ति भारत और चीन के संबंधों की दुनिया में एक नई शुरुआत थी । चीन में राजदूत की नियुक्ति का फैसला भारत सरकार की विदेश नीति के घोषित सिद्धांत के आदर्शों के अनुरूप था ।
यद्यपि इंदिरा गाँधी को अपने प्रथम कार्यकाल में चीन से सबध सुधारने की जो आशा थी उसमें सफलता नहीं मिली फिर भी उनके कार्यकाल की इस सफलता को नजरअदाज नहीं किया जा सकता कि भारत और चीन के बीच न कोई बड़ा संघर्ष हुआ न ही दोनों ने एक-दूसरे को अपना शत्रु समझा ।
(8) अमेरिका:
श्रीमती गाँधी ने अमेरिका के प्रति अपनी नीति में कभी भी भ्रांतियों का सहारा नहीं लिया । उन्होंने राष्ट्रीय स्वाभिमान पर कभी भी आँच नहीं आने दी । श्रीमती गाँधी अपने शांतिपूर्ण दृष्टिकोण के कारण उत्तर वियतनाम पर अमेरिकी बम वर्षा बंद कर देने एवं शांति स्थापना के लिए रचनात्मक कार्य किए जाने की इच्छुक थीं ।
1970 के आरंभ में भारत सरकार ने उत्तर वियतनाम की राजधानी हेनोई में भारतीय कार्यालय के दर्जे को ऊँचा करने का निश्चय किया । मई 1970 में दिल्ली को छोड्कर भारत के अन्य पाँच स्थानों में अमेरिकी सूचना केंद्रों को बंद कर दिया गया । श्रीमती गाँधी ने हिन्द महासागर में अमेरिका और ब्रिटेन द्वारा परमाणु अड्डा कायम करने के निर्णय की भर्त्सना की और उसे विश्व-शांति के लिए खतरा बताया ।
(9) आर्थिक सहयोग पर बल:
इस दशक में भारत की विदेश नीति का एक महत्त्वपूर्ण पहलू आर्थिक सहयोग पर ज्यादा से ज्यादा बल देना, विभिन्न देशों के साथ आर्थिक सहयोग के लिए स्थापित संयुक्त कमीशन, भारतीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग कार्यक्रमों का विकास, खासतौर पर एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के विकासशील देशों के लिए तथा प्रादेशिक अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर आर्थिक सहयोग का समर्थन-इन सब बातों से यह अच्छी तरह पता चलता है कि भारतीय विदेश नीति में आर्थिक विकास और आर्थिक सहयोग को कितना महत्व दिया गया है ।
विभिन्न गुटनिरपेक्ष सम्मेलनों में पारित प्रस्तावों में, अप्रैल-मई 1975 में हुई राष्ट्रमंडलीय सरकारों के अध्यक्षों की बैठक में स्वीकृत विज्ञप्ति में, ‘अकटाड’ की बैठक में, संयुक्त राष्ट्र की आर्थिक समस्याओं पर होने वाले विशेष विचार-विमर्श में, खासतौर पर कच्चे माल और विकास के बारे में संयुक्त राष्ट्र महासभा में हुए विचार-विमर्श में इस बात पर अधिक बल दिया गया ।
(10) हिन्द महासागर क्षेत्र:
बड़े राष्ट्रों में जिस प्रकार सद्भाव बढ़ रहा था उसी प्रकार विश्व के विभिन्न हिस्सों में बड़े राष्ट्रों में प्रतिस्पर्धा और अपने-अपने प्रभाव-क्षेत्र बढ़ाने के यत्न किए जा रहे थे । इस संबंध में एक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि नौसैनिक गतिविधियों के परिणामस्वरूप हिन्द महासागर क्षेत्र में इन बड़े राष्ट्रों की प्रतिस्पर्धा बढ़ रही थी ।
हिन्द महासागर में जो स्थिति बन रही थी उसको देखते हुए अपने लंबे समुद्री तट के कारण भारत को अपनी सुरक्षा के बारे में चिंतित होना स्वाभाविक था । भारत ने लगातार माँग की कि हिन्द महासागर क्षेत्र को बड़े राष्ट्रों की प्रतिस्पर्धा से मुक्त रखना चाहिए, उसे विदेशी अड्डों और परमाणु अस्त्रों से भी अछूता रखना चाहिए । इसलिए संयुक्त राष्ट्र महासभा में सभी देशों द्वारा भारत की इस इच्छा का समर्थन और स्वागत किया गया ।
