यथार्थवाद । “Realism” in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. यथार्थवादी साहित्य की प्रवृत्तियां ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
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जो वस्तु जैसी है, उसका उसी प्रकार वर्णन करना यथार्थवाद कहलाता है । इस रूप में किसी वस्तु, पदार्थ, अनुभूति का जो वास्तविक स्वरूप है, उसका यथातथ्य निरूपण करना ही यथार्थवाद कहलाता है ।
यथार्थवादी आन्दोलन का सूत्रपात यूनान की पांचवीं शताब्दी में हुआ था । साहित्य में इसका प्रारम्भ 19वीं शताब्दी में हुआ । निरीह जनता के शोषण के कारण साहित्यकारों ने उसका यथार्थ चित्रण करने के लिए इसे अपना माध्यम बनाया ।
विज्ञान तथा शिक्षा के प्रसार ने जीवन को यथार्थ की दृष्टि से देखने हेतु प्रेरित किया । मनोविश्लेषणवादी फ्रायड तथा अनुभववादी जॉन लीक ने यथार्थवादी की ओर सर्वप्रमुख ध्यान आकृष्ट करवाया । इस वाद का साहित्य एक प्रकार से मानव समाज का निष्पक्ष फोटोग्राफर होता है ।
2. यथार्थवादी साहित्य की प्रवृत्तियां:
यथार्थवादी साहित्य व्यक्ति व समाज का काल्पनिक चित्रण न करके वास्तविक चित्र उपस्थित करता है । इस वाद की सामान्य प्रवृत्तियां निम्नलिखित हैं:
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(क) तटस्थ चित्रण: यथार्थवादी साहित्यकार समाज का जीवन जिस रूप में है, उसी रूप में निष्पक्ष होकर वैसा ही वर्णन करता है । यह वर्णन सत्यनिष्ठ होता है । इसमें कवि मनमाने चित्रण से बचता है और वस्तुनिष्ठ चित्रण करता है ।
(ख) काल्पनिकता का अभाव: यथार्थवादी साहित्य कल्पना जगत् को छोड़कर यथार्थ के धरातल पर रहकर वस्तुस्थिति का वर्णन करता है । इस चित्र में यथार्थ की कठोरता अवश्य होती है ।
(ग) सार्थक तत्त्वों का चयन: यथार्थवादी साहित्यकार समूचे यथार्थ में से सार्थक तत्त्वों का चयन करके उनकी निर्वैयक्तिक अभिव्यक्ति प्रस्तुत करता है । वह चयन पद्धति से उसी सत्य को उठाता है, जो विकृत व कुत्सित न हो ।
(घ) जीवन के यथार्थ का चित्रण: यथार्थवादी साहित्य की विषयवस्तु कल्पना पर आधारित नहीं रहती, वरन निम्न मध्यमवर्गीय पीड़ा, कष्ट, यातनाओं, आर्थिक-सामाजिक विषमता, मूल्यहीनता, भ्रष्ट जीवन पद्धति, शोषण, अत्याचार, विसंगतियों का चित्रण करती है ।
3. उपसंहार:
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प्रेमचन्द ने यथार्थवादी साहित्य को चारित्रिक दुर्बलताओं, क्रूरताओं, विषमताओं का नग्न चित्रण माना है, किन्तु उनकी कहानियों में आदर्शोम्मुख यथार्थवाद देखने को मिलता है । समानान्तर कहानी आन्दोलन में इसका पर्याप्त प्रभाव है ।
अतिवादियों के हाथ पड़ने के कारण इस साहित्य में असुन्दर, अनाकर्षक, अश्लील तथ्यों का समावेश हुआ है । इन कृतियों में यद्यपि समाज की यथार्थता है, तथापि उसे अतियथार्थवाद से तथा कलुष चित्रण से बचाना होगा ।
यथार्थवाद का विकास जीवन के क्षेत्र में-मनोविश्लेषणवादी समाजवाद तथा समाजवादी सच्चा यथार्थवाद के रूप में अस्तित्व में दिखता है । यथार्थवाद की अतिशयता भी सदैव हानिकारक है । आदर्श की मनोराज्यमयी कल्पना में विचरण करना भी सुखद कल्पना मात्र ही है ।