रंगों का त्योहार होली, हिन्दुओं के चार बड़े पर्वों में से एक है । यह पर्व फाल्गुनी पूर्णिमा को होलिका दहन के पश्चात् चैत्र कृष्ण प्रतिपदा में धूमधाम से मनाया जाता है । वसन्त ऋतु वैसे भी ऋतुराज के नाम से जानी जाती है । इसी प्रकार फाल्गुन का महीना भी अपने मादक सौन्दर्य तथा वासन्ती पवन से लोगों को हर्षित करता है ।
हमारा प्रत्येक पर्व किसी-न-किसी प्राचीन घटना से जुड़ा हुआ है । होली के पीछे भी एक ऐसी ही प्राचीन घटना है जो आज से कई लाख वर्ष पहले सत्ययुग (सतयुग) में घटित हुई थी । उस समय हिरण्यकश्यप नाम का एक दैत्यराजा आर्यावर्त्त में राज्य करता था । वह स्वयं को परमात्मा कहकर अपनी प्रजा से कहता था कि वह केवल उसी की पूजा करें । निरुपाय प्रजा क्या करती, डर कर उसी की उपासना करती ।
उसका पुत्र प्रह्लाद, जिसे कभी नारद ने आकर विष्णु का मंत्र जपने की प्रेरणा दी थी, वही अपने पिता की राय न मानकर रामनाम का जप करता था । ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’, उसका प्रिय मंत्र था । अपने पुत्र के द्वारा की जाने वाली राजाज्ञा की यह अवहेलना हिरण्यकश्यप से सहन न हुई और वह अपने पुत्र को मरवाने के लिए नाना प्रकार के कुचक्र रचने लगा ।
कहते हैं जब प्रह्लाद किसी प्रकार भी उसके काबू में नहीं आया तो एक दिन उसकी बहन होलिका, जो आग में जल नहीं सकती थी, अपने भतीजे प्रह्लाद को लेकर जलती आग में कूद गई । किन्तु प्रह्लाद का बाल-बाँका नहीं हुआ और होलिका भयावह आग में जलकर राख हो गई ।
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इस प्रकार होली एक भगवद्भक्त की रक्षा की स्मृति में प्रतिवर्ष मनाई जाने लगी । होली पूजन वस्तुत: अग्निपूजन है जिसके पीछे भावना यह होती है कि हे अग्नि देव! जिस प्रकार आपने निर्दोष प्रह्लाद को कष्टों से उबारा, उसी प्रकार आप, हम सबकी दुष्टों से रक्षा करें, प्रसन्न हों ।
होली पूजन का एक रहस्य यह भी है कि फाल्गुन के पश्चात् फसल पक जाती है और खलिहान में लाकर उसकी मड़ाई-कुटाई की जाती है । इस मौके पर आग लग जाने से कभी-कभी गांव के गांव तथा खलिहान जलकर राख हो जाते हैं । होलिका पूजन के द्वारा किसान अग्नि में विविध पकवान, जौ की बालें, चने के पौधे आदि डालकर उसे प्रसन्न करते रहे हैं कि वह अपने अवांछित ताप से मानव की रक्षा करे ।
कितना ऊँचा शिव संकल्प था । होली का त्योहार वैसे लगभग पूरे भारत में मनाया जाता है किन्तु ब्रज मण्डल में मनाई जाने वाली होली का अपना अलग ही रंग-ढंग है । बरसाने की लट्ठमार होली देखने के लिए तो देश से क्या, विदेशों से भी लोग आते हैं ।
इसमें नन्द गांव के होली खेलने वाले पुरुष जिन्हें होरिहार कहते हैं, सिर पर बहुत बड़ा पग्गड़ बांधकर बरसाने से आई लट्ठबन्द गोरियों के आगे सर से रागों में होली गाते हैं और बरसाने की महिलाओं की टोली उनके ऊपर लाठी से प्रहार करती हैं ।
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पुरुष स्वयं को वारों से बचाते हुए होली गाते हुए आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं । एकाध बार भूल से चोट लग जाने के अलावा सारा वातावरण रसमय होता है तथा लोग आपस में प्रेम और स्नेह से मिलकर पकवान खाते हैं । यह सिलसिला काफी समय से चला आ रहा है तथा हर साल इसे देखने के लिए कई हजार स्त्री-पुरुष जमा होते हैं ।
ब्रज की होली के अतिरिक्त नाथद्वारा में होली का ठाट-बाट ज्यादा राजसी होता है । मथुरा, वृन्दावन में भी होली का सुन्दर रूप देखने को मिलता है तथा लोग नाचरंग करते हुए होली गाते और आनन्द मनाते हैं । होली सामाजिक तथा विशद्ध रूप से हिन्दुओं का त्योहार है किन्तु ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि मुसलमान शासक भी इस रंगारग त्योहार को धूमधाम से मनाते थे ।
लखनऊ में वाजिद अली शाह का नाम ऐसे शासकों में अग्रणी माना जाता है । वे कृष्ण पर कविता करते, होली लिखते तथा होली के अवसर पर कैसर बाग में नाच-गाने की व्यवस्था कराते थे । वाजिद अली, हिन्दु-मुसलमानों के बीच स्नेह और प्यार को प्रोत्साहन देने वाले एक बहुत अच्छे शासक थे ।
होली का शहरों में स्वरूप गांवों से थोड़ा भिन्न होता है । कुछ शहरों में तो होली मनाने का तरीका अभद्रता की सीमा पार कर जाता है जिसे रोका जाना जरूरी है । होली के अवसर पर कुछ लोग ज्यादा मस्ती में आ जाते हैं । वे मादक द्रव्यों का सेवन करके ऐसी हरकतें करते हैं जिनको कोई सभ्य समाज क्षमा नहीं कर सकता ।