यदि मैं थानेदार होता । “If I were the Police Officer” in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. थानेदार के पद का उत्तरदायित्व ।
3. इस पद की चुनौतियां ।
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4. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन की सार्थकता हेतु कुछ-न-कुछ लक्ष्य निर्धारित करता है । इस लक्ष्य की पूर्ति द्वारा वह न केवल अपनी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा को पूर्ण करना चाहता है, अपितु समाज तथा देश के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए उसकी सेवा में जीवन खपाना चाहता है ।
जीवन के विविध क्षेत्र उसकी महत्त्वाकांक्षा, योग्यता, प्रतिभा, क्षमता को प्रदर्शित करने हेतु अवसर प्रदान करते हैं, जिनमें शिक्षा, व्यवसाय, खेल, मनोरंजन, रक्षा, सुरक्षा से लेकर राजनीति भी शामिल है । जहां तक कानून के माध्यम से जनसेवा का प्रश्न है, उस क्षेत्र में पुलिस विभाग का अपना विशेष महत्त्व है । चाहे शहर हो या गांव, कस्बा हो या महानगर, अपराध हर जगह होते हैं ।
इन अपराधों पर नियन्त्रण रखते हुए अपराधियों की धरपकड़ का काम पुलिस का ही होता है । बड़े शहरों में तो थाने और छोटे स्थानों पर पुलिस चौकियां रहती हैं, जो अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करती हैं ।
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2. थानेदार के पद का उत्तरदायित्व:
जहां तक थानेदार के पद की बात है, यह बड़े ही उत्तरदायित्व का पद है; क्योंकि उसके अधीनस्थ अन्य कर्मचारी भी उसके आदेशों का पालन करते हुए शान्ति और सुरक्षा व्यवस्था बनाये रखने में नागरिकों की मदद करते हैं । ‘यथा राजा तथा प्रजा’ इस उक्ति के अनुसार जैसा थानेदार होगा, वैसे ही वहां की कानून व्यवस्था होगी ।
एक थानेदार के पद पर रहते हुए मैं सर्वप्रथम प्रत्येक परिस्थितियों में कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए तत्पर रहता । प्रत्येक परिस्थिति में कानून का प्रयोग किस तरह से हो, उन नियमों की पूर्ण जानकारी रखता ।
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किसी भी अपराधिक तत्त्वों से पीड़ित नागरिक की प्रथम प्राथमिकी रिपोर्ट दर्ज करवाने में किसी प्रकार की को ताही नहीं बरतने देता । किसी भी प्रकार की घटना हो या दुर्घटना, उससे सम्बन्धित तथ्यों की सचाई तक तथा घटना की तह तक पहुंचता ।
किसी भी निर्णय पर पहुंचने से पूर्व आरोपी और प्रत्यारोपी के कथनों की बिना किसी पूर्वाग्रह के निष्पक्ष जांच करता । घटना के सम्बन्ध में किसी, भी प्रकार की कार्रवाई में शिथिलता या देरी का अवसर नहीं देता ।
चाहे व्यक्ति कितना भी प्रभावशाली या पहुंच तथा पैसेवाला क्यों न हो, मेरी दृष्टि में सभी को बराबर रखते हुए उचित न्यायपूर्वक शीघ्र कार्रवाई करता । मेरे कर्तव्य पालन के मार्ग में यदि कोई किसी प्रकार की बाधा उपस्थित करता, तो मैं उसका साहसपूर्वक सामना करता ।
किसी भी प्रकार की कार्रवाई में मैं मानवीय संवेदना का पूरी तरह से ध्यान रखता । कितनी भी आक्रोशित भीड़ क्यों न हो, मैं सर्वप्रथम अहिंसक, शान्तिपूर्ण उपाय काम में लाता । मैं यह समझता कि पुलिस और जनता के बीच किसो प्रकार की कोई दूरी नहीं होनी चाहिए । जन आन्दोलन को लाठी चार्ज जैसे कठोर तरीकों से दबाने की कोशिश नहीं करता ।
