संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से विश्व शांति सुरक्षा तथा विकास के क्षेत्र में भारत के योगदान । India’s Contribution in the Field of World Peace, Security and Development through the United Nations in Hindi Language!
विश्व शांति सुरक्षा तथा विकास के क्षेत्र में भारत का योगदान:
भारत संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य राष्ट्रों के बीच शांति की स्थापना पर विशेष रूप से जोर देने वाला संसार का पहला राष्ट्र है । इसने समस्त विश्व में गुटनिरपेक्षता की नीति के अंतर्गत शांति की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया है ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई थी । भारत की दृष्टि में, संयुक्त राष्ट्र संघ शांति और समृद्धि युक्त विश्व व्यवस्था का आधार है । संयुक्त राष्ट्र लोकतंत्र, समानता और न्याय जैसे सार्वभौम नैतिक मूल्यों का प्रतिनिधि है ।
इन्हीं सार्वभौमिक मूल्यों ने युगों से भारत के इतिहास का मार्गदर्शन किया है । भारत की विदेश नीति का यह एक आधारभूत सिद्धांत रहा है कि वह संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतर्राष्ट्रीय निकायों से सक्रिय रूप से सहयोग करता है ।
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भारत विश्व में शांति और व्यवस्था बनाए रखने में आर्थिक प्रगति को पाने में मानव अधिकारों के संरक्षण आदि में संयुक्त राष्ट्र के क्रियाकलापों में सक्रिय रूप से भाग लेता रहा है । इन क्षेत्रों में भारत की भूमिका को निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है:
युद्धों पर रोक एवं शांति की स्थापना में योगदान:
स्वतंत्रता के बाद से भारत ने केवल अपनी ही सुरक्षा और शांति को अपने चिंतन में केंद्रित नहीं किया वरन् यह संपूर्ण विश्व की सुरक्षा और शांति को लेकर चिंतित रहा है, सन् 1945 में संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के एकदम आरंभ से ही विश्व की सुरक्षा और स्थिरता को विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ा है ।
उन दिनों में भारत की चिंता का प्रमुख कारण पूर्व और पश्चिम के बीच शीत युद्ध की स्थिति थी जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ एक-दूसरे के विरोधी थे । ये दोनों देश निरंतर परिष्कृत परमाणु और पारंपरिक हथियारों को प्राप्त करने में संलग्न थे ।
इस प्रकार इन दो बड़ी शक्तियों को विश्व-स्तर की महाशक्तियों का दर्जा प्राप्त था । ये अपने युद्ध (छद्म युद्ध) यूरोप में नहीं लड़ते थे अपितु ये अफ्रीकी और एशियाई देशों के बीच तनाव और विवाद पैदा करने का प्रयास करते थे । इनमें से विभाजित कोरिया शीत युद्ध का पहला युद्ध क्षेत्र बना ।
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इसके अतिरिक्त, निकटवर्ती पड़ोसी देश विवादित सीमाओं या दूसरी समस्याओं को लेकर शीत युद्ध के गुटों के सैनिक या राजनीतिक समर्थन से युद्ध लड़ते थे । इस वर्ग में पश्चिम एशिया में इजराइल और अरब देशों के बीच युद्ध ईरान-इराक युद्ध अफ्रीका में इथियोपिया और सोमालिया के बीच युद्ध आते हैं ।
