भारत-चीन संबंध । “India-China Relations” in Hindi Language!
भारत-चीन संबंध:
भारत और चीन का संबंध बहुत ही पुराना है, क्योंकि मानव विकास के कम में भारत और चीन की सभ्यताओं ने सदियों से एक-दूसरे को प्रभावित किया है । बौद्ध धर्म के प्रचार से भारत चीन का तीर्थस्थल बन गया था ।
भारत और चीन विश्व की प्राचीनतम सभ्यताएँ हैं और इनकी गिनती ऐसे देशों में होती है जिनका नाम लंबे समय तक एक राष्ट्र के रूप में सतत् विद्यमान रहने के लिए विश्व इतिहास में दर्ज है । दोनों देशों के बीच कई सदियों से सांस्कृतिक, धार्मिक और व्यापारिक संबंध रहे हैं ।
भारत और चीन के तीर्थयात्रियों तथा अन्य यात्रियों के बीच हुए बौद्धिक एवं सांस्कृतिक आदान-प्रदान से इन दोनों महान् सभ्यताओं के बीच रिश्तों की गहरी जडें जम गई । भारत की यात्रा पर आने वाले विश्व-प्रसिद्ध यात्रियों में फाहियान. सुंग युन ह्वेनसांग और आई-सुग शामिल हैं । चीन की यात्रा पर जाने वाले भारतीय हैं: कुमारजीव, जिनगुप्त, जिनभ्रद और बौद्धधर्म ।
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विश्व के आधुनिक इतिहास में भारत और चीन लगभग एक-साथ स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में उभरे । भारत 1947 में स्वतंत्र हुआ और चीन 1949 में साम्यवादी देश के रूप में अस्तित्व में आया । परंतु पिछले 50 वर्षों में दोनों देशों के संबंधों में काफी उतार-चढ़ाव रहा है ।
1950 के दशक में दोनों दोस्ती की पींगें भर रहे थे तो 1960 के दशक में युद्ध छिड़ गया । 1970 के दशक में दोनों में दूरी बनी रही और 1980 के दशक में संबंध फिर से सामान्य बनाने की कोशिशें हुईं । परंतु 1990 के दशक में शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से एशिया के ये दो बड़े देश विवाद सुलझाने और आपसी विश्वास तथा सहयोग बढ़ाने के प्रयासों पर आधारित नए संबंध बनाने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं ।
2003 तक दोनों देश सीमा विवाद को एक तरफ रखकर दोस्ती बढ़ाने के प्रयास जारी रखने पर सहमत हो गए । भारत-चीन मैत्री का प्रारंभ-स्वतंत्रता के बाद भारत ने शीत युद्ध के उस दौर में गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई । चीन ने सोवियत संघ के साथ गहरे रिश्ते कायम कर लिए । परंतु इसका भारत-चीन संबंधी पर कोई असर नहीं हुआ क्योंकि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू चीन से संबंध बनाए रखने को भारत के हित में मानते थे ।
नेहरू ने 1949 में साम्यवादी देश के रूप में चीन के उदय का तत्काल स्वागत किया और कहा कि विश्व समुदाय में चीन का महत्त्वपूर्ण स्थान है । भारत चीन को मान्यता देने वाले पहले गैर-कखुनिस्ट देशों में था और साथ ही उसने संयुक्त राष्ट्र में चीन की सदस्यता की जोरदार पैरवी की ।
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1950 में चीन द्वारा तिब्बत पर बलपूर्वक कब्जा कर लिए जात्ते के बावजूद नेहरू चीन के साथ शांति और मैत्री बनाए रखने के पक्ष में थे । भारत ने चीन की कार्यवाही का विरोध किया परंतु चीन ने इस विरोध को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह साम्राज्यवादी ताकतों की शह पर किया जा रहा है ।
