Read this article in Hindi language to learn about the classification of food according to the presence of nutritive elements.
भारतीयों के आहार में मुख्यतया उपयोग आने वाले अनाज व अन्य मोटे अनाज-चावल, गेहूँ मक्का, बाजरा, रागी आदि हैं । अनाज व अन्य मोटे अनाजों से हमें ऊर्जा अधिक मात्रा में प्राप्त होती है अत: ये ऊर्जा के उत्तम व सस्ते साधन हैं ।
भारतीय आहार में उपस्थित कुल कैलोरीज का 70-80% अनाज व अन्य मोटे अनाज से प्राप्त होता है । इसके अतिरिक्त अन्य पौष्टिक तत्व भी प्राप्त होते हैं जैसे: प्रोटीन, कैल्शियम, आयरन तथा विटामिन बी कॉम्पलेक्स आदि ।
साबुत अनाजों में मुख्यतया गेहूँ विटामिन ‘बी’ का उत्तम साधन है । हमारे आहार में अनाज का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है तथा हमारी प्रतिदिन प्रोटीन की आवश्यकता का 50% भाग अनाजों से प्राप्त होता है ।
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अनाज कैल्शियम व लौह लवण के उत्तम साधन नहीं हैं परन्तु हमारे देश में अनाजों का सेवन प्रचुर मात्रा में किया जाता है । चावल में इन दोनों खनिज लवणों की कमी होती है जो इस बात पर निर्भर करता है कि चावल की पालिशिंग (Polishing) किस हद तक की गई है ।
जो कि आहार में चावल का उपयोग प्रचुर मात्रा में किया जाता है, उनमें कैल्शियम व लौह लवण की मात्रा अत्यन्त कम होती है । रागी जिस मुख्यतया दक्षिण भारत में उपयोग किया जाता है यह खनिज लवणों की प्राप्ति का अच्छा साधन है मुख्यत: इसमें कैल्शियम अत्यधिक मात्रा में पाया जाता है ।
मोटे अनाज, ज्वार, बाजरा, मक्का आदि खनिज लवणों व रेशों (Fibre) के अच्छे साधन हैं । केवल चावल आधारित आहार (Rice based diet) में कुछ मात्रा में मोटे अनाज मिश्रित किये जाएँ तो इस आहार में खनिज लवणों की कमी को दूर किया जा सकता है तथा ऐसे आहार से रेशा भी अधिक मात्रा में प्राप्त होता है ।
अनाजों व मोटे अनाजों में कैल्शियम, लौह लवण आदि खनिज लवण अच्छी मात्रा में पाये जाते हैं । अनाजों में वसा की मात्रा कम होती हे परन्तु मोटे अनाजों; जैसे: बाजरा-मक्का आदि में वसा अधिक मात्रा में पाया जाता है । अनाजों में विटामिन ‘ए’ व ‘सी’ अनुपस्थित रहता है परन्तु पीले मक्के में कैरोटिन (Carotene) पाया जाता है ।
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अनाजों में चावल में पाया जाने वाला प्रोटीन गुणात्मक रूप से अन्य अनाजों में उपस्थित प्रोटीन से अच्छा होता है तथा आसानी से उसका पाचन होता है परन्तु यदि चावल को दाल के साथ खाया जाए तो प्रोटीन गुणात्मक रूप से उत्तम हो जाता है ।
भारतवर्ष में अनाज व दालों से बने व्यंजनों का सेवन प्रचुर मात्रा में किया जाता है । अनाज व दालें एक-दूसरे के साथ मिलकर सम्पूर्ण व उत्तम गुणों वाला प्रोटीन प्रदान करते हैं क्योंकि अनाजों में लायसिन (आवश्यक अमीनो अम्ल) की कमी होती है परन्तु दालों में यह आवश्यक अमीनो अम्ल प्रचुर मात्रा में पाया जाता है ।
इसी प्रकार दालों में मैथियोनिन (Methionine) नामक अमीनो अम्ल की कमी होती है जोकि अनाजों में अच्छी मात्रा में पाया जाता है । अनाज व दालों को मिश्रित करके बनाये गये व्यंजनों में प्रोटीन पूर्ण मात्रा में पाई जाती है तथा उत्तम गुण वाली होती ।
साबुत अनाज विटामिन-बी समूह का महत्वपूर्ण साधन होते हैं । ये विटामिन अनाजों के बाहरी भूसी (Bran) में उपस्थित रहते हैं परन्तु इनकी पॉलिशिंग व रिफाइनिंग के पश्चात् विटामिन बी कॉम्पलेक्स की मात्रा कम हो जाती है जो इस बात पर निर्भर करता है कि किस प्रकार से व कितनी मात्रा में पॉलिशिंग व रिफाइनिंग की गई है ।
ADVERTISEMENTS:
अत: जिन चावलों में अत्यधिक मात्रा में पालिशिंग की जाती है उनमें विटामिन-बी अल्प मात्रा में पाया है । सेला चावल (Parboiled Rice) विटामिन-बी का अच्छा साधन है सेला चावल (Parboiled) बनाने के लिये पहले धान को पानी में भिगोया व भपाया जाता है, इससे धान की बाहरी सतह पर पायी जाने वाली भूसी में उपस्थित विटामिन-बी समूह चावल के बैक की बाहरी सतह से चिपक जाते हैं तथा उसको पौष्टिक बना देते हैं ।
अत: सेला या उसना (Parboiled) व मशीन से कुटे चावल में विटामिन-बी समूह की मात्रा अधिक होती है, जो विटामिन पालिशिंग व मशीन से कुटने में नष्ट हो जाती है । इस प्रकार गेहूँ से प्राप्त मैदे या मोती के दानों वाले मोटे अनाजों से बने आटे को अधिक छानकर आटा बनाने से ‘विटामिन-बी’ समूह नष्ट हो जाता है ।
अनाज व मोटे अनाजों की संरचना (Structure of Cereals and Millets):
अनाज के दाने घास के परिवार के फल होते हैं । ये घास के फलों से उत्पन्न होने वाले बीज हैं । प्रत्येक अनाज व मोटे अनाजों के दानों की नाप (size) व भार (weight) अलग-अलग होते हैं । सभी अनाजों व मोटे अनाजों की संरचना एक समान होती है, परन्तु प्रत्येक दाने की बनावट, आकार तथा कुछ अन्य गुण अलग होते हैं जिसके कारण उन्हें अलग-अलग भागों में विभक्त किया जाता है ।
अनाज के दानों (Kernel) के मुख्य भाग निम्नलिखित हैं:
भूसी (Bran):
अनाज की बाहरी पर्त को भूसी (Bran) कहते हैं । यह एक भूरे रंग की पर्त है जो कि दानों के ऊपर आवरण के रूप में चढ़ी रहती है । इसमें सेल्युलोज व खनिज लवण पाया जाता है । इसका भार पूरे दाने के कुल वजन के भार का 12% होता है ।
इसे अनाज के दानों की पर्त कहते हैं । भूसी का उपयोग कब्ज दूर करने के लिये किया जाता है । भूसी (Bran) की बाहरी व आंतरिक पर्तें (layers) जिन कोशिकाओं से बनती हैं उसे एल्युरॉन पर्त (aleurone layer) कहते हैं ।
एल्युरॉन लेयर (Aleurone Layer):
अनाज के दानों के चारों ओर एक या कई कोशिकाओं की पर्तें चढ़ी होती हैं जिसे एल्युरॉन कहते हैं । भूसी के अंदर की कोशिकाओं की एक सतह तथा भ्रूणपोष (endosperm) की बाहरी भित्ती में सभी पौष्टिक तत्व विद्यमान होते हैं ।
इसमें 20% प्रोटीन, तेल, खनिज लवण और 10% शर्करा पायी जाती है । शर्करा में मुख्यतया सुक्रोज (Sucrose) नियोकिटोज (Neuketose) तथा रैफिनोज (Raffinose) पाये जाते है । मशीन से गेहूँ को पीसने के पश्चात, एल्यूरॉन लेयर जो कि ब्रैन से जुड़ी रहती है नष्ट हो जाती है ।
भ्रूणपोष (Endosperm or Kernel):
गेहूँऐ का यह प्रमुख अवयव है जो कि अनाज के दानों का 20% भाग होता है । इसमें स्टार्च तथा प्रोटीन की अधिकता होती है । गेहूँ को पीसने के पश्चात् आटा प्राप्त होता है । प्रत्येक अनाज व मोटे अनाजों (Millets) में उपस्थित स्टार्च के कणों की संरचना एक-दूसरे से भिन्न-भिन्न होती है; जैसे: गेहूं, मक्का, जौ आदि के स्टार्च कण भिन्न-भिन्न होते हैं ।
भ्रूण (Germ or Embryo):
यह अनाज के दाने के निचले हिस्से में होता है । यह प्रोटीन, वसा, विटामिन ई व थायमिन का उत्तम साधन है परन्तु अनाज को मशीन से पीसने पर अनाज का यह भाग नष्ट हो जाता है ।
