राष्ट्रभाषा हिंदी । Article on “Our National Language: Hindi” in Hindi Language!
इतिहास इस बात के प्रमाण देता रहा है कि विश्व की कमजोर सभ्यताओं द्वारा, विश्व के शक्तिशाली एवं प्रबुद्ध राष्ट्रों की जीवनशैली का दबाव में या अंधप्रभाव में अनुसरण किया जाता रहा है । विभिन्न आक्रांत जातियों द्वारा भारत पर विभिन्न कालखंडों के दौरान आक्रमण किए गए लेकिन सौभाग्य से ये सभी आक्रांत उन देशों से भारत में आए थे जो समाज-विज्ञान की दृष्टि से भारत से पीछे थे उन्हें भारतीय कला संस्कृति और लोगों के रहन-सहन ने बहुत प्रभावित किया जिसके कारण वे भारतीय सभ्यता में रच-बस गए ।
संस्कृतियों के मिलान ने भाषा के क्षेत्र में भी विकास किया । दूसरी भाषाओं के शब्दों का हिंदी में मिलान हुआ जिससे हिंदी की समृद्धि बढ़ती चली गई । लेकिन आधुनिक काल की शुरुआत में जैसे-जैसे अंग्रेज भारत आए हिंदी पर अंग्रेजी या औग्ल भाषा का प्रभाव बढ़ता चला गया ।
यह वही दौर था जब न्यायालयों के निर्णय दफ्तरों की कागजी कार्यवाही और विश्वविद्यालयों की पढ़ाई सभी कुछ अंग्रेजी में होता था । इसके चलते विवश भारतीय अच्छी नौकरी और शासन में मान की लालसा से अंग्रेजी पढ़ते थे । परंतु 15 अगस्त, 1947 के दिन भारतवर्ष आजाद होगया । आजादी की लड़ाई में हिंदी की विशेष भूमिका थी ।
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इसी कारण से संविधान द्वारा उसे राष्ट्रभाषा की पदवी देना, स्वाभाविक माना गया क्योंकि अंग्रेजी राज के खाने के पश्चात् अंग्रेजी भाषा-राज कायम रहने देना कठिन था और राष्ट्रभाषा का चुनाव करना अनिवार्य था क्योंकि राष्ट्रभाषा के बिना स्मूच राष्ट्र की आत्मा को शक्ति प्रदान करना असंभव है ।
विश्व का कोई भी देश बिना राष्ट्रभाषा के अपनी स्वतत्रता को स्थायित्व प्रदान नहीं कर सकता । संविधान निर्माण के काल में कुछ ऐसे व्यक्ति भी थे जो अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने के पक्ष में थे । ये उच्च मध्यवर्ग के अंग्रेजी परिवेश के ऐसे चाकर थे जिन्हें अंग्रेजी साहित्य और भाषा ज्ञान में निपुणता हासिल थी और देश की एकता-अखंडता से संबंधित मुद्दों से इनका किसी प्रकार का संबंध नहीं था ।
अंग्रेजी पक्ष के हिमायतियों-समर्थकों के साथ-साथ कुछ लोग प्रांतीय भाषाओं को भी राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने के पक्ष में थे । भारतवर्ष की अनेक भाषाओं में से गुजराती मराठी,उर्दू, तमिल, तेलुगू, बंगाली आदि प्रमुख भाषाएँ हैं जिनमें से किसी एक पर भी राष्ट्रभाषा हेतु विचार किए जाने की अपील की जाती रही है ।
राष्ट्रभाषा के प्रश्न को लेकर भारतवर्ष में वाद-विवाद चलता रहा । अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने का कोई मतलब नहीं था क्योंकि यहाँ कि बहुसंख्य जनता इससे अनभिज्ञ थी और बिना महंगी एवं उच्च कोटि की शिक्षा-प्रणाली के इसे सीखा भी नहीं जा सकता था ।
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केवल जो लोग इसे अच्छी तरह बोल-समझ सकते थे वे ही इसका समर्थन करने में लगे थे । जिस भाषा को बोलने-समझने में देश की जनता असमर्थ हो उसे राष्ट्रभाषा के रूप में लादने से प्रजातांत्रिक भावना पूरी तरह से आहत होना अनिवार्य थी ।
इस संदर्भ में दूसरा तर्क यह था कि जिन विदेशियों के शासन को जनता ने पूरी तरह उखाड़ दिया था उनकी भाषा को राजभाषा के रूप में स्थापित करना कहीं न कहीं मानसिक गुलामी का संकेत देती थी । लोकप्रियता के मानदंडों पर अन्य प्रांतीय भाषाएं भी हिंदी से काफी पीछे रह गई थी क्योंकि उन प्रांतीय भाषाओं को बोलने वाले एक क्षेत्र-विशेष में ही अधिक थे ।
यदि किसी एक प्रांतीय भाषा को बोलने वालों की संख्या किसी दूसरे राज्य में हो तब भी लोकप्रियता के पैमाने पर वह हिंदी से पीछे ही मिलती थी, क्योंकि हिंदी को बोलने वालों की भले ही भारतवर्ष में संख्या कम हो किंतु इसको समझने वालों की संख्या भारत में काफी अधिक थी ।
इसके अतिरिक्त हिंदी अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में अधिक सरल है और आसानी से सीखी जा सकती है । राष्ट्रभाषा के रूप में एक बार उद्घोषित हो जाने के बाद हिंदी को स्वीकारना एकदम सरल कार्य नहीं था क्योंकि प्रशासनिक मामलों में कार्य करना अभी भी अंग्रेजी में ही अपेक्षाकृत सरल माना जाता था ।
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अत: राजकीय कर्मचारियों को यह सुविधा प्रदान की गई कि वे पंद्रह वर्षों तक अर्थात 1950-65 के बीच हिंदी का भली-भांति ज्ञान अर्जित कर लें और तब तक अंग्रेजी का ही राजकीय कार्यों में प्रयोग करें । इसके लिए कर्मचारियों को शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था की गई ताकि वे हिंदी की बारीकियों से परिचित हो सकें ।
लेकिन पंद्रह-वर्षों के दीर्घ-समय में भी इन नीतियों को व्यावहारिक धरातल पर नहीं उतारा जा सका और अंग्रेजी का सरकारी कार्यालयों में प्रयोग होता रहा हालांकि हिंदी का भी प्रयोग साथ-साथ चलता रहा । किंतु अब हिंदी का सरल-स्वरूप बेहद अनुपयोगी और कठोर हो चुका था जिसे व्यवहार में प्रयोग नहीं किक जा सकता था ।
भारतवर्ष की ज्यादातर भाषाओं की लिपि देवनागरी है और देवनागरी में संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दों की प्रचूर मात्रा है । इसके अलावा हिंदी संस्कृत भाषा की उत्तराधिकारिणी है । अत: जिन शब्दों का प्रयोग हिंदी भाषा में किया जाएगा उन्हीं का प्रयोग देश की अन्य भाषाओं में भी किया जाएगा ।
इन सभी तर्कों को ध्यान में रखकर यही प्रतीत होता है कि हिंदी को राजभाषा के रूप में मान्यता न देने के पीछे पूरी तरह से राजनैतिक कारण हावी हैं । यदि सभी मतभेदों को भुला भी दिया जाए तो यही विचार हमारे दिमाग में आता है कि हिंदी की अपेक्षा अन्य कोई भी भाषा राजभाषा का दर्जा नहीं ले सकती ।