(11) अणु विस्फोट:
श्रीमती गाँधी ने महाशक्तियों की भ्रांतियों को दूर करने के लिए भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में कूटनीतिक मंच पर प्रस्तुत करने के लिए विश्व में एक नई स्थिति पैदा करने का निर्णय किया ।
महाशक्तियों के भ्रम और आशंकाओं को दूर करने के लिए भारत के वैज्ञानिकों ने 18 मई, 1974 को प्रथम परमाणु विस्फोट करके विश्व राजनीति में भारत को महाशक्ति के रूप में खड़ा कर दिया । सफल भूगर्भीय परीक्षण ने भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बना दिया । यह विस्फोट अंतर्राष्ट्रीय शक्ति संतुलन की शतरंज के लिए एक मोहरा थी ।
इंदिरा युग में भारतीय विदेश नीति (1980 से 1984):
जनवरी 1980 में श्रीमती इंदिरा गाँधी पुन: प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुईं । इसके बाद 31 अक्तूबर, 1984 तर्क (श्रीमती गाँधी की हत्या होने तक) भारतीय विदेश नीति के प्रमुख आयाम निम्नलिखित हैं:
(1) सातवें गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन का आयोजन:
मार्च 1982 में नई दिल्ली में सातवें गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन का सफल आयोजन किया गया । श्रीमती इंदिरा गाँधी तीन वर्ष के लिए गुटनिरपेक्ष आंदोलन की अध्यक्षा निर्वाचित हुईं । इससे न केवल तीसरी दुनिया के देशों के अपितु विश्वव्यापी स्तर पर भारतीय विदेश नीति के नए आयाम उद्घटित हुए ।
(2) एशियाई खेलों का सफल आयोजन:
भारत ने नवम्बर 1982 में नई दिल्लीमें एशियाई खेलों का सफल और शानदार आयोजन करकें एशियाई देशों में भारतीय क्षमता और आत्मविश्वास का नया प्रभाव छोडा । खेलों के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय संबंधी के विकास का भारतीय विदेश नीति में यह एरक नवीन तत्त्व है ।
(3) भारत-चीन संबंध:
जनवरी 1981 से भारत तथा चीन के मध्य उच्च-स्तरीय वार्ता का क्रम प्रारंभ हुआ ताकि आपसी हित की समस्याओं का निदान निकाला जा सके । प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने सेलेसबरी तथा बेलग्रेड में चीनी नेताओं से हितों के प्रश्न पर चर्चा आरंभ की ।
जनवादी चीन के उप-प्रधानमंत्री एवं विदेशमंत्री हुआंग हुआ ने 26 जून से 30 जून, 1981 तक भारत की यात्रा की । 28 जनवरी, 1983 को भारत का एक उच्च-स्तरीय प्रतिनिधिमंडल कूटनीतिक वार्ता के लिए चीन
गया ।
(4) भारत-अमेरिकी संबंध:
25 जुलाई, 1982 को श्रीमती इंदिरा गाँधी अमेरिका की 9-दिवसीय यात्रा पर नई दिल्ली से वाशिंगटन के लिए रवाना हुईं । यह यात्रा राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के निमंत्रण पर की गई । इससे पूर्व केनकुन सम्मेलन में श्रीमती र्गाँधी श्री रीगन से मिल चुकी थीं ।
उल्लेखनीय है कि यह यात्रा श्रीमती गाँधी ने 11 वर्ष के अंतराल के बाद की । इस यात्रा से भारत व अमेरिका के आपसी संबंध स्थिर व लाभदायी हुए । दोनों देशों के प्रेक्षकों का मत था कि श्रीमती गाँधी के दौरे से दोनों पक्षों को एक-दूसरे को समझने व गलतफहमियों को दूर करने का मौका मिले ।
ऐसा कहा जाता है कि श्रीमती गाँधी तारापुर के लिए परमाणु ईंधन एवं विश्व मुद्रा कोष से ऋण प्राप्त करने के मामलों में उसके विरोध को समाप्त करने वाशिंगटन गईं थीं और इन दोनों बातों में उन्हें सफलता मिली ।
(5) लंदन में भारत महोत्सव:
1982 में लंदन में भारत-उत्सव (8 मार्च 1982 से) शुरू हुआ । आठ महीने की लंबी अवधि तक चलने वाले इस अनोखे उत्सव पर भारत व ब्रिटेन की सरकारों और अनेक अन्य संस्थाओं के लगभग सवा चार करोड़ रुपए खर्च हुए ।
श्रीमती गाँधी की लगभग एक सप्ताह की ब्रिटेन यात्रा प्रमुखत: सांस्कृतिक उद्देश्यों के लिए घोषित की गई । इस उत्सव के माध्यम से भारतीय संस्कृति एवं कला का दिग्दर्शन कराया गया । 14 नवम्बर को भारत महोत्सव की समाप्ति पर ब्रितानी प्रधानमंत्री श्रीमती मारग्रेट थेचर ने कहा, “इस महोत्सव की अनन्यतम प्रदर्शनियों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों से भारत और ब्रिटेन अधिक नजदीक आए हैं ।”
(6) भारत और फ्रांस में यूरेनियम की सप्लाई पर समझौता:
27 नवम्बर, 1982 को फ्रांस के राष्ट्रपति मित्तरा भारत की चार-दिवसीय यात्रा पर आए । उन्होंने भारतीय नेताओं से आपसी हितों के मामलों पर लंबी बातचीत की । इन बातचीतों के परिणामस्वरूप आपसी सहयोग के विस्तार तथा तारापुर पर समझौता हो गया । फ्रांस की सरकार ने तारापुर परमाणु बिजलीघर की पूरी क्षमता से संचालन के लिए हल्के परिष्कृत यूरेनियम की सप्लाई शीघ्र ही शुरू करना मंजूर कर लिया ।
(7) अफगानिस्तान संकट पर भारतीय दृष्टिकोण:
अफगानिस्तान में सोवियत संघ के हस्तक्षेप ने शीत-युद्ध हमारे बहुत समीप ला दिया । श्रीमती गाँधी ने चुनाव जीतने के तुरंत बाद संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के प्रतिनिधि को अफगान समस्या के संदर्भ में जो निर्देश दिए वे इस प्रकार है:
(क) सोवियत संघ ने अफगानिस्तान सरकार कै आग्रह पर अपनी सैनिक टुकड़ी भेजी है ।
(ख) भारत किसी भी देश में बाहरी सेना की उपस्थिति को अनुचित मानता है ।
(ग) सोवियत संघ ने भारत को आश्वासन दिया है कि अफगानिस्तान सरकार के आग्रह पर उनके सैनिक वापस बुला लिए जाएँगे । भारत का सोवियत संघ द्वारा दिए गए आश्वासन पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है ।
(घ) भारत यह आशा करता है कि सोवियत संघ अफगानिस्तान की स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं करेगा एवं सोवियत सैनिक आवश्यकता से अधिक एक भी दिन अफगानिस्तान में नहीं रहेंगे ।
(ड) भारत अफगानिस्तान मे अशांति एवं बिखराव फैलाने वाली बाहरी शक्तियों के कार्य का विरोध करता है ।
(च) अफगानिस्तान के निकट के क्षेत्र में (अर्थात् पाकिस्तान में) सैनिक अड्डों की स्थापना एवं भारी मात्रा में सैनिक सामान पहुँचाने से भारत की सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है ।
सोवियत संघ से परंपरागत मैत्री के संदर्भ में भारत ने अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप का विरोध करने में बहुत संयम से काम लिया । भारत चाहता था कि सोवियत सैनिक अफगानिस्तान से वापस चले जाएँ किंतु भारत यह भी नहीं चाहता कि अमेरिका, पाकिस्तान को अफगानिस्तान एवं सोवियत संघ की ओर से आक्रमण का भय दिखाकर बहुत अधिक मात्रा में सैनिक सामान पाकिस्तान में एकत्रित करे ।
(8) कम्पूचिया की हेंग सामरिन सरकार को मान्यता:
भारत ने 1980 में कम्पुचिया की हेंग सामरिन सरकार को मान्यता दे दी । स्मरणीय है कि कम्पूचिया को कूटनीतिक मान्यता देने के लिए भारत की यह कहकर आलोचना की गई थी कि भारत का उक्त कदम सोवियत संघ को अनुचित समर्थन देने की दृष्टि से उठाया गया है।