साहित्य और जीवन | Article on Literature’s Influence on Life in Hindi Language!
प्रस्तावना:
इस चैतन्य जीव-जगत में मानव सर्वश्रेष्ठ प्राणी है । मनुष्य में चिन्तन व अभिव्यक्ति की शक्ति उसको अन्य प्राणियों से पृथक करती है । चिन्तन शक्ति जानवरो में भी हो सकती है, परन्तु उनमें अभिव्यक्ति करने का सर्वथा अभाव है । अपने भावों व विचारों को अभिव्यक्त कर उसने साहित्य का निर्माण किया । भावो व विचारों का समन्वय ही साहित्य सर्जन का काम करता है ।
साहित्य का स्वरूप:
साहित्य शब्द का व्यूत्पत्तिपरक अर्थ है-सहितम भाव: साहित्यम अर्थात् जिसमें हित का भाव निहित है, उसको साहित्य कहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि जिन भावो व विचारो में लोकहित व सर्व मंगल की भावना निहित है, वह साहित्य है ।
हमारे यहाँ साहित्य शब्द के मूल में परोक्ष व प्रत्यक्ष रूप से हित की भावना सन्निहित है । आज साहित्य शब्द अनेक अर्थो मे प्रयुक्त होता है । अंग्रेजी में लिट्रेचर शब्द का जो अभिप्राय होता है वही साहित्य का अभिप्राय समझा जाता है । साहित्य से हमारे भावों व विचारों में रमणीयता आती है ।
साहित्य समाज का दर्पण:
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विद्वानो ने साहित्य को समाज का दर्पण कहा है । चिरकाल से तत्कालीन समाज के आधार पर ही साहित्य का सृजन होता आया है । समाज में जो भी घटनाएं घटित होती है उसका स्पष्ट प्रतिबिम्ब साहित्य पर पड़ता है ।
यद्यपि साहित्यकार अपनी कमनीय कल्पना से साहित्य को सवारता है, फिर भी समाज की घटनाएँ उसको प्रभावित किए बिना नहीं रह सकती हैं । अनादि काल से समाज में उत्तरोत्तर परिवर्तन होते आये हैं, उसी के अनुरूप साहित्य में भी परिवर्तन होते रहे हैं ।
इसीलिए हर काल व हर क्षेत्र के साहित्य में समानता नहीं पायी जाती है । प्रत्येक क्षेत्र का साहित्य उस क्षेत्र के समाज के अनुरूप रचा जाता है । प्राचीन काल के साहित्य अन्यों को देखकर ही हम उस काल के समाज की परिकल्पना कर उसको ऐतिहासिक रूप देते है ।
साहित्य का समाज पर प्रभाव:
एक साहित्यकार अपने क्षेत्र व काल के समाज से पूर्णत: प्रभावित होता है परन्तु साहित्यकार एक युग दृष्टा व युग सूच्छा कहलाता है । हमारे यहाँ कवि की तुलना सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा से की गई है । साहित्यकार युग का सच्चा पथ-प्रदर्शक होता है ।
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वह समाज को यथार्थ चित्रण के द्वारा युग के लिये सच्चा मार्ग प्रशस्त करता है । वह युग प्रहरी है । वह समाज को अधःपतन से उठाता है, उसको वह बार-बार सजग बनाता है । इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि साहित्य समाज का दर्पण है और समाज साहित्य का दर्पण है ।
साहित्य का प्रतिबिम्ब समाज पर वैसा ही पड़ता है जैसे समाज का साहित्य पर पड़ता है । साहित्यकार शासक को सचेत कर उसको भी राह दिखाता है । साहित्यकार की लेखनी तलवार का काम कर क्रान्ति को जन्म देती है ।
वही लेखनी रक्तरजित क्रान्ति को शान्ति की राह दिखाने में सक्षम होती है । सलमान रुश्दी द्वारा लिखित फैटैनिक वर्सेज ने विश्व में तहलका मचा दिया । इस छोटी-सी पुस्तक ने कई देशो के सम्बन्ध तोड़ दिये और कई देशों के सम्बन्ध जोड़ दिये ।
