Read this article in Hindi language to learn about the ideal diet plan for various age groups.
आहार आयोजन विभिन्न आयु समूहों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर करना चाहिए । यह आवश्यक है कि परिवार के भोजन में ही इन अवस्थाओं के लिए परिवर्तन किया जाए ।
ये अवस्थायें निम्न प्रकार हैं:
शिशु का प्रथम आहार: (First Food for Infant)
हमारे देश में प्राय: सभी माताएँ शिशुओं को दुग्धपान कराती हैं तथा पूरे देश में स्तनपान कराने की प्रथा है । शिशु के जन्म लेने के बाद जल्दी से जल्दी उसे माता के स्तन से लगा देना अति आवश्यक प्रक्रिया है ।
ADVERTISEMENTS:
प्रारंभ में चुचूक (niples) से पीले रंग का तरल पदार्थ निकलता है इसे कोलोस्ट्रम (Colostrum) या खीस भी कहते हैं । नवजात शिशु के स्वास्थ्य के लिए यह अत्यंत लाभकारी होता है । शुरू में आने वाला दूध या कोलोस्ट्रम अम्ल मात्रा में निकलता है परन्तु इस अवस्था में शिशु के लिए यह पर्याप्त होता है ।
शिशु को कोलोस्ट्रम पिलाने से लाभ:
i. कोलोस्ट्रम अत्यंत पौष्टिक होता है ।
ii. इसमें प्रोटीन व संरचनात्मक एंटीबोडीज अधिक मात्रा में पायी जाती है ।
ADVERTISEMENTS:
iii. ये दोनों तत्व नवजात शिशु को प्रसव के पश्चात् संक्रमणों से बचाता है ।
iv. कई पोषण वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि कोलोस्ट्रम शिशु को मुँह से दिये जाने वाले टीके (Vaccine) की तरह कार्य करता है ।
v. अत: यह नवजात शिशु को वातावरण के संक्रमणों से बचाता है ।
कोलोस्ट्रम से सम्बन्धित भ्रान्तियाएँ हमारे देश के कई भागों में मुख्यतया गाँवों में रहने वाली महिलाएँ जोकि अज्ञानता का शिकार होती हैं वे कोलोस्ट्रम को गंदा दूध समझती हैं । ये मातायें शिशु को जन्म के पश्चात् एक दो दिन तक दूध नहीं पिलातीं । इसके स्थान पर शहद, चीनी, ग्लूकोज या गुड से तैयार बेबी वाटर देती हैं । देशी घुट्टी का भी प्रयोग काफी प्रचलित है ।
उपरोक्त पदार्थ नवजात शिशु को पिलाने से हानियाँ:
ADVERTISEMENTS:
शिशु को जहाँ तक सम्भव हो जल्दी-जल्दी स्तनपान कराना चाहिए । यह माता व शिशु दोनों के लिए उत्तम विधि है । इससे शिशु को माता का दूध तो प्राप्त होता ही है साथ ही दोनों के बीच आपसी स्नेह व प्रेम बढ़ता है ।
माँ का परिपक्व दूध (Mature Mother’s Milk):
परिपक्व दूध प्रसव के तीन-चार दिनों के पश्चात् आना शुरू होता है । धीरे-धीरे इसकी मात्रा बढ़ती है । इस समय आने वाला दूध पनीला व सफेद होता है ।
शिशु को स्तनपान कराना (Feeding Milk):
प्रथम बार मातृत्व प्राप्त करने वाली महिला को स्तनपान कराने की विधि सीखनी पड़ती है । नवजात शिशु को भी इस क्रिया का अभ्यास करना पड़ता है । इस कार्य को कराने में नर्स, दाई या घर की अन्य बुजुर्ग महिला सहायता करती है ।
शिशु को स्तनपान कराते समय ध्यान देने योग्य बातें:
i. माँ को अपने हाथों को अच्छी तरह धोना चाहिए ।
ii. स्तन को भी गर्म पानी में भिगोकर स्वच्छ कपड़े से साफ करना चाहिए ।
iii. माँ को आरामदेह स्थिति में बैठना चाहिये ।
iv. इसके पश्चात् माँ को शिशु को बाँह में उठाकर शिशु का मुँह अपने स्तन के पास तथा उसके पेट को अपने पेट से लगाना चाहिए । शिशु के शरीर का पूरा भाग स्तन की ओर मुड़ा होना चाहिये ।
v. माँ को एक हाथ से शिशु के सिर को सहारा देना चाहिए व दूसरे हाथ को कैंची के आकार में करके ऐलोरा (Nipple and its Surrounding area) को शिशु के मुँह में देना चाहिए ।
vi. इस समय शिशु का गाल या उसका चेहरा माँ के चुचूक को छूना चाहिए ताकि दूध स्रावित होने के लिए रुटिंग रेफ्लेक्स उत्पेरित हो ।
