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प्रत्येक देश का अन्तरराष्ट्रीय आचरण और उसकी विदेश नीति बहुत कुछ तत्कालीन अन्तरराष्ट्रीय स्थिति, अर्थात् विश्व राजनीति के बदलते स्वरूप, और उस परिप्रेक्ष्य में देश की भौगोलिक स्थिति के सापेक्षिक महत्व पर निर्भर है ।
अत: किसी देश की विदेश नीति तत्कालीन वैज्ञानिक तकनीक के संदर्भ में देश की भौगोलिक स्थिति में निहित लाभ ओर हानि, तथा समकालीन विश्व में प्रमुख शक्ति पुंजों के क्षितिज वितरण प्रारूप का सम्मिलित प्रभाव हैं ।
इसीलिए देशों की विदेश नीतियों में एक प्रकार की निरन्तरता प्रतीत होती है । यह निरन्तरता युग सापेक्ष अत दीर्घकालिक है, शाश्वत नहीं । उदाहरणार्थ 1945 के पूर्व संयुक्त राज्य अमरीका अन्तरराष्ट्रीय हल-चलों से दूर रहते हुार एक तटस्थ दर्शक की भांति अपने को पश्चिमी गोलार्द्ध की राजनीति तक ही सीमित किए रहा था ।
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परन्तु द्वितीय विश्व याद्व के पश्चात् ब्रिटेन की अन्तरराष्ट्रीय वर्चस्व की समाप्ति के साथ ही संयुक्त राज्य अन्तरराष्ट्रीय विषयों में पूंजीवादी उदारवादी देशों का नेता, तथा विश्व राजनीति का प्रमुख ध्रुव बन गया । इस दृष्टि से अन्तरराष्ट्रीय मामलों में प्रत्येक देश की एक सुनिश्चित आचार संहिता, अर्थात् भूराजनीतिक संहिता (जिओपोलिटिकल कोड), होती है जो मुख्यतया समकालिक विश्व राजनिति के परिप्रेक्ष्य में देश की भूमण्डलीय स्थिति और उसके सामरिक, आर्थिक और राजनीतिक हितों तथा आदर्शों को ध्यान मे रखते हुए निर्धारित की जाती है ।
आज के युग में प्रत्येक देश का अस्तित्व दो स्तरीय है, एक देश की राष्ट्रीय (आंतरिक) स्थिति के आधार पर तथा दूसरा विश्व के अन्य देशों के तथा पारस्परिक सम्बन्धों से उदभूत विश्व समाज के सदस्य राज्य के रूप में ।
इसलिए व्यावहारिक स्तर पर प्रत्येक देश की भूराजनीतिक आचार संहिता समकालीन विश्व की सर्वप्रमुख राजनीतिक शक्तियों की आचार संहिताओं से अनिवार्य रूप में प्रभावित होती है यही कारण था कि 1945-1990 के बीच अधिकांश, विकसित देशों की आचार संहिताएं या तो सोवियत संघ की आदर्श संहिता पर आधारित थीं या संयुक्त राज्य अमरीका की सोवियत संघ विरोधी आचार संहिता पर ।
इस दौर में विकसित देशों की अन्तरराष्ट्रीय राजनीति हृदय स्थल बनाम परिधि प्रदेश की परस्पर राजनीतिक और सामरिक प्रतिस्पर्धा से प्रेरित थी । परन्तु द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात्र स्वतंत्रता प्राप्त करने वाले एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिण-पश्चिम प्रशान्त महासागर और कैरिबियन सागर के नए प्रभुतासम्पन्न राष्ट्रों का एक बड़ा समूह ऐसा था जिसके सदस्यों के हित हृदयस्थल-बनाम-परिधि प्रदेश सम्बन्धी प्रतिस्पर्धा से एक दम असम्बद्ध थे ।
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इन देशों में भारत सबसे बड़ा तथा सांस्कृतिक ओर राजनीतिक विकास की दृष्टि से सबसे उन्नत था । ये देश विकसित देशों की इस रस्साकसी से दूर रहकर अपने-अपने देशों के विकास पर ध्यान केन्द्रित करना चाहते थे ।
साथ ही वे विश्व राजनीति के दोनों शक्ति ध्रुवों से मैत्री सम्बन्ध बनाए रखने के इच्छुक थे । इस उददेश्य की प्राप्ति में भारत ने उनका नेतृत्व किया । अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में तटस्थ भूराजनीतिक आचार संहिता का यही मुख्य आधार था ।
भूराजनीतिक आचार संहिता अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के स्थानीय, क्षेत्रीय, तथा अन्तरराष्ट्रीय तीनों स्तरों पर ही परिलक्षित होती है । स्थानीय स्तर पर भारत की तटस्थतामूलक आचार संहिता मूलतया विश्व के सभी देशों के राजनयिकों को समान रूप से सम्मान देने तथा किसी भी देश के विरुद्ध राजनीतिक विद्रोह को प्रोत्साहन न देने की नीति में दिखाई पड़ती है ।
