साहित्य व समाज का सम्बन्ध । “Literature and Society” in Hindi Language!
1. भूमिका या प्रस्तावना ।
2. साहित्य का स्वरूप ।
3. साहित्य और समाज का सम्बन्ध ।
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4. साहित्य का समाज पर प्रभाव ।
5. साहित्य समाज का दर्पण ।
6. साहित्य और सामाजिक उन्नयन ।
7. उपसंहार ।
1. भूमिका:
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कहा गया है कि साहित्य में जो शक्ति होती है, वह तलवार एवं बम के गोलों में भी नहीं पायी जाती है । महावीर प्रसाद द्विवेदीजी ने तो यहां तक कहा है कि: अन्धकार है वह देश जहां आदित्य नहीं मुर्दा है वह देश, जहां साहित्य नहीं ।
साहित्य का किसी देश से ही नहीं, उसके व्यक्ति, समाज सभी से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है । इस प्रकार साहित्य देश के समाज से सम्बन्धित होता है । इस रूप में साहित्य और समाज एक दूसरे के पूरक होते हैं, उनका आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है । समाज साहित्य का दर्पण होता है और साहित्य समाज का दर्पण होता है ।
2. साहित्य का स्वरूप:
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साहित्य का अर्थ है: हितेन भाव इति साहितम, अर्थात हित की भावना सन्निहित हो, वही साहित्य है । महावीर प्रसाद द्विवेदीजी ने साहित्य को ज्ञान राशि का संचित कोश कहा है । बाबू श्याम सुन्दर दास ने साहित्य की महत्ता पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है: ”सामाजिक मस्तिष्क अपने पोषण के लिए जो भाव साम्रगी निकालकर समाज को सौंपता है, उसी के संचित कोश का नाम साहित्य है । ” प्रेमचन्द ने साहित्य को जीवन का सुन्दर एवं स्वाभाविक रूप बताया है ।
3. साहित्य और समाज का सम्बन्ध:
साहित्य हमारी कौतुहल और जिज्ञासा वृति को शान्त करता है । ज्ञान पिपासा को तृप्त करता है और मस्तिष्क को शान्ति प्रदान करता है । भूख से उद्विग्न मानव जैसे अन्न के एक-एक कण के लिए लालायित रहता है, उसी प्रकार सुधाग्ररत होता है और उसका भोजन हम साहित्य से प्राप्त करते हैं ।
आज से एक शताब्दी के पहले देश के किस भाग में कौन-सी भाषा बोली जाती थी, उस समय की वेशभूषा क्या थी, उनके सामाजिक और धार्मिक विचार कैसे थे धार्मिक दशा कैसी थी, यह सब कुछ तत्कालीन साहित्य के अध्ययन से ज्ञात हो जाता है ।
कवि बाल्मीकि की पवित्र वाणी आज भी साहित्य द्वारा हमारे जीवन को अनुप्राणित करती है । गोस्वामीजी का अमर काव्य आज भी लोगों का कण्ठहार है । कालिदास का काव्य आज के शासकों के समक्ष रघुवंश के लोकप्रिय शासन का आदर्श उपस्थित करता है ।
इस प्रकार साहित्य हमारी परम्परा का आधार प्रदान किये हुए है । कितनी ही जातियां एवं नवीन धर्म उत्पन्न हुए, पर हम ठोस साहित्य के अभाव में काल के गर्भ में छिप गये । आज भारतवर्ष हिमालय पर्वत की तरह अडिग खड़ा हुआ है । यह सब साहित्य की देन है ।
जिस देश और जाति के पास जितना उन्नत और समृद्धशाली साहित्य होगा, वह देश और जाति उतनी ही समृद्ध और उन्नत समझी जायेगी । यदि आज हमारे पास चिर समृद्ध साहित्य न होता, तो न जाने हम कहा होते या होते भी नहीं ।