इसके अलावा, अमेरिका और रूस ने कुछ देशों में सैनिक दृष्टि से हस्तक्षेप किया । इसके कुछ उदाहरण है डोमिनिकन रिपब्लिक, ग्रेनाडा पर अमेरिकी तथा चेकोस्लोवाकिया और अफगानिस्तान पर रूसी हस्तक्षेप ।
कम्बोडिया, निकारागुआ और भारत-पाकिस्तान उपमहाद्वीप के संघर्ष स्पष्ट रूप से शीत युद्ध के विस्तार के उदाहरण हैं । शीत युद्ध के दौरान कुल मिलाकर 250 छोटे-बड़े युद्ध लड़े गए ।
यद्यपि 1990 के दशक के आरंभिक दिनों में शीत युद्ध के बादल छितरा गए थे लेकिन विश्व में शांति व्यवस्था और स्थिरता को नए और पुराने दोनों प्रकार का खतरा बना रहा । इराक पर हुए दो युद्धों के बावजूद शांति को विदेशी आक्रमण के प्रमुख खतरे से पर्याप्त कमी आ गई है ।
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इसके बजाय एक के बाद दूसरे अफ्रीकी, एशियाई और लातिन अमेरिकी राज्यों । गृह कलह ने वहाँ की राजनीतिक व्यवस्थाओं उनकी अर्थव्यवस्थाओं और यहाँ तक कि वहाँ निर्दोष पुरुषों स्त्रियों और बच्चों को बर्बाद कर दिया है ।
युगोस्लाविया, हैती, सोमालिया, रवांडा, अंगोला, अफगानिस्तान, सिएरा लियोन और अन्य कई देशों के समाज इस क्षोभकारी प्रवृति के शिकार हो चुके हैं । पिछले 12-13 वर्षो में ऐसे युद्धों में लगभग 60 लाख लोग अपने जीवन से हाथ धो चुके हैं ।
भारत ने किसी भी राज्य के क्षेत्र पर जबरदस्ती अधिकार करने या किसी देश द्वारा दूसरें देश के मामलों में हस्तक्षेप करने को संयुक्त राष्ट्र में अनुचित ठहराया । भारत इसे राज्यों की प्रभुसत्ता और क्षेत्रीय अखंडता के सिद्धांतों का उल्लंघ्न मानता है ।
भारत ने समस्याओं के समाधान के लिए बातचीत और शांतिपूर्ण उपायों का समर्थन किया । भारत ने मिस्र, हंगरी, कांगो, लेबनान के प्रभुसत्तात्मक अधिकारों का जोरदार समर्थन किया और उन देशों के बीच युद्ध को बिना शर्त समाप्त करने का आग्रह किया चाहे वह युद्ध किसी भी देश ने शुरू किया हो और चाहे उसका कुछ भी कारण रहा हो । शांति के प्रयास में भारत का दृष्टिकोण बहुत लचीला रहा है ।
इसी तरह, 1967 के इजराइल के अरब पड़ोसियों के साथ युद्ध के बाद भारत ने सुरक्षा परिषद के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर कब्जे वाले क्षेत्रों से वापसी के बाद इजराइल और उसके अरब पड़ोसियों को अपनी सुरक्षित सीमाओं के भीतर मध्य-अमिल के साथ रहने के लिए एक खाका प्रस्तुत किया ।
शीत युद्ध की समाप्ति के बाद स्थितियों की आवश्यकतानुसार सिद्धांतों और व्यावहारिकता न उपयोग जरूरी हो गया । 1990 में जब इराक ने कुवैत पर हमला किया और वहाँ से अपनी सेनाओं को लौटाने से इन्कार कर दिया तब भारत ने कुवैत को स्वतंत्र कराने के लिए न्युक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के अनुमोदन से अमेरिकी नेतृत्व में सैनिक कार्यवाही का समर्थन किया ।
यद्यपि बहुत से देश संयुक्त राष्ट्र में संयुक्त राज्य अमेरिका की स्थिति के प्रति भारत रुख में नरमी का अनुभव कर सकते हैं लेकिन 2003 में भारत ने अमेरिका की इराक में सद्दाम हुसैन को सत्ता से हटाने के लिए की गई सैनिक कार्यवाही का विरोध किया ।