vii. प्रारम्भ में शिशु को चार-पाँच मिनट तक स्तनपान कराना चाहिए जिसे दो-तीन दिनों तक चलाया जा सकता है इसके पश्चात् धीरे-धीरे समय बढ़ाना चाहिये ।
viii. माता को दोनों स्तनों से बारी-बारी दूध पिलाना चाहिए ।
ix. शुरू में शिशु को भूख लगने पर तुरन्त स्तनपान कराना चाहिए । यह क्रिया दिन व रात दोनों में होनी चाहिए ।
x. कई माताओं के मन में यह भ्रांति होती है कि शिशु को रात में दूध नहीं देना चाहिए इससे माँ की नींद पूरी नहीं होगी परन्तु यह तरीका गलत है ।
xi. धीरे-धीरे एक-दो माह में शिशु दूध पीने का अपना एक क्रम बना लेगा । प्रत्येक शिशु की स्तनपान की माँग भिन्न होती रे कुछ शिशु जल्दी-जल्दी स्तनपान चाहते हैं तथा कुछ देर से । यूनिसेफ के अनुसार, शिशु को छ: मास तक केवल स्तनपान करायें (Exclusive Breast milk up to six months) । जहाँ तक शिशु को पानी देने की बात है वह भी माता के दूध में उपस्थित पानी की मात्रा से पूर्ण हो जायेगा ।
xii. शिशु जब एक बार पूर्ण रूप से स्तनपान कर लेता है तो वह स्वयं स्तन को मुँह से निकाल देता है । माँ को स्वयं शिशु को स्तन से नहीं हटाना चाहिए ।
शिशु को डकार दिलवाना (Belching of Baby):
दूध पीते समय शिशु के पेट में थोड़ी वायु भी प्रवेश कर जाती है । अत: वायु को निकालने के लिए शिशु को डकार दिलाना आवश्यक होता है । शिशु को प्रत्येक बार दूध पिलाने के पश्चात् कन्धे से लगाकर उसकी पीठ ऊपर से नीचे की दिशा में सहलाना या थपथपाना चाहिये इससे शिशु को डकार आ जाती है ।
माता का दूध शिशु के लिये सर्वोत्तम आहार है (Mother’s Milk Excellent Food for Infant):
सभी पोषण वैज्ञानिक इस बात से एक मत हैं कि शिशु के लिये माता का दूध ही सर्वोत्तम आहार है । छ: माह तक शिशु को केवल माता का ही दूध देना चाहिए । माता के दूध में सभी पौष्टिक तत्व इस मात्रा व अनुपात में पाये जाते हैं कि दूध का पाचन-शोषण आसानी से हो जाता है तथा वृद्धि व विकास की गति भी सामान्य रहती है ।
माता के दूध का पौष्टिक मूल्यांकन (Nutritive Value of Mother’s Milk):
i. प्रोटीन: प्रोटीन की मात्रा 1.1% प्रतिशत होती है । शिशु की वृद्धि व विकास के लिए सभी आवश्यक अमीनो अम्ल उपस्थित रहते हैं ।
ii. कार्बोहाइड्रेट: माता के दूध में लैक्टोज नामक शर्करा पाई जाती है, जिसकी मात्रा 7 प्रतिशत होती है । माता के दूध का स्वाद शर्करा की उपस्थिति के कारण मीठा होता है ।
iii. वसा: माता के दूध में वसा की मात्रा 3.9 प्रतिशत होती है । यह वसा आसानी से पच जाती है ।
iv. खनिज लवण: कैल्शियम-फॉस्फोरस: माता के दूध में इनकी मात्रा कम होती है परन्तु ये पूर्ण रूप से शोषित हो जाते हैं ।
v. लौह लवण: माता के दूध में लौह लवण की कमी होती है । छ: मास तक शिशु को लौह लवण की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि छ: मास की आयु के लिए उसके यकृत (Liver) में गर्भकाल में ही दूसरा संचय हो जाता है ।
vi. विटामिन्स: माता के दूध में विटामिन ‘ए’ बी कॉप्लेक्स व ‘सी’ शिशु के स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं । माता के दूध में विटामिन ‘डी’ की कमी होती है ।
कृत्रिम दूध (Artificial Milk):
माता का दूध शिशु के लिए आदर्श व सर्वोत्तम आहार होता है । कभी-कभी किन्हीं कारणों से माता के स्तन में दूध नहीं उतरता, उस स्थिति में कृत्रिम दूध की व्यवस्था करनी पड़ती है ।
कृत्रिम दूध निम्न प्रकार है:
(1) शुष्क दूध (Powder Milk):
यदि गाय का दूध उपलब्ध न हो तो शुष्क दूध दिया जा सकता है । इसको बनाते समय पूर्ण रूप से स्वास्थ्य रक्षा सम्बन्धी नियमों का पालन करना अति आवश्यक है । कई कंपनियों द्वारा वैज्ञानिक परीक्षण कराकर दूध के डिब्बों पर दूध बनाने का फार्मूला लिखा रहता है, पहले से उबाला हुआ व गुनगुना पानी शिशु की आयु के अनुसार शुष्क दूध पाउडर डालकर दूध बनाते हैं ।