1954 में चीन के प्रधानमंत्री चाउ एन-लाई भारत आए तो उनका शानदार स्वागत किया गया । इससे पहले अप्रैल, 1954 में भारत तथा ‘चीन के तिब्बत क्षेत्र’ के बीच व्यापारिक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए । इस समझौते में ‘पंचशील’ के पाँच सिद्धांत भी शामिल थे । नेहरू और चाउ एन-लाई ने संयुक्त वक्तव्य में ‘पंचशील’ का प्रतिपादन किया जो बाद में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के निर्देशक सिद्धांत बन गए ।
इसके तीन माह बाद नेहरू ने चीन की यात्रा की । उन्होंने एशिया में शांति और स्थिरता के लिए दोनों देशों के बीच संबंध सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता पर बल दिया । लगभग छह महीने बाद अप्रैल 1955 में अफ्रीकी और एशियाई देशों के बांडुंग शिखर सम्मेलन में नेहरू और चाउ एन-लाई की फिर मुलाकात हुई ।
दोनों नेताओं ने दो महाशक्तियों के बीच चल रहे शीत युद्ध के संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय नीतियों की पेचीदगियों से निपटने में विकासशील देशों द्वारा एकसमान दृष्टिकोण अपनाने के बारे में विचार-विमर्श किया । चीन द्वारा गुटनिरपेक्ष देशों की सद्भावना प्राप्त करने में नेहरू का भी योगदान रहा क्योंकि भारत चीन को संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनाने की निरंतर पैरवी कर रहा था ।
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इसलिए कई अन्य विकासशील देशों ने भी इस प्रस्ताव का समर्थन किया । कुछ विशेषज्ञों ने चीन को संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनाने के लिए नेहरू के समर्थन की आलोचना की । परंतु कुछ अन्य लोगों का मानना था कि नेहरू की चीन नीति से कम से कम 15 वर्षों तक भारत की उत्तर-पूर्वी सीमा पर शांति बनी रही ।
भारत-चीन संबंधों में कटुता:
1950 के दशक के अंत तक पंचशील और बांडुंग सम्मेलन की भावना तिरोहित हो गई । सीमा समस्या और कश्मीर की स्थिति पर दोनों देशों की मत-भिन्नता से आपसी रिश्तों में कटुता बढ़ने लगी । चीन ने अचानक सीमा का मुद्दा उछाल दिया और कहा कि भारत तथा चीन के बीच सीमा का कोई समझौता नहीं है और उसने मैकमोहन रेखा को अंतर्राष्ट्रीय सीमा मानने से इन्कार कर दिया ।
इसके साथ ही चीन ने यह भी दावा किया कि कश्मीर का अक्साई-चिन क्षेत्र मूल रूप से चीन के सिकियांग प्रांत का भाग है । अपनी कश्मीर नीति को बदलकर वह भारत के साथ कश्मीर के विलय को चुनौती देने लगा ।
कश्मीर के बारे में चीन के बयानों में दो बातें सामने आईं:
(1) उसने कश्मीर को विवादित क्षेत्र माना और
(2) कश्मीर में आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन किया । अक्साई-चिन में विवादास्पद सड़क के निर्माण और सीमा पर झड़पें अंतत: युद्ध में बदल गईं और अक्तूबर 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया ।
1962 के भारत-चीन युद्ध के कई परिणाम सामने आए । पहला तो यह है कि इससे देश तथा विदेशों में नेहरू की छवि और मान-सम्मान को गहरी ठेस लगी । आदर्शवादी विदेश नीति और देश की आन न बचा पाने के लिए देश के भीतर उनकी आलोचना हुई ।
साथ ही विकासशील देशों के नेता के रूप में भारत की छवि को दाग लगा । इसका परिणाम यह हुआ कि भारत को गुटनिरपेक्ष नीति से समझौता करके पश्चिम विशेषकर अमेरिका से सैनिक मदद माँगनी पड़ी । तीसरा परिणाम यह हुआ कि इस हार के कारण भारतीय सैनिकों का मनोबल गिर गया ।
