अफ्रीका का गुट-निरपेक्ष आंदोलन में योगदान | “Africa’s Contribution to Non-Aligned Movement” in Hindi Language!
भारत-अफ्रीकी संबधों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
भारत और अफ्रीका का संबंध बहुत ही प्राचीन काल से माना जाता है । भारत में अफ्रीका के प्रति हमेशा सहानुभूति की भावना रही है । यह भावना वहाँ के लोगों के स्वप्नों और आकांक्षाओं के प्रति है ।
दोनों देशों के समान लक्ष्य और भविष्य के प्रति एक-सा दृष्टिकोण रहा है । दोनों ने ही समान उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संघर्ष किया है । प्राचीन भारतीय शास्त्रों और मिस्र की पुस्तकों में वर्णित विचारों में समानता और सादृश्यता दिखाई पड़ती है ।
मिस्र के लोगों और भारत के लोगों में वर्णनात्मक सामाजिक व्यवस्था में सादृश्य दिखाई देता है । मिस्र के लोगों ने भी भारतीयों की भाँति कर्म के आधार पर जाति का विभाजन माना था और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र के विभाजन को स्वीकार किया करते थे भारत की गंगा नदी और मिस्र की नील नदी धार्मिक प्रतीक के रूप में मानी साती रही है, दोनों क्षेत्र में कमल को सूर्य का प्रतीक और आत्मा की अमरता को स्वीकार किया गया था ।
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ईसा पूर्व 8वीं शताब्दी में भारत और मिल के बीच व्यापार के प्रमाण भी पाए जाते हैं । ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में यह प्रमाण मिलता है कि मिस्र में मृत व्यक्ति के शरीर को सुरक्षित रूप से लपेटने एवं ढकने के लिए सोमालिया से आबनूस की लकड़ी कपास के कपड़े भारतीय व्यापारी मिस्र की ओर ले जाते थे ।
100 ईस्वी में ईसाई धर्म का उत्तरी अफ्रीका में आगमन हुआ एवं उसका प्रचार-प्रसार हुआ । 16वीं शताब्दी में गुजरात और बंगाल से इथियोपिया को सूती और रेशमी वस्त्र निर्यात होते थे । 1657 ईस्वी में अबीसीनिया के राजा का भेजा हुआ दूत औरंगजेब के दरबार में आया था जिसका बहुत स्वागत किया गया । तब से भारत और मिस्र के बीच व्यापारिक संबंध प्रारंभ हुआ ।
1692-93 के दौरान भारत और मिस्र के बीच व्यापार प्रचुर मात्रा में प्रारंभ हो गया था । ब्रिटिश सरकार ने 1860 में गुलामी प्रथा को अवैध घोषित किया तथा भारतीय मजदूरों को कृषि कार्य के लिए अंग्रेज ठेकेदार अफ्रीका ले जाने लगे ।
अफ्रीका के नेटाल डरबन आदि क्षेत्र में भारतीय मजदूर बस गए । 1880 में जंजीबार और भारत के बीच तार की लाइनें बिछाने का काम प्रारभ हुआ । 1882 में भारतीय सैनिकों ने स्वेज नहर को नौका चालन योग्य बनाया ।
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तब से भारतीय अफ्रीका के विभिन्न देशों में काम करने लगे तथा अंग्रेजों के द्वारा शोषित होने लगे । इसी शोषण के क्रम में 1893 के अप्रैल में मोहनदास करमचंद गाँधी को वकील के रूप में भारतीय मजदूर दक्षिण अफ्रीका ले गए ।
वहाँ के अपमानजनक व्यवहार एवं शोषणात्मक व्यवस्था को समाप्त करने के लिए गाँधीजी ने नेटाल में नेटाल इंडियन कांग्रेस की स्थापना की । 1895 में केन्या और युगाण्डा के बीच रेल की लाइनें बिछाने का कार्यक्रम शुरू हुआ । यह काम बहुत दिनों तक चला । परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में भारतीय मजदूर अफ्रीकी देशों में गए और वहीं बस गए एवं उनमें से बहुत लोग वहाँ पर दुकानें आदि खोलकर विभिन्न प्रकार के कार्य करने लगे ।