स्क्यूटिलॉम (Scutellum):
भ्रूण व भ्रूण पोष के बीच में एक पतली पर्त पायी जाती है, इसे स्क्यूटिलॉम कहते हैं । दाने के कुल भार का 15% भार स्क्यूटिलॉम का होता है परन्तु इससे 59% थायमिन प्राप्त होता है । अत: यह आवश्यक है कि आटे में थायमिन की मात्रा संचित रहे । इसके लिए स्क्यूटिलॉम पर्त का बचाव करना चाहिए ।
अनाजों के दाने से प्राप्त पौष्टिक तत्व (Nutritive Elements of Cereal’s Seeds):
अनाजों में मुख्यतया निम्न रासायनिक पदार्थों का समावेश होता है:
श्वेतसार (Carbohydrates), प्रोटीन (Proteins), लिपिड्स (Lipids), खनिज लवण (Minerals) तथा जल (Water) । इसके साथ-साथ अनाजों में अल्प मात्रा में विटामिन, एन्जाइम तथा अन्य पदार्थ भी पाये जाते हैं ।
श्वेतसार (Carbohydrates):
श्वेतसार अनाजों का प्रमुख भाग है जो 80% तक अनाजों में पाया जाता है । स्टार्च अनाज का प्रमुख श्वेतसार है । अनाजों में अल्प मात्रा में शर्करा व डेक्सट्रिन (Dextrin) भी पायी जाती है । शर्करा मुख्यतया ग्लूकोज, सुक्रोज, माल्टोज व रैफिनोज (Raffinose) के रूप में पायी जाती है ।
प्रोटीन (Protein):
अनाजों में 6-12% तक प्रोटीन उपस्थित रहती है । चावल में प्रोटीन की मात्रा सबसे कम होती है । अनाजों में प्रोटीन मुख्यतया भ्रूण में पायी जाती है । प्रोटीन की कुछ मात्रा स्क्यूटिलॉम तथा एल्युरॉन पर्तों में भी पायी जाती है । भ्रूणकोष में प्रोटीन की मात्रा कम होती है । अनाजों में पायी जाने वाली प्रमुख प्रोटीन हैं: एल्ब्युमिन, ग्लोब्यूलिन, ग्लाइडिन व ग्ल्युटिन (albumin, globulin, gliadin, and glutelin) ।
लिपिड (Lipids):
अनाजों में 6.1% लिपिड पाया जाता है । भूसी व भूणपोष में क्रमश: 3-5% व 0.8-1.0% लिपिड पायी जाती है । अनाजों में मुख्यतया लिपिड ट्राइग्लिसराइड (Triglycerides) के रूप में पायी जाती है; जैसे: पाँल्मेटिक (Palmatic), ओलिक (Oleic) तथा लिनोलिक (Linoleic) अम्ल आदि । अनाजों में लैसिथिन (Lecithin) भी पायी जाती है ।
खनिज लवण (Minerals):
अनाजों में मुख्य रूप से चावल, बर्ले व रये (Rye) की भूसी में खनिज लवण अधिक मात्रा में पाये जाते हैं तथा कैल्शियम, लौह, कॉपर जिंक, मैंगनीज कम मात्रा में पाये जाते हैं । अत: अनाजों में खनिज लवणों का फोर्टिफिकेशन (Fortification) करना चाहिए ताकि वह वृद्धि दर को बढ़ाने में सहायक हों ।
जीवन सत्व (Vitamins):
अनाजों में समूह के सभी विटामिन्स; जैसे: थायमिन, रीबोफ्लेविन तथा निकोटिनिक अम्ल अधिक मात्रा में पाये जाते हैं । अनाजों से प्राप्त तेलों में विटामिन ई की अधिकता होती है । तेलों में आवश्यक वसीय अम्ल (essential fatty acids) की भी अधिकता होती है ।
अनाजों से बने पदार्थ (Cereals Product):
सैकडों वर्षों से अनाजों का उत्पादन व उपयोग हो रहा है । हम मुख्यतया गेहूँ व चावल का उपयोग करते हैं । पूरे संसार में गेहूँ से बेक्ड पदार्थ (Baked Product) अत्यधिक मात्रा में बनाये जाते हैं । हमारे आहार में अनाजों से बने पदार्थों में मुख्य पदार्थ: गेहूँ का आटा, मैदा, दलिया, सूजी आदि हैं जिनसे अनेक व्यंजन तैयार किये जाते हैं जैसे-रोटी, पराठा, पूड़ी, ब्रेड, केक, बिस्कुट, मैगी, मैकरोनी, नान, भटूरा, पिज्जा, पेस्ट्री आदि ।
दालें व फलियाँ: (Pulses/Dal or Legumes):
प्राचीन काल से ही दालों का उपयोग भारतवर्ष में होता चला आ रहा है । रामायण में दालों के उपयोग का वर्णन किया गया है । दालें मुख्यतया फलियों के परिवार के; खाने योग्य फल या बीज वाले पेड़ हैं । भारतवर्ष में मुख्यतया चना, मसूर, मूँग, उरद, राजमा तथा अरहर की दाल का उपयोग किया जाता है ।
हमारे आहार में दालों का निम्न दो रूपों में उपयोग किया जाता है:
साबुत दालें (Whole Dals):
जैसे छोला, चना, साबुत मूँग, उरद, मसूर, लोबिया, राजमा आदि हैं ।
टूटी दालें (Dals):
साबुत दालों को मशीन द्वारा दो भागों में विभक्त किया जाता है । इस विधि में दालों का ऊपरी आवरण (छिलका) निकल जाता है । इस विधि से दालों के छिलके में उपस्थित विटामिन-बी समूह काफी मात्रा में नष्ट हो जाता है ।
दालों का पौष्टिक मूल्यांकन (Evaluation of Nutritive Values of Pulses):
प्रोटीन (Protein):
दालों में औसतन 20.25% प्रोटीन पायी जाती है । दालों की में प्रोटीन प्राणी जगत की प्रोटीन की तुलना में अच्छे गुणों वाली नहीं होती । इनमें निहित प्रोटीन में मैथियोनिन (Methionine) नामक आवश्यक अमीनो अम्ल की कमी होती है, इस कमी को पूर्ण करने के लिये अनाजों को दालों के साथ मिश्रित करना चाहिए इससे मैथियोनिन की कमी की पूर्ति हो जाती है क्योंकि अनाजों में मैथियोनिन अधिक मात्रा में पाया जाता है ।
वसा (Fats):
दालों में केवल 1-2% वसा पाया जाता है, परन्तु सोयाबीन में 20% वसा पाया जाता है ।
श्वेतसार (Carbohydrates):
दालों में 55-61% तक स्टार्च पाया जाता है ।
खनिजलवण (Minerals):
कैल्शियम (Calcium) दालों में 60 मिग्रा. से 240 मिग्रा. प्रति 100 ग्राम कैल्शियम पाया जाता है ।
लौह लवण (Iron):
दालों में 5.0 से 10 मिग्रा. प्रति 100 ग्राम लौह लवण पाया जाता है ।
जीवन सत्व (Vitamins):
दालो से विटामिन बी, बी2 निकोटिनिक अम्ल की अच्छी मात्रा प्राप्त होती है । दालों में विटामिन ‘सी’ की कमी होती है, परन्तु दालों को अंकुरित करने से विटामिन ‘सी’ की मात्रा अधिक हो जाती है ।
दालों से बने पदार्थ: (Pulse Product):
साबुत दालों व दालों को तरल या शोरवे के रूप में अत्यधिक मात्रा में उपयोग किया जाता है । चने को पीसकर उससे बेसन बनाया जाता है । बेसन से अनेक प्रकार के व्यंजन बनाये जाते हैं; जैसे: चीले, पकौड़े, सेब, बूंदी, खमण, ढोकला, लड्डू, बर्फी, हलवा आदि ।
दालों में सब्जियों को मिलाकर भी कई व्यंजन तैयार किये जाते हैं; जैसे: चना दाल में लौकी, उरद दाल में मैथी का साग, मूँगदाल में पालक का साग । साँभर का प्रचलन दक्षिण भारत में है, जिसमें कई सब्जियाँ डाली जाती हैं । अनाज व दालों को मिश्रित करके कई व्यंजन बनाये जाते हैं; जैसे: खिचड़ी, डोसा, इडली आदि ।
सोयाबीन (Soyabean):
इसका उपयोग चीन व जापान में सबसे अधिक मात्रा में किया जाता है । इसका सबसे पहले उत्पादन चीन में किया गया था । भारतवर्ष में भी इसका उत्पादन अधिक मात्रा में होता है ।
सोयाबीन का पौष्टिक मूल्यांकन (Evaluation of Nutritive Value of Soyabean):
ये निम्न प्रकार हैं:
प्रोटीन (Protein):
सोयाबीन में प्रोटीन की मात्रा अत्यधिक होती है । इसमें 35-45% प्रोटीन पायी जाती है । सोयाबीन में मैथियोनिन नामक अमीनो अम्ल की न्यूनता होती है ।
वसा (Fats):
सोयाबीन वसा का उत्तम साधन है । इसमें 17 से 20% तक वसा पाया जाता है । वसा की अधिक मात्रा से सोयाबीन का तेल उत्पादित किया जाता है । सोयाबीन से अधिक मात्रा में कैलोरीज प्राप्त होती है ।
खनिज लवण (Minerals):
