सोवियत संघ का विघटन । “Collapse of Soviet Union” in Hindi Language!
उत्तर शीत युद्ध अवधि में भारत रूस संबंधों की प्रकृति:
शीत युद्ध की समाप्ति और सोवियत संघ के विघटन से भारत-रूस संबंधों के लिए अप्रत्याशित समस्याएँ पैदा हुईं, परंतु दोनों देश एक बार फिर एक-दूसरे के साथ संबंध मजबूत बनाने में कामयाब हो गए हैं ।
सोवियत संघ के विघटन के बाद उसका सबसे बड़ा गणराज्य ‘रूस’ अंतर्राष्ट्रीय राजनीति मेँ महत्वपूर्ण इकाई के रूप में अवतरित हुआ । जहाँ सोवियत संघ की कुल आबादी 28 करोड़ 70 लाख थी वहाँ रूस की कुल आबादी 14 करोड़ 77 लाख है (सोवियत संघ की 52 प्रतिशत जनसंख्या रूसी गणराज्य में निवास करती है) तथा आज भी वह क्षेत्रफल की दृष्टि से दुनिया का सबसे बड़ा देश है ।
पूर्व सोवियत संघ की भूमि का 75 प्रतिशत भाग रूस के पास है और ऐसा माना जाता है कि पूर्व सोवियत संघ का औद्योगिक और कृषि उत्पादन का 70 प्रतिशत रूस से ही होता था । सोवियत संघ का 90 प्रतिशत तेल, 50 प्रतिशत गेहूँ, 50 प्रतिशत कपड़ा, 50 प्रतिशत खानेज रूसी गणराज्य में ही पैदा होता था ।
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रूस का स्वर्ण उद्योग विश्व में दूसरे स्थान पर आता है । क्षेत्रफल की दृष्टि से भी रूस सोवियत संघ का विशालतम गणराज्य था । सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने में इस गणराज्य का अपना विशिष्ट योगदान रहा है क्योंकि यह सर्वाधिक संसाधन संपन्न गणराज्य है ।
सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में पुराने सोवियत संघ का स्थान प्रदान कर दिया गया तथा उसने वचन दिया कि पुराने सोवियत सेंध के समस्त अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों का वह निर्वाह करेगा ।
पुराने सोवियत संघ के विघटन के बाद बचा हुआ रूस एक महाशक्ति के रूप में तो उभरा ह्री क्योंकि हजारों मिसाइल रूस के दूर-दूर तक लगे हुए हैं तथा राष्ट्रपति गोर्बाव्योव ने तथाकथित ‘परमाणु बटन’ या ‘ब्रीफकेस’ रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्लसिन को सौंप दिए थे ।
विश्व में रूस की भूमिका उसके नायक बोरिस येल्तनिस के व्यक्तित्व से तय होने लगी । सत्ता में येल्तनिस के आने से रूसी लोगों की यह दुविधा खत्म हो गई है कि वे एशियाई ताकत हैं या यूरोपीय । मास्को विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर दमित्रि फ़्योद्रोरोव यही बात कहते हैं, “हमें भरोसा है कि अब इम अपने संसाधन और ऊर्जा को अमेरिकी खेमे से लड़ने या तीसरी दुनिया को चलाने में बर्बाद नहीं करेंगे ।
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हमें आत्म-निरीक्षण और कड़ा परिश्रम करना चाहिए तथा यूरोपीय समुदाय में शामिल हो जाना चाहिए जहाँ के हम हैं ।” 19 दिसम्बर, 1991 को ही बोरिस येलसिन के रूसी परिसंघ ने क्रेमलिन की सोवियत सरकार की परंपरागत सीट और विदेश मंत्रालय को अपने नियंत्रण में कर लिया ।
ब्रिटिश आधिपत्य से मुक्ति के बाद से शुरुआती वर्षों में सोवियत संघ के साथ भारत के संबंध बहुत अच्छे नहीं रहे । सच तो यह है कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू शुरू-शुरू में सोवियत संघ के प्रति शंकालु थे । सोवियत संघ ने भी नए-नए स्वतंत्र हुए देश भारत के साथ रिश्ते बनाने की इच्छा नहीं जताई ।