क्षेत्रीय स्तर पर भारत की विदेश नीति का उद्देश्य दक्षिण एशिया में पड़ोसी देशों से मैत्री सम्बन्ध बनाए रखने तथा इस पूरे क्षेत्र को विश्वस्तरीय द्विध्रुवीय शक्ति परीक्षण की होड़ से बाहर रखना था । इस प्रयास में भारत को पर्याप्त सफलता मिली ।
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परन्तु स्वरूप संयुक्त राज्य द्वारा पाकिस्तान को दी जाने वाली व्यापक सैन्य सहायता के फलस्वरूप भारत की यह सफलता अधूरी रह गई क्योंकि पाकिस्तान प्राप्त सैन्य सहायता का उपयोग भारत के विरुद्ध करने लगा । यह बात पाकिस्तान द्वारा भारत पर किए गए अनेक प्रत्यक्ष और परोक्ष हमलों से भली प्रकार स्पष्ट है ।
1971 में बांग्ला देश की मुक्ति के बाद स्थिति में गुणात्मक सुधार आया । परन्तु 1989 के बाद भारत में राजनीतिक अस्थिरता के वातावरण और श्री नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व में शिथिल केन्द्रीय नेतृत्व के कारण देश की अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा में द्रुत गति से गिरावट आई ।
साथ ही पंजाब और कश्मीर में बढ़ते हुए आतंकवाद के कारण स्थिति उत्तरोत्तर खराब होती गई । अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की बात का वजन कम हो गया । इससे पाकिस्तान के नापाक इरादों को और प्रोत्साहन मिला । 1998 के आणविक परीक्षण, तथा केन्द्र सरकार द्वारा अन्तरराष्ट्रीय राजनीतिक और आर्थिक माफिया शक्तियों के दबाव में न आने का निर्णय इस स्थिति को और बिगड़ने से रोकने में सहायक हुआ है ।
श्री अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार के दोबारा पर्याप्त बहुमत से सत्ता में आ जाने के कारण अन्तरराष्ट्रीय समुदाय में भारत की आवाज पुन सुनी जाने लगी है । भारत की क्षेत्रीय स्तर की भूराजनीतिक संहिता के विकास में दक्षिण एशिया सहयोग संगठन (सार्क) एक शुभ कदम है । इसमें पाकिस्तान सहित अथवा पाकिस्तान बिना पूरे दक्षिण एशिया को एक सशक्त आर्थिक-सांस्कृतिक समुदाय का रूप देने की सम्भावना निहित है ।
इस अध्याय में हमारी चर्चा का केन्द्र अन्तरराष्ट्रीय भूराजनीतिक आचरण है । इस स्तर पर भारत की तटस्थता की आचार संहिता के वरण और संचालन के विकास के पीछे निहित कारकों को ठीक तरह से समझने के लिए देश के इतिहास और भूगोल की सम्यक् समीक्षा आवश्यक है ।
जहां इतिहास देश के राष्ट्रीय जीवन मूल्यों, आदर्शों, और राजनीतिक रुझान में निर्णायक भूमिका निभाता हैं, वहीं देश की भौगोलिक स्थिति विश्व के अन्य देशों तथा प्रमुख शक्ति पुंजो के परिप्रेक्ष्य में उसकी भूमण्डलीय स्थिति निर्धारित करती है ।
अन्य देशों के सन्दर्भ में देश की सामरिक स्थिति का सही आकलन इसी आधार पर सम्भव है । मोटे तौर पर इतिहास हमारे राजनीतिक आदर्शों का कारक हे तथा भूगोल हमारी अन्तरराष्ट्रीय समस्याओं का स्वरूप निर्धारित करता है । परन्तु इस संदर्भ में यह ध्यान रखना नितांत आवश्यक है कि भौगोलिक स्थिति एक परिवर्तनशील अवधारणा है जो तनि विज्ञान के विकास के साथ-साथ निरन्तर बदलती रहती है ।
भोगोलिक स्थिति की परिवर्तनशीलता का तात्पर्य है कि तकनीकी विकास के परिप्रेक्ष्य में किसी स्थान विशेष की प्राकृतिक भौगोलिक स्थिति का अर्थ और उसका राजनीतिक और आर्थिक महत्व बदलता रहता है तथा तदनुरूप समुदायों को अपनी नीतियों तथा जीवन पद्धति में परिवर्तन लाना आवश्यक हो जाता है ।
हमारी तटस्थता मूलक विदेश नीति का एक प्रमुख कारक हमारा युग युगान्तर से चला आ रहा अहिंसा तथा ”वसुधैव कुटुम्बकम्” का जीवन दर्शन था । महात्मा गांधी के नेतृत्व में आए पुनर्जागरण (जिसकी नींव विवेकानन्द, राम मोहन राय, दयानन्द सरस्वती, तिलक तथा अरविन्द घोष जैसे अनेक चिन्तकों तथा समाज सुधारकों ने पहले ही डाल रखी थी) के ये दोनों आदर्श मुख्य शिला स्तम्भ थे ।