सारे यूरोपीय समुदाय के देशों ने ईरान से व्यापारिक सम्बन्ध तोड़ने की घोषणा दी । विभिन्न देशों में कई जलूस, आन्दोलन व क्रान्ति भड़क गयी । इसी प्रकार किसी भी दिशा का साहित्य कभी-कभी विकराल क्रान्ति का रूप धारण कर धरती को रक्तरजित कर देता है । प्राचीनकाल में युद्ध के मैदान में कवि सैनिकों के हृदय में आग भड़का देते थे । इसी कारणवश कवि को युद्धस्थल में भी जाना पड़ता था ।
साहित्य का महत्त्व:
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साहित्य ही किसी देश की प्रगति व समृद्धि का परिचायक होता है । जिस देश व काल का साहित्य समृद्ध होगा, उस देश व काल का समाज भी समृद्ध समझा जाता है । विगत युगों में यूरोपीय साहित्य ने सारे विश्व को प्रकाश दिया ओर सबको उन्नति कीराह दिखायी ।
उनका उन्नत साहित्य ही उनकी उन्नति का द्योतक था । आज भी हर विकसित राष्ट्र का साहित्य समृद्ध है । जिस देश की भाषा व साहित्य उन्नत नहीं है वह देश कभी उन्नति नही कर सकता है । इसलिए महान् युगद्रष्टा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने कहा है:
निज भाषा उन्नत अहै सब उन्नति को मूल ।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय के शूल ।।
अच्छे साहित्यकारों की प्रेरणा से राष्ट्र उन्नति के शिखर पर पहुँच जाता है । साहित्यकार की लेखनी मानव को कर्मवीर बना देती है, देश भक्ति की शिक्षा देती है और आलस्यता को त्याग सतत् जागरूक बना देती है । फलत: देश व समाज उत्तरोत्तर प्रगति पथ पर बढ़ता है ।
साहित्य व भारतीय समाज:
आज देश में पब्लिक स्कूलों द्वारा शिक्षित छात्र ही प्राय: प्रशासक बनता है । अग्रेजी ही योग्य प्रशासक के लिये उपयुक्त समझी जाती है । फलत: भारतीय समाज पिछड़ता जा रहा है । अंग्रेजी संस्कार में पढ़े अधिकारियो में भारतीय समाज के प्रति अपनत्व नहीं है, प्यार नहीं है इसलिये उनमें राष्ट्रीय भावना का अभाव है ।
राष्ट्रीय भावना के अभाव में राष्ट्र उन्नति नही कर पाता । आज हमारे प्रशासकों में राष्ट्रीय भावना की कमी के कारण ईमानदारी की कमी व भ्रष्टाचार का बोलबाला हो रहा है । हमारा उद्योगपति राष्ट्रीय भावना से वस्तुओ का उत्पादन न करके मुनाफा अधिक कमाने के उद्देश्य से कर रहा है जिससे देश-विदेश में भारतीय वस्तुओं के प्रति रुचि नहीं है ।
यह है अपनी भाषा व साहित्य के प्रति उदासीन भावना का दुष्परिणाम । अंग्रेजी एक अच्छी भाषा है, परन्तु वह अपनी भाषा नही है, इसलिए देश का शासक, प्रशासक, व्यापारी आदि राष्ट्रीय सम्पत्ति को अपनी नही समझते ।
उसके प्रति अपनत्व की भावना नही आ सकती है, इसलिए समाज में बेईमानी, भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी का ही बोलबाला हो रहा है । देश व देश की जनता की भलाई एवम उत्पादित वस्तुओ के प्रति तब तक प्यार नहीं होगा जब तक अपनी भाषा व साहित्य के प्रति प्यार नहीं होता है क्योकि भाषा ही विचारों व सस्कारों को हृदयंगम करने का साधन है ।
उपसंहार:
जिस देश की अपनी भाषा व साहित्य समृद्ध होता है वह देश विश्व में उन्नत होता है । आज विश्व के किसी भी विकसित राष्ट्र में विदेशी भाषा व साहित्य का बोलबाला नही है । विश्व के विकास की दौड़ में भारत का इतना विकास बहुत कम है ।
हम विकास की दौड़ में उत्तरोत्तर पिछड़ते जा रहे हैं क्योंकि हमारी भाषा एवं साहित्य की दौड़ शिथिल पड़ गयी है । जब तक भाषा एवं साहित्य की दौड़ तेज नहीं होती देश में राष्ट्रीय भावना पैदा नहीं हो सकती है । इसलिए हमें अपनी भाषा व साहित्य को विकसित करना चाहिए । अंग्रेजी के स्थान पर भारतीय भाषाओं को महत्त्व देना चाहिए ।