अमेरिका की यह इकतरफा कार्यवाही संयुक्त राष्ट्र चार्टर का उल्लंघन थी । भारत उन अनेक देशों में से एक है जो अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के कमजोर होने से चिंतित है जिसमें एक देश की दूसरों पर अपनी इकतरफा प्राथमिकताओं को थोपने की प्रवृत्ति दिखाई देती है ।
इस प्रवृत्ति से सुरक्षा के लिए सयुक्त राष्ट्र के संबंधित विभागों को समुचित रूप से मजबूत बनाने की आवश्यकता है । संयुक्त राष्ट्र का सुरक्षा परिषद् से अधिक महत्वपूर्ण कोई दूसरा का नहीं है जिसके विन्यास में विद्यमान मूलभूत कमजोरियों और इसकी शक्तियों को सही परिप्रेक्ष्य में प्रतिष्ठित करने के लिए उसमें सुधार की आवश्यकता है । भारत 1992 से इस बात का आग्रह करता रहा है कि बदली परिस्थितियों में सुरक्षा परिषद् के लोकतंत्रीकरण करने की आवश्यकता है ।
यहाँ एक विशेष बात पर ध्यान देना आवश्यक है, विश्व शांति और सुरक्षा के लिए भारत के योगदान के आधार पर, इसे विश्व के सबसे बड़े प्रकार्यात्मक लोकतंत्र के रूप में इसके आर्थिक निष्पादन और भावी संभावनाओं के कारण जो सराहना मिली है उसकी वजह से भारत में बहुत से लोग इस बात के प्रति आश्वस्त हैं कि भारत कुछ अन्य विकासशील देशों के साथ सुरक्षा परिषद् की स्थाई सदस्यता का हकदार है ।
इस क्षेत्र से केवल चीन ही इस समय स्थाई सदस्य है । इस दृष्टि से एशिया का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम है जबकि अफ्रीका और लैटिन अमेरिका का कोई भी प्रतिनिधि सुरक्षा परिषद् के भीतरी महत्त्वपूर्ण चक्र में नहीं है । यद्यपि इस विषय में अभी सर्वसम्मति नहीं बनी है फिर भी भारत निकट भविष्य में अनुकूल परिणाम की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा कर रहा है ।
भारत का विश्वास है कि केवल शांति के बारे में सतर्कता बरतने की सलाह मात्र से ही शांति को बढ़ावा नहीं मिल सकता बल्कि उसके लिए वास्तविक प्रयास करने की आवश्यकता है । संयुक्त राष्ट्र की छत्रछाया में शांति को बढ़ावा देने वाले कार्य ही इसके सशक्त प्रतीक हो सकते हैं ।
संयुक्त राष्ट्र के सैनिक वर्दीधारी और विभिन्न व्यवस्थाओं में संलग्न शांति स्थापना करने वाले लोगों ने युद्धरत राष्ट्रों के क्रोध को ठंडा करने में उनकी सेनाओं की बिना पक्षपात के सहायता करके उन्हें युद्ध न करने के वायदों का सम्मान करने के लिए प्रेरित करके तथा युद्ध न करने के पूर्व-हस्ताक्षरित समझौतों को कार्यान्वित करके शांति स्थापना में मदद की ।
संयुक्त राष्ट्र अब तक एशिया, मध्य अमेरिका, अफ्रीका और यूरोप में लगभग 55 शांति स्थापना कार्यो का संचालन कर चुका है । इनमें भारत का स्थान 10-15 प्रथम देशों में है । इन देशों ने युद्ध में भाग लेने के बजाय युद्धों को रोककर शांति स्थापित करने के लिए अपने सैनिकों और नागरिकों की सेवाएँ उपलब्ध कराई । एक राष्ट्र के रूप में हम स्वेज, कांगो, कम्बोडिया, मोजाम्बिक, हैती, रवांडा, सोमालिया, बोस्निया-हर्जेगोविना आदि ऐसे 35 देशों में शांति स्थापना कार्यो में अपने योगदान से संतुष्ट हैं ।
संयुक्त राज्य अमेरिका ने 2003 में अपने अधिकार वाले इराद में व्यवस्था स्थापित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र सघ के ढाँचे के अंतर्गत भारत से सैनिक सँहयोग की माँग की थी । किंतु भारत ने संयुक्त राष्ट्र के स्पष्ट आदेश के बिना सैर्न्क्रि सहयोग करने से इन्कार कर दिया ।