अहिंसा के सिद्धांत के अनुसार मानव व्यवहार में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है । अत: विभिन्न समुदायों अथवा विभिन्न राष्ट्रीय राजनीतिक इकाइयों के बीच आपसी व्यवहार तथा अन्तरराष्ट्रीय समस्याओं का समाधान परस्पर वार्ता से निकालना आवश्यक है ।
अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भारत ने अपनी भूमिका इसी मान्यता के अनुरूप निर्धारित की । वसुधैव कुटुम्बकम का जीवन दर्शन अहिंसा के दर्शन का परिपूरक था । इसके अनुसार पृथ्वी पर निवास करने वाले सभी प्राणी एक ही विधाता की कृति तथा एक ही परिवार के अंग हैं, अत: उनमें आपसी सद्भाव आवश्यक है ।
इस दर्शन की मूलभूत मान्यता है कि विश्व में कोई व्यक्ति न तो शत प्रतिशत अच्छा (अर्थात् निर्दोष) है न ही शत प्रतिशत बुरा (अर्थात् दोषपूर्ण), तथा समुदायों के बीच आपसी द्वेष मूलतया दूसरे पक्ष की अच्छाइयों तथा अपनी बुराइयों को अनदेखी करने से उत्पन्न होते हैं । इस विश्वास के अनुसार यदि कोई तीसरा व्यक्ति सम्बद्ध समुदायों को प्रतिपक्ष के दृष्टिकोण को स्पाष्ट करने का प्रयास करे तो समस्याओं का समाधान आपसी मेल मिलाप से निकल सकता है ।
अत: स्वतंत्र भारत के राजनीतिक नेतृत्व को इस दर्शन के आधार पर अन्तरराष्ट्रीय समस्याओं का समाधान प्राप्त करना सम्भव लगा । जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारत ने अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपने लिए यही भूमिका निश्चित की । इस सोच के अन्तर्गत भारत सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमरीका के विचारों में मिलन बिन्दु खोजने तथा उन्हें परस्पर वार्तालाप के लिए प्रेरित करने का प्रयास करता रहा ।
पूंजीवादी और साम्यवादी शक्तियों के बीच मध्यस्थता के लिए भारतीय नेताओ को देश के इतिहास तथा राजनीति ने अच्छी तरह तैयार कर रखा था । लम्बे समय तक ब्रिटेन का उपनिवेश रहने के कारण भारत का सामान्य नागरिक अपने को पूंजीवादी और साम्राज्यवादी शक्तियों के विरुद्ध तथा वामपंथी विचारधारा से सहानुभूति रखने वाला अनुभव करता था ।
परन्तु साथ ही ब्रिटिश शासन काल में हमारे नेताओ की शिक्षा दीक्षा तथा उनका राजनीतिक सामाजीकरण उदारवादी सामाजिक राजनीतिक मूल्यों के अनुरूप हुआ था अत: वे लोकतंत्र के प्रबल समर्थक थे । परिणामस्वरूप जहां पूंजीवाद बनाम समाजवाद का प्रश्न था स्वतंत्र भारत की सहानुभूति सोवियत संघ के साथ थी । गरीब देश के नागरिकों में समाजवाद के प्रति स्वाभाविक आकर्षण था । परन्तु सांस्कृतिक ओर लोकतांत्रिक मूल्यबोध के स्तर पर देश की सहानुभूति अमरीका के साथ थी ।
भौतिक स्तर पर स्वतंत्र भारत की तटस्थता की विदेश नीति हमारी आर्थिक और तकनीकी आवश्यकताओं से प्रेरित थी । ब्रिटिश शासन के अन्तिम चरण में भारत में औद्योगीकरण की नींव पड़ चुकी शी परन्तु सही अर्थो में यह केवल प्रतीकात्मक आरम्भ था ।
आर्थिक जीवन के सभी क्षेत्रों में देश अविकसित था तथा तैयार औद्योगिक उत्पादों के लिए विदेशी आयात पर निर्भर था । देश की आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था के विकास के लिए उसे विकसित देशों से हर सम्भव सहायता तथा तकनीकी ज्ञान और सहयोग की आवश्यकता थी । अत: सभी देशों से मैत्री सम्बन्ध बनाए रखना हमारे राष्ट्रीय हित में था । लम्बे समय तक परतंत्र रही जनता सब कुछ द्रुत गति से परिवर्तित होने तथा पृथ्वी पर स्वर्ग की स्थापना के स्वप्न देख रही थी ।
परिणामस्वरूप राजनेताओं पर सब कुछ शीघ्र कर दिखाने के लिए बहुत दबाव था । विश्व राजनीति के दोनो ध्रुवो से समान दूरी बनाए रखने का निर्णय दोनों ही गुटों से आवश्यक सहायता और सहयोग प्राप्त करने का प्रभावी तरीका था । इसके माध्यम से देश की आर्थिक और सामाजिक प्रगति तीव्रता से की जा सकती थी । एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह थी कि अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में जवाहर लाल नेहरू का स्थान शीर्षस्थ राजनीतिज्ञों में था ।