स्वर्ग और पृथ्वी यदि दो हैं, तो उन्हें मिलाकर एक करने का कार्य साहित्य ही करता है । ‘बाबू गुलाबराय’ ने ठीक ही लिखा है, विश्वामित्र की भांति साहित्यकार अपने यजमान को सन्देह स्वर्ग पहुंचाने का दावा नहीं करता, वरन् अपने योगबल से इस पृथ्वी पर ही स्वर्ग की प्रतिष्ठा कर देता है ।
साहित्य इसी लोक का है, किन्तु असाधारण वस्तु है और उसका मूल जीवन के ही रस ग्रहण करना है । भारत के गौरवशाली अतीत का उद्घाटन हमारे प्राचीन साहित्य ने ही किया है, अन्यथा हमारे विदेशी शासक तो हम भारतीयों को वनमानुष ही मान बैठे थे ।
साहित्य से ही हमें अपने पूर्वजों एवं अंग्रेजों के अत्याचारों की जानकारी प्राप्त हुई । साहित्य का लक्ष्य समान ही है । साहित्य समाज की विभिन्न परिस्थितियों, उनके आचारों, विचारों को चित्रित करता है । साहित्य समाज में सामाजिक सरकार की प्रेरणा प्रदान करता है ।
यहां पर कहा जा सकता है कि साहित्य रचना का लक्ष्य सामाजिक यथार्थ को आदर्शवादी प्रणाली द्वारा प्रस्तुत करना है । साहित्य की रचना समाज को सच्चा दर्पण दिखाने के लिए हुई है । समाज से वस्तु लेकर साहित्यकार साहित्य को समाजोपयोगी बनाते हैं ।
4. साहित्य का समाज पर प्रभाव:
साहित्यकार समाज का ही अंग होता है । वह भी समाज में पलता है और रहता है । समाज की बदलती परिस्थितियां साहित्यकार पर अपना पूर्णतया प्रभाव छोड़ती हैं और साहित्यकार अपनी सृजन क्षमता से साहित्य का निर्माण करते हैं, जो कि समाज के लिए बहुपयोगी होती है ।
समाज का प्रभाव साहित्यकार पर अनिवार्य रूप से पड़ता ही है । इसी सन्दर्भ में डॉ॰ सम्पूर्णानन्द का कथन महत्त्वपूर्ण है कि लेखक के ऊपर परिस्थितियां निरन्तर अपना प्रभाव डालती रहती हैं । लेखक इनसे बचने का प्रयत्न करे, तो भी नहीं बच सकता है और न वह यह कह सकता है कि मैं अपनी घड़ी के अनुसार इतने बजे से लेकर इतने बजे तक अपनी चारों ओर की परिस्थितियों से प्रभाव ग्रहण करूंगा, परन्तु यह सम्भव नहीं हो पाता ।
जीवन में जो क्रियाएं हो रही हैं, साहित्यकार पर वह प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक व अनिवार्य सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार समाज का स्वरूप बदलता रहता है । उदाहरण के लिए, जब हम भक्तिकालीन हिन्दी साहित्य पर विचार करते हैं, तो उन दिनों का हिन्दू समाज एक प्रकार से विदेशी शासकों के सम्मुख असहाय बन गया था, समाज और धर्म का स्वरूप बहुत कुछ विकृत हो चुका था, हिन्दू और मुसलमान एक साथ रहने को विवश थे, परन्तु आपसी अविश्वास की कमी नहीं थी ।
उन्हीं परिस्थितियों के अनुरूप भारत में निर्गुण सन्त कवियों ने युग की कुरीतियों तथा धर्म के नाम पर प्रचलित बाह्य आडम्बरों पर करारी चोट की तथा हिन्दू-मुसलमान एकता का सन्देश दिया । वस्तुत: सन्त काव्य का निर्माण हुआ प्रेम कीजिये के माध्यम से हिन्दू मुसलमान की एकता बंध गयी । वाल्मिकि साहित्य पर समाज पर प्रभाव अनादिकाल से चला आ रहा है ।
वाल्मिकि ने रामायण, के माध्यम से आदर्श समाज को प्रस्तुत किया और यह बताने का प्रयत्न किया कि किस मार्ग पर चलकर मानव सुख और सन्तोष का अनुभव करता है । साहित्य के अन्तर्गत हम जीवन की विविधताओं का वर्णन समग्र रूप में देखते हैं । साहित्य समाज का उचित मार्गदर्शन करता है और समाज को एक नयी दिशा प्रदान करता है ।