इस सबके अलावा भारत को अपने 38,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र (35,000 वर्ग किलोमीटर पूर्वोत्तर क्षेत्र में और 3,000 वर्ग किलोमीटर पश्चिमी क्षेत्र में) से हाथ धोना पड़ा । यही नहीं चीन भारत के पूर्वी क्षेत्र में लगभग 95,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर भी अपना दावा करता है ।
भारत-चीन संबंधों में परिवर्तनशीलता:
1962 की लड़ाई के बाद लगभग 14 साल तक भारत और चीन एक-दूसरे से पूरी तरह से कटे रहे । 1976 में जाकर दोनों देशों के बीच राजनयिक रिश्ते फिर से कायम हुए । इन 14 वर्षो में भारत के प्रति चीन का रवैया शत्रुतापूर्ण रहा । 1962 के आक्रमण के 6 महीने के भीतर ही उसने पाकिस्तान के साथ संबंध सुदृढ़ कर लिए ।
1963 में चीन और पाकिस्तान ने एक सीमा समझौते पर हस्ताक्षर किए । इस समझौते में यह भी प्रावधान था कि कश्मीर समस्या में तीन पक्ष भारत पाकिस्तान और चीन शामिल हैं, जबकि पाकिस्तान ने अधिकृत कश्मीर का एक हिस्सा चीन को सौंप दिया ।
1964 में चीन ने परमाणु विस्फोट किया । पाकिस्तान ने भारत पर चीन के आक्रमण उसके साथ नई मैत्री संधि और उसके परमाणु शक्ति बनने से प्रोत्साहित होकर 1965 में भारत के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी । 1971 की लड़ाई में पाकिस्तान की करारी हार और बंगलादेश के एक स्वतत्र राष्ट्र के रूप में उदय के बाद दक्षिण एशिया में भारत की छवि बदल गई ।
साथ ही कृषि तथा उद्योग के क्षेत्र में प्रगति और 1974 में परमाणु क्षमता के प्रदर्शन के फलस्वरूप भारत इस क्षेत्र में आत्मविश्वास से संपन्न लोकतंत्र के रूप में स्थापित हो गया । वियतनाम युद्ध की समाप्ति और 1975 में दोनों वियतनामों के विलय से घोर शीत युद्ध का पहला दौर समाप्त हो गया ।
इस घटनाक्रम के परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने चीन के साथ सबध सामान्य बनाने के प्रयास-शुरू किए । इस दिशा में पहला कदम था-दोनों देशों के बीच पूर्ण राजनयिक संबंध कायम करना । विदेश सेवा के वरिष्ठ अधिकारी के.आर. नारायणन की पहले राजदूत के रूप में नियुक्ति अपने आप में महत्त्वपूर्ण थी । इससे यह संदेश गया कि भारत चीन के साथ संबंध सुधारने के प्रति गंभीर है ।
केंद्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार के दौरान भी चीन के साथ संबंध सामान्य बनाने की प्रक्रिया जारी रही । तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 1979 में चीन की यात्रा की और वहाँ की कत्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से बातचीत की ।
चीन की ओर से संबंध सुधारने की भारत की इच्छा के लिए अनुकूल प्रतिक्रिया हुई । चीन में तग जिया फग के सत्ता में आने तथा अर्थव्यवस्था सहित कई क्षेत्रों में अभूतपूर्व सुधार लाने की उनकी नीति के रचनात्मक परिणाम सामने आए जिनसे भारत-चीन संबंधों को बढ़ावा देने के प्रयासों को बल मिला ।
1980 के दशक में आपसी रिश्तों में गति आने लगी जब दोनों देशों के बीच लंबे समय से चले आ रहे सीमा विवाद को हल करने के लिए अधिकारी स्तर पर कई बार बातचीत हुई । वास्तव में सीमा मसले पर यह बातचीत मई 1980 में इंदिरा गाँधी और चीन के प्रधानमंत्री हुआ गुवाफंग (Hua Guafeng) के बीच सार्थक वार्ता का परिणाम थी । दोनों नेताओं ने सीमा वार्ता को आगे बढ़ाने तथा एशिया में शांति एवं स्थिरता बनाए रखने के उद्देश्य से आपसी संबंध सुधारने पर सहमति व्यक्त की थी ।
