संयुक्त राष्ट्र संघ का मानवाधिकार चार्टर । “United Nation’s Human Rights Charter” in Hindi Language!
संयुक्त राष्ट्र में मानव अधिकार:
संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने दिसम्बर 1948 में मानव अधिकारों पर सार्वभौम घोषणा को स्वीकार किया । यह घोषणा सामाजिक-आर्थिक एवं नागरिक और राजनीतिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए आधारभूत मार्गदर्शक प्रपत्र बन गया ।
मानव अधिकार आधुनिक प्रजातांत्रिक युग में महत्त्वपूर्ण विषय बन गया है इसलिए सभी राष्ट्र अपने नागरिकों को अधिकतम रूप से मानव अधिकार देने के पक्षपाती हो गए हैं । मानव अधिकार मूलभूत विशेषाधिकार या प्रतिरक्षा व्यवस्था है जिस पर सभी लोगों का नैतिक अधिकार है ।
अंतर्राष्ट्रीय कानून की दृष्टि में मानव अधिकार किसी व्यक्ति का व्यक्तिगत-कानूनी हक और स्वाधीनता का अधिकार है जिसमें किसी व्यक्ति के प्रति राज्य और सरकार द्वारा निर्देशित विशिष्ट प्रकार का आचरण सम्मिलित है । किसी भी दृष्टि से मानव अधिकार ‘कोई उपहार’ नहीं है जिसे जब चाहे रोक या छीन लिया जाए ।
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मानव अधिकार की संकल्पना हमारी विश्व की विरासत के रूप में सबसे प्राचीन जीवन मूल्यों और धर्मों में बद्धमूल है और ये विश्व के प्रमुख दर्शनों तथा राजनीतिक सिद्धांतों में शामिल है । आरंभ में सार्वभौम मानव अधिकार कानून प्रथम विश्व युद्ध के बाद अस्तित्व में आया ।
संयुक्त राष्ट्र संघ के अग्रदूत के रूप में लीग ऑफ नेशन्स ट्रस्ट क्षेत्र के प्रशासकों को स्थानीय जनसंख्या की सुरक्षा और कल्याण का वादा करना पड़ता था । लीग ऑफ नेशन्स द्वारा लागू की जाने वाली संधियों पर नए बनाए गए केंद्रीय और पूर्वी यूरोप के देशों को नृजातीय अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए हस्ताक्षर करने पड़ते थे ।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद स्थापित अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.ओ.) ने श्रम और कल्याण के न्यूनतम मानकों का समर्थन किया । इसके कारण सैकड़ों महत्वपूर्ण मानव अधिकार संगठनों का जन्म हुआ ।
मानव अधिकारों के प्रति संयुक्त राष्ट्र संघ की चिंता के मूल कारण:
नाजी शासन द्वारा आतंकवादी गतिविधियों के कारण मानव अधिकारों के प्रति चिंताओं का पुनर्जन्म और उनका अंतर्राष्ट्रीयकरण हुआ ।
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मानव अधिकारों के विश्व-स्तरीय आंदोलन की स्थापना और प्रेरणा संयुक्त राष्ट्र अधिकार-पत्र (यू.एन.चार्टर) से मिली । संयुक्त राष्ट्र अधिकार-पत्र पहली बहुपक्षीय संधि थी जिसमें मानव अधिकारों के प्रति चिंता की व्यवस्था की गई । यह मानव अधिकारों का वह नींव का पत्थर है जिस पर मानव अधिकारों का विशाल भवन खड़ा हुआ ।
मानव अधिकार: संयुक्त राष्ट्र अधिकार पत्र और उसके बाद:
संयुक्त राष्ट्र अधिकार-पत्र (यू.एन.चार्टर) में मानव अधिकारों के सात संदर्भ हैं । विश्व संगठन के चार उद्देश्यों में से एक है, सभी के लिए जाति लिंग भाषा या धर्म के भेदभाव के बिनल मानव अधिकारों और मूलभूत स्वतंत्रताओं को प्रोत्साहित करना । संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा को निर्देश दिया गया है कि वह इस विषय में आवश्यक अध्ययन आरंभ करे और अपनी सिफारिशें प्रस्तुत करे ।
आर्थिक और सामाजिक परिषद् (Economic and Social Council-ECOSOC) को भी अनुच्छेद 62 के अधीन वही कार्य दिए गए । संयुक्त राष्ट्र अधिकार-पत्र की किसी अन्य व्यवस्था से अधिक अनुच्छेद 55 में स्पष्ट रूप से मानव अधिकारों के क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र सघ के प्रयोजनों का विस्तृत विवरण दिया गया है । इनमें ‘समान अधिकार के सिद्धांतों का सम्मान’ और ‘लोगों का आत्म-निर्णय का अधिकार’
‘रहन-सहन के उच्च स्तर को बढ़ावा देना’, ‘पूर्ण रोजगार और आर्थिक तथा सामाजिक प्रगति और विकास,’ ‘अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक’, ‘सामाजिक स्वास्थ्य’ और ‘उससे संबंधित समस्याएँ’ एवं ‘सबके लिए मानव अधिकारों के प्रति सम्मान और उनका पालन’ शामिल है ।