1906 में ट्रांसवाल में पूर्व से बने हुए प्रेस कानूनों के विरोध में महात्मा गाँधी ने सत्याग्रह दोलन प्रारंभ किया । 1907 में भारतीय मजदूरों के अधिकारों की रक्षा के लिए गाँधीजी ने सत्याग्रह आंदोलन चलाया । 1909 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष गोपालकृष्ण गोखले ने महात्मा गाँधी द्वारा दक्षिण अफ्रीका में चलाए जा रहे शातिपूर्ण सत्याग्रह की सहायता के लिए एक कोष का निर्माण किया और पैसा भेजना शुरू किया ।
1912 में गोखले दक्षिण अफ्रीका में इसकी जाँच के लिए गए भी थे और भारत से अफ्रीका में मजदूरों को ले जाने वाली एजेंसी पर प्रतिबंध लगवा दिया । महात्मा गाँधी और जनरल स्मट्स के बीच 1914 में समझौता हुआ ।
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उसके बाद गाँधी 1915 में दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों को सफलता दिलाकर भारत लौट आए । 1926 में साउथ अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बीच एक सम्मेलन हुआ । यह सम्मेलन केपटाऊन में हुआ ।
इसके अंतर्गत यह समझौता किया गया कि दक्षिण अफ्रीका की अन्य जातियों की भाँति भारतीय नागरिक भी समानता का उपभोग करेंगे । इसकी देख-रेख के लिए 1932 में ब्रिटिश सरकार ने कुँवर महाराज सिंह को लेट बनाकर भेजा ।
भारत के स्वतंत्र होने पर भारत और अफ्रीका के बीच लंबे समय से चले आ रहे भारतीय-अफ्रीकी संबंधों के परिप्रेक्ष्य में ही नया संबंध शुरू हुआ । पूर्व में दक्षिण अफ्रीका के गोरों की विभिन्न खानों में कार्य करने, गन्ना रोपने और अन्य कृषि कार्यो के सम्पादन के लिए करार के अंतर्गत भारतीय मजदूर अफ्रीका ले जाए गए थे । इस विषय का अध्ययन हम विभिन्न चरणों में इस प्रकार कर सकते हैं:
(1) दक्षिण अफ्रीका में गाँधी जी की आंदोलनात्मक भूमिका:
भारत की ब्रिटिश सरकार ने करारबद्ध पद्धति के आधार पर भारतीय मजदूरों को 1860 से ही नेटाल ले जाना प्रारंभ किया और वहाँ के समुद्री तट पर भारतीय मजदूर बसते चले गए जिसके कारण उन लोगों की एक बस्ती आबाद होने लगी ।
ये बस्तियों भारतीय-ब्रिटिश सरकार और दक्षिण-पूर्वी अच्छीकी ब्रिटिश उपनिवेशों के बीच समझौते के आधार पर बसाई गई थीं । जब बहुत अधिक संख्या में मजदूर भारत से नेटाल ले जाए गए और वे लोग वहाँ बस गए तो भारतीय मजदूरों की जातीय-सामाजिक व्यवस्था के ऊपर ब्रिटिश सरकार ने अनेक प्रतिबंध लगा दिए ।
ये ही प्रतिबंध अंग्रेजों और भारतीयों के बीच विवाद का विषय बन गए । फलत: महात्मा गांधी को भारतीय अफ्रीकी विवादों के निबटारे के लिए और केस लड़ने के लिए 1893 में दक्षिण अफ्रीका ले गए । वहाँ पर महात्मा गाँधी ने भारतीयों के साथ शोषण अपमानजनक व्यवहार आदि को पाया और इससे लड़ने के लिए संगठन बनाने पर जोर दिया ।
फलत: सारे मजदूर गाँधी जी के साथ हो गए और समानता के लिए संघर्ष प्रारंभ कर दिया तथा ‘इंडियन ओपीनियन’ नामक समाचार-पत्र प्रकाशित करना प्रारंभ किया, जिसके माध्यम से भारतीयों के साथ वहाँ पर किए जा रहे अपमानपूर्ण व्यवहार को प्रकाशित किया जाने लगा ।
गाँधी जी इस क्रम में भारत और इंग्लैंड के नेताओं से पत्र-व्यवहार करते रहे । 1901 में गाँधी जी भारत आए और उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा इंडियन चैम्बर ऑफ कॉमर्स की सभा में अफ्रीका में भारतीयों के साथ होने वाले अपमानजनक व्यवहार को प्रकट किया जिसके कारण भारतीय लोगों में अफ्रीकी-भारतीयों के प्रति सहानुभूति का भाव जागा और व्यापक रूप से विरोध शुरू हुआ ।