परंतु विश्व-भर में महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता बढ़ने के कारण सोवियत संघ को भारत के साथ अपने रिश्तों पर पुनर्विचार करना पड़ा जिसने बाद में गुटनिरपेक्ष विदेश नीति को अपनाया । दूसरी तरफ, भारत ने भी अमेरिका और पाकिस्तान के बीच बढ़ती दोस्ती को देखते हुए सोवियत संघ के साथ विशेष रूप से स्टालिन युग की समाप्ति पर, अपने संबंधों पर फिर से विचार करने की जरूरत महसूस की । 1950 के दशक के मध्य तक भारत और सोवियत संघ के बीच निकट संबंधों के विकास का आधार तैयार हो गया था ।
इस प्रवृति को 1956 में काफी बल मिला । तब 1956 में अपनी भारत यात्राओं के दौरान निकोलाई बुलगानिन और अलेक्सी कोसिगन जैसे सोवियत नेताओं ने जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बताया । भारत के लिए कश्मीर एक केंद्रीय सुरक्षा मुद्दा था ।
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इसलिए भारत के नेताओं ने सोवियत संघ के इस रुख का स्वागत किया । इसके जवाब में भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में सोवियत संघ के आधिपत्य वाले देश हंगरी के लोकतांत्रिक चुनावों की माँग के प्रस्ताव पर सोवियत पक्ष का समर्थन किया ।
परंतु, भारत-सोवियत संबंधों में अधिक मजबूती 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद आई । चीनी आक्रमण के समय गुटनिरपेक्ष भारत के साथ सोवियत संघ के कोई सामरिक रिश्ते तो नहीं थे, परंतु तब तक सोवियत संघ और चीन के संबंधों में दरार जगजाहिर हो चुकी थी ।
अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी गुट द्वारा भारत को अपनी सैनिक क्षमता बढ़ाने के लिए मदद देने से इन्कार किए जाने पर भारत और सोवियत संघ के बीच औपचारिक सैनिक संबंध कायम हो गए । 1962 में दोनों देशों के बीच सैनिक-तकनीकी सहयोग का एक कार्यक्रम शुरू करने पर सहमति हुई ।
भारत शीत युद्ध राजनीति के पचड़े में पड़ने को तैयार नहीं था । भारत के लिए सोवियत संघ के साथ यह करार 1962 की करारी हार के बाद सशस्त्र सेनाओं को आधुनिक जमाने की आवश्यख्ता और अर्थनीति पर आधारित एक वाणिज्यिक समझौता था ।
सोवियत संघ के साथ सैनिक समझौतों में वित्तीय रियायतों और उपकरणों के उत्पादन के लिए लाइसेंस देने का भी प्रावधान था । 1960 के दशक तथा 1970 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में इस क्षेत्र की भौगोलिक राजनीतिक स्थिति में आए भारी परिवर्तन के फलस्वरूप भारत-सोवियत सुरक्षा सहयोग में काफी बढ़ोतरी हुई ।
पाकिस्तान की मदद से चीन के साथ संबंध सुधारने के अमेरिका के सैनिक रवैये का भारत ने यह अर्थ निकाला कि इन तोन देशों की नई शक्ति-धुरी पनप रही है । उन्हीं दिनों पूर्वी पाकिस्तान में राजनीतिक उथल-पुथल का भारत की सुरक्षा और अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ा ।
1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच तीसरा युद्ध छिड़ने से पहले भारत ने अगस्त 1971 में सोवियत संघ के साथ ऐतिहासिक शांति, मैत्री और सहयोग संधि पर हस्ताक्षर कर लिए थे । तब से दोनों देशों के बीच ऐसा आपसी विश्वास और सहयोग विकसित होता गया जो सोवियत संघ के विघटन तक बहुत ही ठोस और मजबूत बना रहा । भारत ने अपनी आवश्यकता के अधिकतर शस्त्र सोवियत संघ से प्राप्त किए ।
अस्थाई अनुमान के अनुसार भारत ने थलसेना के 60 प्रतिशत, नौसेना के 70 प्रतिशत और वायुसेना के 80 प्रतिशत हथियार सोवियत संघ से प्राप्त किए हैं । यही नहीं, शीत युद्ध के दौर में विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मसलों पर दोनों देशों का रवैया भी एक जैसा होता था ।
सोवियत संघ के विघटन के पश्चात् उभरे तनाव:
सोवियत संघ के विघटन और रूस के उदय के साथ विदेश नीति के परंपरागत, उद्देश्यों और लक्ष्यों में कई बदलाव आए । नए रूसी परिसंघ द्वारा विदेश नीति के नए सिद्धांतों और दिशा-निर्देशों की तलाश के प्रयासों मे तीन तत्त्वों के कारण भारत को रूस की नीतिगत दृष्टि से ओझल होना पड़ा जो कि इस प्रकार:
(1) राष्ट्रपति बोरिस येल्लसिन ने रूस की विदेश नीति को विचारधारा से मुक्त करने पर जोर दिया जिसके फलस्वरूप भारत के प्रति ‘देखो और प्रतीक्षा करो’ की नीति अपनाई गई । भारत के साथ नए संबंध व्यावहारिक और लचीलेपन पर आधारित थे और उनमें भारत के लिए अधिक समय देने की गुंजाइश नहीं थी ।
(2) रूस के राजनेता दो गुटों: ‘पश्चिमी या एटलांटिकवादी’ और ‘एशिया पहले’ के बीच विभाजित थे । मिखाइल गोर्बाचोव तथा बोरिस येल्तसिन, दोनों एटलांटिकवादी’ थे और वे मार्शल योजना के नए संस्करण की मदद से रूसी अर्थव्यवस्था को नया रूप देना चाहते थे ।
(3) भारत के साथ संबंधों के बारे में रूस के विदेश मंत्री एंड्रेर्ड़ कोजीरेफ के नेतृत्व में नए चिंतकों का गुट सामने आया जिनकी नजर में रूस की विदेश नीति और सुरक्षा संबंधी उद्देश्य प्राप्त करने के लिए पाकिस्तान अधिक महत्त्वपूर्ण था ।
उनकी दलील थी कि इस्लामिक उग्रवाद से निपटने में पाकिस्तान रूस के लिए कारगर माध्यम साबित हो सकता है । 1990 के दशक के शुरुआती वर्षों में यही विचार हावी रहा । इसी कारण रूस का विदेश मंत्रालय भारत की तुलना में पाकिस्तान, ईरान तथा तुर्की को ज्यादा महत्त्व देता रहा ।
रूस की विदेश नीति में भारत विरोधी गुट के हावी बने रहने के कारण रूस के संक्रांतिकाल में दक्षिण नीति में भारी परिवर्तन आ गया । सोवियत संघ के अंतिम रूप से विघटन से एक महीना पहले नवम्बर 1991 में सोवियत संघ ने अचानक संयुक्त राष्ट्र में पाक समर्थित उस प्रस्ताव का समर्थन कर दिया जिसमें दक्षिण एशिया को परमाणु-मुक्त क्षेत्र बनाने की माँग की गई थी ।
यह भारत के लिए एक तरह का राजनीतिक सदमा था क्योंकि इसका मतलब यह था कि पाकिस्तान के साथ-साथ भारत को अपने परमाणु कार्यक्रम रोक देने होंगे । पाकिस्तानी प्रस्ताव के समर्थन का एक कारण ‘पाकिस्तान-समर्थित मुजाहिदीन गुटों’ के कब्जे से सोवियत युद्धबंदियों को रिहा कराना था ।
दिसम्बर 1991 में जब सोवियत संघ अंतिम साँसें ले रहा था तो अफगान मुजाहिदीनों का प्रतिनिधिमंडल रूस गया । जनवरी 1992 में नई रूसी सरकार ने अफगानिस्तान में राष्ट्रपति मुजीब की सरकार के मुजाहिदीनों के खिलाफ लड़ाई के लिए सैनिकों, हथियारों और तेल की आपूर्ति पूरी तरह रोक दी ।
भारत को एक बार फिर सोवियता/रूस की नीति में इस बदलाव पर आश्चर्य हुआ । भारत-रूस संबंधों मेंतनाव लानेवाली एक घटना रूस के अंतरिक्ष कार्यालय ‘ग्लावकॉस्मोस’ और भारत सरकार के बीच क्रायोजेनिक इंजन तथा उसकी प्रौद्योगिकी की खरीद के समझौते को लेकर हुई ।
18 जनवरी, 1991 को किए गए इस समझौते से भारत को अपने भू-स्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान (जी.एस.एल.वी) कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए रूसी क्रायोजेनिक इंजनों की तरल ऑक्सीजन प्रणोदन प्रणाली (Oxygen Propulsion System) की जानकारी प्राप्त करने में मदद मिल सकती थी ।
जब अमेरिका ने एम.टी.सी.आर. के तहत रूस और भारत के खिलाफ प्रतिबंध लगाने की धमकी दी तो रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने कहा कि वे अमेरिकी दबाव के आगे नहीं झुकेंगे । परंतु जब मई 1992 में अमेरिका ने प्रतिबंध लगा दिए तथा और अधिक आर्थिक प्रतिबंध लगाने की धमकी भी दी तो जुलाई 1993 में येल्तसिन भारत को आपूति रोकने को तैयार हो गए और समझौते का स्वरूप बदलकर केवल क्रायोजेनिक इंजन देने पर सहमत हुए तथा प्रोद्योगिकी उपलब्ध कराने से इन्क्र्रार कर दिया ।