नस्लवाद-आम सभा के सबसे पहले सत्र में भारत ने नस्लवाद के मामले को उठाया और विश्व समुदाय से आग्रह किया कि वह दक्षिण अफ्रीका सरकार पर रंगभेद और जातिभेद की नीति को छोड़ने की माँग करे ।
दक्षिण अफ्रीका की अल्पसंख्यक गोरी सरकार पर दबाव डालने के लिए भारत ने विश्व राजनीति में नस्लवाद विरोधी संयुक्त गठबंधन तैयार किया जिसने खेलों में भाग लेने अंतर्राष्ट्रीय मंचों में हिस्सा लेने और सैनिक उपस्करों की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने जैसे कार्यक्रमों को संचालित करने में संकोच नहीं किया ।
इस संदर्भ में यह बहुत संतोष की बात है कि 1993 में दक्षिण अफ्रीका ने स्वयं को जातिभेद और रंगभेद से मुक्त शासन घोषित कर दिया । इसके बाद स्वतत्र चुनावों में चुनी गई लोकतंत्रीय सरकार का नेतृत्व महात्मा गाँधी के आध्यात्मिक वारिस नेल्सन मंडेला ने सँभाला ।
भारत को इस बात का श्रेय है कि उसने पराधीन देशों की आजादी के लिए प्रयास किया यानी विश्व के विभिन्न भागों में औपनिवेशिक शासन के अधीन देशों को मुक्त कराया । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भारत सबसे पहले आजादी पाने वाले देशों में से एक था । इसलिए यह भारत के लिए स्वाभाविक था कि वह विश्व में अन्यत्र उपनिवेशवादी शासन के विरुद्ध संघर्ष करे ।
1940 के दशक के अंत में सर्वप्रथम भारत ने डच उपनिवेशवाद के अधीन इंडोनेशिया की आजादीकी बात को उठाया । एशिया और अफ्रीका के कई भागों के स्वतंत्रता सेनानियों ने जिनमें हिन्द-चीन, अल्जीरिया, अंगोला, नामीबिया, रोडेशिया और ट्यूनीशिया के स्वतंत्रता सेनानी शामिल थे ।
भारत से राजनयिक और राजनीतिक समर्थन और मार्गदर्शन की अपेक्षा की 1993 के दशक के दौरान उपनिवेशों को हटाने के लिए की गई घोषणा को शीघ्र कार्यान्वित करने के लिए गठित संयुक्त राष्ट्र की उपनिवेशवाद विरोधी समिति का भारत ने नेतृत्व किया ।
आँकड़े इस अभियान के स्पष्ट गवाह हैं । जब सयुक्त राष्ट्र की स्थापना हुई थी उस समय विश्व में विभिन्न उपनिवेशों में 75 करोड़ लोग पराधीन थे और अब ऐसे केवल 50 लाख लोग हैं जिन्हें औपनिवेशिक शासन से मुक्त कराया जाना है । अधिकांश मुक्त हुए क्षेत्र संयुक्त राष्ट्र के सदस्य बन गए हैं । इससे संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों की संख्या 51 से बढ़कर 191 हो गई है ।
विकास:
भारत और संयुक्त राष्ट्र सहभागी हैं । भारत की आधारभूत स्थिति दोहरी है । विश्व शांति के लिए आर्थिक विकास आवश्यक पूर्वापेक्षा है । विश्व शांति तभी स्थाई हो सकती दे जब समाज में संघर्ष का कारण बनने वाली गरीबी, भूख, शोषण आदि अवस्थाओं का शमन कर दिया जाए ।
दूसरे, जिन औपनिवेशिक देशों ने हाल ही में राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त की दे उनकी यह स्वतंत्रता आर्थिक और सामाजिक विकास के बिना अधूरी रहेगी । दूसरे शब्दों में, विश्व व्यवस्था में विकास के तत्त्व का महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
भारत ने अपनी पर्याप्त शक्ति प्रयुक्त राष्ट्र की बीसियों संस्थाओं को स्थापित करने में लगा दी । ये संस्थाएं आर्थिक दृष्टि से रेछड़े हुए राष्ट्रों की सहायता करती हैं । ये संस्थाएँ हैं: क्षेत्रीय आर्थिक आयोग, संयुक्त राष्ट्र टेकास कार्यक्रम और संयुक्त राष्ट्र का व्यापार और विकास समागम ।
1960 और 1970 दशक में भारत पश्चिम के निर्यात बाजार में कृषि उत्पादों की अस्थिर कीमतों और व्यापार ते शर्तों के गरीब देशों के प्रतिकूल होने और अमीर तथा औद्योगिक दृष्टि से उन्नत देशों के न्नुकूल होने के बारे में शिकायतें करने और माँग करने में अग्रणी था ।
तृतीय विश्व (जिसे जी-77 समूह के नाम से भी जाना जाता है) की राजनयिक सम्मेलनों और संधिवार्ताओं एक विशिष्ट समूह के रूप में पहचान की गई थी । इस समूह का एक काल्पनिक विषय 1970 के दशक में संयुक्त राष्ट्र के मंचों में गूँजा करता था वह था लोकतंत्र, निष्पक्षा और न्याय के सिद्धांतों पर आधारित नई आर्थिक विश्व व्यवस्था की स्थापना ।
यहाँ सवाल यह, उठता है कि भारत तथा दूसरे विकासशील देशों ने विकास के संपूर्णतापरक दृष्टिकोण को क्यों बढ़ावा दिया ? इस दृष्टिकोण के अनुसारपर्यावरण जनसख नियंत्रण, खाद्य, मानव अधिकार और स्त्रियों को उनके अधिकार देना आदि प्रमुख समस्य विकास के साथ निकट से सबद्ध हैं ।
उदाहरण के तौर पर जब हम दीर्घकालीन विकास बात करते हैं तो उसका मतलब यह है कि पर्यावरण के संरक्षण के महत्त्व पर इस रूप में ध्य दिया जाए कि आज की पीढी के जैव संसाधनों का प्रयोग इस प्रकार किया जाए कि वह मान की आगामी पीढ़ी को उनके विशेषाधिकारों से वंचित न होने दे ।
भूमंडलीय शिखर सम्मेलन इस दृष्टिकोण का समर्थन किया और उसी सम्मेलन में भारत ने इस भूग्रह की सुरक्षा के लिए एक निधि स्थापित करने का प्रस्ताव किया । वैसे यहाँ भारत और दूसरे विकासशील देशों के प्रयासों को जो धक्के लगे उसकी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए ।
विकसित उत्तर और विकासशील दक्षिण के देशों के बीच प्रत्यानि वार्ता आरंभ ही नहीं हो सकती । सरकार से सरकार के बीच विकास सहायता के स्तर उत्तरो: घटते गए । यही रात संयुक्त राष्ट्र की अन्य एजेंसियों की विकासपरक गतिविधियों के संसाधनों की उपलब्धता के संबंध में भी कही जा सकती है ।
दूसरी ओर, विकासशील देशों ऋणों में तेजी से हुई वृद्धि भी चिंता का कारण थी । भारत सहित लगभग 80 विकासशील देश को अपनी अल्पकालीन अर्थिक कठिनाइयों को दूर करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से लेना पड़ा । इसके लिए कमर तोड़ने वाली कठोर शती को स्वीकार करना पड़ा ।
संयुक्त राष्ट्र की विकासपरक गतिविधियों में दो महत्वपूर्ण बातें हैं । भारत को बहुपक्षी विकास सहायता का प्रमुख लाभ प्राप्त हुआ है जिसमें से कुछ सहायता (UNDP) जैसी एजेंसियों के माध्यम से प्राप्त हुई । इसके साथ ही तकनीकी जनशक्ति के रूप में तथा तृतीय विश्व के नेता के रूप में भारत ने यूनिडो (UNIDO), यूनेस्को (UNESCO) और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) जैसी संस्थाओं के माध्यम से साथी विकासशील देशों प्रगति के लिए प्राय: महत्त्वपूर्ण योगदान किया है ।