ब्रिटिश सरकार ने इसकी अनदेखी कर दी फिर भी संघर्ष रुका नहीं । महात्मा गाँधी पुन: दक्षिण अफ्रीका लौट गए । वहाँ पर उन्होंने 1907 से 1913 तक अपमान और शोषण के विरोध में व्यापक रूप से आंदोलन चलाया । इसी क्रम में भारत-अफ्रीकी संबंध के विकास की प्रक्रिया प्रारंभ हुई और संघर्ष के परिणामस्वरूप वहाँ पर भारतीयों को बहुत कुछ राहत मिली । 1915 में महात्मा गाँधी भारत आ गए ।
(2) पराधीन देशों की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष:
महात्मा गाँधी जी के भारत आने के पश्चात् भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर गाँधी जी के हाथों में आ गई । गाँधी जी ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का संचालन तो किया ही, साथ ही 1914 से 1947 तुक अफ्रीकी-भारतीयों के कल्याण के लिए अफ्रीकी आदोलन को हवा भी देते रहे, जिसके कारण 1918 में अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस की स्थापना हुई और इसी के झंडे तले दक्षिण अफ्रीका में संघर्ष प्रारंभ हुआ ।
अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों का कहना था कि कानून के सम्मुख अंग्रेजों कींई भाँति भारतीयों को भी समानता का अधिकार मिलना चाहिए । फलत: दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों ने इसी पक्ष को लेकर लड़ाई प्रारंभ की । इसलिए समय-समय पर दक्षिण अफ्रीकी भारतीय आते रहे और महात्मा गाँधी से परामर्श लेते रहे ।
(3) भारतीय मानवीय पक्षों का सुदृढीकरण:
1927 में ब्रुसेल्स में एक कांफ्रेंस हुई । यह कांग्रेस शोषणवाद, साम्राज्यवाद उपनिवेशवाद और नस्लवाद के विरोध की गई थी । भारत के प्रतिनिधि के रूप में पंडित जवाहरलाल नेहरू इस कांग्रेस में भाग लेने गए ।
यहाँ से लौटकर आने पर उन्होंने विश्व स्तर पर शोषणवाद साम्राज्यवाद और नस्लवाद का विरोध किया तथा कांग्रेस को भी इसी प्रकार की नीति बनाने की प्रेरणा दी । फलत: 1929 के कांग्रेस अधिवेशन में इस तरह के प्रस्ताव पारित हुए ।
पुन: 1906 में कांग्रेस ने स्पष्ट किया कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस केवल भारत के लिए ही नहीं; वरन् संपूर्ण विश्व के मानव के कल्याण के लिए लड़ रही है । इसी प्रकार से भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस ने पराधीन राष्ट्रों को स्वतन्त्र होने की प्रेरणा दी ।
फलत: अफ्रीका में भी आंदोलन तेज हुआ । 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ और 1948 से भारत की स्वतंत्र वैदेशिक नीति शुरू हुई । फलत: 1948 में भारत के केन्या में महा-आयुक्त तथा पूर्व उप-सहाराई अफ्रीकी देशों में भारत के प्रतिनिधि अप्पा साहब पंत ने यह भाषण दिया कि अफ्रीकी लोग स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करें ।
1952 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने विश्व से उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद की समाप्ति और दक्षिण अफ्रीका में रह रहे भारतीयों के प्रति सहयोगात्मक प्रस्ताव पारित किया तथा अफ्रीकावासियों से अहिंसात्मक आदोलन में सहयोग देने का अनुरोध भी किया ।
1953 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने उपनिवेशवाद की निंदा की और रंगभेद नीति का विरोध किया और अफ्रीकी स्वतंत्रता आंदोलन को सहयोग दिया तथा नाइजीरिया एवं घाना में स्थापित स्वशासन का समर्थन किया । इस तरह भारत ने प्रारंभ से ही शोषणवाद और रंगभेद का विरोध किया और अफ्रीकी-भारतीयों को सहयोग देना प्रारंभ किया ।
भारत ने अफ्रीका के घाना, नाइजीरिया, केन्या, तंजानिया, मोरक्को, ट्यूनीशिया आदि देशों के साथ मिलकर संघ बनाने का परामर्श दिया । 1956 में कई भारतीय स्वेज समस्या के कारण राष्ट्रमंडल से अलग होने के इच्छुक थे परंतु नेहरू ने परामर्श दिया कि अलग होने से अच्छा है साथ रहकर अपने हितों की रक्षा की जाए ।
1960 में नेहरू ने अपने भाषण में यह भी कहा था कि अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों को वहाँ के मूल निवासियों का शोषण नहीं करना चाहिए । इससे स्पष्ट हो जाता है कि भारत ने किसी भी प्रकार के शोषण का विरोध किया था चाहे वे भारतीयों द्वारा हो या विदेशियों द्वारा ।
(4) गुटनिरपेक्ष आंदोलन और अफ्रीका:
भारत ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद गुटनिरपेक्षता की नीति का अवलम्बन किया तथा 1955 में एफ्रो-एशियाई देशों के बांडुंग सम्मेलन में इसे स्वीकृति प्राप्त की थी । मिल के जनरल नसीर नेहरू जी के परम मित्र थे ।
इस सम्मेलन के बाद उनकी दोस्ती अत्यधिक गहरी हो गई । यूगोस्लाविया के मार्शल टीटो, इंडोनेशिया के सुकर्णो और क्वामे एन्क्रूमा ने नेहरू जी का समर्थन किया । इसके बाद बेलग्रेड में गुटनिरपेक्ष आंदोलन का सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय किया गया ।
1947 में नेहरू विश्व स्तर पर शोषण, उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद की समाप्ति के संबंध में अपने विचार प्रकट कर चुके थे । फलत: गुटनिरपेक्ष आंदोलन के प्रथम सम्मेलन में स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे एफ्रो-एशियाई देशों को संघर्ष और तीव्र करने के लिए प्रोत्साहित किया गया और फ्रांस एवं इंग्लैंड को परामर्श दिया गया कि वे अल्जीरिया और साइप्रस को स्वतंत्र कर दें तथा पुर्तगाल की इस बात के लिए आलोचना की गई कि वह पराधीन देशों के स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति उपेक्षापूर्ण नीति एवं व्यवहार अपना रहा है ।
1964 में काहिरा में गुटनिरपेक्ष आंदोलन का सम्मेलन हुआ, जिसमें भारत के प्रतिनिधि शास्त्री जी ने अफ्रीकी देशों से स्वतंत्रता के लिए सजग होने की अपील की । इस अवसर पर जनरल नासिर ने शास्त्री जी से हाथ मिलाते हुए उनसे संपर्क बनाए रखने का निवेदन भी किया । गुटनिरपेक्ष आदोलन का तीसरा सम्मेलन 1970 में लुसाका में हुआ । इसमें श्रीमती इंदिरा गाँधी गई थीं ।
उनका वहाँ पर हार्दिक स्वागत हुआ । वहाँ पर राष्ट्राध्यक्ष केनेथ कोंडा इंदिरा गाँधी के स्वागत के लिए हवाई अड्डे तक आए । इस सम्मेलन में गुटनिरपेक्ष आंदोलन के छ: उपाध्यक्षों में से श्रीमती गाँधी को भी एक उपाध्यक्ष चुना गया ।
इस अवसर पर श्रीमती गाँधी ने अफ्रीका में स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे देशों को बधाई दी । अल्लीयर्स, कोलम्बो और हवाना के गुटनिरपेक्ष आदोलनों में भी अफ्रीकी स्वतंत्रता आदोलन को समर्थन दिया गया । 1986 में भारत के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने जाम्बिया, जिम्बाब्वे, अंगोला और तंजानिया की यात्रा की । यहाँ के लोगों ने प्रधानमंत्री का भरपूर स्वागत किया और भारत ने जाति भेद तथा रंगभेद की नीति की समाप्ति के लिए व्यापक योगदान दिया एवं अफ्रीकी राष्ट्रों से संगठित होने का आह्वान भी किया ।