इसके बदले, ग्लावकॉस्मोस को 95 करोड़ डॉलर से अधिक की भावी अमेरिकी अंतरिक्ष परियोजनाओं के लिए बोली लगाने के अधिकार मिल गए । उसी समय ‘रुपया बनाम रूबल’ नाम के नए विवाद ने भी दोनों देशों के संबंधों पर बुरा प्रभाव डाला ।
भारत पुर सोवियत संघ से हथियारों की खरीद का 12 अरब डॉलर से अधिक का कर्ज जमा हो चुका था । भारत यह कर्ज चुकाने को तो तैयार था परंतु रूस की नई सरकार के साथ इस बात को लेकर विवाद हो गया कि किस मुद्रा में भुगतान किया जाए और उसकी विनिमय दर क्या हो ।
इस विवाद के चलते 1991-92 के दौरान दोनों देशों के बीच व्यापार ठप्प हो गया । लंबी बातचीत के बाद जनवरी 1993 में यह फैसला हुआ कि भारत 2005 तक हर साल एक अरब डॉलर का सामान रूस को भेजेगा और बाकी कर्ज का 45 वर्षो तक ब्याजमुक्त भुगतान किया जाएगा ।
निकट सहयोग का दौर फिर लौटा:
कुछ समय में ही रूस को महसूस होने लगा कि मार्शल योजना के अंतर्गत पश्चिम से सहायता लेने की उसकी आशाएँ सही नहीं थी । नाटो के विस्तार, बालकान संकट और अमेरिकी धौंसपट्टी की कई अन्य घटनाओं को देखकर रूस को अपनी विदेश नीति पर नए सिरे से विचार करना पड़ा ।
जिन लोगों ने एशियाई देशों के साथ संबंध बढ़ाने का समर्थन किया था वे सही साबित हो रहे थे । 1996 में जब पश्चिम-समर्थक आद्रेई कोजिरेफ के स्थान पर येवगेनी प्रिमीकोव रूस के विदेश मंत्री बने तो भारत-रूस संबंधों में तेजी से बदलाव आने लगा और भारत एक बार फिर रूस की सामरिक प्राथमिकताओं के केंद्र में आ गया ।
एक समय पर जब अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने परमाणु मसले पर भारत पर दबाव बनाया तो रूस ने भारत को परमाणु आपूर्तिकर्त्ताओं के गुट के प्रतिबंध की अवहेलना करते हुए दो रूसी हल्के जल के परमाणु रिएक्टर बनाने का समझौता करके दोस्ती का नया संकेत दिया ।
इस समझौते से तमिलनाडु में कुडनकलम में 1000 मेगावाट क्षमता के हल्के जल के दो परमाणु रिएक्टरों के निर्माण का रास्ता साफ हो गया । ऐसा लगा कि रूस इस बार बाहरी दबाव की परवाह नहीं करेगा । 1998 में रूस ने परमाणु परीक्षण के लिए भारत की हालाँकि निंदा की, परंतु उसके खिलाफ प्रतिबंध नहीं लगाए ।
इसके अलावा, 1999 के कारगिल युद्ध में रूस ने भारत का पूर्ण समर्थन किया और पाकिस्तान से अपनी सेनाएँ नियंत्रण रेखा से अपनी तरफ वापस बुला लेने को कहा । राष्ट्रपति पुतिन ने सीमा पार आतंकवाद के सवाल पर वाजपेयी सरकार का पूरा समर्थन करते हुए पाकिस्तान से आतंकवाद का पूरा ढाँचा नष्ट करने का अनुरोध किया ।
भारत को सोवियत संघ के विघटन के बाद जैसी सैनिक कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी थी वैसी अब नहीं झेलनी पड़ेगी । 1990 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में भारत की चिंता सोवियत संघ में बने सैनिक साज-सामान के लिए अतिरिक्त पुर्जे प्राप्त करने को लेकर थी ।
सोवियत निर्मित उपकरणों के लिए अतिरिक्त पुर्जों के निर्माण की देश में व्यवस्था न होने के कारण भारत के सामने संकट पैदा हो गया । दूसरी ओर, रूस द्वारा सैनिक हथियार देने से इन्कार करने और भारतीय सैनिक व्यय में कटैती के कारण शीत युद्ध के दौरान पनपे भारत-सोवियत संबंध कमजोर पड़ने लगे ।
वास्तव में 1990 के दशक के मध्य तक भारतीय आर्थिक प्रगति तथा रूस के सैनिक उद्योग की वित्तीय आवश्यकताओं के कारण भारत और रूस के सैनिक सहयोग में सहज ही वृद्धि होने लगी ।