अत: स्वाभाविक था कि दो प्रमुख गुटों में किसी एक का सदस्य बनने पर अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में भारत और भारत के प्रधान मंत्री की भूमिका गौण हो जाती, जो कि जवाहर लाल नेहरू की अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा के अनुरूप न होने के कारण उन्हें स्वीकार्य नहीं था ।
अन्तरराष्ट्रीय राजनीतिक मंच पर नेहरू अपने लिए निश्चय ही महत्वपूर्ण भूमिका के इच्छूक थे, और विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र के कर्णधार होने के नाते वे उसके हकदार भी थे । तटस्थता की विदेश नीति उनके इस उददेश्य की प्राप्ति में सहायक थी ।
1950 के दशक में स्वतंत्र हुए अनेक राष्ट्रीय इकाइयों के लिए नेहरू एक परिचित नाम थे । साथ ही वे इस समूह के राज्यों के स्वाभाविक नेता भी थे । इन राज्यों के स्वतंत्रता संग्राम में नेहरू तथा महात्मा गांधी से प्राप्त प्रेरणा की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी ।
भारत की ही भांति ये राज्य भी अपने को विश्व स्तरीय राजनीतिक विग्रह से अलग रख कर अपने-अपने देश की आर्थिक सामाजिक समस्याओं पर ध्यान केन्द्रित करने, तथा अन्तरराष्ट्रीय मंचो पर अपनी समस्याओ को प्रस्तुत करने के लिए एक प्रभावपूर्ण नेता की खोज में थे ।
इन कारणों से जवाहर लाल नेहरू को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर एक तटस्थ मंच के निर्माण में सहायता मिली । अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर तटस्थ मंच का प्रारम्भ 1954 “पंचशील” के सिद्धान्त के प्रचार के साथ हुआ । जवाहर लाल नेहरू ने इसे अन्तरराष्ट्रीय कलह के समाधान के लिए सबसे सरल और प्रभावी सूत्र के रूप में पेश किया ।
तिब्बत की समस्या के समाधान हेतु भारत तथा चीन के बीच इसी आधार पर समझौता किया गया था । पंचशील का मूल मंत्र था कि सम्बद्ध राज्यों के आपसी झगड़ों का समाधान परस्पर समझौते के आधार पर सहअस्तित्व के माध्यम से निकाला जाना चाहिए ।
विश्व स्तर पर शांति स्थापित करने का यही एक मात्र प्रभावी तरीका हैं । इस प्रकार यह सिद्धान्त शीत युद्ध की इस आधारभूत मान्यता की अस्वीकृति पर खड़ा था कि स्थायी शांति के लिए पूंजीवादी और उदारवादी जनतांत्रिक शक्तियों को आपस में एक जुट होकर साम्यवादी शक्तियों के विरुद्ध एक सर्वशक्तिशाली सैन्य बल का निर्माण करना आवश्यक है ।
अगले तीन वर्षो में भारत ने अठारह भिन्न-भिन्न राज्यों के साथ पंचशील के आधार पर अलग-अलग समझौते कर लिए थे और 1957 में इस सिद्धान्त को संयुक्त राष्ट्र संघ का अनुमोदन प्राप्त हो गया था । भारत प्रारम्भ से ही विकासशील देशों के एक सम्मिलित मंच के निर्माण का पक्षधर था जिससे कि विश्व के देशों के बीच परस्पर सहयोग द्वारा सहअस्तित्व के मन्त्र को अधिक सशक्त आवाज मिल सके ।
1949 में इसी उद्देश्य से इण्डोनेशिया में हालैण्ड की सरकार की दमनकारी साम्राज्यवादी नीतियो के विरोध में विश्व के देशों का ध्यान आकर्षित करने के उददेश्य से पन्द्रह एशियाई देशों की सभा आयोजित की गई थी । अगले ही साल संयुक्त राष्ट्र में एक अलग अफ्रीकी-एशियाई संघ के निर्माण हेतु एक सभा आयोजित की गई । 1955 में 29 अफ्रीकी तथा एशियाई देशो के बांडुंग सम्मेलन के माध्यम से इस अभियान को और व्यापकता मिली ।
इस सभा में विकासशील देशों के अतिरिक्त संयुक्त राज्य अमरीका के समर्थक देश (जापान और फिलिपीन्स) तथा साम्यवादी गुट के प्रतिनिधि (चीन और उत्तरी वियतनाम) भी शामिल थे । अत: सही अर्थो में यह सभा तटस्थों का मंच नहीं थी । परन्तु तटस्थता के अभियान को इससे निश्चय ही बल मिला ।
इस दृष्टि से ”नान अलाइन्ड मूवमेण्ट” (तटस्थता अभियान) का वास्तविक शुभारम्भ 1961 कीं बेलग्राड कान्फरेंस के साथ ही हुआ । इस सभा के आयोजन के साथ नेहरू को मिश्र के राष्ट्रपति नासिर तथा यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति टीटो का भी समर्थन प्राप्त हो गया ।
स्वेज नहर के मसले पर ब्रिटेन के साथ छिड़े विवाद के कारण नासिर इस मंच की ओर आकृष्ट हुए थे, जबकि मार्शल टीटो इस मंच के माध्यम से पूर्वी यूरोप में सोवियत संघ से अलग अपनी स्वतंत्र विदेश नीति की स्थापना के इच्छूक थे जिससे कि वे अपने देश की शीत युद्ध से अलग रख सकें ।
यूगोस्लाविया की सदस्यता के साथ ही तटस्थ मंच पूर्णतया तटस्थ नहीं रह राका । इसके साथ ही सहअस्तित्व के साथ-साथ यह मंच सर्वत्र उपनिवेशवाद की समाप्ति का पक्षधर भी बन गया । बेलग्राद कांफरेंस के पूर्व ही यह निश्चित कर लिया गया था कि विश्व स्तर के दोनों ध्रुवों में से किसी के भी समर्थक इस सभा के सदस्य नहीं हो सकेंगे ।
इस आधार पर चीन और पाकिस्तान तटस्थ मंच से बाहर हो गए । कालान्तर में यह मंच विकासशील देशों का सामूहिक मंच बन गया और इसके माध्यम से अन्तरराष्ट्रीय स्तर उनकी समस्याओं को आवाज मिलने लगी । इस मंच के माध्यम से भारत को विश्व स्तर पर एक महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति के रूप में मान्यता प्राप्त हुई ।
भारत के प्रयासों के परिणामस्वरूप दक्षिण एशिया क्षेत्र शतियुद्ध के तनाव से अछूता बना रहा, इस तथ्य के होते हुए भी कि पाकिस्तान संयुक्त राज्य अमरीका का निकट सहयोगी था तथा अफगानिस्तान सोवियत प्रभाव में आ गया या ।
यही कारण है कि भूराजनीतिज्ञों ने दक्षिण एशिया को एक स्वतंत्र भूसामरिक क्षेत्र (जिओस्ट्रैटेजिक रीज़न) के रूप में पहचान दी है । भारत की तटस्थ विदेश नीति का सर्वप्रमुख कारक उसकी भौगोलिक स्थिति में निहित था ।
वीसवीं सदी की विश्व राजनीति प्रधानतया साम्राज्य विस्तार की राजनीति रही है । द्वितीय विश्व युद्ध के अन्त तक यह साम्राज्यवाद प्रधानतया उपनिवेशवादी अथवा क्षेत्रीय विस्तार का साम्राज्यवाद था जिसके अधीन प्रतिस्पर्धी शक्तियों का अन्तिम उद्देश्य यूरेशिया व्यापी साम्राज्य स्थापित करके उसके आधार पर विश्व साम्राज्य की स्थापना करना या ।
प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् मैकिंडर की “डिमोक्रटि आइडिल्स एण्ड रियैल्टी” के प्रकाशन के बाद से यह अवधारणा और भी स्पष्ट हो गई थी । बाद में स्पाइकमेन की परिधि प्रदेश सम्बन्धी अवधारणा तथा जार्ज केनान के नेतृत्व में ऐसी ही मान्यता के आधार पर संयुक्त राज्य अमरीका की विदेश नीति का सोवियत संघ के प्रभाव को रूस की भौगोलिक सीमाओं के अन्दर ही सीमित रखने (कंटेनमेण्ट) के उद्देश्य पर केन्द्रित हो जाने से हृदयस्थल बनाम परिधि प्रदेश पर आधारित द्विध्रुवीय शक्ति परीक्षण सम्बन्धी धारणा विश्व राजनीति का केन्द्र बन गई ।
परिणामस्वरूप सोवियत संघ तथा संयुक्त राज्य अमरीका दोनों ही यूरेशियाई परिधि प्रदेश के देशों को अपनी ओर आकृष्ट करने की होड़ में लग गाए । यह सिलिसिला दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के साथ ही प्रारम्भ हो गया था और साठ के दशक के अन्त तक चलता रहा ।
दोनों शक्ति ध्रुवों के परस्पर तनावपूर्ण सम्बन्धों में ठहराव आने के बाद इसमें निहित उग्रता काफी हद तक ठण्डी पड़ गई थी, परन्तु इस तनावपूर्ण अन्तरराष्ट्रीय स्थिति का अन्त सही अर्थो में सोवियत संघ के विघटन के बाद ही हुआ ।
हृदय स्थल और परिधि प्रदेश के समुद्र तटीय राज्यों के बीच का यह संघर्ष द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् यूरोपीय महाशक्तियों की सामरिक राजनीति का नेतृत्व संयुक्त राज्य अमरीका के पास आ जाने के कारण और भी प्रखर हो गया । इस संघर्ष के संदर्भ में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में भारत का महत्व बहुत बढ़ गया ।
देश की महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति के कारण सामरिक दृष्टि से भारत की भूमिका इस द्विध्रुवीय संघर्ष में निर्णायक महत्व की थी । अत: सोवियत संघ तथा संयुक्त राज्य अमरीका दोनों ही भारत को अपने पक्ष में रखने तथा उसे अपने विरोधी पक्ष के दायरे में जाने से रोकने के इच्छूक थे ।
चित्र 9.3 को देखने से स्पष्ट है कि हृदयस्थल को तीन तरफ से घेरे हुए परिधि प्रदेश में भारत की स्थिति किसी मेहराब की चाबी (की स्टोन) जैसी है जिसके ऊपर पूरे मेहराब का संतुलन निर्भर है । भारत के विशाल क्षेत्रीय आकार के अतिरिक्त दक्षिण एशिया क्षेत्र में उसका केन्द्रीय महत्च, उसकी विशाल जनसंख्या, उसको प्राप्त विकासशील देशों का नेतृत्व, तथा विश्व में सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में उसे प्राप्त गौरव पर आधारित था ।
अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति के कारण भारत दोनों ही शक्ति ध्रुवों के साथ अपने हितों के बारे में मोल-तोरन (बारगेन) करने की स्थिति में था । अपनी तटस्थ विदेश नीति के आधार पर दोनों पक्षों के साथ मैत्री भाव बना कर वह विश्वस्तरीय सैन्य संघर्ष के दायरे से अलग रह कर देश के विकास पर अधिक प्रभावपूर्ण ढंग से ध्यान केन्द्रित कर सकता था ।
भारत की भौगोलिक स्थिति का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू हिन्द महासागर के सन्दर्भ में उसकी केन्द्रीय स्थिति है । अन्ध और प्रशान्त महासागरों के विपरीत हिन्द महासागर अपेक्षाकृत एक बन्द जलाशय हें जो कि पश्चिम में अफ्रीका महाद्वीप के पूर्वी तट, पूर्व में दक्षिण पूर्वी एशिया तथा आस्ट्रेलिया के पश्चिमी तट, तथा उत्तर में दक्षिण एशियाई भूखण्ड से घिरा है । दक्षिण में यह सागर दक्षिण ध्रुवीय प्रदेश में खुलता है । इस स्थिति के कारण हिन्द महासागर का विश्वस्तरीय यातायात सम्बन्ध कुछ सुनिश्चित मार्गों द्वारा ही सम्भव है ।
ये मार्ग इस प्रकार हैं:
(1) स्वेज नहर, लाल सागर और भूमध्य सागर के रास्ते उत्तर अटलाण्टिक सागर को जाने वाला समुद्री मार्ग;
(2) दजला और फरात (टिग्रिस तथा युफटीज) नदियों की घाटी के रास्ते मेसोपोटामिया तथा मध्य यूरोप को जाने वाला स्थल मार्ग,
(3) सिंगापुर के रास्ते सुदूरपूर्व एशिया को जाने वाला समुद्री मार्ग;
(4) अफ्रीका महाद्वीप के दक्षिण से केप ऑफ गुड होप (उत्तम आशा अन्तरीप) के रास्ते दक्षिण अटलाण्टिक सागर से होते हुए यूरोप को जाने वाला मार्ग जिस रास्ते वास्को डा गामा भारत आया था, तथा
(5) आस्ट्रेलिया महाद्वीप के दक्षिणी तट से होते हुए दक्षिण अन्ध महासागर को जोड़ने वारना समुद्री मार्ग ।
हिन्द महासागर के इस बन्द जलाशयीय स्वरूप को गोवा के पुर्तगाली प्रशासक अफोंसो अल्बुर्कक ने बहुत पहले ही पहचान लिया था तथा उसने हिन्द महासागर पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिए ऊपर वर्णित विभिन्न प्रवेश द्वारों के नियंत्रण की योजना बनाई थी ।
भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवादी प्रसासन ने इसी नीति का अनुसरण करते हुए उपर्युक्त पांचों यातायात मार्गों पर नियंत्रण प्राप्त करके हिन्द महासागर को ब्रिटिश जलाशय (ब्रिटिश लेक) का रूप दे दिया । इस योजना में ब्रिटेन को भारतीय प्रायद्वीप के उत्तर-दक्षिण हिन्द महासागर के बीचों-बीच स्थित के कारण बहुत सुविधा हुई क्योंकि देश की इस स्थिति के परिणामस्वरूप भारत के लिए पश्चिम में अरब सागर तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी समेत पूरे महासागर के यातायात संचार पर नियंत्रण रखना सरल हो गया ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत से ब्रिटिश शासन की समाप्ति के साथ ही इस क्षेत्र की सामरिक और भूराजनीतिक स्थिति में बहुत बड़ा गुणात्मक परिवर्तन आया परन्तु भौगोलिक स्थिति जनित सामरिक तथा भूराजनीतिक लाभ भारत की प्राकृतिक धरोहर के रूप में विद्यमान रहा ।
इसके परिणामस्वरूप पूरे हिन्द महासागर क्षेत्र, अर्थात् पूर्वी अफ्रीका, दक्षिण पश्चिम एशिया, दक्षिणी एशिया, तथा दक्षिण पूर्वी एशिया की भूराजनीति में भारत लंबी अवधि से महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है । (चित्र 9.4 )
दोनों शक्ति ध्रुवों से समान दूरी बनाए रखने की नीति के होते हुए भी समय-समय पर ऐसा दिखाई पड़ता था कि व्यावहारिक स्तर पर भारत का झुकाव सोवियत संघ की ओर है । आलोचकों की दृष्टि में देश की विदेशनीति के तटस्थ होने का दावा इस आधार पर खोखला प्रतीत होता था ।
ध्यातव्य है कि अपनी सारी आदर्श मूलकता के होते हुए किसी भी देश की विदेश नीति का अन्तिम उद्देश्य अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करना तथा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर देश की मैत्री को दायरा बढ़ाना है । सोवियत संघ तथा वर्तमान रूस दोनों के साथ भारत की दीर्घ कालिक मैत्री को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए ।
हमारी विदेश नीति की रूस की ओर उन्मुख होने की विद्वानों ने अपनी-अपनी तरह से व्याख्या की है । कुछ लोग इसका कारण जवाहर लाल नेहरू की सामन्तवाद विरोधी रुझान बताते हैं । इस तक के समर्थन में स्पेन के राह युद्ध में नेहरू द्वारा क्रान्तिकारियों को दिए गए सहयोग का दृष्टांत प्रस्तुत किया गया है ।
यद्यपि ऐसे किसी प्रभाव को अस्वीकार नहीं किया जा सकता परन्तु ध्यान से देखा जाए तो हमारी विदेश नीति का यह झुकाव हमारी भूराजनीतिक विवशता थी । देश की यह मजबूरी तत्कालीन राजनीतिक भौगोलिक स्थिति तथा विश्व राजनीति के प्रारूप में निहित थी ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही भारत भूमि के राजनीतिक विभाजन के कारण भारत तथा पाकिस्तान के सम्बन्ध शत्रुतापूर्ण हो गए थे । वृहतर क्षेत्रीय भूराजनीतिक स्थिति के परिप्रेक्ष्य में यह शत्रु भाव धार्मिक आधार वाला बन सकता था क्योंकि पाकिस्तान ने अपने आप को एक मुस्लिम राज्य घोषित कर दिया था ।
धार्मिक विरोध पाकिस्तान की मूल राजनीतिक पहचान थी । अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण पाकिस्तान दक्षिण पश्चिम एशिया के इस्लाम मतावलम्बी क्षेत्र का अभिन्न अंग बन गया था । अत: धार्मिक आधार पर वह दक्षिण पश्चिम एशिया के देशों का समर्थन प्राप्त कर सकता था ।
अरब-इजराइली विवाद के कारण इस पूरे क्षेत्र में धर्म देशों की राष्ट्रीय पहचान मुख्य आधार बन गया था । दूसरी ओर 1949 के बाद भारत के उत्तर में साम्यवादी शक्तियों के नेतृत्व में चीन के एक सशक्त राष्ट्रीय राजनीतिक इकाई के रूप में संगठित हो जाने के बाद भारत की भूराजनीतिक स्थिति में बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया ।
भूराजनीतिक अन्तरदृष्टि वाले किसी भी विचारक को यह अच्छी तरह ज्ञात था कि उपनिवेशवाद को अंहिसात्मक और लोकतांत्रिक तरीके से समाप्त करने की दिशा में उसके प्रयासों के परिणामस्वरूप भारत को एशियाई स्तर पर जो प्रतिष्ठा तथा राजनीतिक नेतृत्व प्राप्त हुआ था वह दीर्घकालिक नहीं हो सकता था क्योंकि अपने देश की आन्तरिक स्थिति पर काबू पा लेने के बाद चीन के लिए यह नितान्त स्वाभाविक था कि वह एशिया में अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने का भरसक प्रयास करे ।
ऐसी स्थिति में भारत के साथ चीन के टकराव की सम्भावना बनी हुई थी, हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नारों तथा पंचशील समझौते के बावजूद भी । चीन के साथ सम्बन्ध बिगड़ने की स्थिति में यह स्वाभाविक था कि भविष्य में भारत को अन्य मित्र राष्ट्रों की सहायता की आवश्यकता पड़ेगी । इस दृष्टि से जहां संयुक्त राज्य अमरीका सात समुन्दर पार स्थित मात्र एक साधारण मित्र जैसा दिखाई देता था वहीं सोवियत रूस हमारी उत्तरी सीमा पर स्थित एक सर्वशक्ति सम्पन्न राष्ट्र था जो आवश्यकता पड़ने पर हमारे काम आ सकता था ।
इस सन्दर्भ में ध्यातव्य है कि इस तथ्य के होते हुए भी कि रूस तथा चीन दोनों ही साम्यवादी देश थे, तथा दोनो अन्तरराष्ट्रीय साम्यवाद के नाते परस्पर जुड़े थे, परन्तु प्रत्येक एक विशाल और शक्तिशाली देश था अत अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी विशालता के अनुरूप अपनी भूमिका के लिए लालायित होना प्रत्येक के लिए स्वाभाविक था ।
ऐसी स्थिति में ऐतिहासिक दृष्टि वाले किसी भी विचारक को स्पष्ट था कि कालान्तर में रूस और चीन के सम्बन्धो में दरार आना अवश्यम्भावी या । दोनों में से कोई भी लम्बी अवधि तक दूसरी की छत्र-छाया, तथा दूसरे दर्जे की स्थिति स्वीकार नहीं कर सकता था ।
साथ ही रूस तथा चीन के बीच हजारोंमील लम्बी स्थल सीमा थी जिस पर विवाद उठना भी अवश्यम्भावी था । इतिहास के एक मर्मज्ञ के नाते जवाहर लाल नेहरू को ये बातें भली प्रकार स्पष्ट थीं । अत: भारत की सोवियत रूस उन्मुख विदेश नीति में इस प्रकार के सम्भावित घटनाक्रम का बहुत बड़ा योगदान था ।
यदि हम इस सन्दर्भ में संयुक्त राज्य अमरीका द्वारा पाकिस्तान को दी गई सैन्य सहायता के प्रश्न को भी जोड़ दें तो यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाएगी कि भारत और रूस की मैत्री दोनों पक्षों के पृथक्-पृथक् और परस्पर भूराजनीतिक हितों से प्रेरित थी और पूरी समझबूझ के साथ किए गए समझौते का परिणाम थी ।
ध्यातव्य है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले का सामरिक चिन्तन मुख्यतया मैकिंडर की संकल्पना पर आधारित था । अर्थात् चिन्तन का मूल आधार पृथ्वी की सतह पर होने वाले स्थल और समुद्री यातायात पर आधारित सामरिक सम्भावनाओं पर निर्भर था ।
1950 के बाद इस स्थिति में आमूल परिवर्तन आ गया । अणुशस्त्रों के निर्माण के साथ युद्ध कौशल में यातायात संचार की गति का महत्व निर्णायक हो गया । फलस्वरूप अब सामरिक आकलन स्थल तथा समुद्री यातायात के स्थान पर वायु यातायात पर निर्भर ना गया । अर्थात् सामरिक चिन्तन में मैकिंडर और स्पाइकमेन के स्थान पर डी सेवेरस्काई (1952) के विचार अधिक महत्वपूर्ण हो गए ।
डी सेवेरस्काई के अनुसार वायु युग में सोवियत संघ तथा संयुक्त राज्य अमरीका आर्कटिक सागर के आर-पार एक दूसरे के आमने-सामने खड़े हो गए थे । परिणामस्वरूप सामरिक दृष्टि से सम्पूर्ण पृथ्वी इन दोनों शक्ति ध्रुवों के परस्पर प्रतिस्पर्धापूर्ण वायु संचार प्रभाव वाले क्षेत्रों में विभक्त हो गई थी ।
उत्तरी ध्रुव पर केन्द्रित समान दूरी वाले ऐजीमुथल प्रक्षेप पर दोनों देशों के वायु प्रभाव क्षेत्रों को डी सेवेरस्काई ने उनके औद्योगिक हृदय स्थलों पर परस्पर केन्द्रित दो अलग-अलग वृत्तों के माध्यम से प्रदर्शित किया (देखिए चित्र 7.8 ) ।
ये दोनों वृत्त उत्तरी अमरीका के अधिकांश भाग, सष्प्री यूरोप, दक्षिणी पश्चिमी एशिया, उत्तरी अफ्रीका, तथा उत्तरी और मध्य तथा पूर्व एशिया के अनेक क्षेत्रों पर एक दूसरे का अधिच्छादन करते थे । इस मानचित्र के अनुसार मध्य तथा दक्षिणी अमरीका पूरी तरह संयुक्त राज्य अमरीका के प्रभाव में थे । इसी प्रकार दक्षिण एशिया पूरी तरह सोवियत रूस के वायु प्रभाव क्षेत्र में स्थित था । दोनों देशों के वायु प्रभाव क्षेत्रों को दर्शाने वाले वृत्तों के परस्पर अधिच्छादित क्षेत्र को डी सेवेरस्काई ने ”निर्णय का क्षेत्र” कहा ।
लेखक के विचार में वायु युग में दोनों महाशक्तियों के बीच कोई भी निर्णायक सैन्य संघर्ष इसी क्षेत्र में सम्भव था । अत: डी सेवेरस्काई के मतानुसार संयुक्त्त राज्य अमरीका को अपना सारा ध्यान इसी अधिच्छादित प्रदेश की सुरक्षा पर केन्दित करना चाहिए क्योंकि शेष क्षेत्र उसके लिए निर्णायक सामरिक महत्व के नहीं हैं ।
अभी तक भारतीय विदेश नीति के अध्येताओं का ध्यान हमारी रूस उन्मुख विदेश नीति के इस पक्ष की ओर नहीं गया है, परन्तु इन पंक्तियों के लेखक का विश्वास है कि उस समय अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सामरिक चिन्तन के अध्येताओं में वहुचर्चित डी सेवेरस्काई की यह पुस्तक हमारे नीति निर्धारकों की दृष्टि में निश्चय ही आई होगी ।