सोयाबीन में कैल्शियम 250 mg/100 mg तथा लौह लवण 11.5 mg/100 gm पाया जाता है ।
जीवन सत्व (Vitamins):
सोयाबीन थायमिन (B1), रीबोफ्लेविन (B2), तथा नियोसिन (B6) का अच्छा साधन है ।
सोयाबीन से बने पदार्थ (Soyabean Products):
सोयाबीन से अग्रलिखित पदार्थ तैयार किये जाते हैं:
सोयाबीन: दूध, दही, सूखा दूध पाउडर, चीज आदि ।
सोयाबीन आटा: इससे नाना प्रकार के व्यंजन तैयार किये जाते हैं परन्तु इसको गेहूँ के आटे में 3:1 भाग के अनुपात में मिलाकर रोटी, पराठा, पूड़ी, कचौड़ी, समोसा, बिस्कुट, केक, पेस्ट्री, लड्डू बर्फी आदि तैयार किये जाते हैं ।
मेवे व तेलयुक्त बीज: (Nuts and Oilseeds)
दालों के समान मेवे व तेलयुक्त बीज भी प्रोटीन के उत्तम साधन होते हैं । इसके अतिरिक्त इनमें वसा भी अधिक मात्रा में पाया जाता है । अत: इनसे प्रोटीन के साथ ऊष्मा (Energy) अत्यधिक सान्द्र मात्रा में मिलती है । मेवे एक प्रकार के सूखे फल हैं तथा फल का बाहरी आवरण सख्त होता है जिसके अंदर बीज होता है जोकि मेवे के रूप में खाया जाता है ।
भारतवर्ष में मुख्यतया उपयोग आने वाले मेवे हैं: बादाम, काजू पिस्ता, अखरोट, नारियल, मूँगफली आदि । मेवे से प्राप्त होने वाली ऊष्मा शरीर के लिये ग्रहण करने योग्य होती है । मेवे में पायी जाने वाली वसा का काफी अनुपात कॉम्पैक्ट सेल्युलोज मैट्रिक्स (Compact cellulose matrix) के आवरण से ढका रहता है जो कि पाचन क्रिया में सहायक होता है ।
मेवे में श्वेतसार की कमी होती है । मेवे में पायी जाने वाली प्रोटीन उत्तम गुणों (Superior Quality) वाली होती है । ये खनिज लवणों के भी अच्छे साधन होते हैं । इनमें 2% खनिज लवण उपस्थित रहते हैं । मेवों में पाये जाने वाले प्रमुख खनिज लवण हैं: कैल्शियम, फॉस्फोरस, आयरन, सोडियम, मैग्नीशियम आदि ।
मेवों को हम कच्चा भी खा सकते हैं तथा उनको विभिन्न प्रकार से पका कर भी खाते हैं । मेवों से नाना प्रकार की मिठाइयाँ आइसक्रीम व ठंडाई तैयार की जाती है । मेवों से (मुख्यतया मूँगफली का) आटा तैयार किया जाता है जिसका उपयोग शिशुओं के लिये पूरक आहार के रूप में किया जाता है । मेवों का उपयोग अन्य व्यंजनों की सुगन्ध बढ़ाने व सजावट करने के लिए भी किया जाता है ।
तेलयुक्त बीजों में पायी जाने वाली प्रोटीन दालों की प्रोटीन की तरह निकृष्ट (inferior) गुणों वाली होती है, इसमें भी आवश्यक अमीनो अस्ल मैथियोनिन (Methionine) की कमी होती है परन्तु आवश्यक अमीनो अम्ल लायसिन (Lysine) की अधिकता होती है । केवल तिल के बीज में ही मैथियोनिन आवश्यक अमीनो अम्ल प्रचुर मात्रा में पाया जाता है ।
अनेक वर्षों के शोध के पश्चात् यह ज्ञात हुआ है कि तेलयुक्त बीज में फँगल संक्रमण (fungal infection) जल्दी लग जाता है, अत: इनको सुखाकर बंद ढक्कन वाले डिब्बे में रखना चाहिए ताकि उसमें नमी न जा सके । फंगस के फैलने से विषाक्त (Toxic) पदार्थ उत्पन्न होते हैं, जोकि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं तथा ऐसे विषयुक्त बीज खाने से कैन्सर होने का डर रहता है ।
मूँगफली पर ‘स्पैरिजलस फ्लेवस’ (Asparigillus flavus) नामक फ़न्गई जो विष उत्पन्न करता है, उसे एफ्लोंटॉक्सिन (Aflotoxin) कहते हैं । इस विषाक्त पदार्थ का प्रभाव यकृत (Liver) पर पड़ता है तथा यकृत कोशिकाओं को बड़ी मात्रा में नष्ट कर देता है । अत: मूँगफली को संग्रहित करने के लिये उसे अच्छी तरह सुखाकर रखना चाहिए ।
हरे पत्ते वाली सब्जियाँ एवं अन्य सब्जियाँ: (Other Vegetables and Green leafy Vegetables)
भारतवर्ष में सब्जियों का उपयोग अमीर व गरीब सभी वर्गों में किया जाता है । हमारे देश की अधिकांश जनता शाकाहारी है, जिनके आहार में सब्जियों का प्रयोग अधिक मात्रा में किया जाता है ।
सब्जियों को कच्ची या पकाकर उपयोग में लाया जाता है । सब्जियों से मुख्यतया खनिज लवण व विटामिन्स प्राप्त होते हैं ।
सब्जियों का वर्गीकरण भोजन में ग्रहण किये गये भागों के आधार पर करते हैं:
जड़ (Roots):
गाजर, मूली, याम, चुकंदर, शलजम ।
बल्व (Bulbs):
लहसुन, प्याज, लीक (Leek) ।
ट्यूबर (Tubers):
आलू, शकरकन्दी, टेपियोका (Tapioca), अरबी ।
तना (Stem):
केला, चौलाई ।
फूल (Flowers):
फूल गोभी, शहजन, अगस्ती (Agasthi) ।
पत्ते वाली सब्जियाँ (Leafy vegetables):
फूलगोभी की पत्तियों, पालक, मैथी, चौलाई वाली सब्जियाँ, चने का साग, बथुआ आदि ।
फली (Pods):
मटर, बीन्स आदि ।
अधपके बीज (Immature seeds):
सेम, बाकला (Broad beans), ग्वार की फली (luster beans), लाल चना, मटर आदि ।
अधपके फल (Immature fruits):
बैंगन, खीरा, कद्दू टमाटर आदि ।
पके फल (Matured fruits):
टमाटर व अन्य फल ।
सब्जियों की पौष्टिकता (Nutritive Value of Vegetables):
हरी सब्जियों में जल अधिक मात्रा में पाया जाता है । हरी सब्जियों में प्रोटीन कम मात्रा में पायी जाती है । स्टार्च, शर्करा तथा सेल्युलोज आदि प्रमुख श्वेतसार हैं, जोकि सब्जियों में पाये जाते हैं । श्वेतसार मुख्यतया जड़ व ट्यूबर में पाया जाता है । इन सब्जियों से ऊष्मा अधिक मात्रा में पायी जाती है ।
जड़ व ट्यूबर में कैल्शियम व रीबोफ्लेविन भी पाया जाता है । हरे पत्ते वाली सब्जियों में कैरीटीन अधिक मात्रा में उपस्थित रहता है जोकि शरीर में शोषित होकर विटामिन ‘ए’ में परिवर्तित हो जाता है । इसके अतिरिक्त हरे पत्ते वाली सब्जियों में कैल्शियम, आयरन, विटामिन बी कॉम्पलेक्स भी अधिक मात्रा में पाया जाता है । हरे पत्ते वाली सब्जियों में विटामिन ‘सी’ भी अधिक मात्रा में उपस्थित रहता है ।
अन्य हरी सब्जियों में सभी पौष्टिक तत्व उपस्थित रहते हैं जोकि अल्प मात्रा में होते हैं । इन सब्जियों में सोडियम कम मात्रा में पाया जाता है । अत: इन सब्जियों को उन मरीजों को अधिक मात्रा में दिया जाता है, जिनको सोडियम की कम मात्रा की आवश्यकता होती है ।
फल: (Fruits):
प्राचीनकाल में मनुष्य जंगलों में निवास करता था, वह अपनी भूख मिटाने के लिए जंगली फलों का उपयोग करता था । सभ्यता के साथ-साथ मनुष्य के आहार में सुधार हुआ तथा वह फलों की पैदावार करने लगा तथा उनका उपयोग अपने आहार में करने लगा ।
फल पौधे का बीजयुक्त भाग है । फल का विकास पौधे के फूल से होता है । फल गूदेदार एवं रसयुक्त भोज्य पदार्थ है । फलों का प्रयोग विटामिन, खनिज लवण, श्वेतसार, सुगन्ध व स्वाद के लिए किया जाता है । फलों में जल की मात्रा भी अधिक होती है ।
फलों का पौष्टिक मूल्यांकन (Nutritive Value of Fruits):
फलों में भोजनीय एवं अभोजनीय दोनों प्रकार के पदार्थों की मात्रा बदलती रहती है । कुछ फलों में अभोजनीय पदार्थ अधिक होते हैं तथा कुछ में भोजनीय । फलों में उपस्थित छिलका एवं बीज उसका अभोजनीय भाग है । कई फलों में छिलका मोटा होता है जिसका आहार में उपयोग नहीं के बराबर हो पाता है । विभिन्न फलों में 3 से 39% तक अभोजनीय भाग होता है ।