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अनुच्छेद 56 में सदस्य राष्ट्रों द्वारा ‘प्रतिज्ञा’ की गई है कि इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए वे संयुक्त रूप से और संयुक्त राष्ट्र संघ के सहयोग से अलग-अलग कार्यवाही करेंगे । अनुच्छेद 68 में व्यवस्था है कि आर्थिक और सामाजिक परिषद् (ECOSOC) मानव अधिकारों के लिए एक स्थाई आयोग (कमीशन) की स्थापना करे । अत में अनुच्छेद 70 (सी) में प्रावधान है कि ट्रस्ट क्षेत्रों में रहने वाले व्यक्तियों के मानव अधिकारों और अभूत स्वतंत्रताओं को बढ़ावा दिया जाए ।
संयुक्त राष्ट्र के मानव अधिकारों के क्षेत्र में चल रहे संगत कार्यकलापों को निम्नलिखित चार विशिष्ट वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
(1) मानकों का निर्धारण:
इसमें व्यक्तियों के अधिकारों की व्याख्या और स्पष्टीकरण शामिल है ।
(2) प्रोत्साहन गतिविधियाँ:
इसमें विशेष मानव अधिकारों का या विशिष्ट स्थानों पर मानव अधिकारों का अध्ययन और पूर्ण कार्यान्वयन के लिए उपायों की सिफारिश है ।
(3) मानवीय प्रकार्य:
मानव अधिकार उल्लंघन से प्रभावित व्यक्तियों को सहायता प्रदान करना, और
(4) कार्यान्वयन:
किन्हीं विशिष्टं क्षेत्रों में मानव अधिकार उल्लंघन से सुरक्षा प्रदान करना ।
अधिकारों का अंतर्राष्ट्रीय प्रपत्र:
मानव अधिकारों को परिभाषित करने और उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित करने के सयुक्त राष्ट्र सघ के पाँच प्रमुख कानूनी प्रपत्र हैं: 1948 में मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदाएँ (Convenants) आम सभा द्वारा स्वीकृत 1948 की घोषणा जिसमें प्रारंभिक नैतिक अधिकार का घोषणा-पत्र है ।
प्रसंविदा ऐसी संधियों हैं जो राज्य उनकी पुष्टि करते हैं उन पर वे बाध्यकारी होती हैं । सम्मिलित रूप से इन दस्तावेजों को मानव अधिकारों का अंतर्राष्ट्रीय प्रपत्र कहा जाता है । अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय प्रपत्र को तैयार करना सँयुक्त राष्ट्र संघ का मूलभूत सर्वोपरि कार्य था ।
एलीनोर रूजवेल्ट की अध्यक्षता में मानव अधिकारों के संयुक्त राष्ट्र आयोग ने यह पहला कार्य आधारभूत अधिकारों और स्वतंत्रताओं की व्याख्या के रूप में अपने हाथ में लिया । 10 दिसम्बर, 1948 को 20वीं शताब्दी के मानव अधिकार कानून का पहला स्तंभ ‘मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा’ नामक कानून संयुक्त राष्ट्र सभा द्वारा पारित किया गया ।
‘सब लोगों के लिए उपलब्धि के समान मानक’ के रूप में अभिप्रेत मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा में आधारभूत नागरिक और राजनीतिक अधिकारी तथा मूलभूत आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों का उल्लेख किया गया था जिनका कोई व्यक्ति कहीं भी उपयोग कर सकता है ।
सार्वभौम घोषणा के 30 अनुच्छेदों में से प्रमुख अधिकार और स्वतंत्रताएं निम्नलिखित हैं:
(1) कानून के समक्ष समानता ।
(2) आने-जाने, घूमने-फिरने और आवास की स्वाधीनता ।
(3) यातना, क्रूरतापूर्ण, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार या सजा से मुक्ति ।
(4) राजनीतिक शरण लेने और उत्पीड़न से बचाव का अधिकार ।
(5) विचार करने की अंत करण की और धर्म की स्वतंत्रता ।
(6) मतदान करने और सरकारी कामकाज में भाग लेने का अधिकार ।
(7) शिक्षा का अधिकार ।
(8) कामं करने और श्रमिक संघ बनाने तथा उसमें प्रवेश का अधिकार ।
(9) समुचित रहन-सहन के स्तर का अधिकार ।
(10) स्वास्थ्य रक्षा का अधिकार ।
(11) सांस्कृतिक गतिविधियों में पूर्ण रूप से भाग लेने का अधिकार ।
इस घोषणा को पारित करने के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों ने अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय प्रपत्र अर्थात् मानव अधिकार की संधि का मसौदा तैयार करने की ओर ध्यान दिया । परंतु जबकि घोषणा को तैयार करने में लगभग 18 महीने लगे तो प्रसंविदाओं (Convents) और वैकल्पिक नयाचार (Protocol) को तैयार करने में 18 साल लग गए ।
