विस्तार बिंदु:
1. भारतीय समाज एवं संविधान में महिलाओं की स्थिति ।
2. महिलाओं में शिक्षा के प्रसार की आवश्यकता ।
3. समाज द्वारा उसके कार्यक्षेत्र का सीमांकन ।
4. बढ़ती कन्या भ्रूण हत्या और गिरता स्त्री-पुरुष अनुपात ।
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5. राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व ।
6. निष्कर्ष ।
भारत का संविधान पुरुषों और महिलाओं, दोनों को समान रूप से अधिकार एवं स्तर प्रदान करता है । इसके पश्चात् भी इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि विकास एवं सामाजिक दृष्टियों से महिलाएं अभी भी पुरुषों से काफी पीछे हैं । भारतीय समाज में महिलाएं आज भी समाज के निम्न एवं कमजोर वर्ग में सम्मिलित की जाती हैं ।
अब एक प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि इतनी अधिक शक्तियां एवं अधिकार सम्पन्न होने पर भी महिलाएं पिछड़ क्यों रही हैं ? महिलाओं के विकास एवं उत्थान हेतु सरकार द्वारा अनेक प्रयास किए जा रहे हैं फिर भी महिलाओं का विकास लगभग स्थिर है, जो कि एक दुर्भाग्यपूर्ण और चिंतनीय पक्ष है ।
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महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए सरकारी प्रयासों के अंतर्गत सरकार ने वर्ष 2001 को महिला सशक्तीकरण वर्ष के रूप में मनाने की घोषणा की थी ।
इस संदर्भ में एक विचारणीय तथ्य यह है कि क्या इस प्रकार के प्रयासों से महिलाएं उस स्थान तक, उन आदर्शों तक पहुंच सकती हैं, जिन्हें सरकार द्वारा घोषित किया गया है अथवा जो अपेक्षित हैं ? वस्तुत: यह कार्य स्वयं महिलाओं एवं जन-साधारण के अपेक्षित सहयोग के अभाव में पूर्ण हो पाना असम्भव है । इसके लिए पूर्ण मनोयोग से इस दिशा में आवश्यक कदम उठाए जाने आवश्यक हैं ।
महिलाओं के पिछड़ेपन को दूर करने हेतु सर्वप्रथम उनके बीच शिक्षा का समुचित विकास किया जाना चाहिए । एक शिक्षित नारी ही अपने अधिकारों को समझ सकती है, शक्ति अर्जित कर सकती है तथा इन तीनों-शिक्षा, शक्ति एवं अधिकार-का प्रभावी सदुपयोग कर पाने में सक्षम बन सकती है ।
भारत की वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल साक्षरता दर लगभग 65 प्रतिशत थी, जिसमें पुरुषों की साक्षरता दर 76 प्रतिशत तथा महिलाओं की साक्षरता दर 54 प्रतिशत थी ।
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वर्ष 1991 की जनगणना के अनुसार पुरुष साक्षरता दर 65 प्रतिशत थी । यद्यपि 1991-2001 के मध्य पुरुष साक्षरता दर में वृद्धि (12 प्रतिशत) की अपेक्षा महिला साक्षरता वृद्धि दर (15 प्रतिशत) 3 प्रतिशत अधिक थी । यह वृद्धि उत्साहित करने वाली है, किंतु अभी भी प्रति सौ में से 46 महिलाएं निरक्षर हैं ।
इसे देखते हुए सरकार एवं समाज, दोनों द्वारा महिलाओं की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए । स्कूली शिक्षा के उपरांत उन्हें रोजगारोन्मुख कुछ व्यावसायिक शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए, जिससे कि अधिकाधिक महिलाएं अपने पैरों पर खड़ी होकर आत्मनिर्भर बन सकें तथा स्वावलम्बी जीवन का निर्वाह कर सकने में सक्षम हो सकें ।
अधिकांश मामलों में यह देखा गया है कि आत्मनिर्भरता के अभाव के कारण ही महिलाएं प्रताड़ित एवं दयनीय जीवन जीने के लिए बाध्य होती हैं तथा इन सबसे तंग आकर कुछ महिलाएं आत्महत्या तक कर लेती हैं । आत्मनिर्भर महिलाएं इस प्रकार का अभिशप्त जीवन जीने के लिए बाध्य नहीं होतीं तथा पुरुष भी ऐसी कर्मठ महिलाओं के साथ सम्मानजनक व्यवहार ही करते हैं ।
समाज में महिलाओं को कोमलांगी और अबला मानकर उनके कार्यक्षेत्र को मुख्यत: घर की चाहरदीवारी तक ही परिधित कर दिया गया है; जबकि प्रकृति ने दोनों को एक समान बनाया है यहां तक कि महिलाओं की अस्थियां पुरुषों की अपेक्षा अधिक मजबूत होती हैं, जो कि वैज्ञानिक अध्ययनों द्वारा भी सिद्ध हो चुका है ।