फल मुख्यतया मीठे होते हैं क्योंकि उनमें शर्करा की मात्रा अधिक होती है । कुछ फलों में प्रोटीन व वसा भी पायी जाती है; जैसे: केले में 4% प्रोटीन, 5% वसा तथा 20% श्वेतसार होता है । अत: सरस व शर्करायुक्त फल ऊर्जा के उत्तम साधन हैं ।
केला व अनन्नास में कार्बोहाइड्रेट अधिक मात्रा में पाया जाता है । कच्चे फल कड़े व अम्लयुक्त होते हैं । अत: उनका प्रयोग पकाने के बाद करना चाहिए । अधिक पके फल का प्रयोग भी शरीर के लिए हानिकारक होता है । पके फल में स्टार्च शर्करा में परिवर्तित हो जाती है । फलों में मिठास शर्करा की उपस्थिति के कारण होती है ।
ताजे फलों में विटामिन ‘सी’ अधिक मात्रा में उपस्थित रहता है, इस प्रकार ये विटामिन ‘सी’ के सर्वोत्तम साधन माने जाते हैं । इनमें प्रमुख अवला, बेर, अमरूद, नीबू, नारंगी व संतरा हैं । फलों में अन्य अम्ल; जैसे: ऑक्जेलिक एसिड, स्टिरिक एसिड, टार्टरिक एसिड और मैलिक एसिड भी पाये जाते हैं, ये अम्ल फलों को खटास प्रदान करते हैं ।
फलों में थायमिन तथा रीबोफ्लेविन की भी अधिकता होती है । पीले फलों में कैरोटिन की मात्रा अधिक होती है जोकि शरीर में विटामिन ‘ए’ का निर्माण करता है । आम व सन्तरे कैरोटिन के उत्तम साधन होते हैं ।
फलों में विटामिन ‘डी’ की कमी होती है । फलों में कैल्शियम की कमी होती है । कुछ फल; जैसे: केला, सन्तरा, नीबू, नारंगी, अंजीर, अंगूर में कैल्शियम की अधिक मात्रा पायी जाती है । इसके साथ-साथ इनमें लौह लवण भी उपस्थित रहता है ।
फलों का वर्गीकरण (Classification of Fruits):
सामान्यतया किसी भी पौधे के बीजयुक्त भाग को फल कहते हैं । प्रत्येक फल पर एक आवरण होता है जिसे फलभित्ति (Pericrap) कहते हैं । फलभित्ति मोटी व पतली हो सकती है । मोटी भित्ति में मुख्यतया अग्र तीन पर्तें होती है।
फल मुख्यतया दो प्रकार के होते है:
बीजयुक्त फल:
इन फलों में बीज पाये जाते हैं । खाने योग्य भाग को गूदा कहते हैं तथा पौष्टिक तत्व इसी भाग में उपस्थित रहते हैं । इस समूह में आम, बेर, लीची, खुमानी आदि फल आते हैं ।
सरस फल या बेरी (Citrus Fruits or Berry):
सरस फलों के गूदेदार भाग में एक या अनेक बीज बिखरे रहते हैं; जैसे: अंगूर, टमाटर ।
सरस फल भी कई प्रकार के होते हैं:
पीपो (Pepo):
इसमें मुख्यतया ककड़ी, खीरा, खरबूजा व तरबूज आदि फल आते हैं । इनकी बाहरी पर्त कठोर होती है ।
हेस्पिरीडियम (Hesperidium):
इन फलों की बाहरी फलभित्ति में अनेक तेल ग्रथियों पायी जाती हैं । बाह्य भित्ति के बाद मध्य भित्ति होती है जो एक सफेद रेशेदार भाग के रूप में बाह्यभित्ति जुड़ी होती है । अन्तःभित्ति एक झिल्ली के रूप में प्रत्येक फाँक के ऊपर चढ़ी रहती है । अन्तःभित्ति की भीतरी सतह से अनेक रोम निकलते हैं जिसमें रस भरा रहता है, इन्हीं सरस भागों को हम खाते हैं । संतरा, चकोतरा, नींबू, मौसमी इसके उदाहरण हैं ।
बैलस्टा (Balesta):
इस फल की बाह्य फलभित्ति सख्त होती है । फल के अंदर अनेकों बीज अनियमित रूप से वितरित रहते हैं । बीज के चारों ओर का भाग सरस व खाने योग्य होता है । अनार इसका उदाहरण है ।
पोम (Pomes):
इस वर्ग में सेब व नाशपाती आते हैं । इनकी बाह्य फलभित्ति कोमल होती है । मध्य फलभित्ति तथा अन्तःफलभित्ति से फल का गूदा तैयार होता है । इन फलों में कई छोटे-छोटे बीज उपस्थित रहते हैं ।
पुंजफल (Berries):
इस समूह में छोटे-छोटे लघु फल होते हैं । अनेक लघु फल मिलकर एक गुच्छे के रूप में जुड़े रहते हैं । अत: इस प्रकार के फल को पुंजफल (Berries) कहते हैं । इस समूह में रस बेरी, स्ट्रॉबेरी, शरीफा, अंगूर आदि आते हैं । इन फलों की बाह्य भित्ति गूदेदार व रसयुक्त होती है तथा उसके अंदर बीज रहता है । इनका उपयोग जैम, जैली तथा अन्य बेक्ड पदार्थ बनाने में किया जाता है ।
संग्रंथित फल:
इस समूह में अनन्नास व शहतूत आते हैं ।
दूध व दूध से बने पदार्थ: (Milk and Milk Products):
दूध हमारे जीवन के लिए अति आवश्यक है । दूध एक आदर्श भोजन है तथा यह सभी आयु वर्ग के लिए उपयुक्त होता है । प्रतिदिन के आहार में हर व्यक्ति दूध किसी न किसी रूप में अवश्य ही ग्रहण करता है । दूध एक ऐसा पेय पदार्थ है जिसकी आवश्यकता शिशु के जन्म के पश्चात् से ही होती है ।
दूध की आवश्यकता मानव-जीवन चक्र में समान रूप से बनी रहती है । यह वृद्धि एवं विकास के लिए महत्वपूर्ण पदार्थ है । जन्म के पश्चात् शिशु केवल दूध पर ही निर्भर रहता है । हमारे देश में अधिकतर गाय-भैंस का दूध उपयोग में लाया जाता है । परन्तु गाँवों व पहाड़ों पर बकरी व भेड़ के दूध का उपयोग किया जाता है । रेगिस्तान में ऊँट का दूध उपयोग में आता है ।
दूध का पौष्टिक मूल्यांकन (Evaluation of Nutritive Value of Milk):
दूध सभी प्राणिज्य पदार्थों में सर्वोत्तम पदार्थ माना गया है क्योंकि इसमें तीनों प्रकार के उपयोगी, महत्वपूर्ण एवं आवश्यक तत्वों का समावेश होता है; जैसे: प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, खनिज लवण तथा जीवन सत्व आदि । इसमें पौष्टिक तत्व इस अनुपात में पाये जाते हैं, जितनी शरीर को आवश्यकता होती है ।
प्रोटीन (Protein):
दूध में 3-4 प्रतिशत प्रोटीन रहती है । परन्तु माता के दूध में केवल 1% प्रोटीन होती है । दूध में तीन प्रकार की प्रोटीन पायी जाती है: केसीन, लेक्टएल्ब्युमिन व लैक्टग्लोब्यूलिन । दूध की प्रोटीन में सभी आवश्यक अमीनो अम्ल इस अनुपात में पाये जाते हैं जिससे शरीर की वृद्धि एवं विकास उचित रूप से हो सके । दूध का जैव मूल्यांकन 90% है ।
श्वेतसार (Carbohydrates):
दूध में 4 से 7% तक श्वेतसार उपस्थित रहता है । माता के दूध में सबसे अधिक 7% श्वेतसार पाया जाता है । दूध की शर्करा को लैक्टोज (Lactose) कहते हैं यह केवल दूध में ही पायी जाती है । यह स्वाद में मीठी होती है ।
वसा (Fats):
भिन्न-भिन्न प्राणी के दूध में वसा की मात्रा भी भिन्न-भिन्न होती है । दूध में वसा की मात्रा 3.6 से 8.8 प्रतिशत होती है । माता के दूध में वसा की मात्रा सबसे कम तथा भैंस के दूध में सबसे अधिक होती है ।
जीवनसत्व (Vitamins):
दूध जीवन सत्व ‘ए’, ‘बी1‘ बी2, बी6, व बी12 का उत्तम साधन है । दूध में नायसिन, विटामिन ‘सी’ और ‘डी’ की कमी होती है ।
एन्जाइम्स (Enzymes):
दूध में कई प्रकार के एन्जाइम उपस्थित रहते हैं जिनका कार्य भिन्न-भिन्न होता है । इसमें प्रोटीन, वसा, श्वेतसार पर प्रक्रिया करने वाले एन्जाइम प्रमुख हैं । दूध में कैटालेज, परॉक्सीडेसेस, फॉस्फेटेसेस आदि ।
दूध पर पाक का प्रभाव (Effects of Cooking Milk Products):
दूध को उबालने से उसमें उपस्थित विटामिन ‘बी’ समूह व ‘सी’ नष्ट हो जाते हैं । दूध का पाश्च्युराइजेशन (Pasteurization) करने से उसमें उपस्थित रोगों के जीवाणु नष्ट हो जाते हैं तथा विटामिन ‘बी’ समूह व ‘सी’ की मात्रा ज्यादा नष्ट नहीं होती है ।
दूध में उपस्थित वर्णांक (Pigment):