5. साहित्य समाज का दर्पण है:
साहित्य और समाज एक-दूसरे के पूरक हैं । कौन नहीं जानता कि शान्ति के युग में तथा संक्राति के युग में रचित साहित्य के स्वरूप मिल रहे है । भारत में परतन्त्रता और स्वतन्त्रता के युग में रचित हिन्दी साहित्य की प्रवृतियां अपने युगों को मुखर करने वाली हैं ।
साहित्य में युगबोध की अभिव्यक्ति होती है । इससे समाज का यथार्थ चित्रण होने के साथ-साथ समाज का सुधारात्मक चित्रण और समाज के प्रसंगों का क्रान्ति-प्रेरक चित्रण होता है । साहित्य समाज को मानसिक भोजन प्रदान करता है । साहित्य के माध्यम से साहित्यकार समाज में आदर्श स्थापित करने का प्रयत्न करता है ।
सामाजिक व्यक्ति के जीवन का सत्य साहित्य ही प्रकट करता है । साहित्य ही समाज को यथार्थ धरातल पर मनुष्य जीवन की सचाई से अवगत कराता है । यदि समाज शरीर है, तो साहित्य उसकी आत्मा है, उसको मानव मस्तिष्क की देन मानव सामाजिक प्राणी है, उसका संचालन, शिक्षा-दीक्षा सब कुछ समाज में ही होता है ।
साहित्यकार समाज का प्राण होता है । वह तत्कालीन समाज की रीति-नीति, धर्म-कर्म और व्यवहार वातावरण से ही अपनी सृष्टि के लिए प्रेरणा ग्रहण करता है और लोक-भावना का प्रतिनिधित्व करता है । यदि समाज में धार्मिक भावना होगी, तो साहित्य भी वैसा ही होगा ।
यदि समाज में विलासिता का साम्राज्य होगा, तो साहित्य भी शृंगारिक होगा । साहित्य भी प्रतिभासम्पन्न होने के कारण अपने साहित्य की छाप समाज पर छोड़े बिना नहीं रह सकता है । भिन्न-भिन्न देशों में जितनी भी क्रान्तियां हुईं, वे सब वहां के सफल साहित्यकारों की देन हैं ।
समाज के वातावरण की नींव पर ही साहित्य का भवन खड़ा होता है । जिस समाज की जैसी परिस्थितियां होंगी, वहां साहित्य का भी वैसा होगा । साहित्य समाज की प्रतिध्वनि, प्रतिछाया व प्रतिबिम्ब है । हिन्दी साहित्य के इतिहास के पन्ने पलटने से हमें ज्ञात हो जायेगा कि समय और समाज के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य में भी परिवर्तन अवश्यमभावी है । साहित्य हृदय में ऐसी भावना उत्पन्न करता है कि मनुष्य को एक नैसर्गिक सौन्दर्य का अनुभव होने लगता है ।
वह स्वावलम्बी ज्ञान के आधार पर अपना ज्ञानार्जन करता है । इस प्रकार महावीर प्रसाद द्विवेदीजी का यह कथन नितान्त सत्य है कि साहित्य समाज का दर्पण है, साहित्य के बिना समाज अधूरा है और समाज के बिना साहित्य का कोई अर्थ नहीं रह जाता है ।
इस प्रकार इन दोनों में समपूरकता बनी हुई रहती है । साहित्य समाज के लिए बहुउपयोगी है ही, साथ ही समाज में एक नयी दिशा प्रदान कर उसे विकासशील बनाने में योग देता है ।
6. साहित्य और समाज का उन्नयन:
इस प्रकार साहित्य समाज का यथार्थवादी चित्रण करता है, उसके दोषों को बताकर सुधार करता है । कबीर जैसे साहित्यकारों ने समाज का अध्ययन ही किया है । यदि समाज उन्नतिशील होगा, तो साहित्य भी वैसा होगा ।
7. उपसंहार:
इस प्रकार साहित्य और समाज एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं । एक-दूसरे में सुधार लाते हैं । जैसा साहित्य होगा, वैसा समाज होगा । जैसा समाज होगा, वैसा साहित्य होगा ।