चीन के प्रधानमंत्री 1981 में भारत आए जिससे दोनों देशों में विचार-विमर्श में और तेजी आई । 1981 से 1986 के बीच सीमा वार्ता के सात दौर हुए जिससे भारत-चीन संबंधों की जड़ता पूरी तरह मिट गई हालाँकि समस्या का स्थाई समाधान ढूँढने में अभी तक सफलता नहीं मिली है ।
प्रयासों में तेजी:
एक प्रकार से दोनों देशों के बीच राजनयिक सबध कायम हो जाने और सीमा वार्ता के कई दौर चलने के बावजूद सरहद पर छोटी-मोटी झड़, होती रहती थी । 1987 में सीमा वार्ता के सातवें दौर के बाद भी सुम दोरांग चू घाटि में भारतीय सीमा के इस ओर चीन की घुसपैठ सीमा पर तनाव की एक बड़ी मिसाल है ।
परंतु इंदिरा गाँधी की मृत्यु और राजीव गाँधी के सत्ता में आने पर अंतर्राष्ट्रीय मामलों में काफी बदलाव दिखाई देने लगा । पूर्व सोवियत सघ में मिखाइल गोर्बाचीफ के सत्ता सँभालने के बाद महाशक्तियों की होड़ के स्थान पर समझौते और सहयोग की अभूतपूर्व भावना उभरने लगी ।
शीत युद्ध समाप्त हो जाने से सबकी निगाहें दोनों महाशक्तियों पर लगी थीं और चीन तथा भारत अपने संबंधों को नया रूप देने लगे । 1988 में राजीव गाँधी की ऐतिहासिक चीन यात्रा ने दोनों देशों के नेताओं की यात्राओं के लिए नए द्वार खोल दिए । यह 34 वर्षों में किसी भारतीय प्रधानमंत्री की पहली चीन-यात्रा थी ।
इस यात्रा के दौरान पहली बार दोनों पक्ष सीमा पर तनाव कम करने के लिए संयुक्त कार्य दल बनाने पर सहमत हुए । इससे भी बड़ी बात यह थी कि दोनों देशों के नेताओं ने आपसी हित के अन्य क्षेत्रों में सहयोग के रिश्ते मजबूत बनाने का फैसला किया ।
इसके फलस्वरूप भारत और चीन के बीच वैज्ञानिक तथा तकनीकी सहयोग और शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक आदान-प्रदान के कई समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए । अक्तूबर 1989 में चीन के उप-प्रधानमंत्री वू जेकयुआन (Wu Xueqian) और दिसम्बर 1991 में प्रधानमंत्री ली फंग (Li Peng) की भारत यात्रा से दोनों देशों के बीच राजनीतिक संबंध सुधारने की प्रक्रिया में और तेजी आ गई ।
वर्तमान प्रवृत्तियाँ:
प्रधानमंत्री डॉ॰ मनमोहन सिंह ने 13-15 जनवरी, 2008 के दौरान पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चीन की सरकारी यात्रा की । भारत और चीन के नेताओं ने दोनों देशों के बीच शांति और खुशहाली के लिए समारिक एवं सहयोगात्मक सबंध दूर करने का दृढ़ संकल्प दौहराया और यह सुनिश्चित करने का भी सकल व्यक्त किया कि ऐसे मतभेदों का आपसी संबधी के रचनात्मक विकास पर कोई असर नहीं पड़ेगा ।
दोनों प्रधानमंत्रियों ने 21वीं सदी के लिए साझा लक्ष्य तय करने संबंधी दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए जिसमें दोनों देशों की यह आकांक्षा झलकती है कि वे क्षेत्रीय बहुराष्ट्रीय मामलों में आपसी हित के क्षेत्रों में एक-दूसरे के साथ सहयोग करेंगे ।
भारत और चीन के विदेशमंत्रियों ने भी क्रमश: जून 2008 में एक-दूसरे देश की यात्रा की, इन यात्राओं के दौरान गुवानझू (Guangzhou) और कोलकाता में नए महावाणिज्य दूतावास का औपचारिक रूप से उद्घाटन किया । आपसी व्यापार 2008 में 51.8 अरब अमेरिकी डॉलर पर पहुँच गया है जो दोनों प्रधानमंत्रियों द्वारा 2010 के लिए तय किए गए 60 अरब अमेरिकी मूल्य के लक्ष्य के करीब है ।