दूध में Flavin नामक वर्णांक पाया जाता है, जो दूध को हल्का पीला रंग देता है ।
दूध के प्रकार (Kinds of Milk):
सम्पूर्ण दूध (Whole milk), वसा रहित दूध (Skimmed milk), खमीरी दूध (Fermented milk)।
दूध से बने पदार्थ (Milk products):
बिना खमीरीकरण किये दूध के पदार्थ (Unfermented Milk Products):
वसा रहित दूध (Skimmed Milk):
दूध की क्रीम को सेपरेटर द्वारा अलग कर देते हैं तथा बचे दूध को वसा रहित (Skimmed milk) कहते हैं । इस दूध में .05 से .1% तक वसा रह जाती है । इस दूध का उपयोग प्रौढ़ावस्था या वृद्धावस्था में ही किया जाना चाहिए । शिशुओं व बालकों को यह दूध नहीं देना चाहिए क्योंकि इसमें विटामिन ‘ए’ की कमी होती है ।
टोन्ट मिल्क (Toned Milk):
बसा रहित दूध को भैंस के दूध में मिश्रित कर देते हैं ताकि उसमें वसा की मात्रा कम हो जाये इस दूध में वसा की मात्रा 3.0% तथा अन्य ठोस पदार्थ 8.5% होने चाहिए । वसा रहित दूध पाउडर के दूध से तैयार किया जाता है । टोन्ड दूध में उपस्थित पौष्टिक तत्वों की मात्रा गाय के ताजे दूध की ही तरह होती है ।
गाढ़ा दूध (Condensed Milk):
ताजे दूध के 2.5 भाग उबालकर उसका पानी नष्ट कर देते हैं तथा उसे एक भाग में परिवर्तित कर देते हैं । इसको संरक्षित करने के लिए इसमें 40% शक्कर डालते हैं । तैयार दूध टिन में पैक किया जाता है । इसका उपयोग मिठाइयाँ बनाने में किया जाता है ।
इवैपोरेटेड दूध (Evaporated Milk):
एक निश्चित तापक्रम पर दूध को गर्म कर दबाव द्वारा दूध की आर्द्रता (Moisture) को नष्ट कर देते हैं । Evaporated Milk का एक भाग बनाने के लिए ताजे दूध का 2.2 से 2.6 भाग लेकर उसे 1 भाग में परिवर्तित करते हैं ।
मिल्क पाउडर (Milk Powder):
दूध का सम्पूर्ण जल सुखाकर उसे पाउडर के रूप में परिवर्तित करने की क्रिया को मिल्क पाउडर कहते हैं ।
इनके दो प्रकार होते हैं:
सूखा सम्पूर्ण दूध (Whole Milk Powder)
सूखा वसा रहित दूध (Skimmed Milk Powder)
पाउडर के दूध को रोलर (Roller) या ड्रम (Drum) विधि से तैयार किया जाता है । इन विधियों से दूध की पतली पर्त को गर्म रोलर्स पर चढ़ाया जाता है या छिड़काव किया जाता है, जिससे दूध सूखकर रोलर्स पर चिपक जाता है, जिसे खुरच कर निकाला जाता है । इसके बाद इसको महीन-महीन पीसकर पाउडर के रूप में परिवर्तित किया जाता है ।
क्रीम (Cream):
यह दूध का वसा वाला भाग है, जो काफी समय तक ठंडे स्थान पर रखकर या Centrifugal force द्वारा वसा को कच्चे दूध से अलग कर दिया जाता है । इसे क्रीम कहते हैं । क्रीम में 18 से 70% तक वसा पाई जाती है । इसके अतिरिक्त क्रीम में शर्करा, प्रोटीन व विटामिन ‘ए’ भी पाया जाता है ।
मलाई (Malai):
दूध को उबालने के पश्चात् ठंडा करने पर उसकी सतह पर वसा तथा प्रोटीन के थक्के (Fat and coagulated protein) जमा हो जाते हैं । भैंस के दूध में वसा की मात्रा अधिक होती है । अत: भैंस के दूध से अधिक मात्रा में मलाई प्राप्त होती है । उत्तम मलाई में प्रोटीन 3.5% वसा 3.0% श्वेतसार 3.8% तथा 100 ग्राम मलाई से 300 kcal प्राप्त होती है ।
खोया (Khoya):
खोया बनाने के लिये दूध को काफी देर तक उबाला जाता है ताकि उसमें उपस्थित जल की मात्रा 20% से 25% हो जाये । खोये को बनाते समय उबलते दूध को लगातार अच्छी तरह हिलाते रहना चाहिए ताकि दूध बर्तन की तली में लग न जाये ।
दूध को देर तक पकाने से व ताप से उसमें उपस्थित प्रोटीन का थक्का जमा हो जाता है । खोया जब ठंडा हो जाता है तो वह एक Mass के रूप में बन जाता है तथा उसमें प्रोटीन के अतिरिक्त वसा व लैक्टोज भी पाया जाता है । खोये से प्रोटीन 24%, वसा 41%, श्वेतसार 28% तथा 580 कैलोरी प्रति 100 ग्राम प्राप्त होती है ।
छेना (Colloge Cheese):
छेना बनाने के लिए उबलते दूध में नीबू का रस या साइट्रिक एसिड डालते हैं जिससे दूध की प्रोटीन केसीव (precipitates) हो जाती है, इसमें वसा व लैक्टएल्ब्युमिन भी उपस्थित रहता है । इस पदार्थ का तरल भाग कपड़े में छान कर (whey) अलग कर दिया जाता है तथा इसको वजन से दबाकर पूरा पानी निकाल दिया जाता है । छेने से प्रोटीन 15%, वसा 22%, तथा श्वेतसार 5% व 100 ग्राम छेने से 280 kcal प्राप्त होती है ।
दूध से बने खमीरी पदार्थ (Fermented Products):
दही (Curd):
दही बनाने के लिए थोड़ा-सा जामुन (starter) एक दिन पुराना दही लेकर बर्तन के चारों ओर (जिसमें दही जमाना है) लगाकर पहले से उबले दूध को हल्का गर्म करके डालते हैं तथा दूसरे बर्तन से उलटते-पलटते हैं ।
अब बर्तन को ढककर एक गर्म स्थान पर रख देते हैं, इस प्रकार 3-4 घंटे में दही जम जाता है । जामुन में लैक्टिक अम्ल जीवाणु उपस्थित रहता है । ये जीवाणु लैक्टोज का खमीरीकरण कर देते हैं । लैक्टिक अम्ल (Lactic acid) बनता है । दही में पौष्टिक तत्वों की मात्रा दूध के समान ही होती है ।
चीज (Cheese):
पनीर का खमीरीकरण करके व्यावसायिक रूप से बड़े स्तर पर चीज तैयार किया जाता है । चीज में केसीन, विटामिन्स (Vitamin A, Thiamine and Riboflavin), खनिज लवण, कैल्सियम, फॉस्फोरस आदि होता है । चीज में थोड़ी-सी मात्रा लैक्टोज की भी पायी जाती है । चीज अत्यंत स्वादिष्ट होता है ।
घी (Ghee):
घी खमीरी पदार्थ नहीं है परन्तु दही को अच्छी तरह मथकर मक्खन निकाला जाता है तथा मक्खन को गर्म करके उसको उबाला जाता है, जिससे उसका पानी सूख जाता है तथा पतला तरल पदार्थ घी के रूप में प्राप्त हो जाता है । गाय व भैंस के दूध में समान मात्रा में पौष्टिक तत्व पाया जाता है ।
घी में 99% वसा पाया जाता है, जो कि संतृप्त (saturated) होता है । घी में 11.4% जीवाणु तथा 3800 I.U विटामिन ‘A’ प्रति 100 gm पाया जाता है । घी में कॉलेस्ट्रॉल (Cholesterol) पाया जाता है । अधिक मात्रा में घी का उपयोग करने से हृदय की धमनियों की दीवारों में जमाव हो जाता है जो आगे चल कर हृदय आघात (Heart attack) का कारण बनता है ।
दूध का संसाधन (Milk Processing):
दूध को जीवाणु रहित करने व विषाक्त पदार्थों को कम करने के लिए व दूध को सुरक्षित करने के लिए उसका संसाधन किया जाता है । दूध को बाजार में लाने से पहले उसकी सफाई (Clarification), पाश्च्युराइजेशन (Pasteurization) व होमोजिनाइजेशन (Homogenization) किया जाता है ।
सफाई (Clarification):
सफाई करने से दूध के सभी रोगों के जीवाणु नष्ट नहीं हो पाते हैं । अत: उसका पाश्च्युराइजेशन करना पड़ता है ।
पाश्च्युराइजेशन (Pasteurization):
लुई पाश्चर नामक वैज्ञानिक ने पाश्च्युराइजेशन की विधि का आविष्कार किया था ।
पशुओं का दूध कई कारणों से दूषित हो जाता है:
अस्वस्थ पशु द्वारा,
विभिन्न माध्यमों से प्राप्त रोग के जीवाणुओं के द्वारा ।
गाय कभी-कभी क्षय रोग, ज्वर व विषाक्त ज्वर से पीड़ित हो सकती है । इस प्रकार रोगी के द्वारा जीवाणु दूध में आ जाते हैं । दूध निकालने वाला ग्वाला यदि संक्रामक रोग से पीड़ित है तो उसके माध्यम से रोग के जीवाणु दूध में प्रवेश कर जाते हैं ।