वर्तमान में दूषित, भ्रष्ट राजनीति के कारण गुण्डा तत्त्व के हौंसले, जो बुलन्द दिखाई देते हैं, मैं ऐसे तत्त्वों से भयभीत हुए बिना कार्य करता । जनता के मन में पुलिस के प्रति जो खौफ है, आतंक है, उसको दूर करने की कोशिश करता ।
अपहरणकर्ता हो या फिर चोर, बलात्कारी हो या हत्यारा उनके लिए न्याय व्यवस्था के अनुसार निर्धारित दण्ड प्रक्रिया लागू करवाने का प्रयास करता । किसी को झूठमूठ के आरोप में फंसाकर अनुचित दण्ड भुगतने का अवसर न देता ।
जहां तक मेरे थाने की सीमा या परिधि का सवाल है, मैं अपने क्षेत्र में पूर्णत: कानून व्यवस्था बनाये रखकर आपराधिक गतिविधियों पर पूर्णत: अंकुश लगाये रखने करने का ईमानदार प्रयत्न करता । माना कि पुलिस की बहुत-सी विवशताएं हैं, तथापि इन विविशताओं के बीच रहकर भी मैं अपने उत्तरदायित्व का कर्तव्यनिष्ठा से पालन करता ।
3. इस पद की चुनौतियां:
इस पद पर रहते हुए बहुत-से राजनैतिक दबाव के साथ-साथ कई प्रकार के दबावों और चुनौतियों का सामना करना पड़ता है । हालांकि जनता पुलिस का नाम सुनते ही डर से कांपने लगती है । इसका कारण पुलिस की खौफनाक, भ्रष्ट छवि है ।
कई तथाकथित पुलिस अधिकारी चोर, स्मगलरों, डाकुओं, गुण्डों, आपराधिक छवि वाले नेताओं से सांठगांठ करके अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं और पुलिस विभाग को बदनाम करते हैं । पुलिसवालों का नाम रिश्वतखोरी से लेकर अपहरण, बलात्कार तथा जघन्य अपराधों में भी बदनाम है ।
आये दिन समाचार-पत्रों, टेलीविजन तथा संचार मीडिया के माध्यम से पुलिस की वहशीयाना कार्रवाई व हरकतों की लोमहर्षक, अमानवीय, वीभत्स खबरें सुनने व देखने को मिलती है, जिससे यह साबित होता है कि सैंया भये कोतवाल तो डर काहेका ।
कुछ तो यह कहते है कि पुलिसवालों से न तो दोस्ती भली न उनकी दुश्मनी भली । पुलिस के पचड़े में कौन पड़े ? क्योंकि ये परेशानी के सिवा कुछ नहीं देते । रक्षक ही भक्षक होते हैं । ऐसी बातें पुलिसवालों के बारे में अकसर दोहराई जाती हैं ।
यह भी कहा जाता है कि भारतवर्ष की पुलिस विश्व की सबसे अधिक भ्रष्ट और अप्रशिक्षित पुलिस है, जो मानवीय संवेदनाओं को ध्यान में रखकर कार्य नहीं करती । भय और आतंक से कार्य करती है । पुलिस की वर्दी देखकर ही लोग भयग्रस्त हो जाते हैं ।
उनके साथ सहयोग भी नहीं करना चाहते; क्योंकि उनकी नीयत पर भी किसी को भरोसा नहीं रह गया । कुछ लोग तो यह कहते हैं कि हम तो ब्रिटिशकालीन पुलिस व कानून व्यवस्था को वर्तमान पुलिस व्यवस्था से बेहतर पाते हैं ।
4. उपसंहार:
यदि मैं पुलिस अधिकारी होता, तो मैं मानवीय संवेदनाओं तथा मानव के आत्मसम्मान की कभी अवहेलना नहीं करता । अपने पद के उत्तरदायित्व का पूरी निष्ठा, ईमानदारी से पालन करता । किसी भी प्रकार के प्रलोभन, दबाव से रहित होकर अपने आदर्शो के साथ समझौता न करते हुए मैं कम-से-कम अपने क्षेत्र में कानून व्यवस्था बनाये रखता । प्रत्येक नागरिक को शान्ति व सुरक्षा ही प्रदान करता और यह विश्वास दिलाता कि पुलिस जनता की मित्र है, शत्रु नहीं । रक्षक है, भक्षक नहीं । सेवा के लिए है न कि उन्हें बेवजह सजा देने के लिए ।