महिलाओं को कोमलांगी और अबला जैस विशेषण इस पुरुष प्रधान समाज द्वारा ही प्रदान किए गए हैं और महिलाओं को यदि अपना विकास करना है तो उन्हें समाज द्वारा सृजित इस कृत्रिम छवि को तोड़कर बाहर आना होगा । यह कार्य महिलाओं की इच्छाशक्ति एवं दृढ़ संकल्प के द्वारा ही सम्भव हो सकता है ।
इसके अतिरिक्त यदि महिलाएं पुरुषों से यह अपेक्षा करती हैं कि वे महिलाओं को स्वयं से हीनतर समझने की मानसिकता में स्वयं ही परिवर्तन लाएंगे, तो यह उनकी घोर मूर्खता होगी, क्योंकि पुरुष स्वयं अपने विशेषाधिकारों का त्याग नहीं करना चाहेगा, अपितु उसे ऐसा करने के लिए बाध्य करना होगा । यह सत्य है कि पुरुष इन परिवर्तनों को देर से ही सही किंतु स्वीकार अवश्य करेगा ।
महिलाओं की प्रगति में प्राय: केवल पुरुषों को ही बाधक माना जाता है, जो कि पूर्ण सत्य नहीं है । यदि देखा जाए तो महिलाओं का सर्वाधिक विरोध महिलाओं द्वारा ही किया जाता है, जैसे-सास का अपनी बहू के प्रति कठोर व्यवहार, मां का अपनी पुत्री के प्रति अविश्वास, दादी के विरोध के कारण पोती भ्रूण की हत्या, आदि ।
कन्या भ्रूण हत्या ने समाज में अमानवीयता और हृदयहीनता की सभी सीमाएं पार कर ली हैं । सरकार द्वारा यद्यपि उस जघन्य कार्य पर अंकुश लगाने हेतु कानूनों का निर्माण किया गया है, किंतु फिर भी यह रुकने का नाम ही नहीं ले रहा है ।
वह महिला, जिसका गर्भपात कराया जाता है, भी इसका विरोध या तो कर नहीं पाती या करना नहीं चाहती, क्योंकि वह नहीं चाहती जो कुछ भी कष्ट उसने झेले हैं उन्हीं कष्टों को उसकी आने वाली संतान भी सहे ।
वास्तव में कन्या भ्रूण हत्या का प्रमुख कारण पुत्र-जन्म की अभिलाषा के अतिरिक्त पुत्री के वयस्क होने पर उसके विवाह में दहेज को लेकर उत्पन्न होने वाली समस्या भी है । समाज में दहेज प्रथा को हतोत्साहित करने सम्बन्धी प्रयास सामाजिक एवं सरकारी तौर पर होने चाहिए ।
सरकार द्वारा महिलाओं को अधिक शक्ति एवं अधिकार सम्पन्न बनाने हेतु नगरपालिका एवं पंचायतीराज संस्थाओं में एक-तिहाई सीटें आरक्षित की हैं । इस संदर्भ में दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि महिलाएं इन अवसरों का लाभ उठा सकने में सक्षम नहीं हैं क्योंकि उनके निरक्षर होने के कारण निकायों की बैठकों में उनके पति अथवा पुत्र ही भाग लेते हैं ।
इस प्रकार की कुप्रथा को रोकने हेतु महिलाओं को समुचित प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिए, जिससे कि वे अपने उत्तरदायित्वों को भली-भांति समझ सकें तथा उनका क्रियान्वयन भी कर सकें । इसके अतिरिक्त सरकार द्वारा महिलाओं की सभाओं में उपस्थिति की समीक्षा की जानी चाहिए ।
प्राय: यह देखा जाता है कि उल्लिखित उपायों के अभाव में महिलाएं अपने उत्तरदायित्वों के प्रति विमुख हो जाती हैं और उनका कार्य मात्र कागजों पर हस्ताक्षर करने तक ही सीमित रह जाता है, जिसका लाभ उठाकर उनके पुरुष रिश्तेदार सरकारी धन का गबन तक लेते हैं, किंतु इसके लिए उत्तरदायी महिलाएं ही ठहराई जाती हैं ।
उल्लिखित तथ्यों के अतिरिक्त बाल विवाह एवं विवाह की अनिवार्यता, बलात्कार, पुत्र एवं पुत्री में विभेद इत्यादि कारण भी महिलाओं के विकास में बाधा उत्पन्न करते हैं । कम आयु में लड़कियों का विवाह करने से उनका विकास अवरुद्ध हो जाता है, यद्यपि सरकार द्वारा बाल विवाह को रोकने की दिशा में प्रयास किए गए हैं किंतु सामाजिक निष्क्रियता के कारण ये सभी प्रयास प्राय: निष्प्रभावी सिद्ध हो रहे हैं ।
माता-पिता द्वारा अपनी ही संतानों के मध्य पुत्र एवं पुत्री का विभेद किया जाना लड़कियों में कुंठा का कारण बनता है । इसके अतिरिक्त महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा एवं बलात्कार जैसे गंभीर अपराध भी उनकी प्रगति को अत्यधिक प्रभावित करते हैं । इस संदर्भ में लाचर कानूनों के कारण अपराधी अपराध करके साफ बच निकलता है ।
अंतत: समग्र रूप में यह कहा जा सकता है कि, मात्र सशक्तीकरण और अधिकार ही महिलाओं की मदद तब तक नहीं कर सकते जब तक कि वे स्वयं इस दिशा में प्रयास नहीं करती । इसमें समाज का सहयोग भी अपेक्षित है ।