दूध को रखने का बर्तन यदि गन्दा हो, दूध वाला दूध में दूषित पानी मिलाता हो, गौशाला का वातावरण गंदा हो आदि कारणों से दूषित दूध ग्राहकों के पास पहुँचता है । इस प्रकार दूध पीने वाला व्यक्ति रोग से पीड़ित हो जाता है । दूध को जीवाणु रहित करने के लिए पाश्च्युराइजेशन विधि का उपयोग किया जाता है ।
पाश्च्युराइजेशन की विधि:
इस विधि में दूध को एक तापक्रम तक अधिक उबालते हैं फिर तापक्रम एकदम कम कर देते हैं ।
दूध का पाश्च्युराइजेशन दो प्रकार से किया जाता है:
ताजे दूध को छानकर उसके तापक्रम को एक निश्चित समय तक बढ़ाते हैं (63०C या 145०F) । इसे 3० मिनट तक इसी तापक्रम पर रखते हैं और तापक्रम तुरन्त कम (5०C या 40०F) कर देते हैं ।
दूसरी विधि में दूध का तापक्रम (64०C या 164०F) तक बढ़ाते हैं तथा इस तापक्रम पर 1 मिनट या 15-16 सेकण्ड तक रखते हैं फिर दूध को एकदम ठंडा कर देते हैं ।
इन दोनों विधियों से रोग के जीवाणु नष्ट हो जाते हैं क्योंकि ऊँचे तापक्रम तक गर्म करके एकदम ठंडा करने से जीवाणु निष्क्रिय हो जाता है ।
होमोजिनाइजेशन (Homogenization):
दूध में उपस्थित वसा के अणु बड़े-बड़े होते हैं । अत: उनका पाचन कठिन है । वसा होने से दूध को अधिक दिनों तक संग्रहित नहीं किया जा सकता है क्योंकि वसा में परिवर्तन हो जाता है तथा दूध खराब हो जाता है । इस विधि में दूध पर अधिक दबाव डालते हैं ।
वसा के कण छोटे हो जाते हैं तथा कई बार टूटने से वसा दूध में मिश्रित हो जाता है । इस दूध को काफी दिनों तक संग्रहित किया जा सकता है । होमोजिनाइज्ड दूध काफी दिनों तक संग्रहित कर सकते हैं यह दूध, शिशु वृद्धों व रोगियों के लिये लाभदायक होता है ।
दूध को पकाने से प्रभाव (Effect of Cooking on Milk):
दूध को 100.2०C तक उबालने से दूध में उपस्थित रोगों के जीवाणु नष्ट हो जाते हैं परन्तु इसके साथ-साथ सभी विटामिन्स भी नष्ट हो जाते हैं । जब दूध को गर्म किया जाता है तो ताप से वे (whey) प्रोटीन की संरचना नष्ट हो जाती है ।
यदि दूध को खुले बर्तन में उबाला जाता है तो उसके ऊपर एक पर्त (scum) बन जाती है । कम तापक्रम पर हल्की-सी पर्त बनती है परन्तु बर्तन पर ढक्कन लगाकर उबालने से पर्त नहीं बनती । दूध के ऊपर बनी पर्त तब सख्त हो जाती है जब दूध को उबालने का तापक्रम बढ़ाया जाता है । दूध की इस पर्त में थोड़ी मात्रा में प्रोटीन के थक्के, खनिज लवण व वसा के कण (globules) पाये जाते हैं, जिससे दूध का ऊपरी भाग सूख जाता है । ताप का दूध की महक व गंध पर विपरीत प्रभाव पड़ता है ।
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि दूध को उबालने से उसमें घुली हुई गैसें (CO2 and O2) नष्ट हो जाती हैं इस प्रकार कच्चे दूध की तुलना में उबले दूध की महक व गंध में अन्तर होता है । तापक्रम का दूध में उपस्थित कैलोरी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।
अंडा: (Eggs):
अंडे में सभी पौष्टिक तत्व अच्छी मात्रा में उपस्थित रहते हैं, केवल विटामिन ‘सी’ की कमी होती है । अत: प्राणिज्य भोज्य पदार्थों में अंडे का स्थान महत्वपूर्ण है । अधिकांशतया मुर्गी, बत्तख तथा अन्य चिड़ियों के अण्डे उपयोग किये जाते हैं । अंडा पक्षी का अपूर्ण स्वरूप होता है ।
अंडे में माँसपेशियों तथा माँस अस्थियों को निर्माण करने वाला आवश्यक पदार्थ प्रोटीन पाया जाता है । अस्थियों के निर्माण में आने वाले पौष्टिक तत्व कैल्शियम, फॉस्फोरस तथा रक्त का संगठन करने वाला लौह लवण रहता है ।
अंडे में वसा की मात्रा भी अधिक होती है । ये सभी पौष्टिक तत्व जल में घुलित रूप में उपस्थित रहते हैं । अंडे में श्वेतसार व विटामिन ‘सी’ की कमी होती है । अंडा विटामिन ‘ए’ व विटामिन ‘डी’ का अति उत्तम (Excellent) साधन भी है ।
अंडे की संरचना (Structure of Egg):
अंडे की संरचना निम्न प्रकार होती है:
बाहरी आवरण व अंडे का सेल (Egg Shell) ।
सेल झिल्लियाँ (Cell Membrane) ।
अंडे का सफेद भाग (Albumin) ।
अंडे का पीला भाग (Globulin) ।
अंडे के सफेद भाग पर उपस्थित झिल्ली ।
चैलेजा (Chalaza)
अंडे का पौष्टिक मूल्यांकन (Nutritive value of Egg):
अंडे की पौष्टिकता इस बात पर निर्भर करती है कि पक्षी को किस प्रकार का भोजन दिया जाता है । ग्रीष्मकालीन प्रदेशों में अंडे का आकार व भार कम होता है (30-37 gm) । परन्तु ठंडे प्रदेशों में यह ज्यादा (50 gm) होता है । पूरे अंडे के कुल वजन का 60% भाग सफेद (albumin) तथा 30% भाग पीला (globulin) होता है । एक पूर्ण अंडे में 65% पानी, 12-14% प्रोटीन, 10-12% वसा तथा 1% खनिज लवण होता है ।
अंडे का सफेद भाग (Albumin):
यह गाढ़ा व चिपचिपा होता है । इस भाग में प्रोटीन अधिक होता है । यह पारदर्शक होता है । एल्ब्युमीन में कुछ मात्रा कैल्शियम की भी होती है । एल्ब्यूमिन को गर्म करने से यह थक्के के रूप में जम जाती है । अंडे के सफेद भाग में मुख्यतया प्रोटीन के तीन प्रकार होते हैं:
ऑवलब्यूमिन (Ovalbumin): यह अंडे की मुख्य प्रोटीन है । अंडे के सफेद भाग के कुल प्रोटीन का 55% भाग इसी का होता है ।
कॉनलब्यूमिन (Conalbumin): अंडे की एल्ब्यूमिन प्रोटीन का 13% भाग कॉनलब्यूमिन का होता है ।
ओवोम्यूकायड (Ovomucoid): अंडे के सफेद भाग की कुल प्रोटीन का 10% भाग ओवोम्यूकायड का होता है । ओवोम्यूकायड अंडे को गाढ़ापन प्रदान करता है ।
एविडिन (Avidin): अंडे के सफेद भाग में एविडिन नामक प्रोटीन पायी जाती है जो विटामिन-बी समूह के एक विटामिन बायोटिन (Biotin) से संयुक्त रहती है, यह संयुक्त पदार्थ छोटी आँतों के द्वारा शोषित नहीं होता है । जब अंडे को उबाला जाता है, तो उससे यह संयुक्त पदार्थ टूट जाता है तथा बायोटिन शोषित होने के लिए स्वतंत्र हो जाता है ।
अंडे की जर्दी या पीला भाग (Globulin):
यह भाग अंडे का जीवन होता है । अपूर्णरूप से विकसित पक्षी के लिए मभी पौष्टिक तत्व इसी में उपस्थित रहते हैं । इन सभी पौष्टिक तत्वों से ही भ्रूण विकसित होता है । इसमें जल की तुलना में ठोस पदार्थ अधिक मात्रा में पाये जाते हैं । ताजे अंडे में पीला भाग एकदम गोल व सफेद भाग के ऊपर उभार के रूप में रहता है । अंडे के इस भाग में प्रोटीन, वसा तथा खनिज लवण पाये जाते हैं । अंडा खराब होने पर पीला भाग तरल होकर फैल जाता है तथा सफेद अंग के साथ मिल जाता है ।
वसा:
अंडे की सम्पूर्ण वसा इसके पीले भाग में होती है । अण्डे के इस भाग में वसा की मात्रा 13.3% होती है ।
अंडे में वसा निम्न रूपों में उपस्थित रहती है:
साधारण वसा (Simple Fat): यह वसा पामिटिक (Pamatic), स्टेयरिक (Stearic), ओलिक (Oelic) अम्ल के ग्लिसरीन के साथ मिलकर बनता है ।
कोलेस्टीरॉल (Cholesterol): औसतन एक अंडे में 100 mg कोलेस्टीरॉल पाया जाता है । यह विटामिन ‘डी’ का संश्लेषण (Synthesis) करता है ।