रक्षा संबंधों के क्षेत्र में सहयोग और आदान प्रदान भी जारी रहा । इसके अंतर्गत दिसम्बर 2008 में भारत में दूसरा संयुक्त सैन्य अभ्यास और दूसरी वार्षिक रक्षा वार्ता आयोजित की गई । भारत-चीन विवाद के बारे में 12वीं दौर के विचार-विमर्श के लिए दोनों देशों के विशेष प्रतिनिधियों की बैठक सितम्बर 2008 में चीन में हुई ।
मई 2008 में चीन के सिचुनाव प्रांत में आए विनाशकारी अप के बाद भारत ने मानवीय सहायता के रूप में चीन को 50 लाख अमेरिकी डॉलर की सहायता पहुँचाई । दोनों देशों ने अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संकट और जलवायु सहित महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर एक दूसरे के साथ विचार-विमर्श भी किया ।
शीत युद्ध के बाद का घटनाक्रम:
1993 में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की चीन यात्रा होने तक समूचा अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य बदल चुका था । सोवियत सच का विघटन हो चुका था और शीत युद्ध पूरी तरह समाप्त हो गया था । नई विश्व राजनीतिक परिस्थितियों में सभी देश अपनी-अपनी विदेश नीति की नई परिभाषाएँ तलाश रहे थे ।
नरसिम्हा राव की यात्रा के एक महत्त्वपूर्ण प्रतिफल के रूप में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति बनाए रखने के ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए । इसके लगभग एक वर्ष बाद नवम्बर 1996 में चीन के राष्ट्रपति जियांग जेमिन (Jiang Zemin) भारत आए ।
इस यात्रा के दौरान विभिन्न क्षेत्रों में चार समझौते किए गए तथा दोनों देशों के बीच विश्वास पैदा करने के उपाय करने पर भी सहमति हुई । परंतु मई 1998 में भारत द्वारा परमाणु परीक्षण किए जाने के बाद संबंधों में फिर कटुता आ गई । रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस के चीन को भारत के लिए खतरा बताने के बयान से चीन नाराज हो गया ।
चीन की बढ़ती हुई परमाणु शक्ति को देखते हुए भारत के परमाणु परीक्षणों को सही ठहराने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति को भेजे प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के पत्र के लीक हो जाने से भी चीन का गुस्सा बढ़ गया ।
भारत ने चीन की नाराजगी दूर करने की दिशा में कई भा दम उठाए । जुलाई 2000 में अपनी चीन यात्रा के दौरान विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने चीनी नेताओं को आश्वासन दिया कि भारत को चीन की ओर से कोई खतरा नहीं है ।
इसके तुरंत बाद अधिकारी स्तर की बातचीत होने लगी जिसकी परिणति जनवरी 2002 में चीन के प्रधानमंत्री जू रोंगी (zhu Rongji) की भारत यात्रा के रूप में हुई । प्रधानमंत्री ने चीन के प्रधानमंत्री को एक बार फिर स्पष्ट किया कि भारत को चीन से किसी तरह के खतरे की आशका नहीं है और इस बात पर बल दिया कि भारत को यह भी विश्वास है कि चीन भारत को अपने लिए खतरा नहीं मानता ।
इस यात्रा की उल्लेखनीय उपलब्धि थी-आतंकवाद का सामना करने के लिए परामर्श तंत्र की स्थापना । दोनों नेताओं ने आपस में आर्थिक सहयोग बढ़ाने की आवश्यकता पर भी बल दिया । 2003 में पहले रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस और फिर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने चीन की सफल यात्राएँ कीं जिनसे आपसी रिश्ते मजबूत बनाने में मदद मिली । वाजपेयी की यात्रा के दौरान सीमा मसले पर सावधानी और सतर्कता के साथ विचार करने पर सहमति हुई ।