इस विलम्ब में कई कारण बताए जा सकते हैं । एक तो ये प्रसंविदाएँ इससे पूर्व निर्मित अत्यंत विस्तृत मानव अधिकारों की संधियाँ थी । इनमें न केवल वैयक्तिक-नागरिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों का समावेश था बल्कि इनमें उनके कार्यान्वयन के उपाय भी बताए गए थे ।
दूसरे, चूँकि जब ये प्रसंविदाएँ तैयार की जा रही थीं उसी समय संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों की संख्या में वृद्धि हो रही थी । इसलिए संयुक्त राष्ट्र के निकायों के लिए सभी राष्ट्रों के हितों को समायोजित या समन्वित करना मुश्किल हो गया ।
अंत में संयुक्त राष्ट्र के निकायों (विशेष रूप से आम सभा) पर विश्व के बहुत-से भागों में संकट की स्थितियों में शांति स्थापित करने और उसे बनाए रखने का दायित्व आ गया । मसौदा तैयार करने के दौरान संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने घोषणा में बताए गए अधिकारों को दो कानूनी प्रपत्रों में विभाजित करने का निर्णय लिया । ये दो प्रपत्र थे:
(1) नागरिक और राजनीतिक अधिकारों से संबंधित प्रसंविदा जिसमें पाश्चात्य संस्कृति में स्वीकृत परंपरागत नागरिक और राजनीतिक अधिकार शामिल हैं,
(2) दूसरी प्रसंविदा में आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार आते हैं जिन्हें समाजवादी और तृतीय विश्व के समाजों की आकांक्षाओं को संतुष्ट करने के लिए रखा गया था ।
इनमें से पहली प्रसंविदा के प्रावधानों को तत्काल कानूनन लागू किया जाना था जबकि दूसरी प्रसंविदा के प्रावधानों को क्रमश: दीर्घकालीन शिक्षा योजना और प्रोत्साहन द्वारा प्राप्त किया जाना था । 1966 में इन प्रसंविदाओं और दूसरे संगत प्रपत्रों को स्वीकार कर लेने के बाद मानव अधिकार नियमों को स्थानीय राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर लागूकरने के लिए मजबूत कानूनी आधार तैयार हो गया था ।
ये दोनों ही दिसम्बर 1966 को सर्वसम्मति से पारित हो गए और उसी दिन ये पुष्टि और हस्ताक्षर के लिए प्रस्तुत कर दिए गए । लेकिन इससे पूर्व कि इन प्रसंविदाओं को लागू किया जाता निर्धारित संख्या में राष्ट्रों द्वारा इसकी पुष्टि में एक दशक और लग गया ।
आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदाएँ 3 जनवरी 1976 को लागू हुईं (इसकी पुष्टिं 1 जुलाई, 1993 को हुई अथवा 123 देशों ने इसे स्वीकार किया) । नागरिक और राजनीतिक अधिकारों से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा और इसका वैकल्पिक नयाचार 23 मार्च, 1976 को लागू हुआ और 1 जुलाई, 1973 को इस प्रसंविदा को 123 देशों ने स्वीकार कर लिया या इसकी पुष्टि कर दी (और इसके वैकल्पिक नयाचार की पुष्टि 29 देशों ने 1 जून, 1983 को की) नागरिक और राजनीतिक अधिकारों की प्रसंविदा के दूसरे वैकल्पिक नयाचार को संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने 1989 में स्वीकार
किया ।
इस नयाचार में मृत्युदंड को समाप्त करने का प्रस्ताव था । 18 राज्यों ने इसकी पुष्टि की लेकिन कुछ देशों ने इसका इस आधार पर विरोध किया कि यह (मृत्युदंड) उनके कानूनों और प्रथाओं के अनुकूल है और यह अपराधों को रोकने में सहायक है ।
सबने मिलकर सार्वभौम घोषंणा में मानव अधिकारों के प्रावधानों को कानून बाध्यकारी बनाने तथा उनकी अंतर्राष्ट्रीय मॉनीटरिंग करने की दिशा में एक कदम बढ़ाया । सामान्य रूप से दो प्रसंविदाओं में तथा सार्वभौम घोषणा में निर्धारित अधिकारों और स्वाधीनताओं का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है लेकिन इसमें कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं जहाँ प्रसंविदाएँ उपर्युक्त घोषणा से अलग हो गई हैं ।
यह बात संपत्ति पर अधिकार और आत्म-निर्णय के अधिकार के संबंध में कही जा सकती है । समाजवादी देशों के विरोध के कारण मानव अधिकार आयोग ने संपत्ति के अधिकार को प्रसंविदाओं में शामिल न करने का निर्णय किया, हालाँकि ये अधिकार सार्वभौम घोषणा का भाग हैं । दूसरी ओर, प्रसंविदा में आत्म-निर्णय का अधिकार शामिल है जबकि वह घोषणा में नहीं है ।
आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा मानव अधिकारों की दूसरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती है । लंबे समय तक ये अधिकार पूँजीवादी देशों और उनके विधिवेत्ताओं को मानव अधिकारों के रूप में स्वीकार्य नहीं थे ।
परंतु समाजवादी देशों ने एशिया और अफ्रीका के नए उभरते देशों के समर्थन से ऐसा वातावरण बना दिया जिससे आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों को न केवल मानव अधिकारों के रूप में स्वीकार किया गया था बल्कि उन्हें कानूनी तौर पर बाध्यकारी प्रसंविदा में भी विधि के रूप में वर्गीकृत किया गया ।
आज आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों से संबंधित अंतरीक्षईय प्रसंविदा मानव अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय प्रपत्र का महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य भाग है । जो देश इस प्रसंविदा को स्वीकार करते हैं और इसकी पुष्टि करते हैं वे अपने लोगों के लिए जीने की बेहतर अवस्थाओं को प्रोत्साहित करने के अपने दायित्व को पूरा कर रहे हैं ।
इसमें प्रत्येक व्यक्ति को काम करने उचित मजदूरी पाने, सामाजिक सुरक्षा रहन-सहन के उचित स्तर और भूख से मुक्ति तथा स्वास्थ्य एवं शिक्षा का अधिकार सम्मिलित हैं । इसमें प्रत्येक व्यक्ति को श्रमिक संघ बनाने और उसमें भाग लेने के अधिकार को भी सुनिश्चित किया गया है ।
भारत में मानव अधिकारों की स्थिति:
स्वतंत्रता के बाद भारत ने संविधान का निर्माण किया और भारत में मानव अधिकारों को न केवल भारत के संविधान में सम्मानपूर्ण स्थान दिया गया बल्कि उसे संपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक पद्धति में भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है ।
जैसा कि अन्यत्र उल्लेख किया गया है कि बहुत-से नागरिक और राजनीतिक अधिकारों को संविधान के भाग-iii में मूलभूत अधिकारों में सम्मिलित किया हुआ है । वे न्यायसंगत हैं, उन्हें सांविधानिक उपायों के अधिकार के अंतर्गत रखा गया है । इसके अतिरिक्त बहुत-से सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को भाग-iv में राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों में शामिल किया गया है ।
राज्य ने इनमें से अधिकांश अधिकारों को कार्यान्वित करने का प्रयास किया है । शिक्षा के अधिकार को जिसे अन्यायसंगत भाग-iv के अंतर्गत रखा गया था, मूलभूत और न्यायसंगत अधिकार के अंतर्गत रख दिया गया है ।
भारत में एक उच्च अधिकार-प्राप्त राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग है, जिसके सदस्य देश के महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं और इसके अध्यक्ष भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश हैं । यह मानव अधिकार के सभी कथित उल्लघनों के मामलों/शिकायतों की जाँच करता है ।
कभी-कभी ये उल्लघन राज्य के प्राधिकारियों अथवा पुलिस और सुरक्षा अधिकारियों द्वारा किए जाते हैं । उदाहरण के तौर पर, जब 2003 में जाँच अदालत ने ऐसे कई अभियुक्तों को छोड़ दिया जिनके बारे में कहा जाता था कि वे गुजरात में बेस्ट बेकरी में दंगों और हत्याओं में शामिल थे तब राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने इस मामले को उच्चतम स्तर पर उठाया जिसमें न्यायालय ने अभियुक्तों को साक्ष्य के अभाव में छोड़ दिया था ।
आयोग ने उन अभियुक्तों पर पुन: मुकद्दमा चलाने की माँग की । यहाँ का राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग सभी भारतीयों के मानव अधिकारों की समुचित सुरक्षा के प्रति जागरूक है । इसके अतिरिक्त, बहुत से राज्यों ने राज्य में मानव अधिकारों के उल्लघन की रोकथाम के लिए राज्य मानव अधिकार आयोगों की स्थापना की है ताकि यदि कोई उल्लंघ्न होते हैं तो अपराधी को हर हालत में सजा दी जा सके ।