वर्णक (Pigment): अंडे का पीला रंग कैरोटीन नामक वर्णक के कारण होता है । कैरोटिन से विटामिन ‘ए’ का निर्माण होता है । अंडे में कैरोटीन की मात्रा मुर्गी के आहार पर निर्भर करती है । मुर्गी के आहार में हरी पत्तियाँ अधिक देने में इसकी मात्रा बढ़ जाती है ।
खनिज लवण (Minerals): अंडे में खनिज लवणों की अच्छी मात्रा रहती है । अंडे के पीले भाग में कैल्शियम फॉस्फोरस, मैग्नीशियम, क्लोरीन, पोटेशियम, सल्फर तथा लौह लवण आदि पाये जाते हैं । अंडे के सफेद भाग में केवल कैल्शियम ही पाया जाता है ।
अण्डे का पाचन एवं शोषण (Digestion and Absorption):
अधिकांशतया लोगों के मन में यह भ्रान्ति है कि कच्चा अंडा पके हुए अंडे से अधिक पौष्टिक होता है । यह सत्य नहीं है क्योंकि कच्चे अंडे में एल्ब्यूमिन में अपचनीय तत्व (Antidigestic factor) होता है जो ताप से नष्ट हो जाता है । आधा उबला हुआ या पोच्ड अंडा आसानी से पच जाता है ।
अंडे का पीला भाग (Yolk) शिशु भी आसानी से पचा सकता है । कभी-कभी उबले अंडे के पीले भाग के चारों ओर कालापन हो जाता है जो आयरन सल्फाइड (Iron sulphide) के कारण होता है । अंडे में उपस्थित साल्मोनेला जीवाणु को नष्ट करने के लिए उसे सात मिनट तक उबालना चाहिए तथा पोच्ड़ अंडे में जीवाणु साल्मोनेला पाँच मिनट में नष्ट हो जाता है ।
अंडे पर ताप का प्रभाव (Effect of Cooking):
अंडे में उपस्थित प्रत्येक प्रोटीन का स्कंदन (coagulation) भिन्न-भिन्न तापक्रम पर होता है । अंडे का सफेद भाग (Albumin) 145०F कर से 148०F पर स्कंदित हो जाता है परन्तु पीले भाग की प्रोटीन (Albumin) 158०F पर स्कंदित होती है । यदि अंडे की दोनों प्रोटीन को मिश्रित कर दें तो यह 175०F पर जम जाता है ।
सफेद भाग की प्रोटीन जल्दी तथा कम तापक्रम पर जम जाती है परन्तु पीले भाग की प्रोटीन अधिक तापक्रम व समय लेती है । अण्डे को अधिक तापक्रम पर पकाने से उसका सफेद भाग सख्त होकर सिकुड़ जाता है तथा उसमें उपस्थित वसा भी सख्त हो जाती है ।
अण्डे की प्रोटीन के स्कंदन (Coagulation) को प्रभावित करने वाले कारक (Factor Affecting Coagulation of Eggs Proteins):
पानी की मात्रा:
अंडे में तरल पदार्थ की मात्रा अधिक होने से स्कंदन देर से तथा तरल पदार्थ की मात्रा कम होने से स्कंदन जल्दी हो जाता है ।
शक्कर की मात्रा:
अंडे के मिश्रण में शक्कर होने से स्कंदन का तापक्रम अधिक हो जाता है क्योंकि शक्कर गर्म होकर पिघलकर तरल पदार्थ के रूप में परिवर्तित हो जाती है ।
नमक की मात्रा:
नमक स्कंदन के तापक्रम को कम कर देता है क्योंकि नमक अंडे में उपस्थित जल के भाग को शोषित कर लेता है ।
अम्ल की मात्रा:
अंडे में अम्ल डालने से स्कंदन का तापक्रम कम हो जाता है । अम्ल के द्वारा अंडे की प्रोटीन के pH में परिवर्तन हो जाता है । अम्ल का मुख्य कार्य प्रोटीन के जेल (Gel) को मजबूती प्रदान करना है ।
अंडे से बनने वाले पदार्थ (Egg Products):
अंडे का उपयोग भोजन में मुख्यतया बेक्ड पदा र्थों के लिए किया जाता है; जैसे: बिस्कुट, केक, पेस्ट्री आदि ।
अंडे का प्रयोग कई व्यंजनों को सजाने के लिए भी किया जाता है; जैसे: केक, सलाद आदि ।
अंडे को पिज्जा के ऊपर सजाने के लिए साबुत मछली में भरने के लिए भी प्रयोग में लाया जाता है ।
तेल से तला अंडा स्क्रमबेल्ड (scrambled eggs) ऑमलेट (omlet) अंडे की पुडिंग व पाई कस्टर्ड व विभिन्न प्रकार के पुलाव आदि तैयार किए जाते हैं ।
अंडा व्यंजन तैयार करने में भोज्य पदार्थों को आपस में जोड़ने व पर्त चढ़ाने का कार्य भी करता है ।
अंडे का उपयोग बिरियानी, पराठा, सब्जियों में किया जाता है । अंडे को दूध व चीनी के साथ मिलाकर हलवा भी बनाया जाता है ।
अंडे से सम्बन्धित रोग (Egg Related Diseases):
अंडे से कुछ लोगों को एलर्जी; जैसे: Uticaria या अस्थमा (Asthma) हो जाता है ।
अधिक अंडा खाने से Atherosclerosis व Gall Bladder सम्बन्धी रोग हो जाते हैं ।
टाइफाइड बुखार व आमाशयिक आँतों के रोग भी संक्रामक अंडा खाने से होता है ।
माँस व मछली: (Meat, and Fish):
माँस प्रोटीन का उत्तम साधन है । माँस में वह सभी अमीनो एसिड पाये जाते हैं, जो शरीर की माँसपेशियों में उपलब्ध रहते हैं । हमारे देश में बकरे एवं मुर्गे के माँस का ही अधिक सेवन होता है । कुछ ही लोग बकरी, गाय, बछड़े, भेड़ के माँस का सेवन करते है । पहाड़ों व जंगलों के आस-पास रहने वाले लोग तीतर, बटेर तथा अन्य जंगली जानवरों के माँस का सेवन भी करते हैं ।
माँस की संरचना (Structure of Meat):
माँस में मुख्यत: चार भाग होते हैं:
माँस तन्तु (Muscle Fibres) जिसे मायोफाइब्रिन (Myofibrin) कहते हैं ।
संयोजक तन्तु (Connective Tissues) माँस के तन्तुओं को जोड़ने का कार्य करता है ।
वसा तन्तु (Adipose Tissues)
हड्डियाँ (Bones) ।
माँस का पौष्टिक मूल्यांकन (Nutritive value of Meat):
प्रोटीन (Protein):
माँस में 18 से 22% प्रोटीन पाई जाती है । इस प्रोटीन में सभी आवश्यक अमीनो अम्ल पाये जाते हैं जो शारीरिक व मानसिक विकास के लिये उपयोगी होते हैं ।
माँस में एक्टिन (Actine) तथा मायोसिन (Myosine) कौलेजिन (Collagen) तथा इलेस्टिन (Elastin) आदि प्रोटीन उपस्थित होते हैं ।
बसा (Fats):
माँस में 13% वसा पाई जाती है जो स्टीरॉल (sterol) के रूप में होती है ।
श्वेतसार (Carbohydrates):
श्वेतसार की मात्रा माँस में कम होती है तथा यह ग्लाइकोजिन (Glycogen) व ग्लूकोज (Glucose) के रूप में पाया जाता है ।
वर्णक (Pigments):
मायोग्लोबिन (Myoglobin)
हीमोग्लोबिन (Haemoglobin)
एन्जाइम (Enzymes):
माँस में मुख्य रूप से प्रोटीन पर क्रिया करने वाले एन्जाइम्स पाये जाते हैं । ये एन्जाइम्स प्रोटीन को छोटे-छोटे कणों में तोड़ देते हैं । इस क्रिया से माँस मुलायम हो जाता है ।
खनिज लवण (Minerals):
माँस में निम्न लवणों का समावेश रहता है ।
जीवनसत्व (Vitamins):
माँस में विटामिन बी2 (Riboflavin) तथा B12 अधिक मात्रा में पाया जाता है । हरी सब्जी खाने वाले जानवरों के माँस में विटामिन ‘ए’ की मात्रा बढ़ जाती है । माँस में विटामिन ‘सी’ व ‘डी’ की कमी होती है. ।
सत्व (Extractives):
माँस में दो प्रकार के सत्व पाये जाते हैं:
नाइट्रोजनयुक्त सत्व (Nitrogeneous Extractive): क्रियेटिन (Creatine), क्रियाटिनिन (Creatinine) ।
नाइट्रोजन रहित तत्व (Non-Nitrogeneous Extractive): लैक्टिक एसिड (Lactic acid) ।
माँस को पकाने से प्रभाव (Effect of Cooking Meat):
माँस को पकाने से उनमें निम्न परिवर्तन आते हैं:
रोग के जीवाणु नष्ट हो जाते हैं,
रंग, गंध व स्वाद में परिवर्तन,
पकाने से माँस की प्रोटीन आसानी से पच जाती है,
प्रोटीन पहले denatured हो जाती है फिर स्कंदित हो जाती है,
पकाने से माँस के संयोजक तन्तु मुलायम हो जाते हैं ।
