Read this article in Hindi to learn about a case study on chipko movement in India.
लगभग 300 साल पहले राजस्थान के एक राजा ने चूना बनाने के लिए अपने रजवाड़े में खेजरी के पेड़ों को कटवाने का फैसला किया । पेड़ों की कटाई रोकने के लिए अमृतादेवी नाम की एक बिश्नोई स्त्री के नेतृत्व में स्त्रियाँ इन पेड़ों से चिपक गई; ये ऐसे दुर्लभ संसाधनों के आधार थे जिन पर लोगों के जीवन निर्भर थे । ये स्त्रियाँ बेरहमी से मार दी गईं । कहते हैं कि बाद में राजा ने अपनी गलती महसूस की ।
पर इस घटना को लोगों ने याद रखा और 1970 के दशक में इसे तब दोहराया गया जब हिमालय क्षेत्र में इमारती लकड़ी के ठेकेदारों के हाथों वनों का विनाश रोकने के लिए स्थानीय स्त्रियों ने एक जन-आंदोलन आरंभ किया । उनका समर्थन सुंदर लाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट जैसे लोगों ने किया । पेड़ों से चिपककर स्त्रियों के जान देने की घटना की याद में लोगों ने इस आंदोलन को ‘चिपको आंदोलन’ नाम दिया । इस आंदोलन ने वही रास्ता अपनाया जो तीन सदी पहले 300 बिश्नोई स्त्रियों ने दिखाया था ।
चिपको मुख्यतः गढ़वाल, उत्तरांचल के पहाड़ों में स्थानीय स्त्रियों द्वारा आरंभ किया गया आंदोलन है । यहाँ वनों के विनाश की मार मुख्यतः स्त्रियों (अर्थात ईंधन के परंपरागत संग्राहकों) को भुगतनी पड़ रही थी । उन्होंने महसूस किया कि इमारती लकड़ी की व्यापारिक कटाई के कारण ईंधन और चारा जैसे संसाधन उनकी बस्तियों के पास स्थित ‘संसाधन-उपयोग के क्षेत्रों’ से दूर हट रहे थे । इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी देखा कि इसके कारण भारी बाढ़ें आ रही थीं और कीमती मिट्टी बरबाद हो रही थी ।
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वनविनाश के विरोध में चिपको कार्यकर्ताओं ने हिमालय क्षेत्र में लंबी-लंबी पदयात्राएँ की हैं । यह आंदोलन अत्यंत सफल रहा और मुख्यतः स्थानीय स्त्रियों के समर्थन पर चला जो वनविनाश से सबसे अधिक प्रभावित थीं । इस आंदोलन ने दुनिया को दिखाया कि पहाड़ों के जंगल स्थानीय समुदायों के जीवन के आधार हैं, स्थानीय पैदावारों की दृष्टि से उनका भारी मूल्य है तथा वन भले ही परिमाण में कम मगर बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण पर्यावरणी सेवाएँ देता है, जैसे मृदा संरक्षण और पूरे क्षेत्र की प्राकृतिक जल व्यवस्था का संरक्षण ।
हिमालय की तलहटी में स्थानीय स्त्रियों के एकजुट होने का इतिहास आजादी से पहले का है जब गाँधी जी की शिष्या मीराबेन जैसी स्त्रियाँ इस क्षेत्र में आईं और उन्होंने समझा कि वादी के गाँवों और नीचे गंगा के मैदान में बाढ़ों और तबाही का कारण वनों का विनाश है ।
उन्होंने यह भी समझा कि हिमालय क्षेत्र के ओक और चौड़े पत्तों वाले दूसरे पेड़ों की जगह इमारती लकड़ी और रेजिन के लिए तेजी से बढ़ने वाले चीड़ वृक्ष उगाना एक पर्यावरण संबंधी भूल है और सामाजिक तबाही का कारण है जिसने परंपरागत पहाड़ी समुदायों के उपयोग वाले वन्य संसाधनों में कमी की है ।