(2) गाय का दूध:
प्रथम दो मास तक 3 भाग दूध व 1 भाग उबला पानी मिलाकर देते हैं । इसके पश्चात् तीसरे मास से पानी मिलाना बंद कर देते हैं । गुनगुने दूध में चीनी का प्रयोग मात्रानुसार करना चाहिए ।
दूध पिलाने के पश्चात् व निपिल की स्वच्छता (Hygiene of Feeding Bottle and Nipple after Feeding):
दूध पिलाने के तुरन्त बाद बोतल व निपिल को तरल साबुन से धोकर गर्म पानी में उबाल लेना चाहिये । पानी ठंडा होने पर पानी से बोतल को निकाल कर व उस पर ढक्कन लगाकर फ्रिज में रखना चाहिए ।
कृत्रिम दूध पिलाते समय ध्यान रखने योग्य बातें:
i. सर्वप्रथम शिशु के गले में बिंव या छोटा तौलिया लगाना चाहिए ।
ii. निपिल का छेद न बड़ा हो और न छोटा हो ।
iii. बोतल को कवर चढ़ाकर पिलाना चाहिये ।
iv. सर्दी के मौसम में ऊनी कवर लेना चाहिए ताकि दूध गर्म रह सके ।
v. दूध पिलाते समय शिशु के सिर व पीठ के पीछे हाथ का सहारा देना चाहिए ।
vi. निपिल का ऊपरी भाग ही शिशु के मुँह में देना चाहिए तथा बोतल को थोड़ा तिरछा करके अपनी ओर हल्का-सा खींचकर पिलाना चाहिए ।
vii. दूध पिलाने के पश्चात् शिशु को पीठ से लगाकर डकार दिलाना चाहिये ।
viii. दूध पिलाने के बाद शिशु का मुँह गीले कपड़े से पोंछ देना चाहिये ।
ix. दूध पिलाने से पहले दूध को छानकर बोतल में भरना चाहिये ।
x. दूध बनाने के बाद उसके तापक्रम की जाँच करने के लिये हाथ पर कुछ बूंदइं दूध की टपकाना चाहिए । यदि दूध गर्म हो तो उसे ठंडे पानी के मग में रखकर ठंडा करें ।
स्तनपान के पश्चात् शिशु का पूरक आहार (Supplementary Food):
हमारे देश के अधिकांश भाग में 6 मास की आयु में शिशु का ‘अन्नप्राशन’ संस्कार किया जाता है जिसे एक धार्मिक रीति-रिवाज के रूप में मनाया जाता है । इसका तात्पर्य है कि इस समय से शिशु को दूध के अतिरिक्त अन्य आहार देना चाहिए ।
शिशु की पौष्टिक तत्वों की आवश्यकतायें (Nutritional Needs):
शिशु के आहार में उन सभी पौष्टिक तत्वों का समावेश होना चाहिए जोकि उसकी वृद्धि व विकास के लिए आवश्यक होते हैं । शिशु के आहार में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, खनिज लवणों व विटामिन्स का समावेश होना चाहिए । शिशु को उचित मात्रा व अनुपात में निर्माणकारक व रक्षात्मक भोज्य पदार्थ देना आवश्यक है ।
i. प्रोटीन: यह निर्माणकारक तत्व है । शिशु की वृद्धि व विकास में सहायक है । प्रोटीन के मुख्य साधन दूध, दूध से बने पदार्थ, अंडा व दाल आदि हैं ।
ii. कार्बोहाइड्रेड: इस तत्व का कार्य ऊर्जा प्रदान करना है । शिशु की क्रियाशीलता छ: माह के पश्चात् अधिक तीव्र हो जाती है । अत: उसे अधिक ऊर्जा से भरपूर आहार की आवश्यकता होती है । इस समय शिशु को खीर, घुटी, दाल, मसाला आलू दलिया, चावल की खीर, बिस्कुट व ब्रेड आदि देना चाहिये ।
iii. खनिज लवण व विटामिन्म: छ: मास से शिशु को केवल अण्डे का पीला भाग, दही, पनीर, फलों का रस, सब्जियों, दाल, सूप, केला, चीकू आदि देना चाहिए ।
शिशु के लिए अर्द्ध ठोस व ठोस आहार: (Semi Solid and Solid Food for Infant):
5-6 माह तक शिशु आहार:
5 से 6 माह तक शिशु को अर्द्ध ठोस व ठोस आहार देना शुरू करना चाहिए । छ: मास के बाद शिशु को ऊपरी आहार देने के क्रम में सर्वप्रथम मसले हुए केले या दूध में सूजी जैसे अन्न देना शुरू करना अच्छा होता है ।
सूजी के स्थान पर दलिया जो आटा, चावल की किनकी, रागी आदि से बनाई गई चीजें दे सकते हैं । इन पदार्थों से बने दलिया को थोड़ा घी या तेल में भूनकर, फिर पानी में पकाकर, जब दलिया अच्छी तरह पक जाय तो उसमें थोड़ा दूध और चीनी डालकर शिशु को खिलायें ।
सर्वप्रथम एक या दो चम्मच खिलायें, धीरे-धीरे इसकी मात्रा बढ़ाये ताकि दो-तीन हफ्ते बाद शिशु 50 से 60 ग्राम ( 1/2 कप) दलिया खाने लगे । इसके बाद मसला हुआ केला थोड़ा-थोड़ा करके खिलाना चाहिये । मौसम के अनुसार अन्य फल; जैसे: आम, चीकू, पपीता आदि भी मसल कर दें । शिशु के स्वास्थ्य के लिए केला सबसे अच्छा फल है ।
स्तनपान के उपरान्त शिशु का आहार (Supplementary Foods) Or स्तन्यमोचन (Weaning):
”शिशु के आहार में माँ के दूध के अलावा अन्य खाद्य पदार्थों की शुरूआत करने की प्रक्रिया को स्तन्यमोचन (Weaning) कहते हैं ।”
5-6 मास तक आहार:
इस आयु में शिशु को अंडा देना शुरू करना चाहिए । अंडा अच्छी तरह पका व मसला होना चाहिए । सर्वप्रथम अंडे का पीला भाग ही खिलना चाहिए ।
6 से 9 मास तक आहार:
इस आयु में शिशु को थोड़ा-ज्यादा व जल्दी-जल्दी आहार देना चाहिए । इस समय आहार में पके व मसले हुए दाल-चावल, खिचड़ी, उबला व मसला हुआ आलू (इसमें थोड़ा-सा मक्खन या घी व नमक डालकर) रोटी, दाल या रसेदार सब्जी में भिगोकर व मसलकर या रोटी दूध में भिगोकर या मसलकर खिलायें । शिशु के खाने में मिर्च व मसाले नहीं होने चाहिए । शिशु का आहार अच्छी तरह पका व मसला हुआ होना आवश्यक है ।
आहार में हरे पत्ते वाली सब्जियों का उपयोग करें ताकि शिशु को विटामिन ‘ए’, लौह लवण व कैल्शियम अच्छी मात्रा में प्राप्त हो सके । हरे पत्ते वाली सब्जियों को दाल या खिचड़ी के साथ मिलाकर खिलाया जा सकता है । हरे पत्ते वाली सब्जियों को आटे में मिलाकर रोटी या पराठा बनाया जा सकता है । इस आयु में शिशु को थोड़ी-थोड़ी मात्रा में पाँच या छ: बार खाना खिलायें ।
9 से 12 मास तक आहार:
इस आयु में बच्चे को माँसाहारी भोजन भी दिया जा सकता है; जैसे: माँस का कीमा या मछली परन्तु इनको अच्छी तरह पकाकर तैयार करना चाहिये ।
एक वर्ष यानि 12 मास के बच्चे को परिवार में बनने वाले सभी भोज्य पदार्थों को खिलाना चाहिए । बच्चे के लिए अलग से खास भोजन नहीं बनाना चाहिए अन्यथा वह पूरे जीवनपर्यन्त खास भोजन ही खाना पसंद करेगा ।
दक्षिण भारत में बच्चों को अधिकांशतया इडली, उपमा या दही-चावल खिलाया जाता है । ये खाद्य पदार्थ पौष्टिक व सुपाच्य होते हैं ।
पूर्व स्कूलगामी बच्चों के लिए आहार: (Diet for Pre-School Children):
बच्चों की यह आयु 1-3 वर्ष तक होती है । प्रथम वर्ष से ही बालकों की वृद्धि होती है । अत: इसे वृद्धि की अवस्था कहते हैं । इस अवस्था में शिशु शैशवावस्था को छोड्कर बाल्यावस्था में प्रवेश करता है । स्कूल जाने से पूर्व की आयु में बच्चों का भार 1.8 से 2.3 Kg (4-5 पौंड) बढ़ता है । शैशवावस्था में इतना भार दो महीने में ही बढ़ जाता है । इस समय बालक की लम्बाई अधिक बढ़ती है ।
शैशवावस्था की हृष्ट-पुष्ट, गोल-मटोल बनावट धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है । इस आयु के बच्चे अधिक क्रियाशील होते हैं तथा उनका अधिकांश समय खेलकूद में व्यतीत होता है । अत: बच्चों को अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है । इस समय तक बालक स्वयं खाना खाने लगता है । इस प्रकार भोजन के प्रति उसकी रुचि बढ़ने लगती है ।
यहाँ इस बात की आवश्यकता है कि बालकों को स्वास्थ्यवर्धक व ऊर्जा से भरपूर आहार दिया जाये । वृद्धि व विकास होने से चयापचय दर भी तीव्र होती है । अत: इस आयु के बालकों को अधिक कैलोरीज की आवश्यकता होती है । इसी समय से बालकों में भोजन सम्बन्धी नई आदतों का निर्माण होना शुरू हो जाता है ।
ऊर्जा (Energy):
इस आयु में क्रियाशीलता अधिक होने से ऊर्जा की आवश्यकता भी अधिक होती है । इसके साथ-साथ कुछ ऊर्जा वृद्धि व विकास के लिए भी जरूरी होती है । अत: बच्चों को ऊर्जा से भरपूर खाद्य पदार्थ जिनमें कार्बोहाइड्रेट की मात्रा अधिक हो, देनी चाहिए ।
इससे कैलोरीज की आवश्यकता की पूर्ति होती है तथा भूख से भी संतुष्टि प्राप्त होती है । कार्बोहाइड्रेट में प्रोटीन संरक्षण क्षमता (protein sparing) भी होती है जिससे प्रोटीन कोशिकाओं व ऊतकों के निर्माण व टूट फूट से मरम्मत का कार्य करने के लिये स्वतंत्र रहती है । ICMR के अनुसार इस आयु में बच्चों को प्रतिदिन 1240 कि. कैलोरीज ऊर्जा की आवश्यकता होती है ।
प्रोटीन (Protein):
बाल्यावस्था में प्रोटीन की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है ।
इस अवस्था में प्रोटीन निम्न प्रकार से कार्य करती है:
ICMR ने पूर्व स्कूलगामी बालकों के लिए 22 ग्राम/प्रतिदिन प्रोटीन निर्धारित की है । इस अवस्था में बालकों को ऐसी प्रोटीन देनी चाहिए जिनमें वृद्धि के लिए आवश्यक सभी अमीनो अम्ल हों तथा प्रोटीन का जैव मूल्यांकन अधिक हो । अत: इन बालकों को दी जाने वाली प्रोटीन आधी प्राणिज व आधी वनस्पति जगत से आनी चाहिए ।
वसा (Fats):
कुल कैलोरी का 45 से 50%, भाग वसा से आना चाहिए । वसा के मुख्य साधन-मक्खन, घी, क्रीम आदि हैं । ये पदार्थ ऊर्जा के उत्तम स्रोत हैं । वसा में उपस्थित आवश्यक वसीय अक्लों में वसा में घुलनशील विटामिन्स घुल जाते हैं व शरीर में शोषित हो जाते हैं । ये विटामिन्स बालकों की वृद्धि में सहायक होते हैं । ICMR ने इस आयु के लिये 25 gm/प्रतिदिन दिखने वाली वसा (Visible fat) निर्धारित की है ।
खनिज लवण (Minerals) : कैल्शियम (Calcium):
इस अवस्था में अस्थियों का निर्माण होता है तथा उन पर कैल्शियम फॉस्फेट का जमाव अधिक होता है । इसलिए बालकों को अधिक कैल्शियम की आवश्यकता होती है । ICMR ने इस आयु के लिए 400 कि. ग्राम/प्रतिदिन कैल्शियम की मात्रा निर्धारित की है । कैल्शियम के उत्तम साधन हैं: दूध, दूध से बने पदार्थ, मेवे व हरी पत्ते वाली सब्जियाँ आदि ।
लौह लवण (Iron):
इस अवस्था में बच्चों को प्रतिदिन 12 मिग्रा लौह लवण की आवश्यकता होती है (ICMR 2004) । लौह लवण के मुख्य साधन हैं: अंडा, माँस, यकृत तेल, हरी पत्ते वाली सब्जियाँ तथा कुछ फल । यदि बच्चे को भरपूर मात्रा में लौह लवण प्राप्त नहीं हो पाता तो उन्हें रक्ताल्पता (Anaemia) हो जाता है ।
आयोडीन (Iodine):
आयोडीन थायरॉक्सिन (Thyroxine) नामक हॉर्मोन के संश्लेषण में महत्वपूर्ण योगदान देता है । यह हॉर्मोन वृद्धि के लिए आवश्यक है । अत: इस आयु के बालकों को आयोडीन की अधिक आवश्यकता होती है ।
विटामिन्स (Vitamins):
विटामिन ए:
यह वृद्धि की अवस्था है । इसलिए विटामिन ‘A’ की आवश्यकता अधिक हो जाती है । इन बालकों को 400µg/प्रतिदिन रेटिनॉल (Retinol) या 1600µg/प्रतिदिन B कैरोटीन (Caroteen) दी जानी चाहिए । दूध, मक्खन, घी (शुद्ध), अंडे का पीला भाग व हरी एवं पीली सब्जियों में यह विटामिन अच्छी मात्रा में पाया जाता है ।
विटामिन डी:
ICMR के अनुसार, इस आयु के बच्चों को 400 IU विटामिन ‘डी’ दिया जाना आवश्यक है । इनके उत्तम साधन हैं: मछली के यकृत का तेल ।
विटामिन सी:
खट्टे ताजे फल व सब्जियाँ इसके उत्तम साधन हैं । प्रतिदिन इन बालकों को 40 मिग्रा विटामिन ‘सी’ देना चाहिए । आँवला, अमरूद, बेर, संतरा, मौसमी आदि इसके अच्छे साधन हैं ।
विटामिन बी कम्पलेक्स:
प्रतिदिन इस आयु के बच्चों को इस समूह के निम्न विटामिन की मात्रा देनी चाहिए:
मि. ग्राम/प्रतिदिन थायमिन- 0.6, राइबोफ्लेविन- 0.7, नियासिन- 8.
स्कूलगामी व किशोरों के लिए आहार (Diet for School going Children and Adolescents):
स्कूल जाने वाले बालकों व किशोर के कंधों पर ही उन्नति की नींव व खुशहाली निर्भर करती है । इन अवस्थाओं में वृद्धि व विकास की दर अत्यंत तीव्र होती है । अत: उनकी पौष्टिक तत्वों की आवश्यकताएँ एक प्रौढ़ व्यक्ति से मात्रा व गुण दोनों में अधिक होती हैं ।
पर्याप्त पोषण न मिलने पर ये बालक व किशोर कुपोषण से पीड़ित हो जाते हैं । किशोरावस्था तीव्र गति से वृद्धि व विकास का समय है । इस समय लडकों में शक्ति का अधिक संचार होता है तथा वे अपने भविष्य के निर्माण के लिए सजग होते हैं । लड़कियाँ भी आजकल अपने कैरियर के प्रति सजग हैं तथा वे भी सभी प्रकार के क्रिया-कलापों में रत होती हैं । इसके साथ-साथ किशोरावस्था से ही भावी माता-पिता बनने के लक्षण शुरू होते हैं ।
पौष्टिक तत्वों की आवश्यकता (Nutritional Needs):
ऊर्जा:
स्कूल जाने वाले बच्चों एवं किशोरों को अधिक ऊर्जा चाहिए क्योंकि ये अत्यंत क्रियाशील रहते हैं तथा इनकी शारीरिक वृद्धि की गति तीव्र होने के कारण बेसल मेटाबोलिक दर (Basal metabolic rate) बढ़ जाती है । अत: दोनों कारणों से इस अवस्था में अधिक मात्रा में ऊर्जा की आवश्यकता होती है ।
आहार में ऊर्जा की कमी होने से बालकों व किशोरों के स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है । ICMR के अनुसार 5 से 18 वर्ष की आयु के बालकों व किशारों के लिए 1690 से 2640 कैलोरीज दी जानी चाहिये ।
प्रोटीन:
स्कूल जाने वाले बालकों व किशोर-किशोरियों में वृद्धि की गति अति तीव्र होती है, इसके साथ-साथ शरीर के विभिन्न अंगों का विकास होकर शरीर परिपक्व (mature) होता है । इन बालकों व किशोरों को अधिक मात्रा में प्रोटीन की आवश्यकता होती है ।
ICMR ने 5-18 वर्ष के बालकों व किशोरों के लिए 30-78 ग्राम प्रोटीन प्रतिदिन देने का निर्णय लिया है । इनके आहार में अंडा, माँस, मछली, दूध व दूध से बने पदार्थ, दाल व फलियाँ तथा मेवे अच्छी मात्रा में होने चाहिए ।
कुल प्रोटीन का आधा भाग प्राणिज साधन व आधा भाग वनस्पति साधन से प्राप्त होना चाहिये । अत: स्कूलगामी बालकों व किशोरों के आहार में उच्च जैव मूल्यांकन वाली प्रोटीन का समावेश होना आवश्यक है ।
खनिज लवण: कैल्शियम:
दाँतों व अस्थियों के निर्माण के लिए कैल्शियम की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है । ICMR ने 5-15 वर्ष के बालकों व किशोरों के लिए 600 मि. ग्राम प्रतिदिन कैल्शियम की मात्रा निर्धारित की है, परन्तु 16-18 वर्ष के किशोर के लिये यह मात्रा कम हो जाती है यानि की 500 मि. ग्राम प्रतिदिन । कैल्शियम के मुख्य साधन हैं: दूध, दूध से बने पदार्थ, हरी पत्ती वाली सब्जियाँ रागी, मेवे व तेलीय बीज (oil seeds) ।
लौह लवण:
इसका मुख्य कार्य हीमोग्लोबिन के संश्लेषण में सहायता करना है । ICMR ने 5- 18 वर्ष की आयु के बालकों, किशोरों व किशोरियों के लिये लौह लवण की भिन्न-भिन्न मात्रा निर्धारित की है ।
विटामिन्स:
स्कूल जाने वाले बालकों व किशोर-किशोरियों के लिये प्रत्येक विटामिन की अधिक मात्रा की आवश्यकता हुहोती है । 5-18 वर्ष के बालकों व किशोर-किशोरियों के लिए ICMR ने भिन्न-भिन्न मात्रायें निर्धारित की हैं ।
ये निम्न प्रकार:
प्रौढ़ों या वयस्कों के लिए आहार: (Diet for Adults):
इस आयु में स्त्री-पुरुष वैवाहिक बन्धन में बँध जाते हैं और उनका कार्य व व्यस्तता बढ़ जाती है । पुरूष-स्त्री दोनों मिलकर घर-परिवार चलाते हैं । आजकल पुरूषों के साथ-साथ महिलायें भी बाहर कार्य करती हैं । उनके कार्यों के अनुसार ही उनके लिए आहार निर्धारित किया जाता है ।
वयस्कों का आहार आय से सबसे अधिक प्रभावित होता है । यदि आय अधिक हो तो ये लोग विलासिता के भोज्य पदार्थ; जैसे-तरह-तरह के बिस्कुट, केक, पेस्ट्री, नमकीन, आइसक्रीम, मिठाइयों फल आदि का अधिक सेवन करते हैं । इन पदार्थों से अधिक ऊर्जा प्राप्त होती है जो कि कई व्याधियों; जैसे: हृदय रोग, मधुमेह, पित्ताशय में पथरी आदि को जन्म देती है ।
वयस्कों की पौष्टिक तत्वों की आवश्यकता: (Nutritional Needs)
ऊर्जा:
प्रौढ़ व्यक्ति की ऊर्जा की आवश्यकता उसके क्रिया-कलापों पर निर्भर करती है । इसके साथ-साथ ऊर्जा की आवश्यकता बेसल-मेटाबोलिक दर पर भी निर्भर करती है ।
कार्य शैली के अनुसार कैलोरी की आवश्यकताएँ: (Activity and Calorie Requirements)
भिन्न-भिन्न कार्य के लिए कैलोरी की आवश्यकता प्रति घंटा के दर से होती है ।
यहाँ पर मौलिक कैलोरी की आवश्यकताएँ निम्न प्रकार से वर्गीकृत की गईं हैं:
वयस्क पुरुष व महिला की कैलोरीज की आवश्यकता को तीन वर्गों में बाँटा गया है: (1) हल्का कार्य, (2) मध्यम कार्य, (3) भारी कार्य । हल्का कार्य बैठकर कार्य करने वाले, मध्यम कार्य करने वाले थोडा परिश्रम करते
हैं । भारी कार्य करने वाले सभी प्रकार के अत्यधिक परिश्रम का कार्य करते हैं ।
प्रोटीन:
वयस्कों को ज्यादा प्रोटीन की आवश्यकता नहीं होती । इनको केवल शरीर में होने वाली तोड़-फोड़ की मरम्मत या नये ऊतकों के निर्माण के लिए इनके आहार में प्रोटीन की उपस्थिति अनिवार्य होती है । वयस्कों को 1 ग्राम प्रोटीन/किग्रा वजन लेना चाहिए ।
वसा:
कुल ऊर्जा का 15 से 20% भाग वसा से प्राप्त होना चाहिये परन्तु अधिक परिश्रम करने वालों को 30-40% भाग लेना चाहिये ।
खनिज लवण: कैल्शियम:
वयस्क पुरूष व महिला को 400 मिग्रा. कैल्शियम की आवश्यकता होती है । इन लोगों को प्रतिदिन हरे पत्ते वाली सब्जी अवश्य ही खानी चाहिये । इसके साथ-साथ दूध, दूध से बने पदार्थ, मेवे व तेल युक्त बीज भी आहार में लेना चाहिए ।
लौह लवण:
वयस्क पुरुष व महिला के लिए लौह लवण की आवश्यकता भिन्न-भिन्न होती है । लौह लवण के मुख्य साधन-अंडे का पीला भाग, हरी पत्ते वाली सब्जियाँ माँस, यकृत, मेवे आदि हैं ।
विटामिन्स:
इस वर्ग को मुख्यतया विटामिन ‘A’, ‘डी’ व ‘सी’ की आवश्यकता अवश्य ही पूरी करनी चाहिए । विटामिन ‘A’ आँखों की रोशनी के लिए आवश्यक है तथा विटामिन ‘डी’ अस्थियों को स्वस्थ रखता है । विटामिन ‘बी’ समूह की आवश्यकता कैलोरीज की आवश्यकता पर निर्भर करता है ।
वृद्धों के लिए आहार: (Diet for Elderly):
आयु बढने के साथ-साथ शरीर में कई परिवर्तन हो जाते हैं । इस अवस्था में शरीर के विभिन्न अंग धीरे-धीरे शिथिल पड़ने गाने हैं । इस आयु में कम कैलोरी वाले आहार की आवश्यकता होती है जिससे कार्य शक्ति में कमी आ जाती है ।
वृद्धों के लिए पौष्टिक तत्वों की आवश्यकता: (Nutritional Requirements for Elderly):
प्रोटीन:
भूख कम होने के कारण प्रोटीन की कमी हो जाती है । अत: वृद्धों को अधिक प्रोटीन युक्त आहार देना चाहिये ।
वसा:
पाचन तंत्र ठीक न होने से वसा का पाचन ठीक प्रकार नहीं हो पाता । अत: वृद्धों के आहार में अधिक तले हुए व्यंजनों का समावेश नहीं होना चाहिए ।
खनिज लवण:
खनिज लवण का उचित शोषण न हो पाने से कैल्शियम व लौह लवण की कमी हो जाती है । अस्थियाँ कमजोर हो जाती हैं ।
विटामिन्स:
वृद्धों में विटामिन की भी कमी देखी जाती है । अत: इनके आहार में दूध, दूध से बने पदार्थ, फल, हरी व पीली सब्जियों की मात्रा अधिक होनी चाहिए ।
पानी:
उत्सर्जन संस्थान के कार्य को सुचारु रखने के लिए 2-3 लीटर पानी अवश्य ही देना चाहिए । इसके अतिरिक्त जल का उपयोग दूध, फलों के रस, सूप व मट्ठे के रूप में भी करना आवश्यक है ।
रेशा:
अधिकांशतया इस आयु में कब्ज की शिकायत रहती है जिसे दूर करने के लिए आहार में रेशे युक्त फल व सब्जियों का उपयोग करना चाहिए ।
विशेष अवसरके लिये आहार: (Diet in Special Conditions)
एक स्त्री के जीवन में गर्भावस्था एक अत्यंत महत्वपूर्ण काल है । मानव जीवन चक्र में गर्भकाल व स्तनपान में विशेष आहार की आवश्यकता होती है । गर्भकाल में महिलाओं के आहार एवं पोषण पर विशेष ध्यान देना चाहिए । अत: उनका आहार आयोजन उनकी अवस्थाओं के अनुसार होना चाहिए ।
गर्भवती स्त्री को शुरू के तीन महीनों तक वमन, जी मिचलाने व चक्कर आने की शिकायत रहती है । इस कारण शुरू के महीनों में शरीर से पौष्टिक तत्व नष्ट होते रहते हैं । इन नष्ट हुए तत्वों की पूर्ति के लिए आगे के 6 मास तक गर्भवती महिला को अत्यंत पौष्टिक आहार का सेवन करना चाहिए ।
ऊर्जा:
गर्भकाल में मौलिक चयापचय दर (Basal metabolic rate) अधिक हो जाता है जिससे गर्भवती महिला को अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है । इस काल में भ्रूण की वृद्धि व गर्भवती के बड़े हुए शरीर को हिलाने-डुलाने के लिए भी अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है । गर्भवती महिला पूरे गर्भकाल में सामान्य रूप से सक्रिय रहती है । अत: इन सभी बातों के लिये उसे अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता होती है । ICMR ने 300 कैलोरीज अतिरिक्त अनुमोदित की है ।
प्रोटीन:
गर्भकाल में भ्रूण की पूर्ण वृद्धि व विकास के लिए गर्भवती महिला को अतिरिक्त प्रोटीन की आवश्यकता होती है इसी काल में भ्रूण के शरीर पर प्रोटीन जमा होती है । ICMR ने इस अवस्था के लिए 15 ग्राम अतिरिक्त प्रोटीन देने के लिये सलाह दी है ।
खनिज लवण: कैल्शियम:
गर्भावस्था में कैल्शियम की आवश्यकता भी अधिक हो जाती है । ICMR ने इस अवस्था के लिये 500 मिग्रा. कैल्शियम की अतिरिक्त मात्रा अनुमोदित की है । इनके आहार में दूध, दूध से बने पदार्थों, रागी, सोयाबीन, मटर, चने, चावल, गेहूँ, हरी पत्ते वाली सब्जियाँ आदि देना चाहिये ।
लौह लवण:
भ्रूण के यकृत में गर्भकाल के तीसरे चरण में लौह लवण जमा होना शुरू होता है, अत: इस काल में 8 मिग्रा अतिरिक्त लौह लवण देना चाहिये । अधिकतर महिलाओं की लौह लवण की आवश्यकता आहार से पूर्ण नहीं हो सकती है । अत: इसके लिए गर्भवती को लौह लवण (Ferrous salt) की गोलियाँ देनी चाहिए । लौह लवण के साथ-साथ फोलिक अम्ल भी देना आवश्यक होता है ।
विटामिन्स:
विटामिन्स की आवश्यकताओं पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता परन्तु ऊर्जा की आवश्यकता अधिक होने से विटामिन बी समूह की आवश्यकता थोड़ी बढ़ जाती है ।
जल:
गर्भवती को आहार में अच्छी मात्रा में जल लेना चाहिए ताकि उसके शरीर में जल की कमी न हो । गर्भवती को जल के अतिरिक्त फलों का रस, डब, सूप आदि लेना आवश्यक है ।
रेशे (Roughage):
अधिकांशतया 7-8 महीने के पश्चात् गर्भवती को कब्ज की शिकायत रहती है । अत: उसे आहार में अधिक मात्रा में रेशे लेने चाहिए ताकि मल का निष्कासन सुविधा से हो सके । इसके लिए गर्भवती को अपने आहार में साबुत दालें, चना, छोला, राजमा, कमल ककड़ी, कच्ची सब्जियाँ आदि लेनी चाहिये ।
स्तनपान कराने के समय आहार: (Diet During Lactation)
नवजात शिशु के लिये माता का दूध सर्वोत्तम आहार । माता के दूध में शिशु की आवश्यकता अनुसार भी पौष्टिक तत्व उपस्थित रहते हैं जो कि शिशु की वृद्धि व विकास में सहायक होते हैं । अत: दूध पिलाने वाली महिला को गर्भवती स्थिति से अधिक मात्रा में पौष्टिक आहार लेना चाहिए ।
ऊर्जा:
ICMR के अनुसार एक दुग्ध पान कराने वाली महिला को शुरू के छ: महीने तक 550 तथा बाद के छ: महीने तक 400 कि. कैलोरीज प्रतिदिन लेनी आवश्यक है ।
प्रोटीन:
स्तनपान कराने वाली महिला को गर्भवती से अधिक प्रोटीन की आवश्यकता होती है । ICMR ने इन महिलाओं के लिये 25 व 18 ग्राम अतिरिक्त प्रोटीन निर्धारित की है । प्रोटीन मुख्यतया दूध, दूध से बने पदार्थ, दालें, अंडा, माँस, मछली, मेवे व तेलयुक्त बीज लेना चाहिए ।
खनिज लवण: कैल्शियम:
ICMR ने 500 मिग्रा अतिरिक्त कैल्शियम देने की सिफारिश की है । कैल्शियम मुख्यतया दूध, दूध से बने पदार्थ, हरी पत्ते वाली सब्जियाँ, रागी, मेवे व तेलयुक्त बीजों से प्राप्त किया जा सकता है ।
लौह लवण:
ICMR ने इस स्थिति में 3 मिग्रा अतिरिक्त लौह लवण की मात्रा निर्धारित की है । लौह लवण के मुख्य साधन हैं जैसे: अंडा, माँस, यकृत, हरी पत्ते वाली सब्जियाँ, काला तिल, मेवे आदि ।
विटामिन्स:
स्तनपान कराने वाली महिला को गर्भावस्था से थोडी अधिक मात्रा में विटामिन्स लेना आवश्यक है ।