माँस के अतिरिक्त जानवर के शरीर के निम्न भागों को भी आहार के रूप में ग्रहण किया जा सकता है:
यकृत (Liver): यकृत प्रोटीन, लौह लवण जीवन सत्व थायमिन, राइबोफ्लेविन तथा B12 का उत्तम साधन है ।
हृदय (Heart): इसकी बनावट भी माँसपेशियों के समान ही होती है । यह ठोस होता है अत: उसको पकाने में काफी समय लगता है । हृदय में प्रोटीन, राइबोफ्लेविन और लौह लवण व सल्फर पाये जाते हैं ।
मस्तिष्क (Brain): इसमें वसा की मात्रा अधिक होती है । इसमें उपस्थित कोलेस्टीरॉल विटामिन ‘डी’ का निर्माण करता है । मस्तिष्क में फॉस्फोरस का भी अच्छा साधन है । वृक्क आदि भी इसी समूह में आते हैं ।
पक्षियों का माँस (Poultary):
पक्षियों के माँस में मुख्यतया चूजा, मुर्गी, मुर्गा, बत्तख, कबूतर, टर्की तथा जल मुर्गा आदि के माँस का उपयोग किया जाता है । कुछ अन्य जंगली पक्षी; जैसे: तीतर, बटेर आदि का भी उपयोग होता है ।
पक्षियों के माँस की संरचना (Structure):
पक्षियों के माँस तन्तु छोटे-छोटे होते हैं । पक्षियों के माँस में संयोजक तन्तु कम होते हैं । अत: पक्षियों का माँस कोमल होता है तथा उसका पाचन आसानी से हो जाता है ।
पक्षियों के माँस का पौष्टिक मूल्यांकन (Nutritive Value):
प्रोटीन: पक्षियों का माँस प्रोटीन का अति उत्तम साधन है । इसमें 18-25% प्रोटीन पायी जाती है । इसमें सभी आवश्यक अम्स उपस्थित रहते हैं जो वृद्धि एवं विकास के लिए आवश्यक होते हैं ।
वसा: अन्य माँस की तुलना में पक्षी के माँस में कम वसा पायी जाती है ।
खनिज लवण: इसमें लौह लवण, सोडियम व पोटैशियम भी पाया जाता है ।
जीवन सत्व: इसमें थायमिन, राइबोफ्लेविन तथा नायसिन उपस्थित रहता है ।
पक्षियों के माँस को पकाने का प्रभाव (Effect of Cooking):
पक्षियों के माँस को पकाने से उस पर वैसा ही प्रभाव पड़ता है जैसा अन्य माँस पर पड़ता है । पक्षियों के माँस का उपयोग सूप, सब्जी, साबुत मुर्गा, स्ट्यू आदि बनाने में काम आता है ।
मछली (Fish):
मछली मुख्यतया आधिक पानी में पाई जाती है । समुद्र के पानी में मछ्ली अधिकतर पाई जाती है ।
मछली का पौष्टिक मूल्यांकन (Nutritive value):
प्रोटीन: मछली में 15-25% प्रोटीन पाई जाती है ।
वसा: मछली में वसा कम पायी जाती है परन्तु वसीय मछली में 20% प्रतिशत तक वसा पायी जाती है ।
खनिज लवण: मछली, कैल्शियम, आयोडीन, ताँबा व लौह लवण का उत्तम साधन है । नमकीन पानी में पाई जाने वाली मछली में ताजे पानी में पायी जाने वाली मछली की तुलना में लौह लवण ज्यादा होता है । समुद्र में पाई जाने वाली मछली में आयोडीन अधिक होती है ।
विटामिन: वसीय मछली में विटामिन A व D अधिक पाया जाता है । मछली का तेल भी विटामिन ‘ए’ व ‘डी’ का उत्तम स्रोत है ।
मछली के माँस में थायमिन (B1) व राइबोफ्लेविन विटामिन भी अच्छी मात्रा में पाया जाता है । मछली अत्यंत शीघ्र नष्ट होने वाला पदार्थ है । अत: उसका संरक्षण निम्न विधियों से किया जाता है: सुखाकर, नमक द्वारा, धुएँ द्वारा, फिजिंग व कैनिंग ।
मछली पर ताप का प्रभाव (Effect of Temperature on Cooking):
मछली को पकाने से उसमें पाया जाने वाला विटामिन ‘ए’ व ‘डी’ नष्ट हो जाता है, परन्तु लौह लवण, आयोडीन, सल्फर व फॉस्फोरस अत्यंत कम मात्रा में नष्ट होता है । शुष्कीकरण (Dehydration) विधि में 10-20% विटामिन B नष्ट होता है । छोटी-छोटी मछलियाँ हड्डियों सहित ही खाई जा सकती हैं । इन मछलियों में कैल्शियम अत्यधिक मात्रा में पाया जाता है ।
वसा एवं तेल: (Fats and Oils):
मानव अपने आहार में भोजन को पकाने के लिये वसा एवं तेल का उपयोग हजारों वर्षों से करता चला आया है । वसा एवं तेल ऊर्जा के सान्द्र साधन हैं । इसके अतिरिक्त वसा एवं तेल वसा में घुलनशील विटामिन ‘ए’, ‘डी’, ‘ई’ तथा ‘के’ के भी उत्तम साधन है । तेल से आवश्यक वसीय अम्ल प्राप्त होता है । तेल युक्त बीज प्रोटीन के उत्तम साधन हैं; जैसे: तिल, मूँगफली, नारियल, सरसों आदि से तेल बनाया जाता है ।
वसा एवं तेल का उपयोग नाना प्रकार के व्यंजन तैयार करने में किया जाता है; जैसे: ब्रेड, केक, पेस्ट्री, बिस्कुट, कुकीज आदि । कई प्रकार की dressing तेल से तैयार की जाती हैं । सब्जियों के संरक्षण में भी तेल का उपयोग किया जाता है ।
चीनी एवं गुड: (Sugar and Jaggery):
भारतवर्ष विश्व में चीनी के उत्पादन में अग्रणी है । चीनी तैयार करना अत्यंत प्राचीन कला है । भारतवर्ष में 80-90% गन्ने से चीनी का उत्पादन किया जाता है । गन्ने से तीन प्रकार के पदार्थ उत्पादित किये जाते हैं । गुड़, खाँड़ तथा सफेद शक्कर ।
गुड़ (Jaggery):
इसका उत्पादन व उपयोग भारतवर्ष के सभी भागों में किया जाता है । गुड़ गन्ने के अतिरिक्त पाम, खजूर, नारियल से भी तैयार किया जाता है । पुराना गुड, हल्के रंग, अच्छी गंध, सख्त एवं कैलासीय होता है, जिसे काफी समय तक संग्रहित किया जा सकता है । गुड़, में 65-68% सुक्रोज (Sucrose), 10-15% इनवर्ट शक्कर (Invert sugar) व 2.5% ऐश (Ash) पायी जाती है ।
चीनी (Sugar):
चीनी मुख्यतया तीन रूपों में पायी जाती है: कच्ची चीनी, रिफाइन चीनी तथा सफेद चीनी ।
कच्ची चीनी:
गन्ने को crush करके रस तैयार किया जाता है तथा इस रस को गर्म करके उसका वाष्पीकरण किया जाता है । यह चीनी अम्लीय होती है । कच्ची चीनी में 79-95% सुक्रोज पायी जाती है । इसमें 90% आर्द्रता तथा 10% अपचयन शक्कर पायी जाती है ।
रिफाइन चीनी (Raw Sugar):
चीनी को पानी में घोलकर, छानकर उबाला जाता है । इसे तब तक उबाला जाता है जब तक कि इसका कैलासीयकरण (Crystallization) न हो जाये । कैलासीय शक्कर दानेदार होती है ।
सफेद चीनी (White Sugar):
यह चीनी हम प्रतिदिन आहार के साथ उपयोग करते हैं । यह गन्ने या चुकन्दर से व्यापारिक विधि से तैयार की जाती है । यह दानेदार व अत्यंत मीठी होती है । चीनी तैयार करते समय इसकी गन्दगी दूर की जाती है । गन्दगी के साथ-साथ कई पौष्टिक तत्व भी निकल जाते हैं । चीनी में 99% शर्करा होती है तथा इसमें प्रोटीन, खनिज लवण व जीवन सत्व न्यूनतम मात्रा में उपस्थित रहते हैं ।
मिर्च मसाले (Condiments and Spices):
भारतवर्ष में मिर्च-मसालों का उपयोग प्राचीन काल से होता आ रहा है तथा इसे उस काल में land of spices कहा जाता था । सर्वप्रथम ब्रिटेन के लोगों ने मसालों का व्यापार यहीं से शुरू किया ।
मसालों को मुख्यतया निम्न बातों के लिए उपयोग किया जाता है:
भोजन को सुगंधित बनाना ।
भोजन को आकर्षक बनाना ।
भोजन को स्वादिष्ट बनाना आदि ।
मसालों की संरचना:
मसाले मुख्यतया पेड़ों के निम्न भाग जड़, कली, फूल, तना या बीज से प्राप्त होते हैं । अधिकांश मसालों में वाष्पीय तेल पाया जाता है जो कि उसका सुगन्धित गुण है । सभी मसालों में प्रोटीन, श्वेतसार, रेशे, टेनिनस तथा पोली फिनाल (Poly phenols) पाये जाते हैं ।
हमारे आहार में निम्नलिखित मसालों का उपयोग होता है: